Tuesday 4 March 2014

खंड-खंड_अखंड _खंड-खंड -Note



बड़ी अद्भुत सीमायें है असमंजस में डालने वाली , क्या सच और क्या नहीं , झूट तो कुछ है ही नहीं , सिर्फ इस वक्त उस सच कि उपस्थिति नहीं है।

मेरे जितने भी शब्द है , सिर्फ कुछ महीनो मे ग्रंथ बनने की शक्ति आ गयी है जी हाँ ! इतना संकलन हो गया है , नेति नेति करते करते , सत्य को तलाशते और आत्म मंथन से गुजरते हुए। मुझे लगता है , शास्त्र भी धीरे धीरे ऐसे ही बने होंगे , शास्त्र भी शब्दो के संकलन ही है , अगर हम उनकी आत्मा को न छू पाये। आत्मा को छूना यानिकि उस भाव को छूना जिसके अंतर्गत वो शब्दो ने जनम लिया , सीधे शब्दो में ऋषि के ह्रदय में उतरना , कि वो लिखते समय वो वास्तव में चाहते क्या थे समाज से ?
(तोता स्वभाव या गुण स्वभाव )

इतना तो प्रमाणिक है। इस के आगे पीछे कितना कुछ रोज मन मस्तिष्क में चलता रहता है , जिसका संकलन सम्भव ही नहीं। और यदि सम्भव होता , तो क्या होता !

शायद वेद पुराण ऐसे ही उठे शब्द का संकलन है जो आम आदमी कि भाषा से ज्यादा पवित्र है और बड़े उद्देश्य के साथ है , पूज्यनीय है , पर अंधनुकरणीय बिलकुल नहीं , वेद वाणी का पालन करना अच्छी बात है किन्तु वेद _ इक्षा का अनुसरण उससे भी ज्यादा उत्तम है। ये कुछ ऐसा ही है कि आप अपने पिता के शब्द पकड़ के बैठ जाए और भाव को नज़रअंदाज कर दे , या आपके बच्चे आपके शब्दो को ही पकड़ के बैठ जाये आपके असली भाव कहीं खो जाये।

इसके साथ ही एक और बात आयी , इतना कुछ कहने सुनने का फ़ायदा ही क्या जब सच अभी भी उतना ही दूर खड़ा मुह चिढ़ा रहा है ? वैसे तो जब से मैंने उस से मित्रता की इक्षा जाहिर की उसने मुझे परम मित्र सामान गले लगाया, हमराज भी बनाया। पर जब भी मैं उसको अपने अपने शब्दों में समेटने की कोशिश करती हूँ वो दूर खड़ा सिर्फ मुस्कराता रहता है मेरी नाकाम कोशिशों पे , और मैं समझ ही नहीं पाती ऐसा क्यूँ !

कल मैंने जो कहा वो कल का सच था ! आज जो कह रही हूँ वो आज का सच है , ये सच आखिर इतना खंड खंड में कैसे ? ये रहस्य फिर भी बना ही है और वो अभी भी मुस्करा रहा है , यानि कि ये भी पूर्ण सच नहीं। जब मैंने कहा सच अखंड है वो मुस्कराया उसने अपनी खंडता खंड खंड हो के मेरे आगे जाहिर करदी , अभी जब मैंने खंड खंड समजह्ने कि चेष्टा की तो वो अखंड बन के मेरे समक्ष खड़ा हुआ है। हैं ना मेरी असमंजस की स्थिति और उसकी उपस्थिति अद्भुत ! 


कल मैंने चर्चा की थी संस्थाओं और अध्यात्म के सच के विषय में , वो सच था , मंथन था। पर हर मंथन एक घेरे में सीमित हो जाता है अजीब दुविधा है। मुझे अधूरे सच को कहते कहते अजीब सी बेचनी और ग्लानि महसूस हो रही है। इस अधूरेपन को इतने जोर शोर से कहने कि क्या जरुरत ? आज सुबह का सबसे पहला विचार यही आया , ऐसा सच कहने से क्या फ़ायदा जो मौसमी हो ? समय बीते बदल जाए !

फिर पाया एक और सारांश अब मुझे लगता है सच कि तरफ एक कदम और बढ़ाया है मैंने ! " काफी पहले किसी साहित्यकार ने लिखा था उसकी दो शब्द याद रह गए " अपने अपने आसमानो का सच " एक दम सच है। वस्तुतः आसमान एक ही है उसमे किसी को दो राय हो ही नहीं सकती मुझे पूर्ण विश्वास है। परन्तु झरोखों का क्या ? सभी के झरोखे है अपने अपने। इसको इसी सन्दर्भ में समझा जा सकता है। कैसे सच अपने रंग बदल के भी सच ही रहता है।


 " उसका सच मेरा सच " यहाँ ज्ञानी हंसेगा , ये कैसा सच ! उसका मेरा सच तो सच है। बात भी सही है , पर यहाँ भी झरोखे वाली स्थति है , ज्ञानी का अपना झरोखा और संसार का अपना। इसी प्रकार परिस्थिति और स्तिथि अनुसार हर व्यक्ति के अपने अपने तरंगित सत्य है , जिससे जो भोगी है वो इंकार नहीं कर सकता। इन स्थिति और परिस्थिति में रहते कुछ व्यक्ति जब एकत्रित होते है तो वो एक समूह बना लेते है। समूह यानि कि वर्ग , और फिर बहुत ही प्यारा खेल यदि आपने भी बचपन में खेला हो " रिंगा रिंगा रोजेज पॉकेट फुल ऑफ़ पोसेस हुसशा बुश्ह आल फॉल डाउन " यानि की एक निश्चित व्यक्तियों के बने घेरे में घूमना और खेलना शुरू , खेलना मतलब संतुष्ट होना। 


इसी तरह बहुत घेरे है। असंख्य तरंगो के सामान फैले विस्तृत जनसमूह में। पर घेरे हैं। हर घेरे का अपना सच है। और यही तर्क को जन्म देता है जब दो घेरे टकराते है अपनी अपनी धारणाओ के साथ। अब ये घेरे भी टूटते है क्यूंकि संसार में स्थिर तो कुछ है ही नहीं , सब बदल रहा है। घेरे टूटे नए घेरे बने नयी धारणाये बनी , उतने ही प्रबल नए घेरे भी बन गए। और फिर रिंगा रिंगा रोजेज शुरू हो गया।

इन्ही घेरोंके बनने और टूटने का दूसरा नाम एक एक करके सत्य से साक्षात्कार भी है। क्यूंकि कहीं न कहीं ये अहसास हम सभी को है कि हमारे सच समय के साथ बदल जायेंगे। सिर्फ बदलेंगे वो झूठ नहीं बन जायेंगे।

अपने झरोखे हमारी सच्चाई है , और आसमानी विस्तार आस्मां कि सच्चाई है। और जो हम दोनों को देख रहा है वो तो मुस्कराएगा ही। क्यूंकि उसके लिए न हम सच न आसमान ही सच है। दोनों ही वक्ती और मियादी है।

मुझे पता है , मैं उस सच को जितना स्पष्टता से प्रकट करने कि कोशिश करुँगी वो उतना ही शब्दों में धूमिल और धुंध में डूबा नज़र आएगा। यही कारण है कि एक स्थति ऐसी भी आती है लगता है कि अब शब्द साथ नहीं दे रहे , भाषा की अपनी सीमाए है। मूलतः एक परन्तु खंड खंड बंटे हुए विषय भी इसीकारण सीमित है। व्यक्ति सीमित है। इंसान द्वारा अपने बनाये घर और घर के झरोखे जैसे ही ईश्वर ने भी हर ऊर्जा को एक घर दिया एक वस्त्र दिया अलग अलग कमरे दिए एक चौका दिया और शौचालय भी बनाया अति आधुनिक। घर की सम्पूर्ण व्यवस्था पांच इन्द्रिओं कर्म द्वारा दी , और अंत में उड़ने तैरने और अति तीव्र गति से भागने वाला वाहन भी दिया …।


और सबसे मजे कि बात कि प्रभु ने जो झरोखे दिए जो दरवाजे दिए वो भी अनुपम है , हर झरोखा एक नया दृशय दिखता है , तभी तो पड़ोसी झगड़ते है मेरे झरोखे से ये दिखा तो तेरे झरोखे से भी यही दिखना चाहिए , परन्तु कैसे ? नहीं दीखता एक जैसा , हर झरोखे से अलग दृश्य , कभी देखा अपने बनाये घर से ऐसा चमत्कार ? ईश्वर की रचना अनुपम हैं अतुलनीय है हम तो अभी अंश मात्र भी नहीं बना सके , सृजन तो दूर उसका बनाया उपभोग भी नहीं कर सके। और शब्दो कि सीमितता देखिये , पूर्ण रूप से उस परमात्मा को कह भी नहीं सकते। उसमे भी झगडे होने लगते है , तेरा सच और मेरा सच।

व्यवसाय में तन मन लिप्त रहता है , झरोखे से दिखने वाले दृश्य सीमित , वहाँ की गति पे सहज विश्वास नहीं , क्यूंकि जो दृशय वो दिखा रहा है उनका प्रमाण नहीं। करे तो आखिर करे क्या ?

मानो न मानो इन घेरो में हर आत्मा कैद है , हर आत्मा माने कि हर वो आत्मा जो कभी भी इस धरती पे आ चुकी हैं आयी है या आगे भी भविष्य में आएगी , चाहे वो कितनी भी महान स्थापित क्यूँ न हो या फिर कितनी भी साधारण ही क्यूँ न हो , वो जो भी कहेगी अपने घेरे से ही कहेगी। वो कितना भी कहेंगी वो सच आंशिक ही होगा , उनके लिए भी और आपके लिए भी , उनके लिए इसलिए कि वो कह ही नहींसकते , और आपके लिए इसलिए क्यूंकि आप समझने कि कोशिश तो कर रहे है पर अपने घेरे (नजरिये ) से.

इसी तरह अपने अपने सच के घेरे में ये संसार नृत्य कर रहा है। और इनसे परे वो सपूंर्ण की उपस्थिति परम सत्य , कोई जादू नहीं , कोई आश्चर्य नहीं , बस जो है सो है।

सच सिर्फ यही है पूर्णमिदं पूर्णमादाय पूर्णमवशिष्यते। उसका बनाया एक एक जीवाश्म भी पूर्ण है , कुछ अपूर्ण नहीं , क्यूंकि अपूर्णता ढूंढने से भी नहीं मिलेगी , और यदि प्रयास किया तो वो भी अपूर्णता का खेल खेलेगा और मुस्कराएगा !

वेदों में वर्णित परम मन्त्र / सूत्र यही इशारा करता है , किस तरह पूर्ण और पूर्ण मिलके पूर्ण ही रहते है।

ॐ                              ॐ                                ॐ

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते

Om poornamadah poornamidam poornaat poornamudachyate

Om, That is complete, This is complete, From the completeness comes the completeness
(Om=sound of creation, holy word; Poornam=Complete, Adah=that; poornam=complete;poornamadah=that is complete; idam=this; poornamidam=this is complete; poornaat=from completeness; udachyate=comes, rises; poornamudachyate=comes completeness)

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥

Poornasya poornamaadaaya poornamevaavashishṣyate

If completeness is taken away from completeness, Only completeness remains
(Poorna=complete; asya=from; Poornasya=From completeness; poornamaadaaya=remove completeness; poornam=complete, eva=only; vashishyate=remains; poornamevaavashishṣyate=Only completeness remains)

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

Om shaantih shaantih 
shaantih 

Om, Peace peace peace
(Om=sound of creation, holy word; shaantih=Peace)

The Vedas tell us this about God - "OM Poornamadah Poornamidam Poornaad
Poornamudachyate; Poornasya Poornamaadaaya Poornamevaavashisyate". Translated in English, this verse means "What is Whole, is Whole; What has come out of the Whole is also Whole; When the Whole is taken out of the Whole, the Whole still remains Whole". The essence of this verse is that the Infinite cannot be measured arithmetically - God is Infinite. The Infinite can be represented in Infinite ways and does manifest in infinite ways. This, in short, is the essence of the Hindu belief in God. That He is everywhere, around us and within us. In fact, Hinduism takes the bold step of proclaiming that "we are God".

और इसी कारन हम पूर्ण होकर भी अपूर्ण है , जिसने भी इस पूर्णता के रहस्य को जान लिया वो भी जो पहले से पूर्ण ही है अब अज्ञान से बहार है और ज्ञानी यानि जानकार हो गया , यानि इस समय दोबारा सिर्फ सत्य जाना गया है। और जिसने अपूर्ण माना वो भी सत्य के दूसरे घेरे में है , रिंगा रिंगा रोजेज का गेम चल रहा है उसके लिए , ज्ञान के साथ ही रुकने वाला माया देवी का नृत्य।

इसी पूर्णता को शब्दो में ढालना दुष्कर परन्तु तरंगो में उतारना और समझना अति सरल . इसी लिए उसको शब्दो में ढूँढना असम्भव और तरंगो में पाना अति तरल , सिर्फ इशारा करते शब्द है , तरल सरल सहज सुगन्धित प्रेममय हृदय आंदोलित मित्र सूक्ष्मतम संगीत।


 ॐ

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