Tuesday 4 March 2014

चक्रा रहस्य -२ -note

सात चक्रो का  अद्भुत जाल इस शरीर के अंदर , कैसा ताना !  कैसा बाना ! 

 ऊर्जा  क्षेत्र   प्रज्वलित  अपनी अति सूक्ष्म अवस्था में , संकेत देता  अति वृहत ऊर्जा का , ऐसा ही जाल  सात  आस्मां नीचे  और सात आस्मां ऊपर  फैला हुआ , ऐसा ही ऊर्जा का  सतरंगी  ताना बाना   इस पृथ्वी को भी घेरे है , है न अद्भुत !  पर पूर्ण प्राकृतिक  , कोई जादू नहीं  ऊर्जा का खेल।   चूँकि हमारा अस्तित्व ही  सीमित है  तो  हमारी छोटी सी ऊर्जा का क्षेत्र  सहज ही प्रभावित हो जाता है।  






सात  चक्र  शारीर  से सटे  मूल  से लेकर  सहस्त्रधार क्षेत्र  तक  सिमटा , सिर्फ  ये बताता है  कि मैं सिर्फ संकेत हु  वृहत का और यही तक सीमित नहीं हु।  



मानव  शरीर  सच में  एक  पुल जैसा है  दो चेतनाओं के मध्य  सात नीचे  और  सात ऊपर , इनके  मध्य संतुलन करता  हुआ , और  संतुलन स्वयं के सात  भाव  चक्रों  में भी स्थापित करता हुआ ,  




 मानव शरीर सात नीचे    आसुरी  प्रवृत्तियां  .  यानि कि गिरने कि कोई थाह नहीं  और  छह   उर्ध्वगामी   प्रवृत्तियां  ....  


कहते है इनके ऊपर सातवें  चक्र पे  शिवा  का आसन है।




ये सात चक्र  वास्तव में सात उर्ध्वगामी चक्कर  जैसे है , एक एक चक्र  आत्माए  अपने  सतत अभ्यास से पाती चलती है ,  यही   काल का नियम है  शायद ,  एक दिन समस्त ऊर्जा जब उर्ध्वगामी होने लगती है  तो   फिर से युग पलट के आता है।     सहस्त्रार  के ऊपर के सात में से  , प्रथम  दो   पे सामान्य  संघर्ष रत आत्माए तीसरे  चक्र पे   ज्ञानी संज्ञानी  ,  चौथे  पे  सूफी संत कबीर मीरा   इत्यादि  पांचवे पे सूफी  और ईश्वर  के मध्य वास  करती उर्जायें है  जैसे  बुध्ह महावीर नानक  आदि     छठे  पे   ईश्वरतुल्य  आत्माएं   और सातवें पे स्वयं शिवा  अपनी ऊर्जा  के साथ विद्यमान है।  और ये जो सातवा  चक्र  है इसकी  विशालताका अंदाजा इसी  से लगाया जा सकता है  कि  ये शिव  स्थान आकाशगंगाओं के मध्य में  बिलकुल मध्य में  स्थित है।   वही से सम्पूर्ण  आकाश गंगाओं का विस्तार  माना गया है।  




इसको किसी  जादू की कथा के रूप में ना लेकर  गुणधर्म योग्यता  के अनुसार लेना उचित  है।


ये  पथ  प्रयास रहित स्वचलित  है  और आत्मा  के  निश्चित  प्रारब्ध और मूलकर्म धर्म   से जुड़ा है।  प्रथम दो चक्रो तक आत्माए  संतुलन  के प्रयास में लिप्त पायी जाती है और इनका जन्म भी भोग अनुसार   कम अवधि में होता है , ये स्वयं निर्णय लेने कि हक़दार नहीं होती   प्रायः  इनकी प्रवर्ति  इन्द्रिय भोग कि तरफ ज्यादा झुकी होती है।    इस के ऊपर  स्वतः  उर्ध्वगामी गति सुनिश्चित होती है।  और  इनके जन्म  लेने कि  अवधि भी बढ़ती जाती है , अपनी इक्षा और करुणा  वश आती और जाती है।




जैसे  तीसरा , चौथे   चक्र , उर्ध्वगामी आत्माएं  सिर्फ  जन कल्याण के लिए जन्म लेती है ,पांचवे  और छठे   चक्र की आत्माए  प्रयास रहित  करुणा से भरी  अनुभव की गयी है , 


उनका होना ही  उनके होने का परिचय बन जाता है  और  धर्म स्थापना में सक्रीय होती है।  



सब कुछ प्रमाण रहित है , इसलिए  विश्वास करना और न करना   जिज्ञासु की  अपनी इक्षा और भाव पे है।  

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