Monday 17 February 2014

समर्पण : Osho

आखिरी प्रश्न : सभी संतों ने, बुद्ध पुरुषों ने सत्य को अपने अंदर ही पाया, फिर कहीं भी बाहरसमर्पण पर इतना जारे क्यों दिया गया है? 




अपने स्वभावानुसार या भटक कर शायद कभी कहीं और सत्य की झलक मिल भी जाए, पर बाहर तो अंधे गुरु भी मौजूद हैं जो रात को दिन और दिन को रात कहेंगे . . .?णइसे समझना जरूरी है।समर्पण बाहर होता ही नहीं, समर्पण भीतर की घटना है। गुरु बाहर हो; समर्पण भीतर की घटना है।समझो, तुम किसी के प्रेम में पड़ गए तो प्रेमी तो बाहर होता है; लेकिन प्रेम तो तुम्हारे भीतर की घटना है, वह तो तुम्हारे हृदय में जलता है। प्रेमी मर भी जाए तो भी प्रेम जारी रह सकता है; जारी रहेगा ही, अगर था। प्रेमी की राख भी न बचे तो भी प्रेम अहर्निश गूंजता रहेगा। धड़कन-धड़कन में श्वास-श्वास में बहता रहेगा।प्रेम-पात्र तो बाहर होता है, प्रेम भीतर होता है। समर्पण का पात्र तो बाहर होता है, गुरु बाहर होता है, लेकिन समर्पण तो भीतर होता है। वह घटना बाहर की नहीं है। और गुरु भी तभी तक बाहर दिखाई पड़ता है, जब तक हमने समर्पण नहीं किया। जिस दिन तुमने समर्पण किया, गुरु भी भीतर है। बाहर-भीतर का भेद ही गिर गया, सीमा ही टूट गई। समर्पण करते ही, जैसे ही तुमने अपनी सुरक्षा की दीवाल तोड़ दी, सब तरह से गुरु तुम्हारे भीतर बह आता है।इसलिए तो हमने गुरु को परमात्मा कहा है और भीतर छुपी आत्मा को परम गुरु कहा है। इससे बड़ी पहेलियां पैदा हो जाती हैं। पश्चिम के बहुत-से लोग जब भारत के शास्त्रों का अध्ययन करते हैं तो उनको लगता है कि ये तो बिलकुल पहेलियां हैं। इनमें कोई व्यवस्था नहीं है, कोई तर्कबद्धता नहीं है। कहीं कहते हो गुरु बाहर, कहीं कहते हो गुरु भीतर! लेकिन ये सभी बातें सच हैं। भारत की भी मजबूरी है, क्योंकि भारत सत्य को ही कहना चाहता है, वह जैसा है। उलझन भी भला खड़ी हो जाती हो, लेकिन हम सत्य को वैसा ही कहना चाहते हैं, जैसा है।जब तक शिष्य समर्पित नहीं है तब तक गुरु बाहर है।

वस्तुतः तब तक गुरु गुरु ही नहीं है, इसलिए बाहर है। तुम क्या सोचते हो, तुम्हारे समर्पण के पहले कोई गुरु हो सकता है?एक स्त्री रास्ते से जा रही है। क्या तुम्हें प्रेम न हुआ हो इसके प्रति तो क्या तुम इसे प्रेयसी कह सकते हो, कि यह मेरी प्रेयसी है, अभी हालांकि मेरा प्रेम नहीं हुआ? तो लोग तुम्हें पागल कहेंगे। जिसके प्रति समर्पण नहीं हुआ, क्या तुम उसे गुरु कह सकते हो? वह किसी और का गुरु होगा, वह किसी और की प्रेयसी होगी; लेकिन तुम्हारा इससे क्या लेना-देना? तुम्हारा तो गुरु तभी घटता है, जब तुम्हारा समर्पण होता है।और यह बड़े मजे की बात है कि अगर तुम सच में ही समर्पण कर दो तो तुम्हें कोई गुरु भटका नहीं सकता। वस्तुतः सचाई तो यह है कि अगर समर्पण करनेवाला शिष्य मिल जाए तो भटका हुआ गुरु भी रास्ते पर आ जाएगा। समर्पण इतनी बड़ी घटना है! जब तुम्हें रास्ते पर ला सकता है, समर्पण, तो गुरु को भी ला सकता है।लेकिन कठिनाई ऐसी है कि सदगुरु को भी शिष्य नहीं मिलते, असदगुरु को शिष्य मिलना तो बहुत मुश्किल है। अनुयायियों की बात नहीं कर रहा हूं, शिष्य की बात कर रहा हूं--

जिसको नानक ने सिक्ख कहा है। सिक्ख शिष्य का अपभ्रंश है। लेकिन सिक्खों की बात नहीं कर रहा हूं--नानक के सिक्ख! वह बात ही और है!जब तुम्हारे भीतर शिष्यत्व का भाव जन्मता है, तब कोई तुम्हारे लिए गुरु होता है। और अगर तुम्हारा समर्पण पूरा हो तो तुम बिलकुल फिक्र ही छोड़ दो कि गुरु कुगुरु है, कि सदगुरु है, कि क्या है। तुम चिंता ही छोड़ो। समर्पण इतनी बड़ी घटना है कि वह तुम्हें तो बदलेगी ही, उस गुरु को भी बदल डालेगी।समर्पण का मतलब है अटूट श्रद्धा। समर्पण का अर्थ है बेशर्त आस्था। समर्पण का अर्थ है, गुरु कहे, मरो तो मरने की तैयारी; जीओ तो जीने की तैयारी।क्या तुमने इतना बुरा आदमी दुनिया में देखा है, जो अटूट श्रद्धा को धोखा दे सके? अखंड श्रद्धा को धोखा देने वाला आदमी कभी पृथ्वी पर हुआ ही नहीं। हां, अगर तुम्हें कोई धोखा दे पाता है तो इसलिए, कि तुम्हारी श्रद्धा अखंड नहीं। तुम भी बेईमान, गुरु भी बेईमान। तुम भी रत्ती-रत्ती देते हो, वह भी समझता है कि तुम कैसे दे रहे हो; वह भी छीनने की कोशिश करता है। और तुम सोचते हो कि यह गुरु बेईमान है, ठीक गुरु नहीं है, भटका देगा; अगर समर्पण किया तो भटक जाएंगे।तुम समर्पण नहीं करना चाहते; तुम हजार बहाने खोजते हो। तुम डरे हो। और तब तुम पक्का समझो कि तुम्हें सदगुरु तो मिलनेवाला ही नहीं है; तुम्हें कोई चालबाज ही मिलेगा। तुम्हारे भीतर का यह जो संदेह है, यह तुम्हें किसी असदगुरु से ही मिला सकता है। संदेह का और असदगुरु का मिलना हो सकता है। श्रद्धा और असदगुरु का मिलना होता ही नहीं। या तो गुरु भाग खड़ा होगा श्रद्धावान शिष्य को पाकर और--या बदल जाएगा।तुम कभी किसी पर श्रद्धा करके तो देखो। श्रद्धा बड़ी क्रांतिकारी कीमिया है। जिस पर तुम श्रद्धा करोगे उसे तुम बदलना शुरू कर दोगे। छोटे बच्चे घर में पैदा होते हैं, मां-बाप को बदल देते हैं। छोटे बच्चे पर ध्यान रखना पड़ता है तो बाप को सिगरेट नहीं पीनी, शराब नहीं पीनी, कहीं यह छोटा बच्चा बिगड़ न जाए।छोटा बच्चा भी इतना छोटा नहीं है जितना श्रद्धा से भरा हुआ शिष्य होता है। उसकी सरलता का तो मुकाबला ही नहीं है। वह इतना सरल होता है कि गुरु भी डरने लगेगा कि इतनी सरलता को धोखा देना? इतनी सरलता को धोखा देनेवाला कोई शैतान पैदा ही कभी नहीं हुआ।तुम उस भय को छोड़ो। तुम यह चिंता ही मत करो। तुम सिर्फ समर्पण की फिक्र करो। अगर तुम समर्पण कर सकते हो तो मैं तुमसे कहता हूं कि तुम पत्थर के प्रति भी समर्पण कर दो, तो भी क्रांति घटेगी। आदमी की तो बात और, पत्थर के प्रति भी--और क्रांति हो जाएगी। क्रांति समर्पण से होती है।अब इस बात को भी समझ लो। गुरु थोड़ी क्रांति करता है! शिष्य को लगता है, गुरु ने की--यह उसका निरहंकार भाव है। अगर तुम गुरु से पूछो तो गुरु ऊपर इशारा करेगा, कहेगा ः उसने की! क्योंकि वह भी जानता है, गुरु ने नहीं की, परमात्मा ने की।जीसस एक गांव से गुजरते हैं। एक बाजार में बड़ी भीड़ है और एक स्त्री आती है। उसे कोढ़ हो गया है। वह बीमार है। उसे गांव के बाहर फेंक दिया गया है। वह डरती है जीसस के सामने आने में भी। लेकिन उसे पक्की श्रद्धा है कि अगर वह जीसस का स्पर्श कर ले तो वह ठीक हो जाएगी। लेकिन उसे डर है कि वह भीड़ गांव में उसे अंदर भी आने देगी? तो वह किसी तरह छिपी भीड़ के अंदर प्रवेश कर जाती है। वह जीसस के सामने जाने में डरती है। वह उनसे प्रार्थना करने में डरती है। यह भी कोई बात है कहने की? इस काम में भी उनको लगाना क्या उचित है? वह सिर्फ किनारे से, भीड़ से आकर जीसस का कपड़े का एक कोना छू लेती है। जीसस चौंक कर खड़े हो जाते हैं।

उन्होंने कहा : "किसने मुझे इतनी श्रद्धा से छुआ?" और उस स्त्री का सर्वांग बदल गया है। उसी स्त्री ने अपने शरीर को देखा होगा भरोसा न कर सकी। उसने कहाः "लेकिन मैं बदल गई!"जीसस ने कहा : "तू अपनी श्रद्धा के कारण बदली है, मेरा इसमें कुछ हाथ नहीं। धन्यवाद देना हो तो परमात्मा को धन्यवाद देना। करनेवाला सभी वही है।यही तो कबीर कहते हैं कि गुरु-प्रसाद से हुआ। गुरु से पूछें, तो रामानंद यह न कहेंगे। रामानंद राम की तरफ बताएंगे, राम की कृपा से हुआ। राम की कृपा से कहने का मतलब यह है कि कोई भी नहीं कर रहा है; समर्पण के भीतर ही घटना घटती है। कोई करनेवाला नहीं है।तुम इस चिंता में मत पड़ो, कि समर्पण बाहर है। समर्पण भीतर है। और इस चिंता में भी मत पड़ो, कि जब तक हमें पक्का न हो जाए, जब तक अदालत सर्टिफिकेट न दे दे कि यह आदमी ईमानदार है, कि सच्चा गुरु है। कौन अदालत देगी? किस अदालत के बस के भीतर है? कौन सर्टिफिकेट देगा? कौन प्रमाणित करेगा? और तुम अपनी बुद्धि से कैसे खोज कर पाओगे? तुममें इतनी ही बुद्धि होती तो गुरु की जरूरत ही क्या थी? तुम कैसे पहचानोगे, कौन सदगुरु है, कौन नहीं है? तुम इस उलझन में ही मत पड़ो। तुम पत्थर को भी पकड़ लो; पत्थर के स्पर्श से भी तुम्हारा रोग चला जाएगा। असली सवाल हृदय का है। असली सवाल समर्पण का है। असली सवाल आस्था का है।तो, मैं तुमसे कहता हूं, न तो गुरु करता है, न शिष्य करता है; श्रद्धा करवाती है। श्रद्धा से होता है; समर्पण में होता है। गुरु भी बहाना है। वह बहाना है ताकि तुम श्रद्धा कर सको, अन्यथा तुम्हें मुश्किल होगा। बिना बहाने के श्रद्धा करनी मुश्किल होगी। तुम्हें कोई सहारा चाहिए, कोई निमित्त चाहिए, अन्यथा तुम कैसे श्रद्धा करोगे?अगर तुम बिना किसी में श्रद्धा किए भी श्रद्धा कर सको, मात्र श्रद्धा कर सको तो भी घटना घट जाएगी। लेकिन तब मुश्किल होता जाएगा। वह ऐसे ही होगा कि बिना प्रेयसी के और प्रेम, बिना प्रेमी के प्रेम; बस प्रेम! कोई है ही नहीं जिसको प्रेम करना है, मगर प्रेम का भाव। कठिन होगा। होता तो है। हो सकता है। प्रेम तुम्हारी भाव-दशा बन सकती है। इसलिए तो बुद्ध जैसे लोग कहते हैं, कोई जरूरत नहीं है; तुम सिर्फ प्रेम से भर जाओ, घटना घट जाएगी।प्रेम अग्नि है। श्रद्धा महा अग्नि है, क्योंकि श्रद्धा प्रेम का निखरे से निखरा रूप है, नवनीत है।


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