Wednesday 19 February 2014

प्रेम ही परमात्मा : Osho

तीसरा प्रश्न : आप हमेशा कहते हैं कि प्रेम ही परमात्मा है।

प्रेम और परमात्मा का क्या संबंध है?


Osho : मैं जब कहता हूं, प्रेम ही परमात्मा है, तब मैं यही कह रहा हूं, कि वे दो नहीं हैं। इसलिए संबंध की बात ही मत पूछो। संबंध तो दो में होता है। प्रेम ही परमात्मा है। प्रेम कहो या परमात्मा कहो, एक ही बात कही जाती है। और ज्यादा अच्छा होगा, तुम प्रेम ही कहो। क्योंकि परमात्मा के नाम पर इतनी घृणा फैलायी गयी है, परमात्मा के नाम पर आदमी ने इतनी हत्या की है, इतना अनाचार किया, अत्याचार किया है, इतना व्यभिचार किया है कि अब अच्छा होगा कि हम प्रेम शब्द को ही परमात्मा के सिंहासन पर पूरा विराजमान कर दें।

प्रेम ही परमात्मा है, संबंध की तो पूछो मत—तुम यह पूछ रहे हो कि दोनों के बीच क्या संबंध है? तुमने दो तो मान ही लिया।

नहीं, परमात्मा प्रेम से अलग कुछ भी नहीं है। जहां तुम्हारा प्रेम आया, जहा तुम्हारा प्रेम का प्रकाश पड़ा, वहीं परमात्मा प्रगट हो जाता है। इसीलिए तो तुम जिसको प्रेम करते हो, उसमें दिव्यता दिखायी पड़ने लगती है। प्रेम दिव्यता को अनावृत करता है, उघाड़ता है। तुम एक साधारण स्त्री को प्रेम करो, साधारण पुरुष को प्रेम करो, तुम्हारे घर एक बेटे का जन्म हो उसको प्रेम करो, और अचानक तुम पाओगे कि जिस तरफ तुम्हारे प्रेम की दृष्टि गयी, वहीं दिव्यता खड़ी हो जाती है।

यही तो प्रेमियों की अड़चन है। क्योंकि जहां उन्हें दिव्यता दिखायी पड़ जाती है कभी, फिर सिद्ध नहीं होती, तो बड़ी अड़चन खड़ी होती है। जिस स्त्री में तुमने दैवीय रूप देखा था या जिस पुरुष में तुमने परमात्मा की झलक पायी थी, फिर जीवन के व्यवहार में वैसी झलक खो जाती है, नहीं बचती, तो पीड़ा होती है। लगता है, धोखा दिया गया। कोई धोखा नहीं दे रहा है, सिर्फ तुम्हारे पास जो प्रेम की आंख है, अभी इतनी स्थिर नहीं है कि तुम सदा किसी व्यक्ति में परमात्मा देख सको। जब—जब तम्हारी आंख बंद हो जाती है, परमात्मा दिखायी पड़ना बंद हो जाता है।

तो प्रेम शुरुआत में तो बड़ा दिव्य होता है—सभी प्रेम दिव्य होते हैं। फिर सभी पतित हो जाते हैं, क्योंकि आंखों की आदत नहीं है इतना खुला रहने की। जिस दिन तुम सारे जगत को प्रेम कर पाओगे, उस दिन सारे जगत में परमात्मा प्रगट हो जाएगा।

मैं तुमसे कहता हूं? प्रेम ही परमात्मा है।

आ गया नूर जरें—जरें पर

सितारे भी चमक उठे हैं कुछ और

रोशनी चांद की भी बढ़ गयी है

महककर फूल इठलाए हैं कुछ और

प्रेम की लहर के आते ही! प्रेम का झोंका आ जाए!

आ गया नूर जरें—जरें पर

तो एक अदभुत प्रकाश कण—कण पर दिखायी पड़ने लगता है। तुमने प्रेमी को चलते देखा? जैसे जमीन की कशिश उस पर काम नहीं करती, जैसे वह उड़ा जाता है, जैसे उसे पंख लग गए हैं। तुमने प्रेमी की आखें देखीं? जैसे उनमें दीए जलने लगे हैं। तुमने प्रेमी का चेहरा देखा? रोशन। कोई दिव्य आभा प्रगट होने लगती है।

आ गया नूर जरें—जरें पर

सितारे भी चमक उठे हैं कुछ और

रोशनी चांद की भी बढ़ गयी है

महककर फूल कुछ इठलाए हैं और

तुम्हारी आंख की एक जुंबिश ने

जिंदगी ही मेरी बदल डाली

लबों से तुमने जो इकरार किया

शर्म आंखों की बढ़ गयी है कुछ और

जब निगाहें मिली थीं पहली बार

निकलता सा लगा दिल पहलू से

तुम्हारी आंखों की गहराई में

हर घड़ी डूबने लगा था कुछ और

इस खामोश मुहब्बत ने कभी

सुकून से हमें जीने न दिया

हंसकर जब भी कभी देखा तुमने

दिल की बेचैनी बढ़ गयी कुछ और

बड़ा एहसान तुमने मुझ पर किया

तड़पते दिल को सहारा देकर

कबूल करके यह खामोश सदा

बढ़ाया प्यार मेरी राहों में कुछ और

आ गया नूर जरें—जर्रे पर

सितारे भी चमक उठे हैं कुछ और

रोशनी चांद की भी बढ़ गयी है

महककर फूल कुछ इठलाए हैं और

यह तो साधारण प्रेम की बात। यह तो उस प्रेम की बात जो दो मनुष्यों के बीच घट जाता है। उस प्रेम की तो बात ही क्या कहें, जो मनुष्य और समस्त के बीच घटता है। मैं उसी प्रेम की बात कर रहा हूं। दो मनुष्यों के बीच जो घटता है, यह तो दो बूंदों का मिलन है। और मनुष्य और अनंत के बीच जो घटता है, वह बूंद का सागर से मिलन है। दो बूंदें मिलकर भी तो बहुत बड़ी नहीं हो पातीं।

तुमने देखा, कभी—कभी कमल के पत्ते पर दो ओस की बूंदें सरककर एक हो जाती हैं, तो भी बूंद तो बूंद ही रहती है। एक बूंद बन गयी दो की जगह, कोई बड़ा विराट तो नहीं घट जाता। थोड़ी सीमा बड़ी हो जाती है। तुम थोड़े आधे—आधे थे, प्रेमी से मिलकर तुम थोड़े— थोड़े पूरे हो जाते हो। तुम अकेले—अकेले थे, प्रेमी से मिलकर तुम अकेले नहीं रह जाते।

प्रेम का मार्ग प्रार्थना का मार्ग। तुम देखो, हिंदू हैं, तो सीता—राम की साथ—साथ मूर्ति बनायी है, कि राधा—कृष्ण की, कि शिव—पार्वती की। ये प्रतीक हैं ये मूर्तियां। प्रतीक हैं इस बात की कि जो प्रेम मनुष्य और मनुष्य के बीच घटता है, उसी प्रेम को फैलाना है। उसी प्रेम को इतना बड़ा करना है कि मनुष्य और अनंत के बीच घट जाए। ध्यान के मार्ग पर इसकी जरूरत नहीं होती। इसलिए महावीर अकेले खड़े हैं, इसलिए बुद्ध अकेले बैठे हैं।

ध्यान के मार्ग पर दूसरे की जरूरत नहीं है। प्रेम के मार्ग पर दूसरे की जरूरत है। प्रेम तो दूसरे के बिना फलित ही न हो सकेगा। इसलिए ध्यान के मार्ग पर परमात्मा की धारणा की भी जरूरत नहीं है। लेकिन प्रेम के मार्ग पर तो परमात्मा की धारणा अनिवार्य है, अपरिहार्य है।

तो जब मैं तुमसे कहता हूं, प्रेम परमात्मा है, तो मैं भक्त की भाषा बोल रहा हूं। तुम्हें जो रुच जाए, तुम्हें जो ठीक पड़ जाए। अगर तुम्हें ऐसा लगता हो कि प्रेम में तुम सरलता से पिघल पाते हो, तुम्हारी आंखों से आंसुओ की धार बहने लगती है सुगमता से, तुम्हारा दिल डोलने लगता है, तुम नाचने लगते हो—तुम्हारा मनमयूर नाचने लगता, तुम्हारे भीतर एक छंद पैदा होता है, एक स्फुरणा होती है, रोआ—रोआ किसी रोमाच से पुलकित हो जाता है, अगर तुम्हारे भीतर प्रेम का भाव रोमांच लाता हो, तो पहचान लेना कि तुम्हारे लिए भक्ति ही द्वार है।

अगर तुम्हें प्रेम का शब्द खाली निकल जाता हो, प्रेम के शब्द से कुछ न होता हो, न आंख में आसू झलकते हों, न हृदय में कोई धड़कन होती हो, न रोमांच होता हो, अगर प्रेम का शब्द खाली—खाली निकल जाता हो, कोरा—कोरा, इस शब्द में कोई प्राण ही न मालूम पड़ते हों, तो तुम इस बात को छोड़ देना, फिर कोई जरूरत नहीं है।

हमेशा खयाल रखना, जो मार्ग तुम्हारे लिए न हो, उस पर श्रम मत करना। क्योंकि वह सारा श्रम व्यर्थ जाएगा। जिद्द मत करना। ऐसा मत कहना कि मैंने तो चुन लिया, इसी पर अटका रहूंगा।

मेरे पास बहुत से लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम बहुत दिन से प्रार्थना कर रहे हैं, कुछ परिणाम नहीं हुआ। तो हमने कोई पाप किए हैं? हमने कोई पिछले जन्मों में बुरे कर्म किए हैं?

जब मैं देखता हूं गौर से, तो यह पाता हूं कि न तो कोई पाप किए हैं—क्या ताप करोगे तुम! पाप करने को है क्या बहुत! यह पाप करने की धारणा भी कर्ता का ही हिस्सा है। करने वाला तो परमात्मा है, तुम क्या पाप करोगे, क्या पुण्य करोगे! यह कर्म का जो हमारा सिद्धात है, कि कर्म किए, यह भी कर्ता का ही हिस्सा है। यह अज्ञान का ही बोध है। न तो तुमने कुछ पाप किए, न पुण्य किए हैं। जो उसने करवाया है, करवाया है। जो हुआ है, हुआ है। फिर तुम क्यों अटके हो? अटके इसलिए हो कि तुम उस द्वार से प्रवेश करने की कोशिश कर रहे हो जो तुम्हारा द्वार नहीं है। प्रार्थना तो कर रहे हो वर्षों से, लेकिन प्रार्थना तुम्हारा द्वार नहीं है। फिर समझाने को तुम सोच लेते हो कि पाप किए होंगे, इसलिए बाधा पड़ रही है। नहीं कोई बाधा पड़ती। तुम ध्यान से तलाशो, अगर प्रार्थना से नहीं मिल रहा है तो।

कुछ लोग हैं जो ध्यान पर लगे हुए हैं, कुछ नहीं हो रहा है। उनको मैं कहता है’, तुम प्रार्थना से तलाशो। मेरी नजर मार्ग पर नहीं है, मेरी नजर तुम पर है। मेरे लिए यह बात बहुत अर्थपूर्ण नहीं है कि तुम किस मार्ग से पहुंचते हो, मेरे लिए यही बात अर्थपूर्ण है कि तुम पहुंचते हो। पहुंच जाओ, किसी वाहन पर सवार होकर—घोड़े, कि हाथी पर, कि पैदल, कि बैलगाड़ी में—कैसे भी पहुंच जाओ। वाहन की बहुत चिंता मत करो, वाहन तुम्हारे लिए है, तुम वाहन के लिए नहीं हो।

अब तक पृथ्वी पर मार्गों पर बहुत जोर दिया गया। तुम भक्त से पूछो तो वह ‘भक्त की ही बात को कहेगा। वह कहेगा, सिर्फ भक्ति से ही पहुंच सकते हो। वह आधी बात सच कह रहा है। आधे लोग भक्ति से पहुंच सकते हैं। तुम ध्यानी से पूछो, ज्ञानी से पूछो, वह कहता है, ध्यान के मार्ग से ही कोई पहुंचता है, भक्ति के मार्ग से कैसे पहुंचोगे! वह सब कपोल कल्पना है। वह भी आधी बात सच कह रहा है। आधे लोग ध्यान से पहुंचे है, आधे लोग भक्ति से पहुंचे हैं। और लोग उस मार्ग पर चलने की चेष्टा करते रहे जो उनका नहीं था, जिस मार्ग के साथ उनके हृदय का मेल नहीं बैठता था, वे कभी नहीं पहुंचते हैं, वे भटकते ही रहे हैं।

तुम अगर भटक रहे हो तो बहुत संभावना यही है कि तुम ऐसे द्वार से प्रवेश कर रहे हो, जो तुम्हारा द्वार नहीं है।

तो जब मैं कहता हूं प्रेम परमात्मा है, तो मेरा अर्थ है उन आधे लोगों के लिए जो प्रेम से ही प्रवेश पा सकेंगे। यह उनके लिए कह रहा हूं। सबको इसे मान लेने की जरूरत नहीं है। जिनको यह बात न जमती हो, वे इसे छोड़ दें।

मगर हम बडे परेशान होते हैं। कभी—कभी हम ऐसी बातों के लिए परेशान होते हैं जिनका कोई प्रयोजन नहीं होता है।

कल एक मित्र—बुद्धिमान मित्र—रात मिलने आए। प्रश्न पूछा, तो अजीब सा प्रश्न पूछा। प्रश्न यह पूछा कि परशुराम को अवतार क्यों कहा जाता है। क्योंकि उन्होंने तो सिर्फ हिंसा की, मार—काट की, पृथ्वी को क्षत्रियों से खाली कर दिया, विध्वंस ही विध्वंस। उनको अवतार क्यों कहा जाता है?

अब पहली तो बात यह कि क्या लेना—देना परशुराम से! तुम्हें अवतार न जंचते हों, क्षमा करो, उनको जाने दो। कोई परशुराम तुम पर मुकदमा नहीं चलाएंगे कि तुमने हमें अवतार क्यों नहीं माना। भूलो, क्या लेना—देना परशुराम से! हुए भी कि नहीं हुए, इसका भी कुछ पक्का नहीं है। तुम क्यों अड़चन ले रहे हो? अब दूर से, दिल्ली से चलकर मुझसे मिलने आए हैं, और मिलकर पूछा यह!

फिर अगर ऐसा लगता है कि परशुराम का मामला हल ही करना होगा, तभी तुम आगे बढ़ सकोगे—जो कि मेरी समझ में नहीं आता कि क्यों, परशुराम से क्या प्रयोजन है! बुद्धि की खुजलाहट है। नहीं जंचती बात, नहीं जंचती। अब उन पर अहिंसा का प्रभाव होगा, महावीर और बुद्ध का प्रभाव होगा, उनके मन में यह बात जंचती होगी कि अवतारी पुरुष तो अहिंसक होना चाहिए। कुछ कल्याण का काम करे। विध्वंस! इसको अवतार क्यों कहना?

तो तुम्हें अगर महावीर और बुद्ध की बात ठीक जमती है, तो महावीर और बुद्ध के मार्ग वाले परशुराम को अवतार कहते भी नहीं, तुम फिकर छोड़ो। लेकिन अगर तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम्हारी गांठ परशुराम से बंधी है, और तुम्हारा मन मानने का करता है कि होने तो चाहिए अवतार और फिर ये और दूसरी धारणाएं बाधा डालती हैं, तो दूसरी धारणाओं को छोड़ो, फिर समझने की कोशिश करो।

हिंदू विचार तो समस्त जगत को दैवीय मानता है, दिव्य मानता है—हिंसा भी और अहिंसा भी, सृजन भी और विध्वंस भी। वह भक्त की धारणा है। भक्त कहता है, भगवान हजार रूप में प्रगट होता है, सब रूप उसके। कभी वह विध्वंसक के रूप में भी प्रगट होता है। क्योंकि विध्वंस किसका? उसका ही। वही कर्ता है, हम तो कोई कर्ता नहीं हैं। कभी वह बुद्ध की तरह प्रगट होता है—करुणा का सागर। और कभी वह परशुराम की तरह प्रगट होता है—फरसे को हाथ में लिए हुए अति कठोर। कभी वह चट्टान की तरह प्रगट होता है और कभी फूल की तरह भी। चट्टान भी वही है और फूल भी वही है। दोनों वही है।

फिर, उसका प्रयोजन वही जाने। अगर हमारी समझ में नहीं पड़ता, क्योंकि हमें लगता है, हमारे मूल्य के विपरीत जाती है यह बात कि कोई आदमी हिंसा कर रहा है, तो इस हिंसा का क्या प्रयोजन! कभी—कभी हिंसा का भी प्रयोजन है। कभी—कभी बुराई से भी लड़ना होता है। और कभी—कभी हिंसा से लड़ने का एक ही उपाय होता है—हिंसा। क्षत्रिय तो हिंसा का प्रतीक है। जब हम कहते हैं, परशुराम ने सारी दुनिया को क्षत्रियों से खाली कर दिया, तो हम इतना ही कह रहे हैं कि परशुराम ने सारी दुनिया को हिंसा से खाली कर दिया। मगर क्षत्रियों से जूझना हो तो क्षत्रिय होकर ही जूझा जा सकता है, और कोई उपाय नहीं है। वे तो तलवार की भाषा ही समझते हैं। अब तुमको ऊपर से तो देखने में लगेगा कि परशुराम हिंसक हैं, अगर भीतर गौर से इस प्रतीक में झांकोगे तो पता लगेगा कि परशुराम ने दुनिया से हिंसा को मिटाने का जैसा वृहत आयोजन किया, वैसा न बुद्ध ने किया, न महावीर ने। बुद्ध और महावीर तो समझाते रहे कि भई, हिंसा मत करो। परशुराम तो लेकर फरसा और जूझ पड़े, कि मिटा ही डालेंगे, हिंसा की जड़ों को काट डालेंगे।

मगर एक मजे की बात देखते हो, न बुद्ध के और महावीर के समझाने से हिंसा जाती है, न परशुराम के अठारह बार क्षत्रियों को काट डालने से हिंसा जाती है। तो इसमें एक और गहरा सत्य छिपा है कि इस जगत से द्वंद्व कभी नष्ट होता ही नहीं। बुराई और भलाई साथ—साथ हैं। हिंसा—अहिंसा साथ—साथ हैं। करुणा—कठोरता साथ—साथ हैं। ऐसा कभी भी नहीं होगा कि तुम एक को काटकर गिरा दोगे। बुद्ध महावीर समझाकर न गिरा सके, और परशुराम ने तो बड़ी चेष्टा की, भयंकर चेष्टा की, बड़ा श्रम लिया कि सारे क्षत्रिय काटते गए, कि न रहेगा बांस न बजेगी बासुरी, मगर फिर—फिर हिंसा उभर आयी। इस जगत से द्वंद्व नष्ट नहीं होने वाला। यह कथा का गहरा अर्थ है।

तो फिर क्या करें? तुम द्वंद्व के बाहर हो सकते हो, जगत से द्वंद्व नहीं मिटने वाला। तुम द्वंद्व के बाहर हो सकते हो, जगत से द्वंद्व कभी नहीं मिटेगा। ही, तुम जब चाहो तब द्वंद्व से बाहर सरक जाओ। और उस सरक जाने की कला ही है साक्षीभाव। तम साक्षी हो जाओ; न अहिंसक, न हिंसक; न इधर, न उधर; तुम मध्य में खड़े होकर बीच से निकल जाओ। तुम कह दो कि अब मैं कर्ता नहीं हूं। लेकिन व्यर्थ के प्रश्नों में मत उलझो, व्यर्थ के बौद्धिक प्रश्नों में मत उलझों।

अगर ध्यान में रुचि है तो ध्यान में डूब जाओ, फिर प्रेम के संबंध में प्रश्न ही मत पूछो। समय कहां है! व्यर्थ क्यो समय गंवाते हो? कल का पक्का नहीं है। एक क्षण बाद का पक्का नहीं है। अगर प्रेम की बात जंचती है तो ध्यान की बात भूलो और प्रेम में डुबकी ले लो। समय नहीं है ज्यादा। लेकिन मैं अक्सर देखता हूं कि लोग इस तरह की बातों में बड़ा श्रम लगाते हैं।

अब जिन मित्र ने यह पूछा, वह निश्चित ही चिंतित हैं। चिंता जरा व्यर्थ मालूम होती है, लेकिन वह चिंतित हैं, इसमें कोई शक नहीं है। और प्रामाणिक उनकी परेशानी मालूम होती है। उनके चेहरे पर बड़े बल पड़ गए हैं। परशुराम को अवतार क्यों कहा जाता है? मुझसे बात करने के बाद भी, मेरे समझाने के बाद भी, उन्होंने कहा कि अभी तो ज्यादा समय नहीं है आपके पास, फिर कभी आऊंगा।

मगर उनको अभी बात जंची नहीं है। यह बात नहीं जंची कि यह व्यर्थ है, इसे छोड़े, इससे क्या लेना—देना! मतलब अभी वह सोच—विचार जारी रखेंगे। परशुराम न हुए रोग हो गए!

और परशुराम ने हिंसा की या नहीं की, तुम परशुराम को पकड़कर अपने जीवन के साथ जो हिंसा कर रहे हो, वह तुम्हारी समझ में नहीं आती। जिससे प्रयोजन न हो, उसके संबंध में विचार करने की भी जरूरत नहीं। इतना भी क्यों अपनी शक्ति, अपनी ऊर्जा को व्यय करो।

तो यदि तुम्हारे जीवन में प्रेम है, और तुम्हें लगता है कि प्रेम में तुम्हें सुविधा मिलेगी, सुगम मालूम होता है, उतरो। फिर तुम पाओगे कि प्रेम में जैसे—जैसे उतरे, परमात्मा में उतरे। एक दिन तुम पाओगे कि प्रेम की पराकाष्ठा ही परमात्मा है। न हो रस प्रेम में, तो इस तरह के प्रश्नों में मत उलझो। तुम ध्यान में उतरों।

और दो के अतिरिक्त तीसरा कोई मार्ग नहीं है। इसलिए निर्णय करना बहुत कठिन नहीं है। अच्छा ही है कि दो ही मार्ग हैं। दो ही मार्ग के रहते भी तुम निर्णय नहीं कर पा रहे, अगर और बहुत ज्यादा मार्ग होते तो बड़ी अड़चन हो जाती, फिर तो निर्णय कभी न हो पाता। दोनों पर प्रयोग करके देख लो।

कभी—कभी ऐसा भी होता है कि अनिर्णय की स्थिति होती है। ऐसा भी लगता है कि प्रेम ठीक, ऐसा भी लगता है ध्यान ठीक। तो दोनों पर प्रयोग करके देख लो। एक वर्ष पूरा का पूरा भक्ति में डुबा दो। मिल गया तो ठीक, फिर दूसरे पर प्रयोग करने की जरूरत न रह जाएगी। लेकिन पूरा लगा दो। न मिला तो भी एक बात तय हो जाएगी कि यह मेरा मार्ग नहीं है।

अधूरे—अधूरे कुनकुने लोगों को बड़ी तकलीफ है। न तो कभी हृदयपूर्वक किया है, इसलिए—तय ही नहीं हो पाता कि मेरा मार्ग है या नहीं है।

मैं तुमसे कहता हूं, जो भी तुम पूरे रूप से कर लोगे, उसमें से निर्णय बाहर आ जाएगा। पूर्ण कृत्य निर्णायक होता है। या तो दिखेगा यह मेरा मार्ग है, फिर तो चल पड़े, फिर तो लौटने की कोई जरूरत न रही। या दिख जाएगा कि यह मेरा मार्ग नहीं है, तो भी झंझट मिट गयी, दूसरा फिर तुम्हारा मार्ग है। फिर कोई अड़चन न रही। हर हालत में निर्णय आ जाएगा।

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