Thursday 20 February 2014

प्रकृति संतुलन चाहती है , असंतुलन उसको पसंद नहीं (Note )

कैसे भी करके , लगातार ब्रह्मांड इसी प्रयत्न में है कि उसकी धुरी का संतुलन बना रहे उसका आकाशगंगाओं से सामंजस्य और निश्चित नजदीकी और दुरी बनी रहे , ब्रह्माण्ड में घूमने वाले एक एक नक्षत्र में सामान लय बनी रहे , ये नक्षत्र एक दूसरे के चारों तरफ पूर्व निर्धारित गति से चक्कर काटते रहे … और हमारी जीवनदायिनी धरती अपनी परिक्रमा पे अपनी धुरी पे नृत्य करती रहे , इन सबके प्रयासो से हमको समय का चक्र समझने में आसानी हुई , और इस तरह विज्ञानं भी अपना काम कर पाया , यदि इनमे नियम न होता तो विज्ञानं कि गणना कैसे सही होती ? इनके नियम के कारन ही समय का विभाजन , घटी और पलों तक सम्भव हुआ , इन्ही की निश्चित गति के कारन धरती और व्यक्ति के जीवन पर पड़ने वाले खगोलीय प्रभावों का आंकलन हो सका , और कई कई जन्मो का विश्लेषण और वृत्तांत सम्भव हो सका। ये खगोलशास्त्र से ये भी चमत्कार सम्भव हुआ कि किस धरती के कोने पे किस नक्षत्र का क्या प्रभाव कब तक रहेगा , और ये सब विज्ञानं है क्यूंकि चुंबकीय प्रभाव के प्रमाण है ,

आकाशीय उथल पुथल से सारा जीवन प्रभावित होता है , सूरज और चंद्रमा तो जैसे हमारे सम्पूर्ण जीवन को ही दिशा देते है। न सिर्फ हमारे जीवन को बल्कि सम्पूर्ण पृथ्वी के जीवन को। एक एक वृक्ष , पौधा , जल थल नभ के जीव सभी इन्ही से जीवन पाते है।

हमारा अस्तित्व कितना छोटा सा है इन सबके आगे , पर हमारा कितना बड़ा योगदान हो सकता था ! इनके लिए , प्रतिदान स्वरुप। क्यूंकि लिया है अगर तो देना भी तो पड़ेगा। जीवन लिया है तो जीवन के लिए ही देना भी है। पर नहीं ! यहाँ हमारी बुध्ही स्वार्थी हो गयी , और हमने इस दिशा में सोचना गवारा ही नहीं किया । नतीजा हमारे सामने है । प्रकृति असंतुलन में आ गयी । अब क्या करे ? अभी भी नहीं सोचा तो हम ही ख़तम ! तब जा के आलसी दिमाग में ये बात आयी कि सोचना चाहिए । तब जा के करवट लेने को अभी - अभी सोचा है , जागरण से अभी भी बहुत दूर है।

यही नियम है प्रकृति का जो भी .. जितना भी लौटाएंगे भी उसका दोगुना वापिस मिलेगा , ये प्रकृति का अनकहा वादा है आपके साथ। आप असंतुलन देंगे तो प्रकृति असंतुलन ही देगी , आप संतुलन की तरफ कदम बढ़ायेंगे तो प्रकृति दोगुनी संतुलन वर्षा करेगी। जो भी प्रकृति तक मनुष्यता की तरफ से जाएगा तिगुना चौगुना हो के आपकी ही झोली में गिरेगा , इसी गणित के अनुसार लोग कहते है की सकारात्मक ऊर्जा को उत्पन्न करो , सकारात्मक ऊर्जा अपने आस पास फैलाओ। ताकि नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव कम हो सके।

पर प्रकर्ति और उसके संतुलन की मुख्य धारा से अभी अभी जुड़ना बाकी है। वास्तव में प्रकर्ति का संतुलन आखिर है क्या ? क्या सिर्फ ५ तत्वों के ही संतुलन का प्रश्न है या उससे अधिक ............................. !

जैसा सभी जानते है कि एक कार्बन की दुनिया है और एक तरंगों की दुनिया ५ तत्व मिटटी अग्नि जल वायु और व्योम में से ४ तो सिर्फ अनुभव ही किये जा सकते है मिटटी को छोड़ के , जल भी आभास देता है वायु और व्योम जैसे , फिर भी ये तत्व कार्बन के अंतर्गत ही आते है , शून्य को छोड़ के क्यूंकि आभास के साथ ये शारीरिक तृप्ति भी देते है , जैसे जल अग्नि और वायु , छठा तत्व भाव का है तरंगो का है इसमें भी सात रंगो की उपस्थिति है , इनमे भी गति है , चंचल है ब्रह्माण्ड की गति के सामान और ये भी प्राकृतिक है। इनमे तो महा संतुलन की आवश्यकता है। क्यूंकि ये तरंगित है और चंचल है। जरा से आंदोलन से अस्थिर हो जाते है।

तो जब हम संतुलन की बात करते है तो सम्पूर्ण संतुलन की बात करते है। प्रकृति आपसे सम्पूर्ण संतुलन चाहती है । शिवा और शक्ति का पूर्ण संतुलन।

जब भी आप असंतुलित होंगे , किसी भी शारीरिक या भावनात्मक स्तर पे ... आपको भान हो जायेगा , अपने असंतुलन का । इसी तरह जैसे बाह्य जगत जब असंतुलित होता है तो मौसम का मिजाज बिगड़ने लगता है , अग्नि जल वायु सभी असंतुलन होने लगता है। वैसे ही जब छठा शिवा तत्व / ऊर्जा तत्व असंतुलित होता है तो आपका सम्पूर्ण व्यक्तित्व असंतुलित होने लगता है।

फिर दोहराऊंगी , प्रकृति संतुलन चाहती है , असंतुलन में रहना प्रकृति का स्वाभाव नहीं। और तबतक संतुलन स्थापन की क्रिया में तब तक सक्रिय रहती है जब तक संतुलन न ले आये। 




और हम कितने असंतुलन प्रेमी , हालाँकि लगता है कि संतुलन में ही हम अपनी सारी शक्ति लगा रहे है , पर है बिलकुल उल्टा ,बिलकुल किसी दर्पण में दिखती सामान उलटी छाया जैसा , सिर्फ प्रकर्ति दवरा स्थापित संतुलन से हम थोडा सा जीवन ले के , बाकी सारा कर्म खुद को और प्रकति को असंतुलित करने में लगा देते है। और उसी का नतीजा हमारा और पर्यावरण का सम्पूर्ण असंतुलन है।


संतुलन शब्द को पूर्ण रूप से समझिये और उतारिये अपने सम्पूर्ण जीवन में और सम्पूर्ण धरती को भी संवारिये। हर व्यक्ति सिर्फ स्वयं को और स्वयं के इर्द गिर्द संवर ले तो धरती कितनी सुंदर हो जायेगी, इसकी कल्पना करना भी कल्पनातीत है।

ऊँ सहनाववतु
सह नौ भुनक्तु
सह्वीर्य करवा वहै
तेजस्विनाव धीतमस्तु
मा विव्दिषा वहै
ऊँ शांति शांति शांति



वेदो में वर्णित अति महत्वपूर्ण मन्त्रों में से एक मंत्र ये भी है जिसका वास्तविक अर्थ संकुचित नहीं जो सिर्फ लौकिक शिक्षा या गुरु शिष्य सम्बन्धों पे रुक जाये , वैदिक अर्थ अति वृहत है। हाँ उपयोग अपनी सुविधानुसार सु_भावना वश किये जाते रहे है। 



ऊँ हे परमात्मा
हम दोनों (शिवा और शक्ति) का साथ ही रक्षण करो
हम दोनों का पालन करो
हम दोनों साथ ही पुरुषार्थ करे
हम दोनों ही विद्या तेजस्वी हो
हम किसी से द्वेष न करे 



ऊँ शांति शांति शांति

ऊँ शांति
ऊँ शांति
ऊँ शांति

ॐ प्रणाम

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