Thursday 20 February 2014

प्रकृति के जन्म के ऋण से मुक्त सहजता सरलता के द्वार से (Note )



जल के समान तरल , सरल , शीतल ,निरंतर प्रवाहशील , ऐसा व्यक्तिव , खुद भी शीतल होता है और पर्यावरण भी उसको आशीर्वाद देता है। 
  



(कबीरा) : खड़ा बाजार में मांगे सबकी खैर
 .............ना काहु से दोस्ती काहु से बैर...

वास्तव में संसार का कोई भी व्यक्ति जिनको इस अस्सारता का अनुभव हुआ यही कहते है , " वहाँ कुछ नहीं है , तुम्हारा जो भी है वो तुमसे ले लिए जायेगा, " , निर्भार होने की सिर्फ यही एक स्थिति है।

प्याज के छिलके जैसा लौकिक गुरुर उतरता हुआ महसूस होता है , चहरे से जैसे एक एक करके नकाब स्वयं ही साथ छोड़ने लगते है , जिस छन इन नकाबो और प्याज के छिलको को अहसास होने लगता है कि स्वामी को अब मेरी आवशयकता नहीं। जैसे सूखे पेड़ से पत्ते झरते है वैसे ही आपके नकली आवरण आपका साथ छोड़ने लगते है।

और जैसे जैसे ये आपसे अलग होते जाते है , आप स्वयं को निर्भार महसूस करते जाते है , यही सारांश है जो ऊपर कहा गया।

गद्य , पद्य , कथा , ग्रन्थ , विवेचनाएं .... कितना भी लिखो पढ़ो धर्म और अधर्म पे कम है ,अपना ज्ञान अपना ही ज्ञान है , अपना अनुभव अपने ज्ञान से भी ऊपर है ,

ये संसार अथाह है असार है। वही स्थान और परिस्थिति उपयुक्त जो आपके लिए है और ज्यादा विद्वता कि स्थापना में लोग तार्किक होने लगते है। कोई लाभ नहीं तर्क में उतरने का , सच फिर भी वो ही है।

मन चंचल है , दिमाग तर्क से भरा , कोई भी एक सिरा किसी भी इक्छा का यदि पकड़ना चाहा , तो दूसरा झट करके प्रभाव बिखेरने लगता है। इक्छा का एक भी धागा अगर छूने कि कोशिश की तो माया का प्रभाव शुरू हो जाता है।

ये सम्भव ही नहीं कि सिर्फ अच्छा अच्छा ही आपकी झोली में गिरे , ये जीवन इक्छाओं से नहीं कर्मो से चलता है , और कर्म का स्रोत विचार , लेकिन धागे से सिर्फ बचनेका प्रयास ही कर सकते है , ये भी सच है कि हमारे जन्म के साथ ही ये धागे हमसे लिपटने लगते है। पर वो सिर्फ एकतरफ से होते है , धागे के दूसरे सिरे का प्रभाव तो तब पड़ना शुरू होता है जब हमारा दिमाग इनको स्वीकार करके इनके लिए प्रतिकार्य करने लगता है , लौकिक मोह के रूप में , विद्वता के रूप में प्रतिष्ठा के रूप में अहंकार के रूप में फिर जब लोग आपको न समझ पाये तो क्रोध के रूप में , ग्लानि के रूप में क्षोभ के रूप में और अंत में हताशा के रूप में ये प्रकट होने शुरू हो जाते है और जब ये धागे अति पीड़ा देने लगते है और जीवन भार सा लगने लगता है , तब तक ये आपके शरीर के वस्त्र बन चुके होते है आपके चहरे का नकाब बन चुके होते है फिर इनको समझना और खोलना और स्वयं से अलग करना , यही परा अनुभव है।

उपाय अंतर्यात्रा का एक ही है उस स्थान को छूना जो प्रादुर्भाव का स्त्रोत है , असारता को समझना , और अपनी आतंरिक शक्ति तथा जन्म के उद्देश्य तक जाना , ध्यान दीजियेगा !! ये उद्देश्य आपके लौकिक उद्देश्य और महत्वाकांक्षाओं से भरे नहीं है , प्रकृति से जुड़े है , सरल है सहज है , तो इनका परिचय भी आपको उसी अवस्था में होगा। सरलता के द्वार में प्रवेश कीजिये , सहजता वह आपका स्वागत करेगी और प्रकृति आपको जन्म के ऋण से मुक्त।

ॐ प्रणाम

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