Saturday 1 March 2014

इस संसार की अंतिम परिणिति सिर्फ राख़ ही है- ( Note )

ध्यान दीजियेगा ! इस संसार की अंतिम परिणिति सिर्फ राख़ ही है , उस राख की मात्रा चाहे जो भी हो 

तो किसी भाव या सम्बन्ध या शरीर के बाल की खाल निकालते समय (धज्जियाँ उधेड़ते समय ) अपनी तार्किक बुध्ही को अवश्य ये समझा दें कि " जीवन सिर्फ बहाव में जीने की कला है " । यदि तर्को से प्रहार करेंगे और अपने बागीचे के हर छोटे बड़े पेड़ की जड़ खोदने का प्रयास करेंगे तो अंततोगत्वा दिमाग भले ही संतुष्ट हो जाए (जो हो नहीं सकता ) पर दिल ज़रूर खाली हो जायेगा (जो अनुचित है ). और ये अवश्य याद रखें , भाव से जीवन व्यतीत हो या बुध्ही से , दोनों का अंत राख़ ही है। इस मृत्यु की शून्यता में सब समां जाता है सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इसमें सिमट जाता है फिर हम तो उस अनुपात में बिंदु भी नहीं।
कृष्ण ने ५ इंद्रियों को घोड़ो की संज्ञा दी है , १- दृष्टि २- श्रवण ३- वाणी ४- बुध्ही ५ स्पर्श , और इनकी डोर जिनके हाथो में है वो है भाव। । और जो इनसबको जनता है वो ही है सूक्ष्म शरीर या मन. और ध्यान दीजियेगा , इस मन और बुध्ही से परे जो ऊर्जा है वो ही है आत्मा या चेतना। 



ये पांच घोड़े , अर्जुन और कृष्ण , संकेत मात्र संकेत इस शरीर और इस शरीर में वास करती ऊर्जा के।
जीवन के प्रारम्भ से पहले शुन्य , म्रत्यु के बाद शुन्य , इस जीवन के छोटे छोटे प्रसंगो की कथाओं के ताने बाने में शुन्य , एक सांस से दूसरी सांस के मध्य शुन्य। किसी भी संघर्ष के अंत में शुन्य ही है , किसी भी यात्रा के अंत में शुन्य ही है , शुन्य के सिवा कुछ नहीं। इस शून्यता को ह्रदय में स्थान दीजिये। और अनावश्यक उपायों में ऊर्जा को उलझने कि व्यर्थता को जानते हुए कर्त्तव्य निभाना ही कृष्णा को और अर्जुन के चरित्र के मर्म को समझना है।
इन पे विचार करें , ह्रदय में स्थान दे और अपने जीवन के बहाव में स्वयं का सहयोग करें। सम्पूर्ण सहजता और सरलता के साथ बिना आत्मिक आवरण के। ज्ञान और भाव के उचित सामंजस्य के साथ जीवन व्यतीत करें।


Om Pranam 

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