Monday 18 January 2016

गुह्य - काल

गुह्य - प्रसव - काल गहरा है  अपने ही अर्थों  में गहरा है, इसलिए नहीं की असीम  वेदना है  , इसलिए भी नहीं की  समाज में  इसे स्त्री जनित सामाजिक कारणों से गुप्त   माना  गया है , इसलिए भी नहीं की  दो चार जानकार  लोगों के बीच  ये महान प्रक्रिया  पूरी की जाती है, इसलिए कि " एक  स्त्री  एक जननी  अपनी प्रसव पीड़ा काल में  महानतम सत्य के समक्ष उपस्थ्ति है  और वो जो जन्म ले रहा है  वो भी उसी महानतम  सत्य से रूबरू है किन्तु  यात्रा  का आरम्भ है  और अ_बोध  स्थति  " ।  यक़ीनन  स्वजागरण-काल में आत्मा एक  बार फिर इसी स्थति के समक्ष  होती है। 



और इस जागृत पल  में  " जननी " स्वयं में एक प्रदेश बन जाती है।  

और यही वो काल है जब भी कोई आत्मन  जागृन काल में स्थित होता है तो अपने गुह्य प्रदेश के पास होता है।  

और ये गुह्य काल और गुह्य प्रदेश अपने केंद्र की नाभि  से लेकर  परमकेन्द्र की  नाभि  से जुड़ जाता है. जो आत्मा का गुह्य-प्रदेश है 

इसीलिए  ज्ञानी ध्यानी भी कहते है माँ के दरवाजे को छू के  ही ज्ञान के रस्ते चलना संभव है, जिसने माँ को जान लिया, ज्ञान तो उसका दास है , पर तात्विक नहीं , तात्विक सिर्फ और सिर्फ सांकेतिक है।  

और यही कारन है  प्रसव काल को गुह्यकाल और गुह्य प्रदेश का नाम परा संतो द्वारा  वेदों में दिया गया है।   और यही मात्र एक  कारन है  जो स्त्री को  ईश्वर के समकक्ष  ला देता है।   यदयपि  तत्व  की अपनी सीमा है दोष है  पर भाव निर्दोष है।  तो पूजा भी भाव की भाव से ही होती है , तत्व तो माध्यम मात्र है।

यहाँ एक बात और  उभरी है , तो क्या पुरुष को ऐसा अद्भुत अनुभव नहीं होता , क्यूँ नहीं , क्यूंकि  आत्मा का विस्तार है  तत्व का परिवर्तन , ऐसे में  स्त्री-पुरुष ही सहयोगी हो सकते है और  जो भाव पुरुष को मिलता है वो स्त्री को नहीं मिल सकता।   पर ध्यान  वो आधार है  जो अनुभव को सुगम्य बनाता है , स्त्री है तो उसे पुरुषभाव संतुलित करना ही है  और पुरुष है तो उसे स्त्री भाव से गुजरना ही है।  तभी तो चक्र पूरा होगा।   तो संसार में दोनों ही अधूरे है  अपूर्ण है।   इसीलिए पूर्णता के प्रयास है।

और एक बात , चूँकि स्त्री अपने जननी भाव से  भगवन के समकक्ष खड़ी है  तो आप जिसके भी समकक्ष होते  है उससे मित्र भाव तो रख सकते है , प्रेम भाव भी हो सकता है, किन्तु पूजा और श्रद्धा का भाव नहीं रख सकते , ये भी सच है क्यूंकि  पूजा और श्रद्धा  भाव  एक कदम ऊपर प्रिय को रखता है  साथ-साथ और पास-पास नहीं । यहाँ इस अर्थ में स्त्री स्वयं में पूज्यनीय हो गयी ,  स्वयं में फलदायी हो गयी  फिर  वो किसकी  पूजा करे ! और किससे फल का आह्वाहन करे ! शायद  ज्ञानियों ने इसी कारण कहा भी है " यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता "।  और जो ईश्वर से मित्र भाव रखे और प्रिय भाव रखती हो तो समस्त संतानो  को पूज्य श्रद्धेय का दर्जा कैसे मिले , ये तो प्रकर्ति के नियम के विपरीत है,  इसके निमित्त तो पराविज्ञान के लिए कुछ कहना संभव ही नहीं। पर यहाँ  भी किसी तत्व को  आत्माभिमान की आवश्यकता नहीं और अहंकार प्रवेश के लिए किसी के लिए कोई स्थान नहीं , स्वयं  तात्विक देह में सीमित स्त्री के लिए भी नहीं  इसीलिए  अपने जननी भाव के साथ पिता के लिए पति के लिए मित्र के लिए  या पुत्र के लिए  गुरुभाव ले सकती है।  क्यूंकि यात्रा काल है और काल में  जीव प्रकट / अप्रकट  गति में है , अधूरा  है ,  बंटा हुआ है। 

पर बड़ी बात ये है की किसी मंदिर और पुजारी मठाधीश योगेश्वर १००८  के पास भी वो शक्ति नहीं जो विधान  दे कि  "ये नियम नहीं और ये नियम " की स्त्री को क्या करना चाहिए क्या नहीं ! नियम ये भी नहीं बन सकता  की स्त्री को बांधना है की स्वतंत्र करना है। क्या पुत्र अपनी जननी के लिए कारागृह नियम  बनाने के लिए स्वतंत्र है ? जन्मदात्री को कैद देने वाले को क्या कहते है सब को पता है । इन नियम विधान के पीछे और भी अधिक गहरी सोच है जो अज्ञानता के कारण  किसी को पता ही नहीं और अज्ञानता  में अधिकार / अधिपत्य जैसे  भाव ज्यादा सघन है । उदाहरणस्वरूप ; कुत्ते का अपनी ही पूंछ पकड़ने  जैसा है , अपने ही चारो तरफ  घूमते घूमते  भूल ही जाता है की वो दुम के पीछे भाग रहा है या दुम उसके पीछे।  यही पुरुष और स्त्री दो वर्गों का हाल है ; कौन किसको संचालित कर रहा है पता ही नहीं ! " स्त्री के लिए विशेष नियम का विधान रखना  ये करना और ये नहीं करना " जैसा वस्तुतः गहरी सोच से हो तो ठीक ,  हल्की सोच  इसको अपना ही अहंकार मान पोषित करती है।  

मंदिर, ईश्वर के रूप स्वरुप ,  गुरु . उपदेश सीखना सीखना , भ्रम  और स्वक्छ दृष्टि  या  स्वस्थ दृष्टिकोण। प्राकृतिक और सामाजिक  संरचना के शिकार   ये दो स्त्री पुरुष  वर्गों की सत्ता , इनको ही स्वयं को गहराई से समझना है और समझने समझाने के चक्र को पूरा करना है , क्यूंकि  भटकाव का भी अंत नहीं '  माया महा ठगनी हम जानी " , सिर्फ और सिर्फ माया का ही विस्तार ये संसार है।