Tuesday 6 May 2014

सम्यक ज्ञान और श्रद्धा (Osho )

सम्यक ज्ञान के तीन स्रोत हैं ---

प्रत्यक्ष बोध, 

अनुमान और 

बुद्ध पुरुषों के वचन 




प्रत्यक्ष बोध-- सम्यक ज्ञान का पहला स्रोत है। प्रत्यक्ष बोध का मतलब है, आमने सामने का साक्षात्कार --बिना किसी मध्यस्थ के बिना किसी माध्यम के। जब तुम प्रत्यक्ष रूप से कुछ जानते हो ज्ञाता तुरंत सामना करता है ज्ञात का बतलाने के लिए कोई सेतु नहीं है कोई और नहीं है। तब तो वह सम्यक ज्ञान है। 
जब बुद्ध अपने अंतरतम अस्तित्व को जानते हैं, वही अंतरतम सत्ता प्रत्यक्ष है। वही प्रत्यक्ष--बोध है। इन्द्रियां भागिदार नहीं हैं। किसी ने किसी चीज की खबर नहीं दी; एजेंट जैसी कोई चीज वहां पर नहीं है। ज्ञाता और ज्ञात आमने सामने हो जाते हैं। यही है प्रत्यक्षता..... 


दूसरा स्रोत है ज्ञान का अनुमान --- यह गौण है लेकिन यह भी ध्यान रखने लायक है। क्योकि जैसे तुम विल्कुल अभी हो, तुम नहीं जानते की तुम्हारे भीतर आत्मा है या नहीं। अपने आंतरिक अस्तित्व का तुम्हे कोई सीधा ज्ञान नहीं है। तो करोगे क्या ? दो संभावनाएं हैं। 
पहली -- तुम विल्कुल अस्वीकार कर सकते हो। कि तुम्हारी सत्ता का कोई आंतरिक मर्म है. कि कोई आत्मा है। जैसे चार्वाकों ने किया था या जैसा पश्चिम में एपिकुरस,मार्क्स, एंजेल्स या कई दूसरों ने स्थापित किया है।
या एक और सम्भावना है। पातंजलि कहते हैं यदि तुम जानते हो तो अनुमान की कोई जरुरत नहीं। लेकिन यदि तुम नहीं जानते, तब अनुमान करना सहायक होगा। उदहारण के लिए , देकार्त, पश्चिम का एक महान विचारक, उसने अपनी दशनिक खोज संदेह सहित आरम्भ की। उसने शुरू से यह दृष्टिकोण अपनाया कि वह किसी ऐसी चीज में विश्वास नहीं करेगा जब तक वह असंदिग्ध न हो। जिस पर संदेह किया जा सकता था वह संदेह करता था। अनेकों वर्ष वह मानसिक अशांति में रहा। अंततः वह उस बात से जा टकराया जो असंदिग्ध थी। वह स्वयं को अस्वीकार नहीं कर सका; यह असंभव था। तुम नहीं कह सकते मैं नहीं हूँ। यदि तुम ऐसा कहते हो तुम्हारा कहना ही सिद्ध करता है कि तुम हो। यह कौन कहेगा ? संदेह करने के लिए भी मेरा होना जरुरी है।
यह है अनुमान। यह प्रत्यक्ष बोध नहीं है यह युक्ति-युक्त तर्क द्वारा होता है। लेकिन यह एक परछाईं देता है, एक झलक देता है। एक सम्भावना देता है, एक द्वार।



तीसरा स्रोत है ---बुद्ध पुरुषों के वचन 

तुम उन्हें सिद्ध नहीं कर सकते, तुम उन्हें असिद्ध नहीं कर सकते। तुम उनमे केवल आस्था कर सकते हो और यह आस्था परिकल्पित होती है यह बहुत वैज्ञानिक है। विज्ञानं में भी तुम बिना हाइपोथीसिस के, परिकल्पना के आगे नहीं बढ़ सकते। लेकिन परिकल्पना आस्था नहीं है। यह केवल एक कार्यात्मक संयोजन है। परिकल्पना तो एक दिशा-संकेत है, तुम्हे प्रयोग करना होगा। यदि प्रयोग ठीक प्रमाणित हो जाता है, तब हाइपोथीसिस सिद्धांत बन जाता है। बुद्ध पुरुषों के वचन श्रद्धा पर ग्रहण किये जाते हैं-- किसी परिकल्पना की तरह। फिर उन्हें अपने जीवन में कार्यान्वित करते हो। 



     


    

यदि तुम श्रद्धा से चलते हो,समग्रता से चलते हो, छाया की तरह बुद्ध के पीछे हो लेते हो, चीजें तुममे घटित होने लग सकती हैं क्योंकि वे इस व्यक्ति में घटित हो चुकी हैं।




Source : Bhagwatidas Nandlal Bhayi ji 

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