Sunday 2 February 2014

सदगुरु , तू भी बांसुरी _ मैं भी बांसुरी ; आओ मिल बैठे ... दो पल ! - Note


बांसुरी से ज्यादा अस्तित्व नहीं :
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एक और आश्चर्य कहती हूँ , 

जब चकोर की तरह एक आत्मा को दूसरी आत्मा के पास प्यासा बैठा देखती हूँ , तो आश्चर्य होता है , कि ऐसा क्यूँ ! जो सम्भावनाये उस आत्मा मे है वो ही तो इस आत्मा में भी है । प्रेम अलग भाव है , मित्रता भाव अलग है , साहचर्य भाव भी अलग है पर दासत्व भाव और खुद को इतना छोटा बना लेना , बिलकुल आवश्यक नहीं , ये भाव आपको उन संभावनाओ की झलक भी नहीं दिखा सकता जिसके प्यास से आपने दासत्व भाव स्वीकार किया है ।

परम ने सभी को वो ही समान सम्भावनाये दी है , प्रकृति भेद नहीं करती , तो वो कैसे भेद कर सकता है , बस याद आने भर की देर है .......

गुरु मित्र है , सहचर है , वो खुद भी आप जैसे ही अपनी जीवन यात्रा पे है , शारीरिक दुःख और पीड़ाओं में वो आपके ही समान , अपने जीवन के सुख दुःख का सामना कर रहे है , पंचतत्व जनित समस्त संकट उनके साथ भी है , आपके ही समान उनकी बांसुरी से भी वो ही संगीत बज रहा है , जिसने समस्त जगत को संसार में उलझा के रखहा। वो स्वयं मायाजनित चमक का शिकार हो सकते है , मित्रों , पांच तत्व से निर्मित इस शरीर से बंधी सभी जीवात्माओं की सीमाए है और नैसर्गिक जरूरतें और विशेषताएं भी।

कुछ फर्क है तो समझ का , जो उनको समझ आ गया , वो आपको दिखाने कि कोशिश है,कि सत्य देखना दुष्कर नहीं कि धूल का अस्तित्व क्या है ? चलते फिरते शरीर , माया में लिप्त शरीर २० ग्राम राख के सिवा कुछ नहीं। 






" जितना जल्दी अपने स्वरुप को पहचानोगे उतना ही आसानी से अपने प्रकृति निर्मित शरीर का पालन करते हुए और उपयोग करते हुए आत्मतत्व को संतुष्ट कर पाएंगे। " और एक आप है कि , जो वो जीवन में कह_कह के थक गए औरसमस्त शारीरिक सीमायों से मुक्त हो चले गए ; उसका एक स्वर भी आपके कान तक नहीं गया , उलटे , मंदिर में राम और शिव कि मूर्ति की जगह आपने उनको माला पहनना शुरू कर दिया। जो राम और कृष्ण के आगे दिया जलाते थे , अब वो ही दिया गुरु के सामने जलने लग गया। गुरु के नाम के मंदिर बना डाले ! मस्जिद की जगह उनका सजदा शुरू कर दिया , और अब चर्च नहीं तो क्या हुआ , साक्षात् जीसस सामने बैठे है , और उनके चित्र के आगे मोमबत्तिया जलाके श्रध्हा दे के काम ख़तम।


क्या अंतर पड़ा आप में पहले के सांसारिक जटिलताओं में और गुरु के सानिध्य से ? (प्रश्न कीजिये स्वयं से )

क्या यही कहते थे , वो सदगुरु !

ये विचार कभी एक जागृत व्यक्ति दे ही नहीं सकता। जिसने स्वयं उस परम से साक्षात्कार किया हो, वो ऐसा चाह ही नहीं सकता कि आपको संसार में उलझा के रखे और खुद भी संसार में उलझा रहे।

जो स्वयं ये जानता हो कि बांसुरी से ज्यादा उसका अस्तित्व नहीं है , २० ग्राम राख़ का शरीर। ....बस हो गया समाप्त सारा विरोध। आप ने जिसको गुरु बनाया वो बांसुरी और आप भी बांसुरी। इस को सदगुरु भली भांति समझते है। और यदि नहीं कोई समझ रहे तो संदेह है ज्ञान पे। फिर ज्ञान संसारी हुआ। फिर ये वो ज्ञान नहीं।

Genesis 3:19 -
For dust you are and to dust you will return
By the sweat of your brow
you will eat your food
until you return to the ground,
since from it you were taken;
for dust you are
and to dust you will return.

जरुर कही कोई भारी गलती है ,उन संस्थागत गुरु जन और शिष्यों से भरी नासमझी हो गयी है। कहाँ ? कब हुई ? पर हो गयी। वो सन्देश कही रह गया जो आना था ! संसार का हर कर्म बंधन* है माया* है और दोषयुक्त* है , चाहे कोई लाख जतन कर ले। सिर्फ एक कर्म अंतर्यात्रा का।

इस राह में तो माया छूटनी चाहिए , एक एक जाल काटना चाहिए। निर्भार होना चाहिए। यदि नहीं तो स्वयं की राह का पुनर्निरीक्षण करना चाहिए , पुनरावलोकन करना ही चाहिये । शायद गलती से कुछ गलत रस्ते पे आगया। सही रास्ते की तो खुशबु ही अलग है। वहाँ अँधेरा बढ़ता नहीं घटता जाता है। रौशनी के दिए पहले से मौजूद है रौशनी के लिए , और सुंदर पुष्प सुगंध दे रहे है। । वह कोई दुर्गन्ध हो ही नहीं सकती। वो परम  का रास्ता है। 






इस से तो ज्यादा अच्छा रूमी का रास्ता जिसको सब पता था और जो खुद में डूबता चला गया , पर सुगंध दे गया उस उपवन का रास्ता बिना किसी संस्था कि स्थापना के बता गया ,

we come spinning out of nothingness ,scattering stars like dust . Rumi

कबीर का रास्ता भी रूमी जैसा ही था ,

" कबीरा खड़ा बाज़ार में मांगे सबकी खैर न काहु से दोस्ती न काहु से बैर ।"

मित्रों ! वो तरंग उठनी चाहिए , जो आपके गुरु के अंदर उठी थी , वो प्यास जगनी चाहिए , जो प्यास आपके गुरु में जगी थी , वो राह मिलनी चाहिए जिस राह पे आपके गुरु के कदम पड़े थे , वो है श्रद्धा , वो है श्रध्धांजलि। अब आप जानना जरुर चाहेंगे कि तरंग वो कैसी ? वैसे तो तरंग का रूप रंग नहीं होता कि चित्र बन सके , सिर्फ इशारे काम करते है और शुरुआत है ध्यान। अंतर्यात्रा। हृदय के दीप का जलना। और वो ही आपको ब्रह्माण्ड के पार का पता देगा। 






"तू भी बांसुरी _ मैं भी बांसुरी आओ मिल बैठे दो पल।
आयेंगे जब सखा , चल पड़ेंगे तब ; अभी तो गालें संग।
तू गुरु.. मैं चेला , मैं गुरु.. तू चेला , सबै चढ़े एकै रंग।।" 



और सच कहु , अगर वो तरंग आपमें उठ रही है तो परम स्वयं आपको राह दिखाएंगे , बस एक एक कदम आपको उठाना है। वो स्वयं आपके मित्र है। उनका आदेश उनका आभार और परम से प्रेम।और सारी भटकन समाप्त हुई , ज्ञान पूरा हुआ ।





"सुन सखा ! तू भी रागिनी मैं भी रागिनी उसी गीत की 


दोनों की 
ही तान एक ही सुर ओ राग उसी वाद्य के 


एक मंडप  एक ही सूत्रधार और नृत्य करते कलाकार हम "



प्रेम श्रध्हा, करुणा आभार ये गुण है , जो अध्यात्म के भाव और सानिध्य के साथ

प्रकट होते है और वृक्ष बनते है (यानि कि आप प्रकृति से एकाकार हो पाते है ) , 
मित्रों ध्यान दीजियेगा , प्रकट होते है , यानि कि बीज रूप में आपके अंदर ही है। 
और यदि बीज ही नहीं है तो सम्भावना भी नहीं है प्रकटीकरण कि। 
फिर चाहे जहाँ चलजाये।संसार के किसी भी गुरु के पास, विश्व के किसी 
भी कोने में वो गुण वैसे ही सुप्त रहेंगे। और यदि है तो अध्यात्म के प्रथम दर्शन 
से ही गुण_पौधा उगना शुरू हो जायेगा। सब आप ही करोगे अपने लिए , 
यात्रा आपकी अपनी निजी है। समझ भी आपकी।

शुभकामनाओं सहित 


ॐ प्रणाम

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