Sunday 13 April 2014

क्षुधा और पूर्ण की पूर्णता ज्ञानी के दृष्टिकोण से ; काल्पनिक याके कितनी वास्तविक ? (Note )

Before true knowledge reveals itself, ignorance needs to be fully swept aside.

Wisdom will not reveal itself while there is investment in the unreal, for that portion of energy will continue creating divisions and distractions in order to avoid or delay seeing what truly Is.


Such is the nature of the psychological mind.

~ Mooji




ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||


" यही है पूर्ण की सम्पूर्ण परिभाषा , जहा पूर्ण पूर्ण से मिलकर पूर्ण हो जाता है , " और अपूर्ण अपूर्ण से मिलकर भी अपूर्ण रह जाता है , अपूर्ण पूर्ण से मिले तो पूर्ण होता है , पूर्ण अपूर्ण से मिले तो भी पूर्ण होता है।

कहने का तात्पर्य है की ये जो अपूर्ण पूर्ण से मिलता है , यही " मानव " है और मानवीय जिज्ञासा का रूप है उसकी प्यास उसकी बुद्धि की वो टंकार जो उसे सूचित करती रहती है की वो अधूरा है , कितना भी रहस्य उसके समक्ष अपने को प्रकट करे , फिर भी उसको ऐसा आभास होता रहता है , की अभी भी अप्रकट है जो प्रकट होना है।

ये जो चेतना है यही मानव को मानव बनती है , और जो इसका मध्य बिंदु है वो है शंकाए , शंकाए उच्च अवस्था की और उर्ध्व गमी है तो ज्ञान देती है सुलझाव देती है , और अधोगामी हो गयी तो उलझाव भटकाव देती है .... तर्क प्रेरित करते है निष्कर्ष तक ले जाने के लिए , जो उत्तर उसको सिर्फ तर्क से मिलता नहीं , नतीजन भटकाव उसको प्यास देता है , फिर वो सामान्य जन के लिए उच्च श्रेणी के ज्ञाता हो जाते है परन्तु स्वयं के लिए सिर्फ पिपासु जिनकी क्षुधा अभी भी बाकि है। यदि ऐसा न होता तो इस उच्च अवस्था को पाते ही समाधी घटित हो जाती , पर नहीं प्यास तो चलती रहती है और चलाती भी रहती है , जब तक स्वाभाविक मृत्यु आगोश में न ले ले।

यही मानवीय सत्य है , यदि वास्तव में कोई क्षण ऐसा है जब की व्यक्ति पूर्ण के साथ मिलके पूर्ण हो जाता है , तो फिर उस क्षण के बाद कुछ भी पाने और जानने की जिज्ञासा स्वतः समाप्त हो जानी चाहिए , मनोविज्ञान तो यही कहता है फिर सारे प्रयास समाप्त हो जाने चाहिए ,ज्ञानी का ज्ञान पूरा हो जाना चाहिए , और भक्त की भक्ति पूर्ण हो जानी चाहिए , परन्तु ऐसा होता देखा नहीं गया , भक्ति की मात्र बढ़ती जाती है , ज्ञानी के ज्ञान की प्यास बढ़ती जाती है बड़े बड़े ज्ञानी ज्ञान के चक्कर काटते ही रहते है जब तक जीवन है तब तक , कभी कुछ अनुभव करते है तो कभी कुछ , पर ज्ञान का आना और आना जारी रहता है ,

बुद्ध की प्यास थी ! सिद्धार्थ के रूपमे भटकते रहे , एक स्तर पे जाके उनको ज्ञान मिला , वो भटकाव उनका थमा ! यदि थमा होता तो फिर जगल जंगल क्यों भटकते , प्यास ने अपना रूप बदल लिया , परन्तु प्यास समाप्त नहीं हुई। पहले वो स्वयं तक थी अब उसका विस्तार होने लगा। परन्तु प्यास प्यास ही है , माया के सामान अपनी उपस्थ्ति का पता भी नहीं देती। और मृत्यु तक साथ निभाती है।

उदाहरन के लिए , रामकृष्ण , विवेकानंद परमहंस योगानंद आदि अंत तक अपनी ही प्यास के पीछे पीछे भागते रहे। परम भक्त मीरा , कबीर , रैदास रहीम , किसकी प्यास बुझ के पूर्ण हुई ? न न , हो ही नहीं सकती मानव जन्म का सच यही है , प्यास की अग्नि जलती रहती है , और क्षुधा के लिए निरंतर आत्माएं प्रयासरत रहती है। एक और उदाहरण सब जान जाने के बाद मस्त मलग हो चुके जे कृष्णमूर्ति अंतिम सांस तक और बहुत कुछ जानने की प्यास पे काबू नहीं पा सके और निरंतर किसी न किसी माध्यम से वो अपने ज्ञान को और बढ़ाते ही रहे। स्वयं ओशो की क्षुधा ज्ञान पाने के बाद तो शांत हो जाना था परन्तु नहीं , डेढ़ लाख पुस्तके और उनका निरंतर अध्ययन करते रहना , 600 किताबो का प्रकाशन , कई हजार विडिओ ऑडियो डिस्कोर्सेस ..... उनकी प्यास को दर्शाता है उनके मानव होने का संकेत देता है। विश्लेषण चिंतन व्याख्या आलोचना इसी प्यास के विभिन्न रूप है। ज्ञान पिपासा , भक्ति पिपासा , और मौनी के मौन में भी क्षुधा है , शरीर और मन की भूक और प्यास नैसर्गिक है मानव धर्म के साथ गुथी है। 


कहने का अर्थ सिर्फ इतना है , ये कहना और सोचना दोनों व्यर्थ है की आत्मसाक्षात्कार ज्ञान की और ज्ञानी की चरम अवस्था है , नहीं नहीं ..... एक और दरवाजा खुलता है , एक और मार्ग मिलता है , और कदम फिर चल पड़ते है अनजाने मार्ग पे ...... कदम किसी तरफ को भी उठ रहे हो , सिर्फ एक के बाद एक दरवाजे खुलते चले जाते है , चलने की दिशा चाहे उर्ध्व को या निम्न को ....... मानव जीवन ही प्यास है , ज्ञानी की प्यास या के अज्ञानी की , सिर्फ स्तर का अंतर है। जीवन है तो भूख है , जीवन है तो प्यास है , जीवन है तो इक्षाएं है जीवन है तो कामनाये है ..... निरंतर प्यास की उपस्थति और मृत्यु तक ये क्रीड़ा चलती रहती है ; गुरु - शिष्य , साधु - साधक , गृहस्थ-सन्यस्थ सभी की। गुरु शिष्य से सीखता है तो कभी शिष्य गुरु से , गृहस्थ सन्यस्थ से तो सन्यस्थ गृहस्थ से। एक दूसरे पे निर्भर जीवन की गाडी चलती रहती है।

कुछ करने की प्यास , कुछ देने की प्यास , कुछ लेने की प्यास , प्यास का कोई भी रूप हो सकता है। अंततोगत्वा ये भी माया ही है। 




ॐ ॐ ॐ




संतोष कुमार संस्कृत मैं नहीं जनता ...पर जहाँ तक बुद्ध पुरुष की बात है मैं नहीं मानता की वो प्यास है ...?उनकी इतनी पुस्तको का अद्ययन इसलिए की उसमे जो सार बात है वो हमें दे सके ...उनकी खुद की जरुरत नहीं है ...पूर्ण का मतलब ही है पूरा यदि अभी कुछ बाकी है तो फिर पूर्ण कैसा ...?पूर्ण का मतलब ही है की उनकी दौड़ ख़त्म हो गई ...अगर वो दौड़ते दिख रहे है तो हमारे लिए ...उनकी मंजिल तो उनके पास ही है ...वो कुछ पाने के लिए नहीं देने के लिए दौड़ रहे है ...क्यों की हम दौड़ रहे है ...__/\__अगर ये गलत है तो माफ़ी चाहूँगा...

  • My Spirituality : Discourses धन्यवाद , दोस्त । 

    बात संस्कृत की नहीं , भाषा से बाहर हम भाव की यात्रा पे है। … शाब्दिक अर्थ अनर्थ कर देते है , ये सभी को पता है , दूसरी बात सही और गलत जैसा भी कुछ नहीं है ,धागे का एक सिरा पकड़ो तो सही और दूजा अपने आप ही गलत होने लगता है। 

    जो आपको लगता है वो ....अपनी तरफ से ..... अपने लिए लगता है , स्वयं को मध्य में करके जरा बुद्ध पुरुष के ह्रदय की यात्रा कीजये , मानव धर्म की यात्रा कीजिये। वो सारे तार खुलंगे जो बंद है , वो संशय ख़त्म होंगे जो हमारे बनाये है , आप स्वयं सोचिये स्वयं को बुद्ध बना के। आपकी प्यास यदि समाप्त हो गयी तो आपका जीवन भी समाप्त हो जायेगा , कुछ जानना कुछ करना ये जीवन के प्रेरणा स्रोत है। जीवन इक्षा का समाप्त हो जाना यानि की आत्महत्या की तरफ कदम है , और कोई बुद्ध दुर्घटनावश आत्महत्या करता नहीं दीखता। स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त होता है। 

    और आप ये भूल जाइए की बुद्ध पुरुष आप जैसे के लिए ही करुणावश जीते है , जी नहीं कदापि नहीं , बुद्ध सिर्फ अपनी चेतना से ऊर्जावान अपने लिए ही जीता है आप जरा पोस्ट के साथ इस चित्र को देखिये , सारी ऊर्जा दो हथेलियों के मध्य संगृहीत हो के सूर्य के सामान प्रकाशवान हो गयी है , दोनों हाथो से समेटो तो भी किरणे बाहर निकल रही है , एक बुद्ध का जीवन भी यही है ...... यही अध्यात्म का पहला पाठ है , स्व ज्ञान स्व धर्म स्व चेतना ज्ञान। …… इस स्व का घड़ा भरने के बाद जो छलकता है , वो आप तक पहुँचता है। वो सार ज्ञान वो सारा जीवन उनका अपना है , विश्वास कीजिये।
  • My Spirituality : Discourses प्यास-प्यास का फर्क है , दरवाजे- दरवाजे का फर्क है , और भाव -भाव का फर्क है , जीवन-जीवन का फर्क है दृष्टिकोण का फर्क है। पर एक बात जो सामान्य है वो है स्व की , आप अपने लौकिक स्वार्थ के लिए बुद्ध के पास जाते है , और बुद्ध पुरुष "अपने स्वार्थ के लिए स्वयं को ऊर्जावान रखते है।" 
    वैसे यदि आपको ये बात नहीं भी समझ आएगी तो भी बुद्ध के जीवन पे कोई फर्क नहीं पड़ेगा , कुछ यूँ समझिए , यहाँ से कोई उन्नत अमेरिका जाके सफल फैक्ट्री में जॉब करता है , ऐसी फैक्ट्री जो विश्व प्रसिद्द हो चुकी है , आप वह अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए गए है , सही है ! पर जो फैक्ट्री सफलता पूर्वक चल रही है वो सिर्फ इसलिए नहीं की वो भला कर रही है , ध्यान दीजियेगा ! भला तो हो रहा है स्वतः , उसके कुछ अपने लिए भी सिद्धांत और उद्देश्य है इसीलिए चल रही है। 

    यहाँ भी आध्यात्मिक व्यवसाय और लौकिक व्यवसाय का फर्क है ( एक तरफ भाव और दूजी तरफ रूपया ) बात और भाव मूल में वो ही है ..

    इस विषय को और समझ के ज्यादा अच्छा लगा , पुनः धन्यवाद। 

    प्रणाम आपको।
My Spirituality : Discourses "स्वयं ओशो की क्षुधा ..............उनकी प्यास को दर्शाता है ... उनके मानव होने का संकेत देता है" 

बुद्ध प्रेमी , महावीर प्रेमी या के ओशो प्रेमी , किसी वस्तु विशेष धारा से प्रेम करने वाले मित्र कृपया ध्यान दे  ज्ञान का उद्देश्य पुस्तकों को 
सिर्फ खरीदना बेचना हो ही नहीं सकता , यदि कोई ये समझा तो उसने मेरे नोट का अर्थ ही समाप्त हो गया ।

ओशो को यदि कोई मात्र मानव समझ सका तो स्वयं ओशो के ऊपर बड़ा उपकार होगा , क्यूंकि यही तो कारन है जो उनके हर कृत्य की आलोचना है। ( मानव परिभाषा कथित ) भगवान शब्द ने ही बखेड़ा खड़ा किया है .... मेरे लिए ओशो एक ऐसे मित्र है , जो मानव है , और अपने अनुभव और ज्ञान को हम सब से बांटते हुए अन्य सामान्य मानव की ही तरह उनकी इक्छा थी की लोग उनको जाने समझे (जो समझ सके ). उनके दवरा की गयी भगवान शब्द की व्याख्या से मैं पूर्ण सहमत हूँ ... 

कृपया पुनः पढ़ें :

" ज्ञानी का ज्ञान बढ़ता ही गया , अनुभव बढ़ता ही गया , वो किसी एक के लिए नहीं , वो स्वयं उनके " स्व " के लिए था। नदी के किनारे जो भाग्य से खड़े हो गए , और बहते जल को पि लिया। वस्तुतः किसी भी ज्ञानी का ज्ञान उसके स्वयं का अर्जित होता है और स्वयं के लिए ही होता है। ऊर्जा का प्रस्फुटन सभी को लाभ देता है। " 

इसको सूरज के उदय से भी समझा जा सकता है , सूर्य जब उदय हुआ तो जहाँ जहाँ किरणे गयी उजाला हो गया , सूर्य की उपासना हो या न हो इस से सूर्य को अंतर नहीं पड़ता , किरणे स्वतः बिखर रही है। या के वर्षा हुई , बादल का कोई प्रयोजन नहीं , पानी बरस रहा है , गड्ढे भरना जल का स्वभाव है , पानी कहाँ कहाँ गिरा इसका बादल को पता भी नहीं। सब कुछ प्राकृतिक है। 

आशा करती हूँ मैं अपना पक्ष ठीक से रख पा रही हूँ। धन्यवाद आभार।

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