Thursday 15 May 2014

स्वयं का मंथन ; स्वयं पे आस्था (Note)

ईश्वर की नजर से देखे तो समय शाश्वत है , खंड खंड में विभाजित है ही नहीं , और इस पल में है , न भूत काल न में भविष्य काल में । समय को बनाने वाले हम , समय को खंड खंड में विभाजित करने वाले हम आखिरकार इस पल पल में विभाजित समय को कैसे अपने पक्ष में उपयोग में लायें।  

ध्यान और प्राणायाम इसी खंड खंड में विभाजित समय को और गहनता से जीने की कला है .... उस अखंड को इसी खंड-खंड में जी के अपने ह्रदय में उतारते है। 

धर्म जो कहता है .... आपने जन्म से अब तक माना , कुछ समझ के ... कुछ हाथ जोड़ के ... और नेत्र बंद करके। 

सवाल सही या गलत का नहीं , वास्तविकता को ह्रदय में उतार के अपने संशय और उद्वेगों को बाहर फेंकने का काम अध्यात्म दवरा किया जाता है , समस्त कठिनतम व्याख्या , दुरूह विश्लेषण , भाषा जनित कठनाईयां , न समझ पाने की बेचैनियाँ , 

और सबसे बड़ी स्थति .... क्या माने ? किसकी माने ? और क्यों माने ? 


आखिरकार ! जो अत्यंत सरलतम है , प्रेममय है और पूर्ण है। कण कण में ऊर्जा और तत्व के रूप में वास करता है। तो उसको समझना और मानना इतना कठिन क्यों ? निश्चित है.... बिलकुल नहीं ; वो भी सरलतम है और उसको जानना भी सरलतम है। 

सुझाव के तौर पे , एक कार्य जरूर कीजियेगा ... इधर-उधर का , उधार का ... जितना शाब्दिक ज्ञान इकठा हो जाये , उसी अनुपात में ह्रदय की सफाई भी जरुरी है। नियमित ध्यान प्रक्रिया द्वारा अपने ह्रदय को और मस्तिष्क को स्वक्षः रखियेगा ... आखिरकार ह्रदय में प्रियतम का वास है , उस भाव स्थान को स्वक्छ तो रखना ही चाहिए। 

निश्चित है ऋषिमुनि ; सच ही कह गए अनुभव लिख गए , परन्तु या तो आप सीधा उस को ह्रदय में उतार सके तो अलग बात है , माध्यम हमेशा कारगर नहीं होते।और कभी कभी खतरनाक भी होते है , आपकी सीधी जा रही गाडी को यु -टर्न मिल सकता है। संसार में भटकाव बहुत है , यदि कोई कुछ भी कह रहा है और आप बिना विचार किये स्वीकार करते है तो आप संकट में पड़ सकते है। कभी कभी व्यक्तियों को क्लिष्ट भाषा में ही अपनी बात कहने में परम सुख मिलता है , " देखा सामने वाला नहीं समझ पाया '. अहंकार की तामसिक पूर्ति। पर आपको जो चाहिए आप उससे अभी भी दूर है। और विश्वास कीजिये ऐसे खोज में आप तब तक दूर रहेंगे जब तक आप स्वयं से प्रेम स्वयं पे विश्वास शुरू नहीं कर देते। किसी भी विषय वस्तु को यदि पूर्ण समझना हो तो माध्यम बाधक होते है सीधा संपर्क कारगर है। फिर तो ईश्वर विषय वस्तु नहीं समस्त विषय इसी में समाएँ है। तो ऐसे परमात्मा को जानने के लिए , अपनी सम्पूर्ण संवेदनशीलता के साथ इन विषयों से ऊपर तो उठना ही होगा। 

स्वयं का मंथन कीजिये , आस्था रखिये स्वयं पे , आप भी उसी का अंश है। 

" आपो गुरु आपो भवः "

विचार कीजिये ! स्वयं से सवाल कीजिये ! उत्तर भी स्वयं की गहराई से ही आएगा ! 

और यदि विचार मंथन करना भी है , तो उचित सत्संग और सही पात्रता का होना परम आवश्यक है। 

{
इस पोस्ट के चित्र को देखिये , ओशो आश्रम का है , प्रतीक रूप में बहुत महत्त्व है , बिना कहे सब कह रहा है .... बहुत छोटा रास्ता दिखता है मंजिल का , दोनों तरफ से बंधा हुआ , परन्तु आशाओं से भरा , चारों और वो ही वो बिखरा है , उससे अलग तो कुछ है ही नहीं , तभी तो आपके भटकने पे वो मंद मंद मुस्कराता भी है ..... 



मो को कहाँ ढूंढें बन्दे मैं तो तेरे पास में ।

ना तीरथ में ना मूरत में, ना एकांत निवास में ।
ना मंदिर में, ना मस्जिद में, ना काबे कैलाश में ॥

ना मैं जप में, ना मैं तप में, ना मैं व्रत उपास में ।
ना मैं क्रिया क्रम में रहता, ना ही योग संन्यास में ॥

नहीं प्राण में नहीं पिंड में, ना ब्रह्माण्ड आकाश में ।
ना मैं त्रिकुटी भवर में, सब स्वांसो के स्वास में ॥

खोजी होए तुरत मिल जाऊं एक पल की ही तलाश में ।
कहे " कबीर " सुनो भाई साधो, मैं तो हूँ विशवास में ॥
............... }


सभी को उनके जीवन की महत्वपूर्ण यात्रा की शुभकामनायें

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