Wednesday 19 February 2014

शारीरिक कष्ट अध्यात्म और अध्यात्मिक ; Osho

(मा आनंद मधु ने खड़े होकर एक प्रश्न पूछा।) 

प्रश्न: जिसके पास ज्यादा समय हो, वह यह बीमारी को ले सकता है कि नहीं? ले सकता है तो उपाय क्या?



नहीं, कोई उपाय नहीं, और लिया भी नहीं जा सकता। क्योंकि बीमारी लेने का तो मतलब यह होगा कि मेरे किए हुए का फल किसी दूसरे को मिल सकता है। तो सारी अव्यवस्था हो जाएगी। और अगर मेरे किए का फल दूसरे को मिल सकता है, तो इस जगत में फिर कोई नियम, कोई ऋत नहीं रह जाएगा। तब तो मेरी स्वतंत्रता भी किसी को मिल सकती है और मेरी जीवन्मुक्ति भी किसी को मिल सकती है। मेरा दुख, मेरा सुख, मेरा ज्ञान, मेरा अनुभव, मेरा आनंद, फिर तो कोई भी चीज ट्रांसफरेबल हो जाती है, हस्तांतरित हो जाती है।



नहीं, इस जगत में कोई भी चीज हस्तांतरित नहीं होती। होने का कोई उपाय नहीं है। कोई उपाय नहीं है। और उचित है कि उपाय नहीं है। हां, मन में ऐसा भाव पैदा होता है; वह भी उचित है और शुभ है। रमण को कोई प्रेम करने वाला चाह सकता है कि कैंसर आपका मैं ले लूं। यह चाह सुखद है। और इस चाह से इस व्यक्ति को पुण्य का फल मिलेगा। यह कर्म हो गया इसकी तरफ से।

समझ लें इसको। रमण मर रहे हैं और कैंसर है। कोई कह सकता है कि कैंसर मुझे मिल जाए, पूरे भाव से। तो भी मिल नहीं जाएगा। लेकिन इसने यह भाव किया है इतना, अपने ऊपर लेने का; यह कर्म हो गया; यह एक पुण्य हो गया। और इसका सुख इसे मिलेगा।



यह बड़ी अजीब बात है: मांगा था दुख, लेकिन दुख मांगने वाला एक अदभुत पुण्य कर्म कर रहा है। इसे इसका सुख मिलेगा। लेकिन रमण से इसकी तरफ कुछ भी नहीं आ सकता। यह जो कर रहा है भाव, यह इसका ही कर्म बन रहा है। यह कर्म इसे लाभ देगा। 

रमण को मरते समय कैंसर हो गया। बड़ी पीड़ा थी। कैंसर की पीड़ा स्वाभाविक थी। नासूर था गहरा, और बचने का कोई उपाय न था। बहुत डाक्टर आते, रमण को देखते तो बड़े हैरान होते; क्योंकि सारा शरीर पीड़ा से जर्जर हो रहा था, पर आंखों में कहीं कोई पीड़ा की झलक न थी। आंखों में तो वही शांत झील थी, जो सदा से थी। आंखों से तो साक्षी ही जागता था; वही देखता था, वही झांकता था।

डाक्टर कहते कि आपको बहुत पीड़ा हो रही होगी? तो रमण कहते, पीड़ा तो बहुत हो रही है, लेकिन मुझे नहीं हो रही। पीड़ा तो बहुत हो रही है, लेकिन मुझे नहीं हो रही, मुझे सिर्फ पता चल रहा है कि पीड़ा हो रही है। शरीर पर बड़ी पीड़ा हो रही है, मुझे सिर्फ पता चल रहा है। मैं देख रहा हूं; मुझे नहीं हो रही।

बहुत लोगों के मन में सवाल उठता है कि रमण जैसा ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति, जीवन्मुक्त, उसको कैंसर क्यों हो गया?



इस सूत्र में उसका उत्तर है। जीवन्मुक्त को भी सुख-दुख आते रहेंगे, क्योंकि सुख-दुखों का संबंध उसके पिछले कर्मों से है, संस्कारों से है। उसने जो किया है, जागने के पहले उसने जो किया है...।

समझ लें कि जागने के पहले, और मैंने बीज बो दिए हैं अपने खेत में। तो मैं जाग जाऊं, वे बीज तो फूटेंगे और अंकुर बनेंगे। सोया रहता तो भी अंकुर बनते, फूलते, फल लगते। अब भी अंकुर बनेंगे, फूलेंगे, फल लगेंगे। एक ही फर्क पड़ेगा: सोया रहता, तो सोचता मेरी फसल है और छाती से संभाल कर रखता। अब जाग गया हूं, तो समझूंगा जो बीज बोए थे, वे अपनी नियति को उपलब्ध हो रहे हैं, मेरा इसमें कुछ भी नहीं है; देखता रहूंगा। अगर सोया रहता, तो इस फसल को काटता और बीजों को संभाल कर रखता, ताकि अगले वर्ष फिर बो सकूं। जाग गया हूं, इसलिए देखता रहूंगा; बीज फूटेंगे, अंकुरित होंगे, फल लगेंगे, अब मैं उन्हें इकट्ठा नहीं करूंगा। वे फल लगेंगे और वहीं से गिर जाएंगे और नष्ट हो जाएंगे; मेरा उनसे संबंध टूट जाएगा। मेरा संबंध उनसे बोने का था, अब मैं उन्हें दुबारा नहीं बोऊंगा। मुझसे उनका आगे कोई संबंध नहीं बनेगा।

तो जीवन्मुक्त को भी सुख-दुख आते रहेंगे। पर जीवन्मुक्त जानेगा कि यह पिछले कर्मों की शृंखला का हिस्सा है, मेरा कुछ लेन-देन नहीं। वह देखता रहेगा। जब रमण को कोई चरणों में जाकर फूल चढ़ा आता है, तब भी वे बैठे देखते रहते हैं कि किसी पिछली कर्म-शृंखला का हिस्सा होगा कि यह आदमी मुझे सुख देने आया है। मगर वे सुख लेते नहीं; यह आदमी देता है, वे लेते नहीं। अगर वे ले लें, तो नए कर्म की यात्रा शुरू हो जाती है। इसे वे रोकते भी नहीं कि तू मत दे--ये फूल मत चढ़ा, ये पैर मत छू--वे रोकते भी नहीं; क्योंकि रोकना भी कर्म है और फिर शृंखला शुरू हो जाती है।

इसे थोड़ा समझ लें। यह आदमी फूल रखने आया है; यह एक हार गले में डाल गया है; इसने चरणों पर सिर रख दिया है; रमण बैठे क्या कर रहे होंगे भीतर? वे देख रहे हैं कि इस आदमी से कुछ लेन-देन होगा, कोई प्रारब्ध कर्म होगा; यह अपना पूरा कर रहा है। लेकिन अब सौदा पूरा कर लेना है, अब आगे सिलसिला नहीं करना है। यह बात यहीं समाप्त हो गई, अब इसमें से आगे कुछ नहीं निकालना है। तो वे बैठे रहेंगे, वे यह भी नहीं कहेंगे कि मत कर। क्योंकि मत करने का मतलब क्या होता है? इसका मतलब होता है, एक तो आप अपना पिछला किया हुआ लेने को राजी नहीं हैं, जो कि लेना ही पड़ेगा। और दूसरा उसका मतलब यह हुआ कि अब इस आदमी से आप एक और संबंध जोड़ रहे हैं इसे रोक कर, कि मत कर। यह संबंध कब पूरा होगा? एक नया कर्म कर रहे हैं, आप एक प्रतिक्रिया कर रहे हैं।

न, रमण देखते रहेंगे; चाहे आदमी फूल लेकर आए, और चाहे कैंसर आ जाए। तो वे कैंसर को भी देखते रहेंगे।

रामकृष्ण भी मरते वक्त कैंसर से मरे। गले का कैंसर था। पानी भी भीतर जाना मुश्किल हो गया, भोजन भी जाना मुश्किल हो गया। तो विवेकानंद ने एक दिन रामकृष्ण को कहा कि आप, आप कह क्यों नहीं देते काली को, मां को? एक क्षण की बात है, आप कह दें, और गला ठीक हो जाएगा! तो रामकृष्ण हंसते, कुछ बोलते नहीं। एक दिन बहुत आग्रह किया तो रामकृष्ण ने कहा, तू समझता नहीं। जो अपना किया है, उसका निपटारा कर लेना जरूरी है। नहीं तो उसके निपटारे के लिए फिर आना पड़ेगा। तो जो हो रहा है, उसे हो जाने देना उचित है। उसमें कोई भी बाधा डालनी उचित नहीं है। तो विवेकानंद ने कहा कि न इतना कहें, इतना ही कह दें कम से कम कि गला इस योग्य तो रहे जीते जी कि पानी जा सके, भोजन जा सके! हमें बड़ा असह्य कष्ट होता है। तो रामकृष्ण ने कहा, आज मैं कहूंगा। 

और सुबह जब वे उठे, तो बहुत हंसने लगे और उन्होंने कहा, बड़ी मजाक रही। मैंने मां को कहा, तो मां ने कहा कि इसी गले से कोई ठेका है? दूसरों के गलों से भोजन करने में तुझे क्या तकलीफ है? तो रामकृष्ण ने कहा कि तेरी बात में आकर मुझे तक बुद्धू बनना पड़ा है! नाहक तू मेरे पीछे पड़ा था। और यह बात सच है, जाहिर है, इसी गले का क्या ठेका है? तो आज से जब तू भोजन करे, समझना कि मैं तेरे गले से भोजन कर रहा हूं। फिर रामकृष्ण बहुत हंसते थे उस दिन, दिन भर। डाक्टर आए और उन्होंने कहा, आप हंस रहे हैं? और शरीर की अवस्था ऐसी है कि इससे ज्यादा पीड़ा की स्थिति नहीं हो सकती! रामकृष्ण ने कहा, हंस रहा हूं इससे कि मेरी बुद्धि को क्या हो गया कि मुझे खुद खयाल न आया कि सभी गले अपने हैं। सभी गलों से अब मैं भोजन करूंगा! अब इस एक गले की क्या जिद करनी है!

व्यक्ति कैसी ही परम स्थिति को उपलब्ध हो जाए, शरीर के साथ अतीत बंधा हुआ है; वह पूरा होगा। सुख-दुख आते रहेंगे, लेकिन जीवन्मुक्त जानेगा, वह प्रारब्ध है। और ऐसा जान कर उनसे भी दूर खड़ा रहेगा; और उसके साक्षीपन में उनसे कोई अंतर नहीं पड़ेगा। उसका साक्षी-भाव थिर है।

"और जिस प्रकार जग जाने से स्वप्न की क्रिया नाश को प्राप्त होती है, वैसे ही मैं ब्रह्म हूं, ऐसा ज्ञान होने से करोड़ों और अरबों जन्मों से इकट्ठा किया हुआ संचित कर्म नाश पाता है।'

इस संबंध में हमने पीछे बात की है। जैसे स्वप्न से जाग कर स्वप्न खो जाता है, ऐसा ही जाग कर, जो भी मैंने किया, वह मैंने कभी किया ही नहीं था, खो जाता है। लेकिन मेरे यह जान लेने पर भी मेरे शरीर को कोई ज्ञान नहीं होता है। मेरा शरीर तो अपनी यंत्रवत प्रक्रिया में घूमता है और अपनी नियति को पूरा करता है। जैसे हाथ से तीर छूट गया हो, वह वापस नहीं लौटाया जा सकता; और ओंठ से शब्द निकल गया हो, उसे भुलाया नहीं जा सकता, लौटाया नहीं जा सकता--ऐसे ही शरीर तो एक यंत्र-व्यवस्था है, उसमें जो हो गया, वह जब तक पूरा न हो जाए, तीर जब तक अपने लक्ष्य पर न पहुंच जाए, और शब्द जब तक आकाश के अंतिम छोर को न छू ले, तब तक विनाश को उपलब्ध नहीं होता।


तो शरीर तो झेलेगा ही। और एक बात इस संदर्भ में कह देनी उचित है। खयाल में आ गया होगा आपको भी कि यह बात थोड़ी अजीब सी है कि रामकृष्ण को भी कैंसर! रमण को भी कैंसर! इतनी बुरी बीमारियां? बुद्ध की मृत्यु हुई जहरीले भोजन से विषाक्त हो जाने से रक्त के। महावीर की मृत्यु हुई भयंकर पेचिस हो जाने से; छह महीने तक पेट की असह्य पीड़ा से, जिसका कोई इलाज न हो सका। तो खयाल में उठना शुरू होता है कि इतनी महान, शुद्धतम आत्माओं को ऐसी जघन्य बीमारियां पकड़ लेती हैं! क्या होगा कारण? हमें पकड़ें, अज्ञानी-जन को पकड़ें, पापी-जन को पकड़ें--समझ में आता है कि फल है, भोगते हैं अपना। महावीर को, बुद्ध को, रमण को या रामकृष्ण को ऐसा हो, तो चिंतना आती है मन में कि क्या बात है? 

उसका कारण है। जो व्यक्ति जीवन्मुक्त हो जाता है, उसके जीवन की आगे की यात्रा तो समाप्त हो गई, यही जन्म आखिरी है। आपकी तो आगे की लंबी यात्रा है। समय बहुत है आपके पास। आप सारे दुख रत्ती-रत्ती करके झेल लेंगे। समय बहुत है आपके पास। बुद्ध, महावीर या रमण के पास समय बिलकुल नहीं है। दस, बीस, पच्चीस, तीस साल का वक्त है। आपके पास जन्मों-जन्मों का भी हो सकता है। इस छोटे से समय में सारे कर्म, सारे संस्कार इकट्ठे, संगृहीत होकर फल दे जाते हैं। 

इसलिए दोहरी घटनाएं घटती हैं। महावीर को एक तरफ तीर्थंकर का सम्मान मिलता है, वह भी सारे सुखों का इकट्ठा अनुभव है; और दूसरी तरफ असह्य पीड़ा भी झेलनी पड़ती है, वह भी सारे दुखों का इकट्ठा संघात है। रमण को एक तरफ हजारों-हजारों लोगों के मन में अपरिसीम सम्मान है। वह सारा सुख इकट्ठा हो गया। और फिर कैंसर जैसी बीमारी है, सारा दुख इकट्ठा हो गया। समय थोड़ा है। सब संगृहीत और जल्दी और शीघ्रता में पूरा होता है।


इसलिए ऐसे व्यक्ति परम सुख और परम दुख दोनों को एक साथ भोग लेते हैं। समय कम होने से सभी चीजें संगृहीत और एकाग्र हो जाती हैं। लेकिन भोगनी पड़ती हैं। भोगने के सिवाय कोई उपाय नहीं है।


Adhyatma Upanishad Ch. #12

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