Tuesday 25 March 2014

सांसारिक भाव और सांसारिक आधे अधूरे प्रकटीकरण -Note

ध्यान की सबसे सुंदर उपलब्धि , पुरस्कार या अहसास है की प्रकति के साथ आत्मसात अनुभव करना , स्वयं को उसका अंश मानना , जो हमारी जन्मदात्री , और उस ऊर्जा से एक लय होना जो हमारे जन्मदाता है।

और इस बात का भी अहसास होने लगता है कि हमारे अपने ही अंदर बैठी परछाईया कैसे कैसे अपनी छाया हमारे व्यक्तित्व पे डालती है , और मूल स्वभाव और स्वरुप को ढाँपने का प्रयास करती है।

और हम अपनी बाह्य विकसित दृष्टि के इतने अधीन हो जाते है कि दूसरे हमारे बारे में क्या सोच रहे है और कह रहे है हमको विचलित करता रहता है , और यही जहर के रूप में इतना भर जाता है व्यक्ति अपना सुख चैन सब दांव पे लगा देता है सिर्फ दुसरो के मुख से अपने लिए प्रभावी वक्तव्य सुनने के लिए। कोई भी तारीफ कर दे ... थोड़ी ही सही .... झूठी ही सही , झूठ ही प्रेम करता हूँ कह दे , सांसारिक उथले भाव में डूबे व्यक्ति इसी प्रयास में संघर्ष रत और बैचैन देखे जा सकते है , कभी कभी ये उदासी और दुःख या दूसरे पे अतिक्रमण का भाव इतना गहरा जाता है कि सोचने समझने कि क्षमता को भी नष्ट करदेता है। और व्यक्ति स्वयं आत्मघात करबैठते है या फिर दूसरे कि जान भी लेलेते है , कभी जिनको कहते थे कि मैं तुम्हे प्रेम करता हूँ ! ये कैसा प्रेम है ? और ये कैसा अहसास है ! जरुर कोई भूल है प्रेम जैसे शब्द को समझने में।

अद्भुत किस्सा है , पर मनस्विदो की दुनिया में उदाहरण कि तरह उपयोग में लाया है ओशो स्वयं महान मनस्विद थे .... एक जगह उन्होंने कहा है ," यूनान में कथा है नारसीसस की .... कि उसने झील में झांक कर देखा अपने को और मोहित हो गया… और अपने ही प्रेम में पड़ गया। फिर बड़ी मुश्किल में पड़ा क्योंकि खुद को खोजना बहुत मुश्किल है। उपाय कहां? सारी जमीन खोज डाली उसने, लेकिन वह चेहरा फिर नहीं दिखाई पड़ता है, जिसके प्रेम में पड़ गया है। फ्रायड ने ‘ नारसीसिस्ट ‘ उन लोगों को कहा है, जो अपने ही मोह में पड़ जाते हैं। और हममें से करीब-करीब अधिक लोग नारसीसिस्ट होते हैं, वे नारसीसस जैसे ही होते हैं। हम- सब अपने ही प्रेम में पडे होते हैं। कहते भला न हों, कहते भला न हों.. बायरन जैसा आदमी सैकड़ों स्त्रियों के प्रेम में पड़ता है.. कहता भला न हो, लेकिन मनस्विद कहते हैं कि वह सैकड़ों स्त्रियों के प्रेम में इसलिए पड़ता है कि हर बार हर स्त्री उसे कहे कि बहुत सुंदर हो। बस, इस आश्वासन के लिए। यह तलाश अपनी ही शक्ल को प्रेम करने की तलाश है। हजारों स्त्रियां कहें कि बड़े प्यारे हो। प्यार वह अपने को ही करता है, लेकिन यह हजार स्त्रियां कहें तो भरोसा गहरा हो जाए। "


            Photo: सांसारिक  भाव और सांसारिक  आधे अधूरे प्रकटीकरण : 
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ध्यान की सबसे  सुंदर उपलब्धि , पुरस्कार  या  अहसास है की  प्रकति के साथ आत्मसात  अनुभव करना , स्वयं को उसका अंश मानना  , जो हमारी जन्मदात्री , और उस ऊर्जा से  एक लय होना  जो हमारे जन्मदाता है।  

और इस बात  का भी अहसास  होने लगता है  कि हमारे अपने ही अंदर बैठी परछाईया  कैसे कैसे  अपनी छाया  हमारे व्यक्तित्व पे डालती है , और मूल स्वभाव और स्वरुप  को ढाँपने का प्रयास करती है।  

और  हम अपनी बाह्य विकसित दृष्टि के इतने अधीन हो जाते है  कि दूसरे हमारे बारे में क्या सोच रहे है और कह रहे है  हमको विचलित करता रहता है , और यही  जहर के रूप में इतना भर जाता है व्यक्ति अपना सुख चैन सब दांव पे लगा देता है सिर्फ दुसरो के मुख से  अपने लिए  प्रभावी वक्तव्य सुनने के लिए।   कोई भी तारीफ कर दे  ... थोड़ी ही सही .... झूठी ही सही , झूठ ही प्रेम करता हूँ कह दे , सांसारिक उथले भाव में डूबे  व्यक्ति इसी प्रयास में संघर्ष रत और  बैचैन देखे जा सकते  है , कभी कभी ये उदासी और दुःख  या दूसरे पे अतिक्रमण का भाव  इतना गहरा जाता है कि सोचने समझने कि क्षमता को भी नष्ट करदेता है।  और व्यक्ति स्वयं आत्मघात करबैठते है  या फिर  दूसरे कि जान भी लेलेते है , कभी जिनको कहते थे  कि मैं तुम्हे प्रेम करता हूँ !  ये कैसा प्रेम है ?  और ये कैसा अहसास है !  जरुर कोई भूल है  प्रेम जैसे शब्द को समझने में।  

अद्भुत किस्सा है , पर  मनस्विदो की दुनिया  में  उदाहरण कि  तरह  उपयोग में लाया है ओशो  स्वयं महान मनस्विद थे  .... एक जगह  उन्होंने  कहा है ," यूनान में कथा है नारसीसस की .... कि उसने झील में झांक कर देखा अपने को और मोहित हो गया… और अपने ही प्रेम में पड़ गया। फिर बड़ी मुश्किल में पड़ा क्योंकि खुद को खोजना बहुत मुश्किल है। उपाय कहां? सारी जमीन खोज डाली उसने, लेकिन वह चेहरा फिर नहीं दिखाई पड़ता है, जिसके प्रेम में पड़ गया है। फ्रायड ने ‘ नारसीसिस्ट ‘ उन लोगों को कहा है, जो अपने ही मोह में पड़ जाते हैं। और हममें से करीब-करीब अधिक लोग नारसीसिस्ट होते हैं, वे नारसीसस जैसे ही होते हैं। हम- सब अपने ही प्रेम में पडे होते हैं। कहते भला न हों, कहते भला न हों.. बायरन जैसा आदमी सैकड़ों स्त्रियों के प्रेम में पड़ता है.. कहता भला न हो, लेकिन मनस्विद कहते हैं कि वह सैकड़ों स्त्रियों के प्रेम में इसलिए पड़ता है कि हर बार हर स्त्री उसे कहे कि बहुत सुंदर हो। बस, इस आश्वासन के लिए। यह तलाश अपनी ही शक्ल को प्रेम करने की तलाश है। हजारों स्त्रियां कहें कि बड़े प्यारे हो। प्यार वह अपने को ही करता है, लेकिन यह हजार स्त्रियां कहें तो भरोसा गहरा हो जाए। "

क्या सच में  हम दुसरो की प्रशंसा  सिर्फ इसलिए करते है  कि पलट के अपनी भी तारीफ थोड़ी तो सुनने को मिल जाये यद्यपि मन में  व्यक्ति के लिए  सर्वथा  विपरीत भाव चल रहा होता है ? सांसारिक समस्त रिश्ते  ऐसे ही है माँ  पिता प्रेमी प्रेमिका  पति पत्नी  बेटा बेटी  या फिर दोस्त , आधे अधूरे   पज़ल_ब्लाक जैसे  पुरे होनेके लिए  इधर उधर जुड़ते रहते है , पुरे हो गए तो भाग्यशाली नहीं हुए तो आगे बढ़ना ही बुध्हिमानी  है , उलझ के दूसरे को भी उलझा देना  मूर्खता है।  समझना सिर्फ इतना कि ये स्थान हमारे लिए नहीं , आभार  देना और आगे बढ़ जाना।  पर ये वो ही कर पायेगा जो ध्यान में उतर गया , जिसने इस सत्य  को जान लिया मान लिया।  

 मैं तुमसे प्रेम करता हूँ या करती हूँ  इसीलिए कहा जाता है  कि कहीं धोखे से  वो शब्द  अपने कानो  में वो  शहद जैसे मधुर  स्वर  का रस  घुल  जाये ? , यानि कि  बर्तन हमारा ही कहीं न कहीं खाली है , इसीलिए ये भटकाव है।  संसार का सबसे सरलतम रिश्ता  माँ और  बच्चे का है , क्या माँ भी  अपने बच्चे को इसीलिए प्रेम करती है  कि ममत्व का उसका  खाली घड़ा  बच्चे के तोतले प्रेम से भर सके , शायद हाँ ! , माँ कि ममता  पूरी हो जाती है  जब बच्चा  प्यार से  उसकी गोद में सिमट जाता है।   और सबसे क्लिष्ट  उलझा हुआ  स्त्री और पुरुष का प्रेम सम्बन्ध।  दोनों अधूरे और दोनों खाली बर्तन जैसे  अपने अपने को भरने में लगे हुए है , और प्रेम करता हूँ  प्रेम  करती हूँ  , की  रट लगाये जा रहे है।  इसी में प्रतिउत्तर  मन माफिक न मिले  तो  मुश्किल हो जाती है , फिर प्रेम गया  और कब्ज़ा   शुरू , प्रतिबन्ध शुरू।  ये सब सांसारिक  भाव है  और सांसारिक  आधे अधूरे प्रकटीकरण।  

सभी अपना खाली  घड़ा  ही भर रहे है।  इसका पूर्ण अहसास तभी होता है जब  उस विश्वरूप के प्रेम का  सामना होता है।  सांसारिक क्षणिक  रिश्ते प्रेम क्रोध  सभी भाव खोखले जान पड़ते है , यहाँ कुछ पूरा नहीं , दुश्मनी का भाव भी अपने ही बर्तन को भरनें  का  अतृप्त और गलत तरीका है।  कोई भी भाव यहाँ   इंसानो से  पूरा नहीं हो सकता ,  सिर्फ और सिर्फ  परम से प्रेम के साथ ही ये भाव तृप्त हो पाता है। सांसारिक रिश्ते तो मुठी में बंद   फिसलती रेत जैसे है , जितना समेटो....जितना कस के बांधो  फिसलते ही है , बल्कि बांधते ही ज्यादा  तेजी से फिसलते है , और  मुठी फिर भी ख़ाली की ख़ाली।  होनी ही है , संसार एक जैसा कब रहा है ?  परिवर्तनशीलता संसार का  नियम है।  बदलना ही है।  

परम का एक रस सच्चा , एक प्रेम पूर्ण , एक भक्ति  एक समर्पण  बस एक भाव सम्पूर्ण बना देता है।  और इस ध्यान के माध्यम से ही ज्ञात होता है कि  जीव  का  वास्तविक कर्म और प्रेम क्या है  आनंद  क्या है।  ध्यान ही तो परम  तक  पहुँचने की सीढ़ी का प्रथम  और अंतिम पायदान है।

Om

क्या सच में हम दुसरो की प्रशंसा सिर्फ इसलिए करते है कि पलट के अपनी भी तारीफ थोड़ी तो सुनने को मिल जाये यद्यपि मन में व्यक्ति के लिए सर्वथा विपरीत भाव चल रहा होता है ? सांसारिक समस्त रिश्ते ऐसे ही है माँ पिता प्रेमी प्रेमिका पति पत्नी बेटा बेटी या फिर दोस्त , आधे अधूरे पज़ल_ब्लाक जैसे पुरे होनेके लिए इधर उधर जुड़ते रहते है , पुरे हो गए तो भाग्यशाली नहीं हुए तो आगे बढ़ना ही बुध्हिमानी है , उलझ के दूसरे को भी उलझा देना मूर्खता है। समझना सिर्फ इतना कि ये स्थान हमारे लिए नहीं , आभार देना और आगे बढ़ जाना। पर ये वो ही कर पायेगा जो ध्यान में उतर गया , जिसने इस सत्य को जान लिया मान लिया।

मैं तुमसे प्रेम करता हूँ या करती हूँ इसीलिए कहा जाता है कि कहीं धोखे से वो शब्द अपने कानो में वो शहद जैसे मधुर स्वर का रस घुल जाये ? , यानि कि बर्तन हमारा ही कहीं न कहीं खाली है , इसीलिए ये भटकाव है। संसार का सबसे सरलतम रिश्ता माँ और बच्चे का है , क्या माँ भी अपने बच्चे को इसीलिए प्रेम करती है कि ममत्व का उसका खाली घड़ा बच्चे के तोतले प्रेम से भर सके , शायद हाँ ! , माँ कि ममता पूरी हो जाती है जब बच्चा प्यार से उसकी गोद में सिमट जाता है। और सबसे क्लिष्ट उलझा हुआ स्त्री और पुरुष का प्रेम सम्बन्ध। दोनों अधूरे और दोनों खाली बर्तन जैसे अपने अपने को भरने में लगे हुए है , और प्रेम करता हूँ प्रेम करती हूँ , की रट लगाये जा रहे है। इसी में प्रतिउत्तर मन माफिक न मिले तो मुश्किल हो जाती है , फिर प्रेम गया और कब्ज़ा शुरू , प्रतिबन्ध शुरू। ये सब सांसारिक भाव है और सांसारिक आधे अधूरे प्रकटीकरण।

सभी अपना खाली घड़ा ही भर रहे है। इसका पूर्ण अहसास तभी होता है जब उस विश्वरूप के प्रेम का सामना होता है। सांसारिक क्षणिक रिश्ते प्रेम क्रोध सभी भाव खोखले जान पड़ते है , यहाँ कुछ पूरा नहीं , दुश्मनी का भाव भी अपने ही बर्तन को भरनें का अतृप्त और गलत तरीका है। कोई भी भाव यहाँ इंसानो से पूरा नहीं हो सकता , सिर्फ और सिर्फ परम से प्रेम के साथ ही ये भाव तृप्त हो पाता है। सांसारिक रिश्ते तो मुठी में बंद फिसलती रेत जैसे है , जितना समेटो....जितना कस के बांधो फिसलते ही है , बल्कि बांधते ही ज्यादा तेजी से फिसलते है , और मुठी फिर भी ख़ाली की ख़ाली। होनी ही है , संसार एक जैसा कब रहा है ? परिवर्तनशीलता संसार का नियम है। बदलना ही है।

परम का एक रस सच्चा , एक प्रेम पूर्ण , एक भक्ति एक समर्पण बस एक भाव सम्पूर्ण बना देता है। और इस ध्यान के माध्यम से ही ज्ञात होता है कि जीव का वास्तविक कर्म और प्रेम क्या है आनंद क्या है। ध्यान ही तो परम तक पहुँचने की सीढ़ी का प्रथम और अंतिम पायदान है।

Om

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