Thursday 24 April 2014

छोटे मुरारी, तुम कहते हो: "प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।' Osho



मौत तो बहुत करीब खड़ी है। हर क्षण द्वार पर खड़ी है। कब दस्तक दे देगी, कुछ पता नहीं।

छोटे मुरारी, तुम कहते हो: "प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।'

थोड़े से लोग बचेंगे। लेकिन वे थोड़े से लोग ही कीमती हैं, वे थोड़े से लोग ही प्राणवान हैं। 
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ये जो तुम्हारे पास मंत्र लेने आते हैं, गुरु-मंत्र, ये क्या कह रहे हैं? यही कह रहे हैं, कोई ऐसी बात बता दो कि हम जैसे हैं वैसे ही रहें, मंत्र को दोहरा लेंगे सोते वक्त या सुबह उठ कर, और बस पार पा जाएंगे। यह भवसागर से पार होना है, कोई मंत्र बता दो! कोई सत्य बता दो!

मगर इनमें सत्य की जिज्ञासा किसी की भी नहीं है। अभी सत्य की जिज्ञासा का अर्थ भी इन्हें पता नहीं है। सत्य की जिज्ञासा का तो अर्थ ही यह होता है कि मेरे कोई विश्वास नहीं, कोई अविश्वास नहीं, कोई पक्षपात नहीं, कोई शास्त्र नहीं, कोई सिद्धांत नहीं। अभी तो मैं कोरे कागज की तरह हूं, अभी मैंने कुछ लिखा नहीं; खोजने चला हूं, जब मिल जाएगा तो लिखूंगा। अभी तो दर्पण हूं। अभी तो दर्पण को साफ कर रहा हूं। फिर जो तस्वीर बनेगी, दर्पण पर जो प्रतिफलन होगा, उसको पहचानूंगा। तब कहूंगा कि मैं कौन हूं।

और मैं तुमसे कहता हूं: जिसने सत्य जाना वह क्या हिंदू होगा फिर? वह क्या वेद के ऊपर सिर पटकेगा? उसके भीतर वेद होगा। उसकी वाणी में वेद होगा। उसके मौन में उपनिषद होंगे। उसके उठने-बैठने में गीता होगी। वह क्यों किसी कृष्ण के मंदिर या राम के मंदिर जाएगा? वह जहां बैठेगा वहां मंदिर होगा। वह क्यों काबा और काशी जाएगा? वह जहां चलेगा वहां काबा बन जाएंगे। जिस पत्थर को छू देगा वह पत्थर काबा का पत्थर हो जाएगा। सत्य को जानने वाला तो किसी धर्म का हिस्सा हो ही नहीं सकता। और जिसने सत्य को जाना नहीं है वह कैसे हो सकता है?

इसलिए मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि दुनिया में सत्य को जाना नहीं तब तक तो कोई व्यक्ति हिंदू, मुसलमान, ईसाई हो ही नहीं सकता। और अगर जान लिया, तब होने का सवाल ही नहीं उठता। इसलिए खुद को और दूसरों को धोखा देने वाले लोग धर्मों में विभाजित हैं। और जब ये तुम्हारे पास आकर कहते हैं कि हमें सत्य जानना है, तो इनको सत्य नहीं जानना है, इनको अपनी मान्यता को सत्य सिद्ध करवाना है।

और ये चाहते हैं कोई सस्ती तरकीब। गुरु-मंत्र का मतलब होता है: कोई सस्ती तरकीब, कोई ताबीज--कि राम-राम जपने से होगा, कि हरि-हरि जपने से होगा, कि हरे कृष्ण जपने से होगा। कितनी बार--एक सौ आठ बार, कि एक हजार आठ बार। किस मुहूर्त में--सुबह कि सांझ, भोजन के पहले कि बाद। ये तुमसे पूछ रहे हैं इस तरह की बातें।

लेकिन अच्छा है कि तुम इनको बता नहीं रहे। तुम इनसे कह रहे हो कि जब मैं सत्य को जान लूंगा...लेकिन सत्य जानने में तुम्हारी भी बड़ी घबराहट है। तुम अभी संन्यास तक जानने को राजी नहीं, सत्य जानने को तुम कैसे राजी हो सकोगे?

तुम पूछ रहे हो: "क्या संन्यास को बिना पाए सत्य नहीं पाया जा सकता?'
तुम ऐसा क्यों नहीं पूछते कि क्या बिना सत्य को पाए सत्य नहीं पाया जा सकता? सत्य पाने की भी झंझट क्यों लेते हो? क्योंकि सत्य पाते ही से ये तुम्हारे प्रेम करने वाले लोग छूट जाएंगे। तुमने सत्य कहा और तुम मुश्किल में पड़े। सुकरात ने कहा और जहर मिला। ये तुमको छोड़ देंगे? जीसस ने कहा और सूली मिली। और तुम सोचते हो कि ये तुमको सिंहासन देंगे सत्य के बाद? रामलीला करो तो सिंहासन मिलेगा। सत्य की बात उठाई कि सूली के अतिरिक्त और कुछ बचता नहीं। सूली पर चढ़ने की तैयारी हो तो सत्य को कहना।

मगर सत्य को अभी तो कहोगे कैसे? अभी तो जानना पड़ेगा। लेकिन एक बात अच्छी है कि तुम उनसे कह रहे हो कि जब जान लूंगा तब तुम्हें समझाऊंगा।

और तुम कहते हो: "वे राह देख रहे हैं।'
कब तक उनको राह दिखलाओगे? मैं तैयार हूं तुम्हें सत्य जनवा देने को। मैं नहीं कहता राह देखो। मैं नहीं कहता कल की राह देखो। कल का क्या पता है! मौत हमेशा द्वार पर खड़ी है। तुमने डेढ़ साल सोच-सोच कर तो यह प्रश्न पूछा। संन्यास लेने में क्या डेढ़ जन्म लगाओगे, क्या करोगे? डेढ़ साल तुम विचार करते रहे यह प्रश्न ही पूछने को! तो सत्य को जानने के लिए कितना समय लगाना है? और जिंदगी का भरोसा नहीं है--आज है, कल न हो।


करीब मौत खड़ी है, जरा ठहर जाओ
कजा से आंख लड़ी है, जरा ठहर जाओ
करीब मौत खड़ी है...
थकी-थकी सी फिजाएं बुझे-बुझे तारे
बड़ी उदास घड़ी है, जरा ठहर जाओ
फिर इसके बाद कभी हम न तुमको रोकेंगे
लबों पे सांस अड़ी है, जरा ठहर जाओ
अभी न जाओ कि तारों का दिल धड़कता है
तमाम रात पड़ी है, जरा ठहर जाओ
नहीं उम्मीद कि हम आज की सहर देखें
ये रात हम पे कड़ी है, जरा ठहर जाओ
गमे-फिराक में जी भर के तुम को देख तो लें
ये फैसले की घड़ी है, जरा ठहर जाओ
करीब मौत खड़ी है, जरा ठहर जाओ
कजा से आंख लड़ी है, जरा ठहर जाओ


मौत तो बहुत करीब खड़ी है। हर क्षण द्वार पर खड़ी है। कब दस्तक दे देगी, कुछ पता नहीं। डेढ़ साल, छोटे मुरारी, तुमने प्रश्न पूछने में लगा दिया! तो संन्यास के लिए क्या करोगे? नहीं, इतने आहिस्ता-आहिस्ता चलने से यह यात्रा नहीं होगी।

और तुम कहते हो कि आपकी बातों को, आपके विचारों को प्रस्तुत करने से करीब-करीब बहुत से संतों के साथ विरोध खड़ा हो गया है।

जिससे मेरी बातों के कारण विरोध खड़ा हो जाए, समझ लेना कि वह संत नहीं है; संत का आभास होगा, ढकोसला होगा।

खेत में तुमने देखे हैं न, आदमी खड़े कर दिए जाते हैं! डंडा लगा देते हैं, कुरता पहना देते हैं। चूड़ीदार पाजामा हो तो चूड़ीदार पाजामा पहना दो। हंडी ऊपर रख कर गांधी टोपी लगा दो। खड़िया मिट्टी से आंख-नाक बना दो। चाहो तो लिख दो कि मोरारजी भाई देसाई, भूतपूर्व प्रधानमंत्री! वह जो खेत में झूठा आदमी खड़ा होता है, उसी तरह के तुम्हारे संत हैं--टीका इत्यादि लगाए हुए, सिर इत्यादि घुटाए हुए, माला वगैरह फेरते हुए। सब ढोंग-धतूरा पूरा कर रहे हैं। सारा क्रियाकांड पूरा कर रहे हैं। मगर संतत्व कहां? अगर संतत्व हो तो सत्य के साथ सदा राजी होने की हिम्मत होगी। चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े। जिनसे तुम्हारा विरोध खड़ा हो गया है, उसको कसौटी समझ लेना कि वे संत नहीं हैं।
और कहते हो: "मेरे चाहने वाले आपके विचारों का सत्कार कर रहे हैं।'

मत इस भ्रांति में पड़ो। पक्का तो तभी होगा जब तुम संन्यास लो और फिर भी तुम्हारे साथ खड़े रहें। तभी कसौटी है।

तुम कहते हो: "संन्यास लेने में मुझे इस बात का डर लगता है कि मुझे चाहने वालों का दिल मैं नहीं तोड़ पाऊंगा।'

दिल वगैरह है कहां? छोटे मुरारी, कैसी बातों में पड़े हो! कहां दिल, किसका टूटता दिल! होना भी तो चाहिए टूटने के पहले। सभी दिल लेकर पैदा थोड़े ही होते हैं। ये फुफ्फस-फेफड़े को तुम दिल मत समझ लेना। सांस वगैरह चलती है, इसको दिल मत समझ लेना। दिल तो बड़ी मुश्किल से मिलता है। और सभी को नहीं मिलता। मिल सकता है, लेकिन श्रम से मिलता है। प्रेम और प्रार्थना से मिलता है। ध्यान और समाधि से मिलता है। मत चिंता करो, किसी का दिल नहीं टूटेगा। बल्कि खुश होंगे इसमें से बहुत से लोग--कि अरे चलो ठीक, जाहिर हो गया।

तुम सोचते हो मेरे साथ जो लाखों लोग थे, मुझे छोड़ कर चले गए, उनका किसी का भी दिल टूटा? नहीं, एक का भी नहीं टूटा। किसी का हार्टफेल वगैरह हुआ ही नहीं। बल्कि वे खुश हुए कि चलो इस आदमी ने सच्ची-सच्ची बात कह दी, जाहिर कर दिया अपने हृदय को पूरा, नहीं तो हम इसके चक्कर में न मालूम कब तक पड़े रहते! उन्होंने कोई और किसी को खोज लिया।

कोई कमी है? तुम्हारी कथा सुनते हैं, छोटे मुरारी, किसी और की सुन लेंगे। तुम्हारे वाकचातुर्य से प्रसन्न हैं, किसी और के वाकचातुर्य से प्रसन्न हो जाएंगे। हां, ग्राहक कुछ खो जाएंगे। दिल वगैरह कुछ भी नहीं टूटेगा। और जिनका दिल है वे तुम्हें छोड़ कर जाएंगे नहीं; दिलदार ही बचेंगे।
और तुम कहते हो: "मैं समाज को चाहता हूं।'

इस सड़े समाज को? इस लाश को? इसको दफनाना है कि चाहना है? इसको मरघट ले जाना है। इसकी अंतिम क्रिया करनी है। इसको विदा करना है। एक नये जीवन को जन्माना है।
और तुम कहते हो: "मेरा प्रेम मेरा गला घोंट रहा है।'

प्रेम कभी गला नहीं घोंटता है। कहीं न कहीं भीतर, यह हजारों लोगों की भीड़ जो तुम्हारी कथा सुनने इकट्ठी होती है, तुम्हारे अहंकार को तृप्ति दे रही होगी। तुम्हें कष्ट तो होगा, मगर मेरी आदत ही कष्ट देना है, मैं क्या करूं? मैं दिल वगैरह तोड़ने से नहीं डरता, जी भर कर तोड़ता हूं। हां, जो टूटने पर भी न टूटे, मेरी सब चेष्टाओं से भी न टूटे, उसको ही मैं स्वीकार करता हूं कि हां था दिल, नहीं टूटा। नहीं तो दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई इधर गिरा, कोई उधर गिरा! तो गिर जाने दो, झंझट मिटी। ऐसे दिल को रख कर भी क्या करोगे?

छोटे मुरारी, तुम कहते हो: "प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।'
प्रकाश तो डाल दिया, अब तुम लेने की अनुकंपा करो! तुम जरा आंख खोलो, संन्यास का निमंत्रण मैंने दे दिया है, तुम हिम्मत करो। कम से कम तुम तो दिल दिखलाओ। फिर तुम्हारे पीछे जिनके पास दिल होगा वे भी चले आएंगे। नहीं हजारों में रह जाएंगे, थोड़े से लोग बचेंगे। लेकिन वे थोड़े से लोग ही कीमती हैं, वे थोड़े से लोग ही प्राणवान हैं। -

Apui Gai Hirai - 08

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