Wednesday 19 February 2014

मेरे साथ दो तरह के लोग प्रेम में पड़ते हैं; Osho

भगवान! संन्यास लेने के बाद बहुत मिला-प्रेम, जीने का ढंग…! धन्यभागी हूं। परंतु कभी -कभी काफी घृणा से भर जाता हूं आपके प्रति-इतना कि गोली मार दूं। यह क्या है प्रभु, कुछ समझ नहीं आता!


‘आनंद सत्यार्थी!

जहां प्रेम है -साधारण प्रेम-वहां छिपी हुई घृणा भी होती है। उस प्रेम का दूसरा पहलू है घृणा। जहां आदर है-साधारण आदर-वहां एक छिपा हुआ पहलू है अनादर का।

जीवन की प्रत्येक सामान्य भावदशा अपने से विपरीत भावदशा को साथ ही लिए रहती है। तुमने अभी जो प्रेम जाना है, बड़ा साधारण प्रेम है, बड़ा सासारिक प्रेम है। इसलिए घृणा से मुक्ति नहीं हो पायेगी। अभी तुम्हें प्रेम का एक और नया आकाश देखना है, एक और नयी सुबह, एक और नये प्रेम का कमल खिलाना है! वैसा प्रेम ध्यान के बाद ही संभव होगा।

मेरे साथ दो तरह के लोग प्रेम में पड़ते हैं। एक तो वे, जिन्हें मेरी बातें भली लगती हैं, मेरी बातें प्रीतिकर लगती हैं। और कौन जाने मेरी बातें प्रीतिकर गलत कारणों से लगती हों! समझा कोई शराबी यहां आ जाये और और मैं कहता हूं : मुझे सब स्वीकार है, मेरे मन में किसी की निंदा नहीं है। अब इस शराबी की सभी ने निंदा की है। जहां गया वही गाली खायी हैं। जो मिला उसी ने समझाया है। जो मिला उसी ने इसको सलाह दी है कि बंद करो यह शराब पीना। मेरी बात सुनकर, मुझे सब स्वीकार है, शराबी को बड़ा अच्छा लगता है; जैसे किसी ने उसकी पीठ थपथपा दी! उसे मेरे प्रति प्रेम पैदा होता है। यह प्रेम बड़े गलत कारण से हो रहा है। यह प्रेम इसलिए पैदा हो रहा है कि उसके अहंकार को जाने – अनजाने पुष्टि का एक वातावरण मिल रहा है। यह प्रेम मेरी बात को समझकर नहीं हो रहा है। इस बात का वह आदमी अपने ही व्यक्तित्व को मजबूत कर लेने के लिए उपयोग कर रहा है। तो प्रेम हो जायेगा। लेकिन इस प्रेम में पीछे घृणा छिपी रहेगी।

तुम्हारे जीवन में प्रेम की कमी है। न तुम्हें किसी ने प्रेम दिया है, न किसी ने तुमसे प्रेम लिया है। और जब मैं तुम्हें पूरे हृदय से स्वीकार करता हूं तो तुम्हारा दमित प्रेम उभर कर ऊपर आ जाता है। लेकिन यह प्रेम अपने पीछे घृणा को छिपाए हुए है। और ध्यान रखना, जैसे दिन के पीछे रात है और रात के पीछे दिन है, ऐसे ही प्रेम के पीछे घृणा है। तो कई बार प्रेम समाप्त हो जायेगा, तुम एकदम घृणा से भर जाओगे। बेबूझ घृणा से! और तुम्हें समझ में ही नहीं आयेगा कि इतना तुम प्रेम करते हो, फिर यह घृणा क्यों! घृणा इसीलिए है कि वह जो तुम प्रेम करते हो अभी ध्यान से पैदा होता है। ध्यान से जब प्रेम गुजरता है तो सोने में जो कूड़ा- कचरा है वह सब जल जाता है- ध्यान की अग्नि में। और ध्यान की अग्नि से जब गुजरता है प्रेम तो कुंदन हो कर प्रगट होता है। फिर उसमें कोई घृणा नहीं होती। फिर एक समादर है जिसमें कोई अनादर नहीं होता। नहीं तो समादर करने वालों को अनादर करने मैं देर नहीं लगती। वे ही लोग फूलमालायें पहनाते हैं, वे ही लोग गालियां देने लगते हैं। वे ही लोग चरण छूते हैं, वे ही लोग फूलमालायें पहनाते हैं, वे ही लोग गालियां देने लगते हैं। वे ही लोग चरण छूते हैं, वे ही लोग गर्दन काटने को तैयार हो जाते हैं।

ऐसी ही तुम्हारी दशा है, आनंद सत्यार्थी। तुम कहते हो : ‘कभी घृणा से भर जाता हूं इतना कि गोली मार दूं। ‘ स्वभावत:, इसके पीछे एक और कारण है, वह भी समझ लेना चाहिए, वह सबके उपयोग का है। संन्यास से जो भी तुम्हें मिलेगा वह इतना ज्यादा है कि तुम उसका मूल्य न चुका सकोगे। संन्यास से तुम्हें जो भी मिलेगा वह इतना ज्यादा है कि तुम्हारे सब धन्यवाद छोटे पड़ जायेंगे। और तब तुम मुझे क्षमा न कर पाओगे। तुम्हें जरा बेबूझ बात मालूम पड़ेगी। जो व्यक्ति हमें कुछ दे, हम उसके सामने छोटे हो जोते हैं। अगर हम उसे कुछ लौटा सकें प्रत्युत्तर में तो हम फिर समतुल हो जाते हैं। लेकिन अगर ऐसी कोई चीज दी जाये कि उसके उत्तर में हम कुछ भी न लौटा सकें, ऋण को चुकाने का उपाय ही न हो, तो फिर हम ऐसे व्यक्ति को कभी क्षमा नहीं कर पाते, माफ नहीं कर पाते।

मेरे एक परिचित हैं, बड़े धनपति हैं। एक बार मेरे साथ ट्रेन में सफर किया। कभी मुझे कहा नहीं था, लेकिन ट्रेन में अकेले ही थे साथ मेरे। बात होते -होते बात में से बात निकल आई। उन्होंने कहा कि आज पूछने का साहस करता हूं। मेरी जिंदगी में एक दुर्घटना अमावस की तरह छाई हुई है। और दुर्घटना यह है कि मैंने अपने सारे रिश्तेदारों को, मित्रों को, सबका इतना दिया कि आज मेरे सब रिश्तेदार धनी हैं, सब मित्र धनी हैं, सब परिचित धनी है। ( धन उनके पास काफी है। और उन्होंने जरूर दिल खोल कर दिया है। ) मगर कोई भी मुझसे प्रसन्न नहीं! उल्टे वे सब मुझसे नाराज हैं। उल्टे वे मुझे बर्दाश्त ही नहीं कर सकते। यह मेरी समझ में नहीं आता कि मैंने इतना किया, सबके लिए किया।

… और यह सच है। मैं उनके रिश्तेदारों को जानता हूं; जो भिखमंगे थे, आज अमीन हैं। मैं उनके मित्रों को जानता हूं; जिनके पास कुछ नहीं था, आज सब कुछ है। यह बात सच है। इस बात में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं कि उन्होंने बहुत दिया है और देने में उन्होंने जरा भी कृपणता नहीं की है। उनके हाथ बड़े मुक्त हैं। मुक्त – भाव से दिया है। तो स्वभावत: उनका प्रश्न सार्थक है कि मुझसे लोग नाराज क्यों हैं?

मैंने कहा कि आप को समझ में नहीं आता, लेकिन मैं एक बात पूछता हूं र उससे बात स्पष्ट हो जायेगी। आपने इन मित्रों को, परिजनों को, परिवार वालों को उत्तर में कुछ आपके लिए करने दिया है कभी? उन्होंने कहा कि नहीं, कोई जरूरत ही नहीं। मेरे पास सब है। और अगर कभी कोई कुछ करना भी चाहा है तो मैंने इनकार किया है कि क्या फायदा! मेरे पास बहुत है। तो मैंने किसी से कोई प्रत्युत्तर में तो लिया नहीं।

बस मैंने कहा : बात साफ हो गई, क्यों वे नाराज हैं। वे आपको क्षमा नहीं कर पा रहे। वे आपको कभी क्षमा नहीं कर पायेंगे। आप ने उनको नीचा दिखाया है। उनके भीतर ग्लानि है। वे जानते हैं कि आप ऊपर हैं, दानी हैं, दाता हैं और हम भिखमंगे हैं। भिखमंगे कभी दाताओं को क्षमा नहीं कर सकते।

आप एक काम करो। उनसे मैंने कहा : छोटे -छोटे काम उनको भी आप के लिए करने दो। मुझे पता है आपको कोई जरूरत नहीं, मगर छोटे -छोटे काम…। आप बीमार हो, कोई एक गुलाब का फूल ले आये, तो ले आने दो और गुलाब का फूल लेकर अनुग्रह मानो। कभी किसी मित्र को कह दिया कि भाई यह काम तुमसे ही हो सकेगा, यह मुझसे नहीं हो पा रहा, तुम्हीं निपटाओ। जरा मौका दो उन्हें कुछ करने का। छोटे -छोटे मौके। जरूर मुझे पता है कि आपको कुछ भी नहीं, आप सारे अपने काम खुद ही कर ले सकते हैं। लेकिन अगर उनको थोड़ा कुछ करने का आप मौका दे सको तो वे आपको धीरे – धीरे क्षमा करने में समर्थ हो पायेंगे। उनको लगेगा : हम ने लिया ही नहीं, दिया भी! उनको लगेगा : हम नीचे ही नहीं हैं, समतुल हो गये।

मगर यह उनके अहंकार के विपरीत है। यह वे नहीं कर पाये। दो वर्ष वाद जब मैंने उनसे पूछा, उन्होंने कहा : मुझे क्षमा करें! मैं किसी से ले नहीं सकता। गुलाब का फूल भी नहीं ले सकता! यह मेरी जीवन-प्रक्रिया के विपरीत है। मैं यह बात मान ही नहीं सकता कि मैं और किसी से लूं। मैंने देना ही जाना है, लेना नहीं।

फिर मैंने कहा कि जिनको आपने दिया है वे आपके दुश्मन रहेंगे।



आनंद सत्यार्थी! यही कठिनाई यहां है : इसलिए नहीं कि मैं तुमसे कुछ लेने में संकोच करूं। इसलिए नहीं कि मेरा कोई अहंकार है। मगर यह जो देना है यह ऐसा है कि इसका लौटाना हो ही नहीं सकता। मैं तो सब उपाय करता हूं छोटे -छोटे करता हूं जो भी मुझसे बन सकता है वह उपाय करता हूं। छोटे -छोटे काम लोगों को दे देता हूं। कोई जा रहा है अमेरिका, उसको कह देता हूं : एक कलम मेरे लिए खरीद लाना, कि एक पौधा मेरे बगीचे के लिए ले आना। ऐसे मेरे बगीचे में जगह नहीं है। और कलमें इतनी इकट्ठी हो गई हैं कि विवेक मुझसे बार -बार पूछती है, इनका करियेगा क्या? उसको सम्हालना पड़ता है, साफ-सुथरा रखना पड़ता है। और जब फिर कोई जाने लगता है और मैं कहता हूं कि मेरे लिए एक कलम ले आना, तो उसकी समझ के बाहर है कि यह जरूरत क्या है?

जरूरत केवल इतनी है कि मैं तुम्हें एक मौका देना चाहता हूं कि कुछ तुमने मेरे लिए किया।

अभी मैं जल्दी नहीं चाहता कि कोई मुझे गोली मार दे। बाद में मार देगा। जरा ठहरो, थोड़ा काम हो जाने दो। वह तो आखिरी पुरस्कार है। लेकिन अभी तो काम शुरू ही शुरू हुआ। अभी जरा सम्हालना। आनंद सत्यार्थी, गोली वगैरह रखना तैयार, मगर सम्हालना। थोड़ा काम व्यवस्थित हो जाने दो। थोड़े संन्यास का यह रंग छितर जाने दो पृथ्वी पर!

हां कोई -न-कोई गोली मारेगा। और संभावना यही है कि कोई संन्यासी ही गोली मारेगा-जिसके बिलकुल बर्दाश्त के बाहर हो जायेगा, जो सह न सकेगा; जिसको इतना मिलेगा कि उत्तर देने का उसके पास कोई उपाय न रह जायेगा। आखिर जीसस को जुदास ने बेचा-तीस रुपये में! और जुदास जीसस का सबसे बड़ा शिष्य था, सबसे प्रमुख था। उसने ही जीसस को मरवाया। उसने ही सूली लगवायी। और देवदत्त ने बुद्ध को मारने बहुत चेष्टाएं कीं- और देवदत्त बुद्ध का भाई था, अग्रणी शिष्य था।

यह सब स्वाभाविक है। इसके पीछे एक जीवन का गणित है। गणित यह है कि तुम इतने दब जाते हो ऋण से कि तुम करो क्या, गोली न मारो तो करो क्या!?

मगर अभी नहीं, पर। रुको। ठीक समय पर मैं खुद ही तुमसे कह दूंगा : सत्यार्थी, कहां है गोली?

साधारण प्रेम का यही रूपांतरण होने वाला है। हर साधारण प्रेम घृणा में बदल जायेगा। इसलिए अगर सच मैं ही तुम चाहते हो कि मेरे प्रति तुम्हारे मन में कोई घृणा न रह जाये तो तुम्हें ध्यान से गुजरना होगा। ध्यान शुद्धि की प्रक्रिया है-प्रेम को शुद्ध करने का आयोजन है, रसायन है।

यहां कुछ लोग हैं जो मुझे प्रेम करते हैं मगर ध्यान नहीं करते। वे कहते हैं : हमें तो आपसे प्रेम है, अब ध्यान की क्या जरूरत? उनका प्रेम खतरनाक है। उनका प्रेम कभी भी मंहगा पड़ सकता है। क्योंकि घृणा इकट्ठी होती जायेगी। ध्यान से घृणा को धोते चलो ताकि प्रेम निखरता चले। तो एक दिन जरूर ऐसे प्रेम का जन्म होता है, जिसके विपरीत तुम्हारे भीतर कुछ भी नहीं होता। उस प्रेम को अनुभव कर लेना अमृत को अनुभव करना है।

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