Wednesday 30 April 2014

Real Nature (thought)

Get rid of stark and real and nostalgic patterns of memories !!

as manuda and mind trappe you with their breathtaking logics ...


Photo: Get rid of stark and real and nostalgic patterns of  memories , as manuda and mind trappe you with their Breathtaking logics  .

Cheerfulness  and Joyfulness is core nature of soul .

Cheerfulness and Joyfulness is core nature of soul ............

जीवन के बदलाव (Osho thought )


















यदि तुम्हें सदा प्रसन्नचित्त, मस्त और चिन्तामुक्त 
रहना है तो जीवन में आने वाले सभी परिवर्तनों को स्वीकार करना होगा। जीवन एक प्रवाह है, परिवर्तनशीलता उसका मूल गुण है लेकिन तुम्हारी समस्या यह है कि तुम परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पाते। जीवन का असली दुख यह है कि जो रुकता नहीं है, उसे तुम रोकना चाहते हो। जैसे तुम जवान हो, तो तुम सदा जवान रहना चाहते हो। चूंकि यह हो ही नहीं सकता, इसलिये तुम दुखी होने वाले हो। तुम चाहते हो जो तुम्हें प्यार करता है, वह हमेशा उतना ही प्यार करता रहे...... यदि तुम्हारी इच्छा है कि मुहब्बत का ये लम्हा, ये हसीन पल बस यूं ही ठहरा रहे तो तुम बड़े उपद्रव, बड़ी समस्या में पड़ने वाले हो। यह आशा अस्वाभाविक है। यह आशा तुम्हारे विकास को अवरुद्ध कर देगी.......... सुख के क्षणों को रोकने की यह उम्मीद तुम्हारे जीवन-पुष्प को अपनी पूर्णता में नहीं खिलने देगी। यदि आत्म विकास करना है, आनंदित रहना है तो बदलावों को स्वीकार करना ही होगा। ध्यान तुम्हें बहुत मदद देगा.......ध्यान तुम्हें वह साहस, वह पौरुष देगा कि तुम जिंदगी के बदलावों को मजे के साथ स्वीकार कर 
सको। 


 osho

Be ready for change ! (Note)

You can not fix any single thing . you should understand and accept , ' the meaning of river-flow ' things are made for change , change is the nature of Nature . 

we are very smart as we think we can control over all  circumstances AND THIS IS HUMAN EGO , so that we continues involves in struggles but results says something else . after confused mind when it is not ready to accept changes ,

Sage preserves Geeta and saying Of Krishna for arjuna "कर्मण्ये वाधिकारस्ते म फलेषु कदाचन " for you and for your mind & maunda , for sake of peace they fill feelings with values . after feeding of Sage by force few percent you may get agree to accept as least as technical faults , but what to do life and death , so to deal with this issue Saga give you feed from their austerity about immortality of Soul . whatever Sages did it is just for your peace and balance , although ; same is continued by Spiritual Gurus , all effort is for you so that you may able to attain peace and love . cause your mind is running adverse , your maunda is full of desires and running always towards frustrations and depressions due to non fulfillment of unlimited flow of desires . despite of knowing Original Nature of your's; your's blindly followings towards mind and maunda Cause of Maya or shadow of Unawareness . 




Perhaps , the big issue is ... we are not ready for changes against will . design of will is ours , we are catalyst of our wheel of fortune like a small child we are stubborn and we are not agree to allow any change , but whom ! you are not ready to give liberty .... of course you are to self , your's all struggle only with and for yourself and towards circumstances created by you . we do not wish to get old , we do not like to lose our rights , we do not ready to lose our beloved , we do not agree to change in rules made by us . we do not agree to accept changes in our surroundings , we can not see changes in relations , ...... everything (feelings emotions persons results including love and life too ) we want to just hold tightly . but How , things are going to change fast !

Magic is , everything is going to change in front of us , but we have no issue till then we feel safe and unaffected by changes . but we are also the part of change ! our body , our senses , our relations our presence everything is mentaly time bound . Do not forget " Change is The Nature's Law " every aspect of Universe is born for change , nothing is stagnate . if anything is stagnate means it is lifeless , and soon it will convert and merged into 5 elements .

The all Science of Spirituality is to serve you acceptability of changes ; whatever comes by destiny either age or loss you should have to accept by Smooth Acceptability . 




* Do not try embrace to fix emotions for always according to your will . 


* Do not fist knot to hold changing patterns .

* Accept and Welcome of Seasonal_Changes of Outside and
Inside .

( how you can welcome your changes ! make travel through Dhyana , and firstly do accept your surroundings , through live with souls more like you , after that you have to live with little diffrent jeeva to feel their presences with acceptability , after that same pattern you have to follow with entire different world of nature {trees and stones rivers and similar many others} accept as they are . try to feel oneness  with  your very core  nature of simpleness  and  naturalness ;
 as they have too . )




ॐ ॐ ॐ

live with 7 chakras live with life (Osho thought)


My emphasis is to live in all the seven centers together. Never lose contact with the lowest, and never avoid flying with the highest. Use all the centers! Then your wings will be in the sky and your roots will be in the earth. And a perfect man is a meeting of heaven and earth -- that's what Taoists say: a meeting of heaven and earth. That's what a perfect man is: meeting of the physical and the spiritual, meeting of the body and the soul, meeting of the world and renunciation, meeting of prose and poetry. Osho 



A Sudden Clash of Thunder
Chapter #8
Chapter title: Choicelessness is Bliss
18 August 1976 am in Buddha Hall 

किस कारण हमें हमारी भूल नहीं दिख पाती (Osho)

शांति है साज का बिठाना; और आनंद है जब साज बैठ जाता है, तो परमात्मा की उंगलियां तुम्हारे साज पर खेलनी शुरू हो जाती है। शांति है स्वयं को तैयार करना; जिस दिन तुम तैयार हो जाते हो, उस दिन परमात्मा से मिलन हो जाता है। इसलिए हमने परमात्मा को सच्चिदानंद कहा है। वह सत है, वह चित है, वह आनंद है। उसकी गहनतम आंतरिक अवस्था आनंद है



Q~"जन्मों-जन्मों से हमने दुख का अनुभव जाना, लेकिन किस कारण हमें हमारी भूल नहीं दिख पाती!"

R~ नहीं, न तो जन्मों-जन्मों से कुछ जाना है, न तुमने दुख ही जाना है, अन्यथा भूल दिख जाती। यही भूल है, कि तुम समझ रहे हो कि तुमने जाना है, और जाना नहीं। अब यह भूल छोड़ो। अब फिर से अ, ब, स से शुरू करो। अभी तक तुम्हारा जाना हुआ किसी काम का नहीं। अब फिर से आंख खोलो और देखो। हर जगह, जहां तुम्हें सुख की पुकार आए, रुक जाना। वह दुख का धोखा है। मत जाना! कहना, सुख हमें चाहिए ही नहीं। शांति को लक्ष्य बनाओ। सुख को लक्ष्य बनाकर अब तक रहे हो और दुख पाया है। अब शांति को लक्ष्य बनाऔ.......

शांति का अर्थ है, न सुख चाहिए। न दुख चाहिए क्योंकि सुख-दुख दोनों उत्तेजनाएं हैं। और शांति अनुत्तेजना की अवस्था है। और जो व्यक्ति शांत होने को राजी है, उसके जीवन में आनंद की वर्षा हो जाती है। जैसा मैंने कहा, सुख दुख का द्वार है। ऐसा शांति आनंद का द्वार है.....

साधो शांति, आनंद फलित होता है। आनंद को तुम 
साध नहीं सकते। साधोगे तो शांति को। और शांति का कुल इतना ही अर्थ है, कि अब मुझे सुख-दुख में कोई रस नहीं। क्योंकि मैंने जान लिया, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अब मैं सुख-दुख दोनों को छोड़ता हूं। जो दुख को छोड़ता हैं, सुख को चाहता है, वह संसारी है। जो सुख को मांगता है, दुख से बचना चाहता है वह संसारी है। जो सुख-दुख दोनों को छोड़ने को राजी है, वह संन्यासी है।

संन्यासी पहले शांत हो जाता है। लेकिन संन्यासी की शांति संसारी को बड़ी उदास लगेगी; मंदिर का सन्नाटा मालूम होगा। वह कहेगा, यह तुम क्या कर रहे हो? जी लो, जीवन थोड़े दिन का है। यह राग-रंग सदा न रहेगा, कर लो, भोग लो। उसे पता ही नहीं, शांति का जिसे स्वाद आ गया उसे सुख-दुख दोनों ही तिक्त और कड़वे हो जाते हैं। और शांति में जो थिर होता गया--शांति यानी ध्यान; शांति में जो थिर होता गया, बैठ गई जिसकी ज्योति शांति में, तार जुड़ता गया, एक दिन अचानक पाएगा, आनंद बरस गया...............~ "ओशो"~

Tuesday 29 April 2014

प्रवेश द्वार (Note)

कभी आपने अगर खो-खो_खेल देखा या खेला !! यदि हाँ तो इस बात का अर्थ समझते देर नहि लगेगी , कितनी तरीको से प्रवेश संभव है , कहीं से भी एक झलक और आप ज्ञान के अंदर और दूजे पल ज्ञान का प्रवेश ह्रदय द्वार मे । खेल खेलते समय बालक प्रसन्न होते है किन्तु केंद्रित होते है , फोकस_बालक लक्ष्य की ओर और प्रवेश द्वार खुल जाता है ... लक्ष्य की स्पष्टता ही प्रेरक का काम करती हैं , और इसी खेल_प्रसन्नता के भाव से आपकी प्रेरणाएँ आपको दिशा निर्देशन करती है।

महत्वपूर्ण ये है की आप स्वयं से क्या चाहते है , सर्वप्रथम ये सुनिश्चित करना आवश्यक है , इसके पश्चात् अपने ह्रदय के मौन को समझना आवश्यक है , कुछ तर्क सुनने को मिलेंगे कीं दिल में तो खून और मांस के सिवा कुछ नहीं , ये भाषा विग्यान की है , जो सिर्फ़ प्रमाण स्वीकार करते है वो मस्तिष्क मे जीते है .... विचार कीजिये ! अच्छा भला जीवित इन्सान जिसको जलती माचिस की तीली से छाला पड़ जाता था , आज वो आग की लपटों मे घिरा है , जल रही है उसकी देह परन्तु न छाला , न दर्द न चीत्कार। क्या ऐसा था जो चला ग़या ? ये विज्ञान की पकड़ मे भी नही।

मित्रों ! तरंगो के भी प्रमाण है , सूक्ष्म से सूक्ष्म तरंगे यंत्रों की पकड में आती हैं किन्तु फिर भी "यंत्र" यंत्र ही है, आप द्वरा निर्मित ... आपके आदेश के गुलाम , उससे अधिक कुच्छ नहीं। पूरी तरंगे पकड़ने में यंत्र अभी भी सक्षम नही , उदाहरण की लिए चक्रो की ऊर्जा का विश्लेषण और प्रमाण अभी भी विज्ञानं जगत में नहीं , रीढ़ को काट के देख ले एक भी चक्रीय ऊर्जा का सूक्ष्म सा भी प्रमाण नहीं मिलेगा। इसी तरह मस्तिष्क मे जिस ऊर्जा का वास है उसका सम्बन्ध तर्क से है , हठ से है , और आज्ञां से है , इसी प्रकार ह्रदय में जिस ऊर्जा का वास हैं उसके संबन्ध भाव से है और भाव अपने शुद्धतम रूप में परम से जुड़ता है। इसीलिए ध्यान द्वारा योगी को आज्ञा के माध्यम से मस्तिष्क पे काबू पाते हुए भाव में प्रवेश करना होता है , वही पे भावज्ञान का दीपक जला हुआ मिलता हैं।

ये उपर्युक्त तब संभव है जब आप स्वयं को जान लेते है ,

शुरूआती उलझन है , किस द्वार से प्रवेश हो , कोई भी एक धागा सूत्र का पकड में आ जाएं , तो बस छोड़ना नहीं हैं। एक एक कदम चल पड़ना हैं ," बेबी स्टेप " ........कुछ तत्व ज्ञानी कहते है स्वयं को जानते ही , आपकी ज्ञात यात्रा आरम्भ हो जाती है , हालाँकि अपनी अज्ञात यात्रा में तो आप जन्म से जुड़ें हैं , संभवतः जन्मो से।

आपको ये द्वार अपनी दैनिक दिनचर्या से लेकार , किसी विशेष मानसिक अवस्था या समय या अवधि या स्थान में भी दिख सकता है। कही से परिचय हो सकता हैं , कहीं से भी उत्पत्ति कर्ता अपने स्वरुप का परिचय करा सकते हैं।

दूसरे शब्दों मे ," आप तपस्या मे है , अभी अज्ञात है जब ज्ञात होंगी तो आपको सत्य के दर्शन होंगे ,ज्ञान गंगा अवतरण के लिये आपको हर वखत तैयार रहना है , भूमि बनानी है , दृढता से पैर ज़माने है, एकदम शिव समान , ताकि उसका वेग आपको विचलित न कर सके , और परम आपको गंगा अवश्य भेंट करेंगे। "

ध्यान दीजियेगा , प्रश्न सही और गलत का नहीं , प्रश्न धारा का है , और मुझे क्या चाहिए ! उदाहरण के लिये यदि आप अपना रुझान कर्म कांडो मे पाते है , तो आपको धर्म व्यवस्था भली लगेगी , यदि आप अपना रुझान सीधा परम से जोड़ने मे पाते है तो आपको अध्यात्म और ध्यान का रास्ता प्रीतिकर लगेगा। व्यवस्था मे उलझाव है , भ्रम है , स्वयं काटने पड़ते है एक एक फेरे व्यवस्था के , अभिमन्यु भेदन करके केंद्र तक जाना पड़ता है , थोड़ा कठिन हो जाता है क्यूंकि , समाज धर्म रीति रिवाज़ इन सबके कुछ नियम है और आपसे तदनुसार अपेक्षाएं है , यदि आप सामाजिक है तो आप उन अपेक्षाओं को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते , जबकि अध्यात्म मे आपको सीधे नाभी से जोड़ता है और ये नाभी परम से जुड़ती है। इसमें शुरुआत में सबसे बड़ा युद्ध स्वयम से ही है , एक एक फेरे अपने ही काटने है।

कोई रास्ता न कठिन है न सरल सिर्फ़ आपकी यात्रा और रुझान पे निर्भर है। जहाँ रूचि वहाँ कठनाई और असंभव शब्द प्रवेश नहीं कर पाते। सिर्फ व्यक्ति चल पड़ते है , फिर रास्ते जहाँ ले जाएँ।

चित्रकारी नृत्य गीत संगीत युक्त विभिन्न कलाएं , एक एक विषय , स्वयम विज्ञानं , गणित , प्रकृति की गोद , फूलोँ का सानिध्य , जल का बहना , समंदर में लहरो का उठना और बिखरना , पक्षी का उड़ना , नैसर्गिक सौन्दर्य , जीवों की सहजता , सरलता , प्रकृति से वार्तालाप , …।

सबसे एक ही स्वर एक ही नाद निकल निकल रहा है वो 
है 
ओमकार का , परम का। क्यूंकि शब्दों मे भी भेद करके फ़िर उनके छोटे छोटे टुकड़े करके इधर उधर फेंकने मे हमारा मस्तिष्क माहिर है , तो ये आखिरी शब्द भी मानवीय भेद से बच नहीं सकता। इनसे भी पार जो है वो शून्य है , मित्रों "उसको" इस नाम के चक्कलस से बाहर ही रखें , वर्ना उसका तो कुछ नहीं जायेगा आपका ही दिमाग हरकत मे दोबारा आ जायेगा। 



































(The beautiful ancient Angel Oak Tree in Angel Oak Park, on Johns Island, Southern Carolina.)

(चित्र मे आप देख रहे है ! घना वृक्ष जिसकी अनगिनत छोटी बड़ी शाखाये मूल विकसित उन्नत तने से निकल रहीं है , और ये तना अपनी जडों से जुड़ा हुआ है , यानि कि उद्गम स्थल , जहाँ कभी इस वृक्ष का बीज पड़ा होगा। अब इसको समझने के लिये , किसी पत्ती के द्वारा बड़ी छोटी शाखाओं से होते हुए उद्गम तक पहुंचे , या फ़िर सीधा बीज स्वरुप हो के एक एक पत्ती तक जायेँ , पर यात्रा पूरी करनी ही होंगी। जिस तरह ये वृक्ष आपसे बहुत कुछ कह रहा है वैसे ही प्रकृति का कण कण आपसे सब कुछ कह रहा है। सुनिए , मौन में उस मुखर आवाज़ को। )






असीम शुभकामनायें



ॐ    ॐ    ॐ

Monday 28 April 2014

आसमान / धरती से जुड़ा "मैं " ; एकत्व से एकाकार हुआ मेरा अस्तित्व (Note )

मित्रों , ये चित्र स्वयम मे सब कुछ कह रहा है .... इस सूर्य_केंद्र में ... परम_केंद्र में .... और आपके ह्रदय_केंद्र में ... कर्त्तव्य रूप में कोई फर्क नहीं , अपितु ब्रह्मण्ड के सभी केंद्र (रेखागणित के रूप में) एक समान गुणधर्म वाले है , शक्ति सबमे विद्यमान ! विज्ञान भी यही कहता है - प्रकाश-किरणों का स्वभाव ही चहूँ दिशाओं मे समान रूप से फैलना है ....... ध्यान से देखिये !!! ऊर्जा का केंद्र बिंदु ओम से ऊर्जान्वित है , और इसकी किरणे यत्रतत्र सर्वत्र बिखर रही है , कोइ भेद नहीं है , ये सूर्य का चित्र है , सामान्य रुप से ऐसा ही प्रकाशित ऊर्जा_केंद्र .. हम मे से ..हर एक मे .. है , ऐसी ही ऊर्जा का मुख्य केंद्र भी ऐसा ही है , भाव हमारी तरंगे है जो सूर्य किरण का रुप है , और विस्तृत अर्थ मे परम ऊर्जा का नाभि स्थल जिसका एक छोर हमारी नाभि यानी कि भाव से जुड़ा है। जब उसके प्रकाश फैलाने मे किरणे भेद नहीं करती तो हम भी नहीं कर सकते क्यूंकि ऐसी हि किरणे हम सबसे निकल रही है , जिनको रोकना या विपरीत विचार भी बाधा डालता है , जब भी हम प्रकति के विपरीत चलते है कष्ट होता ही है। 

Photo: आसमान / धरती से जुड़ा "मैं " ; एकत्व से एकाकार हुआ मेरा  अस्तित्व  : 
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एक तरफ  मै जुड़ा अपने स्रोत से , दूसरी तरफ मैं बंधा  भावनाओ से , एक तरफ "मैं " छटपटाता   मिलने " मैं " से  तो दूजी तरफ मेरा "मै"  बन्द  दरवाजा , एक तरफ  में जुड़ा धरा से  , दूजी तरफ  मेरा " मै "  ... उड़ता  ब्रह्मण्ड मे , एकतरफ  इस इश्क़  ने जकड़ा  दूजी तरफ  उस इश्क़  ने पकडा।  "मैं" इधर भी  "मैं" उधर भी।   मेरा "मैं"  सोच में था  किसकी बेड़ी काटूं.....धरती की या आसमाँ  की  ?  किसको गले लगाऊँ ?  किसको  अपनाउं  किसको  त्यागूँ  , कोइ भी त्याग योग्य नहीं ,धरती की बेड़ी काटता हूँ  तो  पंचतत्व  से जाता हूँ , और अगर आसमान  से अलग होता हूँ , तो जीते ज़ी  मर जाता हूँ .....

क्या करूँ ?  

क्या करूँ ?  

समझ नहीं आता , ये उलझन है की  सुलझती ही नहीं।  

पंचतत्व से जुड़े  कर्म  मेरी जिम्मेदारी है , और परम से जुड़ाव  मेरी नाभि  से है ....

आप मे भी यही उलझन जागती होंगी  ,  

एक को पकडो तो एक छूटता ही है , अब क्या करें ? 

सहसा  दिल ने कहा ,'  क्यों इतनी सोच ? क्यों इतना भटकाव ? प्रेम  उत्तर है तेरे  हर मलाल का , प्रेम कर , खुद से  खुदा से  और  खुदा  के बन्दों से  , न किसी को छोड़ना  है न किसी को पाना है , ये ख्याल ही सिर्फ़   ख़याल है ,  कि कुछ छूट रहा है , कुछ को पाने मे।  

" सबसे पहले ये ख्याल  रूखसत  कर , की तु कर्ता  है  के  भोक्ता  है।  बैठ  आसान लगा  चुपचाप  महसूस कर एक एक सांस  का आना और जाना , जो सांस  तु ले रहा है  वो प्रयास रहित है , सांस  लेते वक्त  जो  प्राण अंदर जा रहे है  वो प्रयास रहित है ,  किसी फूल के नज़दीक  जा के देख  , सुगंध उठी  और  मन पुलकित होगया , न तूने कुछ  कर्म  किया  और न हि उस फुल ने  अपनी  शक्ति  को तुझपर  जाया किया , सब कुछ हो ग़या , स्वतः "

यही प्रकृति है।   और इसी  को आत्मसात करना है  कि हम कुछ कर नही रहे , स्वतः हो रहा है ,  

इस " करने " के भाव को स्वयं से  अलग कीजिये , महसूस  किजिये  की  आप मे क्या क्या प्रकृति प्रदत्त भाव  है , तत्व है।  जो मौलिक है ; वो सब आप नहीं कर रहे।  उदाहरण के लिए ,  मूलभूत  भाव है , प्रेम का  वो आप कर नहि सकते , ये तो बहाव है , जो अपने से हो रहा है , अब ये प्रेम  मात्र  पितृ   भाई बन्धु  बहन  पत्नी  पति  मित्र  कैसा भी हो सकता है जैसा भी  रिश्ता बनेगा  भाव उत्पन्न होगा।  प्रेम के अंदर ही जिंम्मेदारी और करुणा के फल लगते है।  तो ये भी  आप कर नही  रहे  , हो रहा है , इसको  समझने के लिये ज्यादा दूर नहीं  सिर्फ प्रकृति  कि गोद मे बैठना है।  जीव जंतु को देखना है  क्यूंकि वो अत्यंत  स्वाभाविक है, अभी इतना संज्ञान उनमे  नहि ,  अभी नकलीपन  उनमे नहि।  अगर वो  अपनी संतानो को  पाल पोस रहे है  तो हम इसमें कौन सा  कमाल कर रहे है ? 

स्वाभाविक प्रेम हो रहा है , भूक लग रही है , स्वास  आ जा रही है ,स्वाभाविक नींद  शरीर  स्वयम से  ले रहा है, प्यास  लगी है  यानि कि शरिर  क़ी जल क़ी इक्छा  स्वाभाविक है ,यदि  आपमे करुणा जाग रही है  तो वो भी  आपका मूल स्वाभाव है  .... 

तो फ़िर आपके अंदर  अस्वाभाविक क़्या क़्या है ! और  इसके विपरीत  कमाल क्या है , मनुष्य का ! 
विचार कीजिये ...... ! 
सोचिये ......! 
ऐसा क्या आप मूल मे है जो अन्य अधिकांश  जीव मे नही  ,  बहुत  मौलिक  और मूल भाव   पहला   बहुत  मित्रों के मन मे आएगा  बुद्धि !  दूसरा  उत्तर  आएगा भाव    कुछ प्रतिशत  सच भी है , पर सम्पूर्ण सच ये नहीं , ये तो प्रेरक है  उस  बिंदु तक पहुँचने के , अध्यात्म का फल  , ये सिर्फ़  मानव  के  ह्रदय मे चक्रों द्वारा  उपजता है , उपलब्धियों का फल , विज्ञानं का फल  किसी जीव में नहीं लगता  , ये सिर्फ़  मानव  की बुद्धि मे खिलता है। विभिन्न विषय ज्ञान  कला  अादि  के फल मनुष्यता की देन है  किसी और के लिये   नहीं  हम जो भी कर रहे है मनुष्य के लिये ही कर रहे है , बहुत सीमित दायरे मे;  इसमें भी  हम स्वार्थी है अपने समाज के , अपने घर के  , अपने दो चार प्रियजन तक  सिर्फ़ अपने दायरे तक , अपने दड़बे  से बाहर  निकल के कभी देखा ही नहीं , वास्तविकता  से सामना किया हीं नहीं  और उम्र गुजार दी। अधिकांश का यही जीवन है और सबसे ज्यादा अस्वाभाविक है , नकलीपन का आवरण के साथ ही  सार्वभौमिक  होने का विचार, यानि कि करेला  वो भी नीम चढ़ा  

मन  स्वयं मे रेगिस्तान है  और इसी कारण मन मे भटकते जीव को  भोलेपन  के कारण  ही मृग  कह्ते है , और  इक्षाएं   मृगमरीचिका , जो लगती है कि कभी  पूरी हो रही है  और कभी अधूरी रह जाती  हुई सी , वास्तव मे  इनका अस्तित्व ही नहीं , इनके  मायावी रूप का पता भी तभी चलता है  जब  जीव (अंतरात्मा ) मे जागरण  होता है। 

मित्रों , जिम्मेदारी और करुणा  प्रेम से ही प्रकट होते है , बिन प्रेम के यदि ये भाव प्रकट हुए है  तो छल है , फ़िर तो करुणा भी छल है और जिम्मेदारी भी  छल है , ध्यान दीजियेगा, ऐसी  करुणा  ऐसी जिम्मेेदारी  , कहीं गहरे  अंदर  मे ये आपके ही  किसी लौकिक  निजी भाव का ही तुष्टिकरण है।  

ध्यान कीजिये , अंतरयात्रा कीजिए .... प्याज के छिलके उतरने दीजिये , एक एक करके  स्वयं से साक्षात्कार कीजिये  ! 

मित्रों , ये चित्र  स्वयम मे सब कुछ कह रहा है  .... इस सूर्य_केंद्र में ... परम_केंद्र में .... और आपके ह्रदय_केंद्र  में ... कर्त्तव्य रूप में कोई फर्क नहीं , अपितु  ब्रह्मण्ड के सभी केंद्र  (रेखागणित  के रूप में) एक समान गुणधर्म  वाले  है , शक्ति सबमे विद्यमान ! विज्ञान भी यही कहता है - प्रकाश-किरणों का स्वभाव ही चहूँ दिशाओं मे समान रूप से  फैलना है ....... ध्यान से देखिये !!! ऊर्जा का केंद्र  बिंदु  ओम  से ऊर्जान्वित है , और इसकी किरणे  यत्रतत्र  सर्वत्र  बिखर रही है , कोइ भेद नहीं है ,   ये  सूर्य  का चित्र है , सामान्य रुप से ऐसा ही  प्रकाशित ऊर्जा  हममे से  हर एक मे है , ऐसी  ही ऊर्जा का मुख्य  केंद्र भी ऐसा ही है ,  भाव  हमारी  तरंगे  है  जो  सूर्य किरण का रुप है   , और  विस्तृत  अर्थ मे  परम ऊर्जा का  नाभि  स्थल  जिसका एक छोर  हमारी  नाभि  यानी कि भाव से जुड़ा है।   जब उसके प्रकाश  फैलाने  मे  किरणे भेद नहीं करती  तो हम भी नहीं कर सकते क्यूंकि ऐसी हि किरणे  हम सबसे निकल रही है , जिनको रोकना  या विपरीत विचार भी बाधा डालता है   , जब भी  हम प्रकति के विपरीत चलते है  कष्ट होता ही है।  

ॐ ॐ ॐ


एक तरफ मै जुड़ा अपने स्रोत से , दूसरी तरफ मैं बंधा भावनाओ से , एक तरफ "मैं " छटपटाता मिलने " मैं " से तो दूजी तरफ मेरा "मै" बन्द दरवाजा , एक तरफ में जुड़ा धरा से , दूजी तरफ मेरा " मै " ... उड़ता ब्रह्मण्ड मे , एकतरफ इस इश्क़ ने जकड़ा दूजी तरफ उस इश्क़ ने पकडा। "मैं" इधर भी "मैं" उधर भी। मेरा "मैं" सोच में था किसकी बेड़ी काटूं.....धरती की या आसमाँ की ? किसको गले लगाऊँ ? किसको अपनाउं किसको त्यागूँ , कोइ भी त्याग योग्य नहीं ,धरती की बेड़ी काटता हूँ तो पंचतत्व से जाता हूँ , और अगर आसमान से अलग होता हूँ , तो जीते ज़ी मर जाता हूँ .....

क्या करूँ ?

क्या करूँ ?

समझ नहीं आता , ये उलझन है की सुलझती ही नहीं।

पंचतत्व से जुड़े कर्म मेरी जिम्मेदारी है , और परम से जुड़ाव मेरी नाभि से है ....

आप मे भी यही उलझन जागती होंगी ,

एक को पकडो तो एक छूटता ही है , अब क्या करें ?

सहसा दिल ने कहा ,' क्यों इतनी सोच ? क्यों इतना भटकाव ? प्रेम उत्तर है तेरे हर मलाल का , प्रेम कर , खुद से खुदा से और खुदा के बन्दों से , न किसी को छोड़ना है न किसी को पाना है , ये ख्याल ही सिर्फ़ ख़याल है , कि कुछ छूट रहा है , कुछ को पाने मे।

" सबसे पहले ये ख्याल रूखसत कर , की तु कर्ता है के भोक्ता है। बैठ आसान लगा चुपचाप महसूस कर एक एक सांस का आना और जाना , जो सांस तु ले रहा है वो प्रयास रहित है , सांस लेते वक्त जो प्राण अंदर जा रहे है वो प्रयास रहित है , किसी फूल के नज़दीक जा के देख , सुगंध उठी और मन पुलकित होगया , न तूने कुछ कर्म किया और न हि उस फुल ने अपनी शक्ति को तुझपर जाया किया , सब कुछ हो ग़या , स्वतः "

यही प्रकृति है। और इसी को आत्मसात करना है कि हम कुछ कर नही रहे , स्वतः हो रहा है ,

इस " करने " के भाव को स्वयं से अलग कीजिये , महसूस किजिये की आप मे क्या क्या प्रकृति प्रदत्त भाव है , तत्व है। जो मौलिक है ; वो सब आप नहीं कर रहे। उदाहरण के लिए , मूलभूत भाव है , प्रेम का वो आप कर नहि सकते , ये तो बहाव है , जो अपने से हो रहा है , अब ये प्रेम मात्र पितृ भाई बन्धु बहन पत्नी पति मित्र कैसा भी हो सकता है जैसा भी रिश्ता बनेगा भाव उत्पन्न होगा। प्रेम के अंदर ही जिंम्मेदारी और करुणा के फल लगते है। तो ये भी आप कर नही रहे , हो रहा है , इसको समझने के लिये ज्यादा दूर नहीं सिर्फ प्रकृति कि गोद मे बैठना है। जीव जंतु को देखना है क्यूंकि वो अत्यंत स्वाभाविक है, अभी इतना संज्ञान उनमे नहि , अभी नकलीपन उनमे नहि। अगर वो अपनी संतानो को पाल पोस रहे है तो हम इसमें कौन सा कमाल कर रहे है ?

स्वाभाविक प्रेम हो रहा है , भूक लग रही है , स्वास आ जा रही है ,स्वाभाविक नींद शरीर स्वयम से ले रहा है, प्यास लगी है यानि कि शरिर क़ी जल क़ी इक्छा स्वाभाविक है ,यदि आपमे करुणा जाग रही है तो वो भी आपका मूल स्वाभाव है ....

तो फ़िर आपके अंदर अस्वाभाविक क़्या क़्या है ! और इसके विपरीत कमाल क्या है , मनुष्य का !
विचार कीजिये ...... !
सोचिये ......!
ऐसा क्या आप मूल मे है जो अन्य अधिकांश जीव मे नही , बहुत मौलिक और मूल भाव पहला बहुत मित्रों के मन मे आएगा बुद्धि ! दूसरा उत्तर आएगा भाव कुछ प्रतिशत सच भी है , पर सम्पूर्ण सच ये नहीं , ये तो प्रेरक है उस बिंदु तक पहुँचने के , अध्यात्म का फल , ये सिर्फ़ मानव के ह्रदय मे चक्रों द्वारा उपजता है , उपलब्धियों का फल , विज्ञानं का फल किसी जीव में नहीं लगता , ये सिर्फ़ मानव की बुद्धि मे खिलता है। विभिन्न विषय ज्ञान कला अादि के फल मनुष्यता की देन है किसी और के लिये नहीं हम जो भी कर रहे है मनुष्य के लिये ही कर रहे है , बहुत सीमित दायरे मे; इसमें भी हम स्वार्थी है अपने समाज के , अपने घर के , अपने दो चार प्रियजन तक सिर्फ़ अपने दायरे तक , अपने दड़बे से बाहर निकल के कभी देखा ही नहीं , वास्तविकता से सामना किया हीं नहीं और उम्र गुजार दी। अधिकांश का यही जीवन है और सबसे ज्यादा अस्वाभाविक है , नकलीपन का आवरण के साथ ही सार्वभौमिक होने का विचार, यानि कि करेला वो भी नीम चढ़ा

मन स्वयं मे रेगिस्तान है और इसी कारण मन मे भटकते जीव को भोलेपन के कारण ही मृग कह्ते है , और इक्षाएं मृगमरीचिका , जो लगती है कि कभी पूरी हो रही है और कभी अधूरी रह जाती हुई सी , वास्तव मे इनका अस्तित्व ही नहीं , इनके मायावी रूप का पता भी तभी चलता है जब जीव (अंतरात्मा ) मे जागरण होता है।

मित्रों , जिम्मेदारी और करुणा प्रेम से ही प्रकट होते है , बिन प्रेम के यदि ये भाव प्रकट हुए है तो छल है , फ़िर तो करुणा भी छल है और जिम्मेदारी भी छल है , ध्यान दीजियेगा, ऐसी करुणा ऐसी जिम्मेेदारी , कहीं गहरे अंदर मे ये आपके ही किसी लौकिक निजी भाव का ही तुष्टिकरण है।

ध्यान कीजिये , अंतरयात्रा कीजिए .... 

प्याज के छिलके उतरने दीजिये , एक एक करके स्वयं से साक्षात्कार कीजिये ! 



ॐ ॐ ॐ

तुम बोले चले जा रहे हो--अकेले हो तो, नहीं अकेले हो तो। ( Osho )
























तुम बोले चले जा रहे हो--अकेले हो तो, नहीं अकेले हो तो। 

ज्ञानी ऐसा नहीं बोलता। 

ज्ञानी अपने अकेले में तो बोलता ही नहीं। अपने अकेले में तो वह शून्य मंदिर की भांति होता है, जहां गहन सन्नाटा है, जहां निबिड़ मौन है, जहां विचार की एक तरंग भी नहीं आती। झील बिलकुल बिलकुल शांत है, जहां एक शब्द नहीं उठता, एक ध्वनि नहीं उठती। अपने अकेले में तो बोलना बिलकुल निष्प्रयोजन है। तो ज्ञानी चुप है अपने एकांत में। और जब वह दूसरे से भी बोलता है तब भी उसका बोलना रेचन नहीं है। बोलना उसकी बीमारी नहीं है। चुप होने में वह कुशल है। बोलना उसकी आवश्यकता नहीं है। वह अगर दो-चार साल न बोले तो कोई परेशानी नहीं होगी। वह वैसा ही होगा जैसा बोलता था तब था। शायद बोलने में थोड़ी परेशानी हो, मौन में उसे कोई परेशानी न होगी। बोलने में परेशानी होती है। क्योंकि उसे उन सत्यों के लिए शब्द खोजने पड़ते हैं, जिनके लिए कोई शब्द नहीं।

उसे उन अनुभूतियों को बांधना पड़ता है रूप में, आकार में, जो निराकार की हैं। उसकी कठिनता बड़ी गहन है। और सब कुछ करके भी उसे पता चलता है कि वह जो कहना चाहता था वह तो नहीं कह पाया। शब्दों का कितना ही मालिक हो वह, कितना ही धनी हो शब्दों का, विचार उसके कितने ही साफ, निखरे हुए हों, तो भी जब वह सत्य को कहता है तो पाता है, सब धूमिल हो गया, बात कुछ बनी नहीं। इसीलिए तो बार-बार कहता है।



एकांत में हंस लेता हूँ ! लेकिन तुम्हारे सामने हंसना असंभव है ! ( Osho )

प्यारे ओशो, 


आप हमें इतना हंसाते है, मगर स्वयं कभी क्यूँ नहीं हँसते ? 

























Osho , " एकांत में हँसता हूँ ! इधर तो तुमको देखता हूँ तो रोना आता है ! 

आदमी की हालत इतनी बुरी है कि हंसो तो कैसे हंसो ! 

आदमी बड़ी दयनीय अवस्था में है, बड़ी आतंरिक पीड़ा में है ! 

कैसे जिंदा है , यह भी आश्चर्य की बात है !

इसलिए तुम्हें तो हंसा देता हूँ , लेकिन खुद नहीं हँस पाता हूँ ! 

एकांत में हंस लेता हूँ ! 

जब तुम नहीं होते, जब तुम्हारी याद बिलकुल भूल जाती है, 

तुम्हारे चेहरे नहीं दिखाई पड़ते, तुम्हारी पीड़ा, तुम्हारा दुःख विस्मृत हो जाता है - तब हंस लेता हूँ ! 4

लेकिन तुम्हारे सामने हंसना असंभव है !





























जिनकी साँसों में कभी गंध न फूलों की बसी

शोख़ कलियों पे जिन्होंने सदा फब्ती ही कसी


जिनकी पलकों के चमन में कोई तितली न फंसी


जिनके होंठों पे कभी आई न भूले से हंसी 

;
ऐसे मनहूसों को जी भर के हंसा लूँ तो हंसू,


अभी हँसता हूँ , जरा मूड में आ लूँ तो हंसू !



बेख़ुदी में जो कभी पंख लगाकर न उड़े

होश में जो न महकती हुई जुल्हों से जुड़े


देखकर काली घटाओं को हमेशा जो कुढ़े


कभी मयखाने की जानिब न कदम जिनके मुड़े;


उन गुनाहगारों को दो घूंट पिला लूँ तो हंसू ,


अभी हँसता हूँ , जरा मूड में आ लूँ तो हंसू !



जन्म लेते ही अभावों की जो चक्की में पिसे

जान पाए न जो, बचपन यहाँ कहते हैं किसे

जिनके हांथों ने जवानी में भी पत्थर ही घिसे


और पीरी में जो नासूर के मानिंद रिसे 

;
उन यतीमों को कलेजे से लगा लूँ तो हंसू

 ,
अभी हँसता हूँ , जरा मूड में आ लूँ तो हंसू !



जिनकी हर सुबह सुलगती हुई यादों में कटी

और दोपहरी सिसकते हुए वादों में कटी


शाम जिनकी नए झगड़ों में, फसादों में कटी


रात बस ख़ुदकुशी करने के इरादों में कटी

;
ऐसे कमबख्तों को मरने से बचा लूँ तो हंसू

 ,
अभी हँसता हूँ , जरा मूड में आ लूँ तो हंसू !































 हंसना मुश्किल है ! 

मनुष्य को देखकर आंसुओं को रोक लेता हूँ, यही काफी है !

तुम्हारे प्रश्न के उत्तर थोड़े ही देता हूँ ! तुम्हारी पिटाई करता हूँ ! 

तुम्हारे प्रश्न तो बहाने हैं कि मैं तुम्हें झकझोर सकूँ ! 

इसलिए तुमसे कहता हूँ पूछो ! 

उत्तर देने का थोड़े ही सवाल है ; कुटाई -पिटाई करने का सवाल है ! 























उत्तरों से थोड़े ही तुम जागने वाले हो ! 

उत्तर तो तुम पी गए सदियों - सदियों में ! 

उत्तर पीने में तो तुम ऐसे कुशल हो कि शास्त्रों को पी जाओ और डकार न

लो !!

Sunday 27 April 2014

The Beauty of meditation : primary meditational Stages (hints)-(Note)

जिसको तुम खोज रहे हो, वह तुम्हारे भीतर मौजूद है। जिसके लिए तुम जन्मों-जन्मों से भटक रहे हो, उसे एक क्षण को भी तुमने गंवाया नहीं है, वह सदा से तुम्हारे भीतर बैठा है। अपने भीतर लौट आओ। जरा लौटो, बस इतना ही तो मेरा शिक्षण है। अपनी तरफ आंख खोलो। अपनी किताब खोलो। अपने प्राणों को पढ़ो। अपनी आत्मा को पहचानो। और फिर कोई असंतोष नहीं, कोई दुख नहीं, कोई पीड़ा नहीं। स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं। Osho - Apui Gai Hirai - 10

Photo: The  Beauty of meditation :  primary meditational  Stages (hints):
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In the  very 1rst stage you will find difficult  even settings  ,  concentration is  next too difficult thing  cause  of chaos  of mind ... for long even you not able to close  eyes . so no worries . its just start .... 

Soon you will able to  manage  sittings according to your comfort   ,  and now you get involved  try to  concentrate upon your mental and emotional  runnings ,this is very Important  Passing  in  entire  meditational sittings   because  this stage will introduce  yourself  from  you , like  a Mirror  you may able to see  yourself clearly , your problems  sufferings   weakness  and  all those  whatever you want to explore  within  .. do not rush to pass this stage quickly  you must give  time to settle  chaos completely .   I am  using minimum worlds  here  to explain better ,'   i can say  all chaos are  mantel products  ,  one catalytic  is  live  with you , that is also  a mind product ,   from  maunda  or   mind Maunda  is  forcefully  suggestive  some times it looks  submissive  another is mind  that is very logical  very curious  and   aggressive  , all your very inner mental  conditions . 

as you  encountered  with you own mind  and his  workings , soon you will able to do separate ... chaos  and   your basic  peace . With this  you will also realises about shapes  and causes  of   interferences.  and  you will  able to get detached yourself  from  any  Interferences  from Others  matters .  your judgmental instinct  will fell down .  

On continuation of meditation  , after some time ; you will able to see , not only see   because  everyone knows ( if your process is from heart and with truthfulness ) but this time  you get  strong feel  about  oneness  with other spirits ,  in any form  and in any shape   from entire nature . 

Then  as fruit , you will  have to realise  about the everyone has Birth right  to live  with their  pains and pleasures ... whatever  they have  pre distinct .  and  with this  suddenly  with the feel of Sakshi  you will  go  much away  from  the feel  of  doing .  another feel comes in   happening .  and this beautiful feel  give you abundance   calmness  peace  and happiness , because now you are in Sakshi Bhava  for yourself  and for  entire  Universe . 

In the last  ....  Prayers  for peace ...  for love ... for light , 

be with faith , Sure ! your Inner Sd-Guru  will help you ....  will show ...  you  right Path   of  your distinct , be patient  and  just believe  on yourself . one thing is clear  you are  not here  for any gains , here you get ready to loose one by one  everything  whatever  you had dress_up artificially .  Only "one"  thing will  be left with you  that is your own being . 

ॐ ॐ ॐ

(Dost ,  you may attain  this stage , minimum  in a  Minute ..if  you are ready for , if not  it may take unlimited time  may be years .. cause  all is  up to you for you , but one thing is i can say  nothing is impossible  if  wish is there .. wish is will )


In the very 1rst stage you will find difficult even settings , concentration is next too difficult thing cause of chaos of mind ... for long even you not able to close eyes . so no worries . its just start ....

Soon you will able to manage sittings according to your comfort , and now you get involved try to concentrate upon your mental and emotional runnings ,this is very Important Passing in entire meditational sittings because this stage will introduce yourself from you , like a Mirror you may able to see yourself clearly , your problems sufferings weakness and all those whatever you want to explore within .. do not rush to pass this stage quickly you must give time to settle chaos completely . I am using minimum worlds here to explain better ,' i can say all chaos are mantel products , one catalytic is live with you , that is also a mind product , from maunda or mind Maunda is forcefully suggestive some times it looks submissive another is mind that is very logical very curious and aggressive , all your very inner mental conditions .

as you encountered with you own mind and his workings , soon you will able to do separate ... chaos and your basic peace . With this you will also realises about shapes and causes of interferences. and you will able to get detached yourself from any Interferences from Others matters . your judgmental instinct will fell down .

On continuation of meditation , after some time ; you will able to see , not only see because everyone knows ( if your process is from heart and with truthfulness ) but this time you get strong feel about oneness with other spirits , in any form and in any shape from entire nature .

Then as fruit , you will have to realise about the everyone has Birth right to live with their pains and pleasures ... whatever they have pre distinct . and with this suddenly with the feel of Sakshi you will go much away from the feel of doing . another feel comes in happening . and this beautiful feel give you abundance calmness peace and happiness , because now you are in Sakshi Bhava for yourself and for entire Universe .

In the last .... Prayers for peace ... for love ... for light ,

be with faith , Sure ! your Inner Sd-Guru will help you .... will show ... you right Path of your distinct , be patient and just believe on yourself . one thing is clear you are not here for any gains , here you get ready to loose one by one everything whatever you had dress_up artificially . Only "one" thing will be left with you that is your own being . 



ॐ ॐ ॐ


(Dost , you may attain this stage , minimum in a Minute ..if you are ready for , if not it may take unlimited time may be years .. cause all is up to you for you , but one thing is i can say nothing is impossible if wish is there .. wish is will )

मन-आश्रम (note)

Photo: मन-आश्रम :
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एक सुखद  , नाम मे ही शीतलता , और सानिध्य  बुद्ध का ,   सहभागी  मित्र  सत्संगी  . एक आश्रम कि यही कल्पना  भी है और वास्तविकता  भी यही  है जो  आश्रम की ओर कदम बढ़ चलते है। 

जरा सोचिये !  नदी  का निर्मल घाट  बस आपसे चन्द कदम  की दूरी पर , आपका  निवास  शांत  हरियाली  और नैसर्गिक  सौंदर्य  से भरा ,  पक्षी  उड़ते  , मछलिया  तैरती ,  मृग  विहग  आपके चारोँ ओर   सिर्फ़ आपको  निहार रहे है  प्रेम से , और इन्तजार मे है कि आपका ध्यान समाप्त हो और आप उनको भोजन दें, 

या समंदर  का किनारा ,   स्वक्छ  तेज  चलती  समुद्री हवाएँ  , बरबस  मन खिंचा चला जाता है   , किसी  सुन्दर  जगह कि तरफ।  जहाँ सिर्फ शांति हो  , सिर्फ़ प्रेम हो , संसार की सांसारिकता से अलग  कुछ पल  जीवन के जीने कि इक्छा  सभी की होती है। 

पर क्या  वास्तव मे ऐसा  आश्रम  है ? आत्मा  क्यों  भटकती हैँ इधर उधर ? क्या चाहिए  आखिरकार ? जरूर  कुछ मिलता भी होगा , अधिक धन  खर्च करके  थोड़ा  चैन , थोड़े  सुकून , इसीकारण  तो  लोग लालायित  रहते है।  

शायद स्वयं से  वो निर्मित नहीं कर पा रहे  है ऎसी व्यवस्था , इसीलिए  कहीं की भी सुचना  मिलते ही , प्यास से छटपटाते  हाजिर हो जाते है , थोड़े से  शीतल जल की  इक्छा  लिये।  

पर  हर किसी को ऐसा मनोवांछित  मनोहर  स्थान  सुलभ भी नहीं, फ़िर क्या करें ?  

मित्रों  भटकने  से लाख गुना  अच्छा ,  मन को  स्थिर करें  , मस्तिष्क  को  समझे ,  स्थिर  ह्रदय के साथ   हर स्थान उतना ही  मनमोहक बन जाता है , 

"अपना मन चंगा  तो कठौती  मे गंगा "

श्रम भी बचेगा , धन भी बचेगा , और  आप अनावश्यक  भीड़  तथा  धोखे  से भी  बच  सकेंगे।   

एम्बिएंस  तो अपना  काम है , जहा खड़े  एम्बिएंस  बना लिया।   सब कुछ अपने ही अंदर है ,  हजारों इक्छाओं  से लिप्त  धागे  जितने उलझे  और दुष्कर  दिखते  है ,  दरअसल  उतने ही सुलझे  और एक एक करके  हर   धागा  अंदर को ही जाता है। वहीं उसका मूल उद्गम है।  वहीँ आश्रम  वहीँ ज्ञान , वहीं गुरु  , वहीं प्रेम  सब कुछ वहीं है , इस बार ध्यान से देखिएगा !

कहीं नहीं  भटकना ,  प्रेम से  अपनी ही जगह पे  आसन लग के ,  प्रेम मुद्रा  के साथ , गहरी साँसे लेते हुए , स्वयं को  भेंट करना है  स्वयं अपने आपको।  

ॐ ॐ ॐ

एक सुखद, नाम मे ही शीतलता , और सानिध्य बुद्ध का , सहभागी मित्र सत्संगी . एक आश्रम कि यही कल्पना भी है और वास्तविकता भी यही है जो आश्रम की ओर कदम बढ़ चलते है। 

जरा सोचिये ! नदी का निर्मल घाट बस आपसे च
न्द कदम की दूरी पर , आपका निवास शांत हरियाली और नैसर्गिक सौंदर्य से भरा , पक्षी उड़ते , मछलिया तैरती , मृग विहग आपके चारोँ ओर सिर्फ़ आपको निहार रहे है प्रेम से , और इन्तजार मे है कि आपका ध्यान समाप्त हो और आप उनको भोजन दें,

या समंदर का किनारा , स्वक्छ तेज चलती समुद्री हवाएँ , बरबस मन खिंचा चला जाता है , किसी सुन्दर जगह कि तरफ। जहाँ सिर्फ शांति हो , सिर्फ़ प्रेम हो , संसार की सांसारिकता से अलग कुछ पल जीवन के जीने कि इक्छा सभी की होती है।

पर क्या वास्तव मे ऐसा आश्रम है ? आत्मा क्यों भटकती हैँ इधर उधर ? क्या चाहिए आखिरकार ? जरूर कुछ मिलता भी होगा , अधिक धन खर्च करके थोड़ा चैन , थोड़े सुकून , इसीकारण तो लोग लालायित रहते है।

शायद स्वयं से वो निर्मित नहीं कर पा रहे है ऎसी व्यवस्था , इसीलिए कहीं की भी सुचना मिलते ही , प्यास से छटपटाते हाजिर हो जाते है , थोड़े से शीतल जल की इक्छा लिये।

पर हर किसी को ऐसा मनोवांछित मनोहर स्थान सुलभ भी नहीं, फ़िर क्या करें ?

मित्रों भटकने से लाख गुना अच्छा , मन को स्थिर करें , मस्तिष्क को समझे , स्थिर ह्रदय के साथ हर स्थान उतना ही मनमोहक बन जाता है , 



"अपना मन चंगा तो कठौती मे गंगा "



श्रम भी बचेगा , धन भी बचेगा , और आप अनावश्यक भीड़ तथा धोखे से भी बच सकेंगे।

एम्बिएंस तो अपना काम है , जहा खड़े एम्बिएंस बना लिया। सब कुछ अपने ही अंदर है , हजारों इक्छाओं से लिप्त धागे जितने उलझे और दुष्कर दिखते है , दरअसल उतने ही सुलझे और एक एक करके हर धागा अंदर को ही जाता है। वहीं उसका मूल उद्गम है। वहीँ आश्रम वहीँ ज्ञान , वहीं गुरु , वहीं प्रेम सब कुछ वहीं है , इस बार ध्यान से देखिएगा !

कहीं नहीं भटकना , प्रेम से अपनी ही जगह पे आसन लग के , प्रेम मुद्रा के साथ , गहरी साँसे लेते हुए , स्वयं को भेंट करना है स्वयं अपने आपको। 



ॐ ॐ ॐ