Wednesday 19 February 2014

सूनना सीखो,हर स्‍थिति में उसके ही इशारे है। Osho

आखिरी प्रश्न : प्राय: रोज ही मैत्रेय जी हमें सचेत करते हैं कि प्रवचन के बीच खांसने से भगवान को बाधा पहुंचती है, लेकिन कल के प्रवचन के दरम्यान कई गौरैए चिडिएं चीं—चीं करती हुई आपके इर्द—गिर्द मंडराती रहीं और फिर उनमें से एक आपके बाएं हाथ पर और दूसरी माइक पर बैठ गयी, और आश्चर्य कि उससे आपकी मुद्रा या प्रवचन—प्रवाह में रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ा। और गौरैए भी ऐसे आयीं—गयीं जैसे किसी शाख पर आती—जाती हों और ऐसा लगा कि—सब कुछ अपनी जगह स्वाभाविक रूप में स्थित है, यद्यपि हम श्रोतागण अवश्य चकित रह गए! इस पर थोड़ा प्रकाश डालने की अनुकंपा करे।

Osho : मैत्रेय जी को तुम्हें कहना पड़ता है, न खांसो—और तुमने एक मजे की बात देखी, तुम उनकी मान भी लेते हो और खांसते भी नहीं। तो खांसना करीब—करीब झूठ है। और तुमने यह देखा, एक आदमी खांसे, तो दूसरा खासेगा, तीसरा खांसेगा, चौथा खांसेगा, एक श्रृंखला पैदा होती है।

और खांसने के पीछे कुछ कारण हैं। खांसने के पीछे खांसी शायद ही कारण होती है—सौ में एक मौके पर। तब तो तुम रोक ही नहीं सकते, चाहे मैत्रेय जी लाख सिर मारें। तुम क्या करोगे! कोई भी क्या करेगा! लेकिन निन्यानबे मौकों पर तुम रोक पाते हो। जो तुम रोक पाते हो वह झूठी है।

पर झूठी खांसी क्यों आती है? झूठी खासी इसलिए आती है कि तुम खाली बैठे हो। खाली बैठे तुम्हें बड़ी बेचैनी होती है। आदमी, देखा, खाली बैठे—बैठे सिगरेट पीने लगता है। खाली बैठे—बैठे उसी अखकर को दुबारा पढ्ने लगता है। खाली बैठे—बैठे भूख लग आती है, जाकर फ्रिज खोलकर कुछ खाने लगता है। खाली नहीं बैठ सकते। खाली बैठना बड़ा कठिन है। कुछ न कुछ तुम करोगे।

जब तुम कभी ध्यान के लिए बैठोगे थोड़ी देर को, तो तुम कहोगे, कहीं चींटी चढ़ने लगी—कहीं कोई चींटी नहीं है, देखो, चींटी नहीं चढ़ रही है—फिर कहीं पैर में खुजलाहट आ गयी, कहीं हाथ सुन्न हो गया, कहीं कान में कुछ चढ़ने लगा, कहीं भीतर कुछ होने लगा, हजार चीजें होने लगीं। ऐसे कुछ भी नहीं होता। ये हजार चीजें तुम्हारे मन की जो बेचैनी की आदत है, उसके कारण होती हैं।

अब तुम यहां बैठे हो, डेढ़ घंटा! तुम कुछ न कर सकोगे, तो खासोगे। और [ाक् खांसा तो दूसरे को अचानक लगेगा कि उसको भी खांसी आ रही है।

मनुष्य करीब—करीब अनुकरण से जीता है। डार्विन गलत नहीं है, आदमी बंदर की औलाद है।

तुमने कभी देखा, रास्ते पर तुम चले जा रहे हो और एक आदमी पेशाबघर में चला गया, अचानक तुम्हें खयाल आया कि अरे, तुम्हें भी पेशाब लगी है। अभी देखो, मैंने अभी पेशाब शब्द कहा, तुममें से कई को लग गयी होगी। एकदम खयाल आ जाएगा। तुमने देखा, अगर कोई नीबू का नाम ले दे तो जीभ पर लार आने लगती ज्ञै। नाम से! आदमी ऐसा अनुकरण से भरा हुआ है।

तो मैत्रेय जी तुम्हें रोकते हैं। मुझे कोई बाधा पड़ेगी, ऐसा नहीं है। लेकिन तुम शात बैठे हो तब भी तुम मुझे नहीं सुन पाते, और अगर तुम खासा—खासी में उलझ गए तब तो तुम बिलकुल ही नहीं समझ पाओगे। मुझे क्या बाधा पड़ेगी? लेकिन राग जिस प्रयोजन से यहां बैठे हो, उसमें खलल पड़ जाएगा। तुम्हारा मन तो बड़े जल्दी ही डावाडोल हो जाता है। तुम्हें तो बड़ी छोटी—छोटी बातों में विम्न पड़ जाता तै। तुम्हें तो निर्विम्न रहना इतना कठिन है। इसलिए तुमसे कहते हैं।

रह गयी गौरैए चिड़ियों की बात, तो वह कोई मैत्रेय जी की तो सुनेंगी नहीं! उनसे वह कितना ही कहें, उनकी जो मौज होगी वैसा करेंगी। लेकिन चिड़िया माफ ‘को जा सकती हैं। उनका यहा आ जाना भी सुखद है। उनका आना इसी बात की।बबर देता है कि तुम शात बैठे हो। उनका आना इसी बात की खबर देता है कि उन्हें रास्तारी चिंता नहीं। मूर्तिवत, वह तुम्हें यही समझती हैं कि बैठे हैं—संगमरमर की, मुर्तियां कोई अड़चन नहीं, वे यहां खेलकूद करके, शोरगुल मचाकर अपना चली जाती हैं। उनका यह कभी—कभी आ जाना तुम्हारी शांति का प्रतीक है। सुंदर है।

फिर तुम पूछते हो कि ‘हम चकित हुए!’

चकित होने का इसमें कुछ भी नहीं है। मेरे बोलने से गौरैया चिड़िया परेशान नहीं हो रही है, तो गौरैया चिड़िया के चीं—ची करने से मुझे क्यों परेशान होना चाहिए! कम से कम इतना तो गौरव मुझे दोगे, जितना गौरैया चिड़िया को देते हो! मेरे हाथ पर बैठने में उसे कुछ अड़चन नहीं हो रही है, तो मुझे क्यों अड़चन होनी चाहिए? वह बैठ भी इसीलिए सकी कि उसे प्रतीत हो रहा है कि अड़चन नहीं होगी।

धीरे—धीरे, जैसे—जैसे तुम शांत होने लगोगे, तुम पाओगे, वे तुम्हारे सिर पर भी नगकर बैठने लगीं, हाथ पर आकर बैठने लगीं, जैसे—जैसे उन्हें यह भरोसा आ शएगा कि यहौ भलेमानुस बैठे हैं, इनसे कुछ भय का कारण नहीं है। तुमसे भय है, हर है कि तुम उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हो, उस भय के कारण वे दूर—दूर हैं। यै से —जैसे तुम्हारी तरफ से निर्भय की तरंग उठने लगेगी, फिर दूर रहने का कोई धरण नहीं रह जाता।

आदमी ने पशुओं को भयभीत करके दूर कर दिया है, और पशुओं को दूर करके एक बड़ी महत्वपूर्ण बात खो दी, प्रकृति से संबंध खो दिया है। तुमसे तो वृक्ष भी डरते जब तुम वृक्षों के पास जाते हो।


अभी वैज्ञानिक इस पर काफी परिशोध करते हैं। उन्होंने यंत्र भी बना लिए हैं, वृक्षों में लगा देते हैं, और वृक्ष से खबर आने लगती है। जैसे कि तुमने कभी कार्डियोग्राम लिया हो, तो कागज पर ग्राफ बन जाता है कि हृदय की धड़कन कैसी है? ऐसे ही वृक्ष के भीतर कैसी तरंग चल रही है, उसका ग्राफ बन जाता है। जैसे ही वृक्ष देखता है कि कोई आदमी आ रहा है, उसकी तरंग बदल जाती है। फिर आदमी—आदमी से बदलती है। अगर वह देखता है कि लकड़ी काटने वाला कुल्हाड़ी लिए चला आ रहा है—अभी उसने काटी नहीं, अभी दूर ही है—तत्कण उसकी बेचैनी बढ़ जाती है। तरंगें बड़ी जोर की बनने लगती हैं, वह बहुत घबड़ाया हुआ हो जाता है। उसने देखा, माली आ रहा है पानी लिए हुए, उसकी तरंगें बड़ी शात हो जाती हैं।

कुछ आश्चर्य नहीं है कि संत फ्रांसिस की कहानिया सच ही रही हों। कुछ आश्चर्य नहीं है कि महावीर और बुद्ध के जीवन के उल्लेख सही ही रहे हों। अर्थ तो उनका स्पष्ट है कि महावीर के पास पशु—पक्षी आकर बैठ जाते, सिंह भी आकर बैठ जाता। इतनी शात है दशा कि सिंह को भी तरंग पकड़ लेती होगी। कि बुद्ध जिस जंगल से निकलते हैं, वहा सूखे वृक्ष हरे हो जाते हैं। इतने तरंगित हो जाते होंगे बुद्ध के आगमन से।

तो कुछ भी चकित होने का कारण नहीं है। धीरे—धीरे तुम्हारी तरंग जब ठहरती जाएगी और जब हम यहा एक वातावरण बनाने में सफल हो जाएंगे, जहां एक भी आदमी से उन्हें भय न हो, तो तुम देखोगे, चकित होकर देखोगे कि जैसे तुम यहा बैठे हो, ऐसे ही बहुत सी चिड़िया भी, पक्षी भी आकर बैठ गए हैं। तुम्हारे कारण भय बना रहता, घबड़ाहट बनी रहती। हिंसा तुम्हारे भीतर है, तो उसकी तरंग है चारों तरफ। उस तरंग के हट जाने पर एक संबंध जुड़ता है प्रकृति से।

कहते हैं, संत फ्रांसिस से एक आदमी पूछने आया। नदी के किनारे फ्रासिस खड़े थे। उस आदमी ने पूछा कि हमने सुना है कि पशु—पक्षी भी आपकी बातें सुनने आते हैं, आपको इस संबंध में क्या कहना है? फ्रासिस ने कहा, मैं क्या कहूं यहौ कोई पशु—पक्षी है? कोई है भाई यहां? उन्होंने जोर से आवाज मारी। वहां कोई पशु—पक्षी नहीं था, लेकिन मछलियों ने सिर ऊपर निकाला—पूरी नदी पर मछलियों ने सिर ऊपर कर लिया। उन्होंने कहा, इनसे पूछ लो। अब मैं क्या प्रमाण दूं र उन्होंने कहा, इनसे पूछ लो।

यह हो सकता है, क्योंकि सारा अस्तित्व एक ही प्राण से आदोलित है। पशु—पक्षी के भीतर भी हमारे जैसी ही आत्मा है। वृक्ष के भीतर भी हमारे जैसे ही आत्मा है। शरीर का भेद है, आत्मा का तो कोई भेद नहीं। वृक्ष ने वृक्ष का शरीर लिया है, पक्षी ने पक्षी का शरीर लिया है, तुमने आदमी का शरीर लिया है। यह फर्क सपर—ऊपर है। यह वस्त्रों का भेद है—किसी ने लाल रंग के कपड़े पहने हैं, किसी ने नीले रंग के कपड़े पहने हैं, किसी ने सफेद कपड़े पहन रखे हैं, या कोई नग्न खड़ा प्तै। किसी ने पूर्वीय ढंग के कपड़े पहने हैं, किसी ने पाश्चात्य ढंग के कपड़े पहने हैं, मगर यह कपड़ों का फर्क है, भीतर जो छिपा है, वह तो एक ही है।

बिजली के खंभे पर बैठी चिड़िया

ठिनक—ठिनक गाती है

किस दिल से भरकर रखी है

कितनी करुणा भर लाती है

पंख फुदकते, चोंच मटकती

कूद—कूद बल खाती है वह

जीने के जंतर—मंतर पागलनी—सी समझाती है वह

ऊपर है आकाश उघाड़ा

नीचे धरती बिना ढंकी

और मध्य में तेरी महिमा

तारों से हर ओर टंकी

किसके महल झोपड़ी किसकी

किसकी फूलन काटे किसके

आंख मूंद लेने पर यह

चलते दिखते सन्नाटे किसके

यह गिरधारी की कमरी—सी

यह राधा के वलय बंद—सी

यह प्रतिभा की सूझों वाले

रस भर आए अमर छंद—सी

ऊंची—नीची मैली—उजली

यमुना की पागल हिलोर—सी

गगन तलक उठ रही पवन के

बिना बंधे उन्मत्त जोर—सी

चहक—चहककर बहक—बहककर बोलों में झरते प्रणाम—सी

गांवों में अधनंगे शिशु के

दो हाथों के राम—राम—सी

पल-पल पर वह खेल रही है

कितनी मस्‍ती भर लाती है

बिजली के खंभे पर बैठी चिड़िया

ठिनक-ठिनक कर गाती है।

सूनना सीखो, कान थोड़े साफ करो, आंखों के पर्दें हटाओ, तो तुम्‍हें हर जगह से प्रभु का संदेश ही सुनाई पड़ेगा। हर स्‍थिति में उसके ही इशारे है।

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