Thursday 20 March 2014

संसार नहीं ढांकता है, ढांकती है मूर्च्छा (Osho )

तीसरा प्रश्न: जिस शोले को आपने मेरे भीतर से कुरेदकर जला दिया, क्या वह संसार में वापिस जाने पर फिर राख से नहीं ढंग जाएगा? 

संसार नहीं ढांकता है। अगर संसार ढांकता होता है, तब तो फिर कोई भी व्यक्ति संसार में ज्ञान को कभी उपलब्ध न हो सकता था। मैं भी तुम्हारे बीच बैठा हूं, किसी हिमालय पर नहीं भाग गया हूं। 

नहीं, संसार नहीं ढांकता है, ढांकती है मूर्च्छा। 

तो अगर तुम्हें ऐसा लग रहा है कि वापिस लौटकर कहीं संसार ढांक तो न लेगा मेरी आग को; अंगारा कहीं छिप तो न जाएगा राख में--तब तुम ठीक से समझ लो, अंगारा जला ही नहीं है। जैसे अंगारा अपनी ही राख से ढांकता है, किसी और की राख नहीं ढांकती--ऐसे ही तुम्हारी चेतना भी अपनी ही मूर्च्छा से ढंकती है, किसी और की मूर्च्छा तुम्हें नहीं ढांकती लेकिन आदमी का मन सदा दूसरे पर जिम्मेदारी फेंकना चाहता है। 

अब तुम्हारी बेहोशी होगी तो भी संसार जिम्मेदार है। तुम्हारे तथाकथित साधु-महात्मा संसार को गाली दिए चले जाते हैं; जैसे संसार की कोई जिम्मेदारी है उनको भ्रष्ट करने में। कौन किसको भ्रष्ट करेगा? तुम भ्रष्ट होना चाहते हो, तो संसार आयोजन जुटा देता है। तुम मुक्त होना चाहते हो, तो संसार आयोजन जुटा देता है। 
संसार तो सिर्फ आयोजन है; उपयोग तुम पर निर्भर है। 

अगर मेरी बातों से तुम्हारे भीतर की आग तुम्हें जलती हुई लग रही है, तो गलती हो रही है कहीं। तुम्हारे ध्यान से जलती हुई होनी चाहिए मेरी बातों से नहीं। मेरी बातें तुम्हें ध्यान पर ले जा सकती हैं। ध्यान से तुम्हारे भीतर का अंगारा जलेगा। लेकिन अगर तुमने समझा कि मेरी बातों से तुम्हारे भीतर की आग जल रही है, तो तुम मुश्किल में पड़ोगे। किसी और की बातों से राख पड़ जाएगी। तब तुम मुझ पर निर्भर हो। मुझ पर निर्भर होने का मतलब है, तुम्हारी निर्भरता तुमसे बाहर है। तब तो फिर संसार तुम पर राख जुटा देगा। तुम बुनियाद में ही भूल कर गए। 

मेरी बातों से तुम्हारे भीतर की आग नहीं जलेगी। हां, मेरी बातों से तुम ध्यान को समझ लो। ध्यान से जलने दो तुम्हारी आग को; फिर तुम्हारी आग को कोई भी न बुझा सकेगा। तब तुम्हें आग को बुझाना हो तो ध्यान छोड़ना पड़ेगा। 

लेकिन यह मेरा अनुभव है, जिसने एक बार ध्यान का रस जान लिया, उसने कभी छोड़ा नहीं। रस को कोई कभी छोड़ता है? और जो छोड़ दे, समझना कि उसने रस नहीं जाना है।
मेरे पास लोग आ जाते हैं। भारत में तो लाखों लोग कभी न कभी ध्यान करते ही हैं। जिंदगी में ऐसा मौका कम ही आता है, कम ही लोग होंगे, जिनको कभी न कभी ध्यान की धुन न चढ़ी हो। आते हैं, वे कहते हैं, कि पंद्रह साल पहले ध्यान करता था, फिर-फिर छूट गया। मैं उनसे पूछता हूं आनंद आ रहा था? वे कहते हैं, बड़ा आनंद आ रहा था। झूठ की भी कोई सीमा है! आनंद कभी छूटता है? तो मैं उनसे पूछता हूं, छूट कैसे गया? वे कहते हैं, कि घर-गृहस्थी, काम-धाम। मैं पूछता हूं, घर-गृहस्थी और काम-धाम में ज्यादा आनंद आ रहा है? वे कहते हैं, "आनंद कहां, महाराज! दुख ही दुख है। 

बड़ी आश्चर्य की बात है, कौन सा गणित चल रहा है? दुख के कारण आनंद छूट गया है इनका। दुख के लिए आनंद छोड़ दिया, इनसे बड़े त्यागी तुम खोज सकते हो कहीं? 
इनको आनंद कभी मिला नहीं। यह झूठ है। और हो सकता है इन्हें पता भी नहीं हो, कि ये झूठ बोल रहे हैं। झूठ कभी-कभी इतना गहरा हो जाता है व्यक्तित्व में, कि सत्य जैसा मालूम पड़ता है। इनको पता भी न हो, कि ये झूठ बोल रहे हैं। ये सिर्फ एक सामाजिक धारणा बोल रहे हैं। ध्यान से आनंद मिलना चाहिए, सो इन्होंने ध्यान किया था; आनंद मिला होगा। और कैसे कहो, ऋषि-मुनियों के वचन गलत हैं, कि ध्यान से आनंद नहीं मिला। यह तो निश्चित सिद्धांत है, कि ध्यान से आनंद मिलता है। इसलिए उसमें तो शक-शुबा नहीं उठाते हैं। 

इन्हें ध्यान से आनंद मिला ही नहीं। इस जगत में आनंद जिसको मिल जाए जिस चीज से, वह छूटती ही नहीं। शराब नहीं छूटती आदमी से, अगर उसे आनंद मिलने लगे। सारे चिकित्सक चिल्लाए जाते हैं, कि मरोगे, बीमार हो रहे हो, रुग्ण हो रहे हो। वह कहता है, सब ठीक है। 

मुल्ला नसरुद्दीन पीता है। अस्सी साल की उम्र, कान बहरे हुए जाते हैं, कुछ सुनाई नहीं पड़ता। डाक्टर ने उससे कहा, कि बड़े मियां, अब बंद करो। अन्यथा बिलकुल कान से कुछ भी सुनाई न पड़ेगा। 

मुल्ला नसरुद्दीन ने क्या कहा पता है? उसने कहा, डाक्टर साहब, अस्सी साल का हो जाने के बाद अब सुनने को बाकी भी क्या रह गया! 
जीवन खोता है आदमी, लेकिन शराब नहीं छोड़ता; और आनंद छोड़ देता है। ध्यान छोड़ देता है। 

ऐसे ऐसे नासमझ मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, समाधि तक लग चुकी; फिर छूट गई। चमत्कारी पुरुष हैं ये। समाधि किसी की लगी और छूटी? तो फिर ऐसा कि मोक्ष पहुंच गए लेकिन लौट जाए; क्या करें! संसार का दुख बुलाता रहा। 

अपने ध्यान पर ही भरोसा रखना, मेरे वचनों पर नहीं। मेरे वचन का इतना ही उपयोग कर लेना, कि वे तुम्हें ध्यान में लगाएं। लेकिन वहां भी मन बड़े धोखे देता है। मेरी बात सुनकर अच्छी लगती है। इससे जरूरी नहीं है कि वह अच्छा लगना बहुत देर टिकेगा। वह तो तुम मुझे सुनते रहोगे, तो अच्छा लगता रहेगा। 

वह तो ऐसे ही है, जैसे की कोई वीणा बजा रहा है; अच्छा लगता है। मगर वीणा बजाने से कहीं कुछ होने वाला है! घड़ी टल जाएगी मनोरंजन में, सुखपूर्वक, घर पहुंचकर तुम वही के वही हो जाओगे। तो वीणा बजाने से कोई जीवन का संगीत थोड़ी ही पैदा हो जाएगा।
मैं तुमसे बोल रहा हूं, एक वीणा बजाता हूं, एक गीत गा रहा हूं, वह तुम्हें अच्छा लगता है। उसको सुनते सुनते तुम संसार की चिंता भूल जाते हो। थोड़ी देर को बाजार विस्मृत हो जाता है। दुकानदारी, घर-गृहस्थी की उपद्रव है, वह भूल जाते हो। घड़ीभर को तुम मेरी बातों में लीन हो जाते हो और तुम्हें लगता है, एक अलग लोक का प्रारंभ हुआ। 

लेकिन तुम फिर घर लौटोगे। मैं कोई चौबीस घंटे तुम्हें बात न करता रहूंगा। और अगर चौबीस घंटे बात करता रहूं, तो वह बात भी रसपूर्ण न रह जाएगी। तुम उससे भी ऊबने लगोगे। तुम उसके भी आदी हो जाओगे। 

ऐसा हुआ; एक यहूदी कथा है, कि वारसा में एक यहूदी रबी था। बड़ा सरल हृदय था और इसलिए बड़ी मुसीबत में था। काफी यहूदियों की संख्या थी, बड़े उपद्रव थे और उनको हल करना, और सुलझाना और संगठन और मंदिर में पूजा और सबके लिए रुपया इकट्ठा करना, और मकान बनवाना, सब उपद्रव थे। वह बहुत परेशान था। सो न सके, काम ही काम, चिंता ही चिंता--फिर उसे हार्ट-अटैक हुआ, तो उसके डाक्टर ने कहा कि आप इतनी चिंता में पड़े हैं यहां। मैंने सुना है, कि एक दूसरे नगर में पोलैंड में जगह खाली हुई है रबी की। छोटी जगह है, शांत एकांत स्थान है, आप वहां चले जाएं। यह उपद्रव यहां का छोड़े। यह राजनीति, यह चक्कर, यह सारा ज्यादा हो रहा है आपके सिर पर। आप सीधे-साधे आदमी हैं, आप वहां चले जाएं। 

उस रबी ने कहा, तो सुनो। मैं बहुत परेशान था, जब मैं विद्यार्थी था और अपने गुरु के पास पढ़ता था, कि भगवान ने सात नर्क क्यों बनाए? एक से काम न चला? तो मैंने अपने गुरु से पूछा, कि भगवान ने सात नर्क क्यों बनाए? तो मेरे गुरु ने कहा, कि ऐसा है, भगवान बहुत न्यायपूर्ण है। कोई पाप करता है, उसको पहले नरक में डालता है। लेकिन महीने दो महीनों में वह उस नरक का आदी हो जाता है, फिर उसे तकलीफ ही नहीं होती वहां, तो उसको फिर दूसरे नर्क में डालता है। फिर नई जगह दो चार महीने तकलीफ पाता है, तब तक वह फिर आदी हो जाता है, फिर उसको तीसरे नर्क में डालता है। 

उस डाक्टर ने कहा, मैं समझा नहीं कि यह बात आप मुझसे क्यों कह रहे हैं? 
तो उसने कहा, कि इससे क्या फर्क पड़ता है? इस नर्क का--वारसा के नर्क का तो मैं आदी हो गया; अब तुम और पोलैंड के नर्क में मुझे भेज रहे हो। इन दुष्टों से तो किसी तरह संबंध बन गया है, किसी तरह नाव चल रही है। जिंदा तो हूं! माना कि हार्ट-अटैक हुआ है, मगर अब इस बुढ़ापे में इस कमजोर हालत को लेकर नए नर्क में जाना! यही वहां दुहराया जाएगा। क्योंकि जहां आदमी है, वहां आदमी के उपद्रव हैं, वहां आदमी की राजनीति है।
अगर मैं चौबीस घंटे, तुमसे बोलता रहूं, तो तुम उसके भी आदी हो जाओगे। शायद उससे तुम्हें नींद आने लगे। मोनोटोनस हो जाएगा, एकरस हो जाएगा। नहीं, उससे भी कोई हल नहीं होगा। और तुम थोड़े ही उससे जागोगे। संभव है, तुम सो जाओ। मेरे बोलने पर इतना ज्यादा भरोसा मत करना। मेरे बोलने का उपयोग करना, लेकिन मेरे बोलने को सब कुछ मत समझ लेना। 

मेरे पास बहुत लोग आते हैं। वे कहते हैं, आपको सुनकर ही काफी आनंद आता है, ध्यान वगैरह क्या करना! मुझे सुनकर जो आनंद आता है वह मुझ पर निर्भर है, तुम पर निर्भर नहीं है। तुम्हें उसमें कुछ भी नहीं करना पड़ रहा है, तुम सिर्फ बैठे हो, निष्क्रिय हो। ध्यान में तुम्हें करना पड़ेगा। प्रमाद गहन है। उतना भी करने की आकांक्षा नहीं है। तुम चाहते हो, मैं बोलता रहूं, तुम सुनते रहो, लेकिन उससे क्या हल होगा? उससे कोई हल नहीं हो सकता। 
ध्यान रखो, अगर मेरे बोलने से तुम्हें लगता है अग्नि जल गई, तो झूठी अग्नि है। बोलने से कहीं सच्ची अग्नि जलती है! हां, बोलने से तो सिर्फ आयोजन का पता चलता है कि मैं तुम्हें बता देता हूं, कि देखो ये चकमक पत्थर हैं, इनको रगड़ने से अग्नि जलती है। तुम मेरे शब्दों की मत रगड़ना। उनसे नहीं जलेगी। बोलना तो फार्मूले की तरह है। जैसे कि, कोई कह देता है, "एच टू ओ' से पानी बनता है। अब तुम एच टू ओ को कागज पर लिखकर मत गटक जाना। उससे प्यास न बुझेगी। 

मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे की परीक्षा ले रहा था। उसने कई सवाल पूछे, कोई सवाल का जवाब न आया। फिर उसे अखीर में पूछा, अच्छा, अब मैं तुझ से आखिरी और रसायन शास्त्र का सवाल पूछता है, "एच एन ओ थ्री' का क्या मतलब होता है? वह लड़का सिर खुजलाने लगा। उसने कहा, कि बिलकुल पापा जबान पर रखा है। नसरुद्दीन ने कहा, कि नालायक! थूंक, जल्दी थूंक। नाइट्रिक एसिड है, मर जाएगा।

कोई फार्मूले से थोड़ी मर जाता है! न कोई जीता है। मेरी बातों से आग को जला हुआ मत समझ लेना। वह केवल बुद्धि में जलेगी, हृदय में नहीं। वह केवल शब्दों की होगी। वह कितने दूर ले जाएगी। शब्दों की नाव से उस पार जाने का सोचते हो? शब्दों की नाव तो कागज की नाव है। कितनी ही नाव जैसी लगती हो, नाव नहीं है। 

हां, कागज की नाव को देखकर तुम असली नाव बना लेना। उससे यात्रा करना। कागज की नाव तो माडल है। उसको अगर तुम समझो, तो उसको देखकर तुम असली नाव बना सकते हो। वह असली नाव तो ध्यान की होगी।

शब्द तो इशारे हैं। असली नाव ध्यान की है। और उससे जो आग जलेगी, फिर उसे कोई संसार नहीं बुझा सकता है। - "ओशो शरनम् गच्छामि"....

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तीसरा प्रश्न: जिस शोले को आपने मेरे भीतर से कुरेदकर जला दिया, क्या वह संसार में वापिस जाने पर फिर राख से नहीं ढंग जाएगा?
संसार नहीं ढांकता है। अगर संसार ढांकता होता है, तब तो फिर कोई भी व्यक्ति संसार में ज्ञान को कभी उपलब्ध न हो सकता था। मैं भी तुम्हारे बीच बैठा हूं, किसी हिमालय पर नहीं भाग गया हूं।
नहीं, संसार नहीं ढांकता है, ढांकती है मूर्च्छा।

तो अगर तुम्हें ऐसा लग रहा है कि वापिस लौटकर कहीं संसार ढांक तो न लेगा मेरी आग को; अंगारा कहीं छिप तो न जाएगा राख में--तब तुम ठीक से समझ लो, अंगारा जला ही नहीं है। जैसे अंगारा अपनी ही राख से ढांकता है, किसी और की राख नहीं ढांकती--ऐसे ही तुम्हारी चेतना भी अपनी ही मूर्च्छा से ढंकती है, किसी और की मूर्च्छा तुम्हें नहीं ढांकती लेकिन आदमी का मन सदा दूसरे पर जिम्मेदारी फेंकना चाहता है।
अब तुम्हारी बेहोशी होगी तो भी संसार जिम्मेदार है। तुम्हारे तथाकथित साधु-महात्मा संसार को गाली दिए चले जाते हैं; जैसे संसार की कोई जिम्मेदारी है उनको भ्रष्ट करने में। कौन किसको भ्रष्ट करेगा? तुम भ्रष्ट होना चाहते हो, तो संसार आयोजन जुटा देता है। तुम मुक्त होना चाहते हो, तो संसार आयोजन जुटा देता है।
संसार तो सिर्फ आयोजन है; उपयोग तुम पर निर्भर है।
अगर मेरी बातों से तुम्हारे भीतर की आग तुम्हें जलती हुई लग रही है, तो गलती हो रही है कहीं। तुम्हारे ध्यान से जलती हुई होनी चाहिए मेरी बातों से नहीं। मेरी बातें तुम्हें ध्यान पर ले जा सकती हैं। ध्यान से तुम्हारे भीतर का अंगारा जलेगा। लेकिन अगर तुमने समझा कि मेरी बातों से तुम्हारे भीतर की आग जल रही है, तो तुम मुश्किल में पड़ोगे। किसी और की बातों से राख पड़ जाएगी। तब तुम मुझ पर निर्भर हो। मुझ पर निर्भर होने का मतलब है, तुम्हारी निर्भरता तुमसे बाहर है। तब तो फिर संसार तुम पर राख जुटा देगा। तुम बुनियाद में ही भूल कर गए।
मेरी बातों से तुम्हारे भीतर की आग नहीं जलेगी। हां, मेरी बातों से तुम ध्यान को समझ लो। ध्यान से जलने दो तुम्हारी आग को; फिर तुम्हारी आग को कोई भी न बुझा सकेगा। तब तुम्हें आग को बुझाना हो तो ध्यान छोड़ना पड़ेगा।
लेकिन यह मेरा अनुभव है, जिसने एक बार ध्यान का रस जान लिया, उसने कभी छोड़ा नहीं। रस को कोई कभी छोड़ता है? और जो छोड़ दे, समझना कि उसने रस नहीं जाना है।
मेरे पास लोग आ जाते हैं। भारत में तो लाखों लोग कभी न कभी ध्यान करते ही हैं। जिंदगी में ऐसा मौका कम ही आता है, कम ही लोग होंगे, जिनको कभी न कभी ध्यान की धुन न चढ़ी हो। आते हैं, वे कहते हैं, कि पंद्रह साल पहले ध्यान करता था, फिर-फिर छूट गया। मैं उनसे पूछता हूं आनंद आ रहा था? वे कहते हैं, बड़ा आनंद आ रहा था। झूठ की भी कोई सीमा है! आनंद कभी छूटता है? तो मैं उनसे पूछता हूं, छूट कैसे गया? वे कहते हैं, कि घर-गृहस्थी, काम-धाम। मैं पूछता हूं, घर-गृहस्थी और काम-धाम में ज्यादा आनंद आ रहा है? वे कहते हैं, "आनंद कहां, महाराज! दुख ही दुख है।
बड़ी आश्चर्य की बात है, कौन सा गणित चल रहा है? दुख के कारण आनंद छूट गया है इनका। दुख के लिए आनंद छोड़ दिया, इनसे बड़े त्यागी तुम खोज सकते हो कहीं?
इनको आनंद कभी मिला नहीं। यह झूठ है। और हो सकता है इन्हें पता भी नहीं हो, कि ये झूठ बोल रहे हैं। झूठ कभी-कभी इतना गहरा हो जाता है व्यक्तित्व में, कि सत्य जैसा मालूम पड़ता है। इनको पता भी न हो, कि ये झूठ बोल रहे हैं। ये सिर्फ एक सामाजिक धारणा बोल रहे हैं। ध्यान से आनंद मिलना चाहिए, सो इन्होंने ध्यान किया था; आनंद मिला होगा। और कैसे कहो, ऋषि-मुनियों के वचन गलत हैं, कि ध्यान से आनंद नहीं मिला। यह तो निश्चित सिद्धांत है, कि ध्यान से आनंद मिलता है। इसलिए उसमें तो शक-शुबा नहीं उठाते हैं।
इन्हें ध्यान से आनंद मिला ही नहीं। इस जगत में आनंद जिसको मिल जाए जिस चीज से, वह छूटती ही नहीं। शराब नहीं छूटती आदमी से, अगर उसे आनंद मिलने लगे। सारे चिकित्सक चिल्लाए जाते हैं, कि मरोगे, बीमार हो रहे हो, रुग्ण हो रहे हो। वह कहता है, सब ठीक है।
मुल्ला नसरुद्दीन पीता है। अस्सी साल की उम्र, कान बहरे हुए जाते हैं, कुछ सुनाई नहीं पड़ता। डाक्टर ने उससे कहा, कि बड़े मियां, अब बंद करो। अन्यथा बिलकुल कान से कुछ भी सुनाई न पड़ेगा।
मुल्ला नसरुद्दीन ने क्या कहा पता है? उसने कहा, डाक्टर साहब, अस्सी साल का हो जाने के बाद अब सुनने को बाकी भी क्या रह गया!
जीवन खोता है आदमी, लेकिन शराब नहीं छोड़ता; और आनंद छोड़ देता है। ध्यान छोड़ देता है।
ऐसे ऐसे नासमझ मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, समाधि तक लग चुकी; फिर छूट गई। चमत्कारी पुरुष हैं ये। समाधि किसी की लगी और छूटी? तो फिर ऐसा कि मोक्ष पहुंच गए लेकिन लौट जाए; क्या करें! संसार का दुख बुलाता रहा।
अपने ध्यान पर ही भरोसा रखना, मेरे वचनों पर नहीं। मेरे वचन का इतना ही उपयोग कर लेना, कि वे तुम्हें ध्यान में लगाएं। लेकिन वहां भी मन बड़े धोखे देता है। मेरी बात सुनकर अच्छी लगती है। इससे जरूरी नहीं है कि वह अच्छा लगना बहुत देर टिकेगा। वह तो तुम मुझे सुनते रहोगे, तो अच्छा लगता रहेगा।
वह तो ऐसे ही है, जैसे की कोई वीणा बजा रहा है; अच्छा लगता है। मगर वीणा बजाने से कहीं कुछ होने वाला है! घड़ी टल जाएगी मनोरंजन में, सुखपूर्वक, घर पहुंचकर तुम वही के वही हो जाओगे। तो वीणा बजाने से कोई जीवन का संगीत थोड़ी ही पैदा हो जाएगा।
मैं तुमसे बोल रहा हूं, एक वीणा बजाता हूं, एक गीत गा रहा हूं, वह तुम्हें अच्छा लगता है। उसको सुनते सुनते तुम संसार की चिंता भूल जाते हो। थोड़ी देर को बाजार विस्मृत हो जाता है। दुकानदारी, घर-गृहस्थी की उपद्रव है, वह भूल जाते हो। घड़ीभर को तुम मेरी बातों में लीन हो जाते हो और तुम्हें लगता है, एक अलग लोक का प्रारंभ हुआ।
लेकिन तुम फिर घर लौटोगे। मैं कोई चौबीस घंटे तुम्हें बात न करता रहूंगा। और अगर चौबीस घंटे बात करता रहूं, तो वह बात भी रसपूर्ण न रह जाएगी। तुम उससे भी ऊबने लगोगे। तुम उसके भी आदी हो जाओगे।
ऐसा हुआ; एक यहूदी कथा है, कि वारसा में एक यहूदी रबी था। बड़ा सरल हृदय था और इसलिए बड़ी मुसीबत में था। काफी यहूदियों की संख्या थी, बड़े उपद्रव थे और उनको हल करना, और सुलझाना और संगठन और मंदिर में पूजा और सबके लिए रुपया इकट्ठा करना, और मकान बनवाना, सब उपद्रव थे। वह बहुत परेशान था। सो न सके, काम ही काम, चिंता ही चिंता--फिर उसे हार्ट-अटैक हुआ, तो उसके डाक्टर ने कहा कि आप इतनी चिंता में पड़े हैं यहां। मैंने सुना है, कि एक दूसरे नगर में पोलैंड में जगह खाली हुई है रबी की। छोटी जगह है, शांत एकांत स्थान है, आप वहां चले जाएं। यह उपद्रव यहां का छोड़े। यह राजनीति, यह चक्कर, यह सारा ज्यादा हो रहा है आपके सिर पर। आप सीधे-साधे आदमी हैं, आप वहां चले जाएं।
उस रबी ने कहा, तो सुनो। मैं बहुत परेशान था, जब मैं विद्यार्थी था और अपने गुरु के पास पढ़ता था, कि भगवान ने सात नर्क क्यों बनाए? एक से काम न चला? तो मैंने अपने गुरु से पूछा, कि भगवान ने सात नर्क क्यों बनाए? तो मेरे गुरु ने कहा, कि ऐसा है, भगवान बहुत न्यायपूर्ण है। कोई पाप करता है, उसको पहले नरक में डालता है। लेकिन महीने दो महीनों में वह उस नरक का आदी हो जाता है, फिर उसे तकलीफ ही नहीं होती वहां, तो उसको फिर दूसरे नर्क में डालता है। फिर नई जगह दो चार महीने तकलीफ पाता है, तब तक वह फिर आदी हो जाता है, फिर उसको तीसरे नर्क में डालता है।
उस डाक्टर ने कहा, मैं समझा नहीं कि यह बात आप मुझसे क्यों कह रहे हैं?
तो उसने कहा, कि इससे क्या फर्क पड़ता है? इस नर्क का--वारसा के नर्क का तो मैं आदी हो गया; अब तुम और पोलैंड के नर्क में मुझे भेज रहे हो। इन दुष्टों से तो किसी तरह संबंध बन गया है, किसी तरह नाव चल रही है। जिंदा तो हूं! माना कि हार्ट-अटैक हुआ है, मगर अब इस बुढ़ापे में इस कमजोर हालत को लेकर नए नर्क में जाना! यही वहां दुहराया जाएगा। क्योंकि जहां आदमी है, वहां आदमी के उपद्रव हैं, वहां आदमी की राजनीति है।
अगर मैं चौबीस घंटे, तुमसे बोलता रहूं, तो तुम उसके भी आदी हो जाओगे। शायद उससे तुम्हें नींद आने लगे। मोनोटोनस हो जाएगा, एकरस हो जाएगा। नहीं, उससे भी कोई हल नहीं होगा। और तुम थोड़े ही उससे जागोगे। संभव है, तुम सो जाओ। मेरे बोलने पर इतना ज्यादा भरोसा मत करना। मेरे बोलने का उपयोग करना, लेकिन मेरे बोलने को सब कुछ मत समझ लेना।
मेरे पास बहुत लोग आते हैं। वे कहते हैं, आपको सुनकर ही काफी आनंद आता है, ध्यान वगैरह क्या करना! मुझे सुनकर जो आनंद आता है वह मुझ पर निर्भर है, तुम पर निर्भर नहीं है। तुम्हें उसमें कुछ भी नहीं करना पड़ रहा है, तुम सिर्फ बैठे हो, निष्क्रिय हो। ध्यान में तुम्हें करना पड़ेगा। प्रमाद गहन है। उतना भी करने की आकांक्षा नहीं है। तुम चाहते हो, मैं बोलता रहूं, तुम सुनते रहो, लेकिन उससे क्या हल होगा? उससे कोई हल नहीं हो सकता।
ध्यान रखो, अगर मेरे बोलने से तुम्हें लगता है अग्नि जल गई, तो झूठी अग्नि है। बोलने से कहीं सच्ची अग्नि जलती है! हां, बोलने से तो सिर्फ आयोजन का पता चलता है कि मैं तुम्हें बता देता हूं, कि देखो ये चकमक पत्थर हैं, इनको रगड़ने से अग्नि जलती है। तुम मेरे शब्दों की मत रगड़ना। उनसे नहीं जलेगी। बोलना तो फार्मूले की तरह है। जैसे कि, कोई कह देता है, "एच टू ओ' से पानी बनता है। अब तुम एच टू ओ को कागज पर लिखकर मत गटक जाना। उससे प्यास न बुझेगी।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे की परीक्षा ले रहा था। उसने कई सवाल पूछे, कोई सवाल का जवाब न आया। फिर उसे अखीर में पूछा, अच्छा, अब मैं तुझ से आखिरी और रसायन शास्त्र का सवाल पूछता है, "एच एन ओ थ्री' का क्या मतलब होता है? वह लड़का सिर खुजलाने लगा। उसने कहा, कि बिलकुल पापा जबान पर रखा है। नसरुद्दीन ने कहा, कि नालायक! थूंक, जल्दी थूंक। नाइट्रिक एसिड है, मर जाएगा।
कोई फार्मूले से थोड़ी मर जाता है! न कोई जीता है। मेरी बातों से आग को जला हुआ मत समझ लेना। वह केवल बुद्धि में जलेगी, हृदय में नहीं। वह केवल शब्दों की होगी। वह कितने दूर ले जाएगी। शब्दों की नाव से उस पार जाने का सोचते हो? शब्दों की नाव तो कागज की नाव है। कितनी ही नाव जैसी लगती हो, नाव नहीं है।
हां, कागज की नाव को देखकर तुम असली नाव बना लेना। उससे यात्रा करना। कागज की नाव तो माडल है। उसको अगर तुम समझो, तो उसको देखकर तुम असली नाव बना सकते हो। वह असली नाव तो ध्यान की होगी।
शब्द तो इशारे हैं। असली नाव ध्यान की है। और उससे जो आग जलेगी, फिर उसे कोई संसार नहीं बुझा सकता है। 
Piv Piv Lagi Pyas - 10

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