Sunday 20 April 2014

जब तीनो तरफ तर्क मौजूद हो तो चौथी तरफ खड़े आप क्या सोचेंगे ? (thought for thinker )

ऐसा क्यों होता है , किसी संवेदनशील विषय पे कोई भी अपना मत अपने अनुभव से हमें दे के चला जाता है और हम तब तक उसको मानते रहते है जब तक कोई दूसरा आके उस मत के ऊपर कोई दूसरा मत न दे जाये , उदाहरण के लिए शब्द " प्रारब्ध " , किसी ने एक दो उदाहरण दे के कहा , प्रारब्ध है , हमने रटना शुरू करदिया ,मन्त्र बना लिए , पूजा होनी लगी प्रारब्ध देवता बन गए , फिर कुछ समय बाद दूसरे प्रभावी वाणी वाले व्यक्ति ने हमे कहा की प्रारब्ध नहीं है , हमारे दिमाग में घंटी बजनी शुरू हो गयी , व्यर्थ समय गया प्रारब्ध को महत्त्व देने में , ये तो कह रहे है की प्रारब्ध कहीं नहीं है। प्रारब्ध तो जाने दो , दूसरा जनम ही नहीं ( अब करो साबित ) जब दूसरा जनम ही नहीं तो कैसा कर्म संचय और कैसा कर्म का जन्म जन्मान्तर हस्तांतरण , इसके साथ ही वो सब भी खत्म जो जीव के मूल स्थूल और सूक्ष्म शरीर की बात करता है , और साथ ही सूक्ष्म शरीर के अपने कर्मो के साथ यात्रा की बात करता है। ये तो अभी और इसी जीवन के कर्म पे जोर दे रहे है , अब तब से कर्म प्रधान हो के सोचने लगे हम कर्मवादी हो गए आदि आदि।

कितनी ही भीड़ में छुपे मस्तिष्क ऐसे ही काम करते है , उनके चिंतन दूसरों के कथन पे निर्भर है , बहुत प्राचीन कल में ऋषि चार्वाक हुए उन्होंने पुनर्जीवन के चक्कर में भटकते लोगो के लिए कहा , आज में जियो , आज ही महत्वपूर्ण है और कहा " यज्जम जीवेत सुखम जीवेत , ऋणं कृतवा घृतं , पिबेत मरणोपरातम पुनरागमनं कुतः। ऋषि ने कहा हमने माना। ऋषि को भारतीय दर्शन में अभूतपूर्व स्थान मिला। फिर वाल्मीकि जी ने श्री राम के जन्म से पहले रामायण की रचना करके प्रारब्ध को जीवित किया , इसका असर समाज पे हुआ ; राम परिवार का नाम श्रद्धा और पूजा भाग्यवाद को बढ़ाने वाले हो गए। " राम परिवार की पूजा करो भाग्य सुधारो " तत्पश्चात व्यास रचित कृष्ण के चरित ने भाग्य और कर्म दोनों को बढ़ाया , कृष्ण ने भक्ति के साथ सद्कर्म और सद्गति का रास्ता दिखाया और श्री मद भगवत में कथाओ के माध्यम से आत्मा और परमात्मा का परिचय भी कराया , तबसे द्वैत और अद्वैत दर्शन चलने लगा , दर्शन का मतलब ऐसा कुछ जिसे दिव्य नेत्रों से जाना गया।

अलग अलग समय पे अलग अलग मत विचार ले के लोग आते रहे और समझ पे आधारित दर्शन नाम का विषय फल _फूल के दर्शन_शास्त्र बन गया। किसी ने कहा प्रारब्ध किसी ने कहा कर्म का महत्त्व है किसी ने भाग्यवाद को बढ़ावा दिया ..... तो किसी ने कहा कर्म और भाग्य दोनों का संयोग ... तो किसी ने कहा कर्म और भाग्य का संयोग प्रारब्ध । जिसको जो समझ में आया हाथी की काया को विश्लेषित करता रहा

शंकराचार्य ने कुछ कहा , मठाधीश ने कुछ कहा , गुरु देव ने कुछ कहा , शास्त्र कुछ और उलझा गए। किसकी माने..... किसकी न माने , सभी आदरणीय पूज्यनीय। किसीने कहा जीवन का एक एक पल का हिसाब जन्म के साथ भ्रूण में छिपा होता है , तो किसी ने कहा जन्म से किये गए कर्म ही फलदायी है , इस जनम का इसी जनम में कर्म पूरा करके जीवात्मा दूसरे जन्म में जाती है नए जन्म को जीने के लिए। तो किसी ऋषि ने जड़ से इंकार किया की पुनर्जन्म होता ही नहीं , सब बकवास है। यही जनम और यही जीवन सच है। फिर किसी ने कहा नहीं नहीं इतने देवी देवता तो अलग अलग मानसिकता से बने , वास्तव में तो ऊर्जा एक है , ईश्वर एक है। देवी देवताओं में भी भेद किसी ने कहा एक एक ऊर्जा के देव और देवता पूजनीय है और सुफल देने वाले है , तपश्चर्यासे साक्क्षात्कार होता है। जीव का मोक्ष होता है आदि आदि प्रलोभन भी है। आप क्या मानते है और कितना जानते है ? शायद मानते ही मानते है , जानना हो ही कहाँ पता है ? और फिर अपना दिमाग एक की भी पूरी तरह मानता कहाँ है ? वो अपनी चाल चलता है , सबकी सुनके निष्कर्ष अपने ही निकलता है। अजीब सी खिचड़ी है ....

इसी कारन जो गुरु पद पे आत्मन बैठा है वो जो भी कहता जाता है हमारी श्रद्धा उसे स्वीकार करती जाती है। सवाल तो आते ही नहीं ..... आते भी हैं तो स्वयं को समझा के दिमाग शांत कर लेते है , भाई और भी तो काम है , अब यही एक काम तो है नहीं !

ऐसा ही एक विषय है प्रारब्ध को माने या नहीं ! कर्म प्रधान या के भाग्य ! सद गुरु ने कहा ," जब आप सफल होते है तो आप भाग्य की बात करते है ! नहीं जब असफल होते है तब आप भाग्य की बात करते है , जब भी आप का दृष्टिकोण बढ़ता है आप भाग्य की बात करना बंद कर देते है , संकुचित दायरे में रोज मर्रा के हानि लाभ भाग्य के घेरे में आते है। जो भी हमारी जानकारीमे कर्म किया जाता है वो कर्म कहलाता है , और जो भी अनजाने में कर्म हो जाता है वो भाग्य के अंदर आता है। इसीलिए जो कर्म हमारे जानकारी में किये गए होते है और हम उनके लिए जिम्मेदार होते है। पर वो भी कर्म हम ही कर रहे है जो हमारी जानकारी में नहीं। " और फिर तो कर्म और तदनुसार फल की बात आती है।

किसी ने कहा , हमारी बुद्धि सीमित है , सब कुछ जानकारी में नहीं हो सकता , कुछ परिस्थतियाँ विवश करती है , और कर्म बिना जानकारी के घटित हो जाता है , और तदनुसार फल , भाग्य है। कर्म की श्रृंखला भी है जो जन्म जन्मान्तर से जुडी है , कुछ फल पिछले संचित कर्मो का परिणाम होते है , जिनमे हमारा वश नहीं। " ऐसे कर्म और फल प्रारब्ध के अन्तर्गत आते है। "

तीसरी तरफ एक और धारा है , जो कहती है न पिछला जनम सोचो न अगला , जनम तो बहुत बड़ी बात है , पल पीछे और एक आगे की सोचना भी व्यर्थ है , बस आज में जियो ......... आज अच्छा होगा तो भूत और भविष्य दोनों सुधर जायंगे।

ये दर्शन किसी एक धर्म का नहीं वरन सम्पूर्ण संसार की बात करता है , सम्पूर्ण मानव जाति की बात करता है , अब ये अलग बात है की दर्शन भी दो भागों में बंटा हुआ है पाश्चत्य दर्शन और भारतीय दर्शन। 


Photo: जब तीनो तरफ तर्क मौजूद हो तो चौथी तरफ खड़े आप क्या सोचेंगे ?

ऐसा क्यों होता है , किसी संवेदनशील विषय पे कोई भी अपना मत  अपने अनुभव से हमें दे के चला जाता है और हम  तब तक उसको मानते रहते है जब तक कोई दूसरा आके उस मत के ऊपर  कोई दूसरा मत न दे जाये , उदाहरण के लिए  शब्द   " प्रारब्ध " , किसी ने एक दो उदाहरण दे के कहा , प्रारब्ध है , हमने  रटना शुरू करदिया ,मन्त्र बना लिए , पूजा होनी लगी प्रारब्ध देवता बन गए ,  फिर  कुछ समय  बाद  दूसरे प्रभावी  वाणी वाले   व्यक्ति ने हमे कहा की प्रारब्ध नहीं है , हमारे दिमाग में  घंटी बजनी शुरू हो गयी ,  व्यर्थ समय गया प्रारब्ध को महत्त्व देने  में , ये तो कह रहे है की प्रारब्ध कहीं नहीं है। प्रारब्ध  तो जाने दो , दूसरा जनम ही नहीं ( अब करो साबित ) जब दूसरा जनम ही नहीं तो कैसा कर्म संचय  और कैसा  कर्म का जन्म जन्मान्तर  हस्तांतरण , इसके साथ ही   वो सब भी खत्म  जो  जीव के  मूल स्थूल  और  सूक्ष्म शरीर  की बात करता है , और साथ ही  सूक्ष्म  शरीर के  अपने कर्मो के साथ  यात्रा की बात करता है।  ये तो अभी और इसी जीवन के कर्म पे जोर दे रहे है , अब तब  से कर्म प्रधान हो के सोचने लगे हम कर्मवादी हो गए आदि आदि। 

कितनी ही भीड़ में छुपे मस्तिष्क ऐसे ही काम करते है , उनके चिंतन दूसरों के कथन पे निर्भर है , बहुत प्राचीन कल में  ऋषि  चार्वाक हुए  उन्होंने  पुनर्जीवन के चक्कर में भटकते लोगो के लिए कहा , आज में जियो , आज ही महत्वपूर्ण है  और कहा " यज्जम जीवेत सुखम जीवेत , ऋणं कृतवा  घृतं , पिबेत मरणोपरातम  पुनरागमनं कुतः।   ऋषि ने कहा हमने  माना।   ऋषि को  भारतीय  दर्शन में  अभूतपूर्व स्थान  मिला।  फिर  वाल्मीकि  जी ने श्री राम के जन्म  से पहले  रामायण की रचना करके प्रारब्ध को  जीवित किया , इसका  असर  समाज पे हुआ ;  राम परिवार  का नाम श्रद्धा और  पूजा  भाग्यवाद   को बढ़ाने वाले  हो गए।  " राम परिवार की पूजा करो  भाग्य सुधारो " तत्पश्चात व्यास रचित कृष्ण  के  चरित ने भाग्य और कर्म दोनों को बढ़ाया ,  कृष्ण ने भक्ति  के साथ  सद्कर्म और सद्गति  का रास्ता दिखाया और श्री मद भगवत  में कथाओ के माध्यम से आत्मा और  परमात्मा का  परिचय भी कराया , तबसे द्वैत और अद्वैत दर्शन चलने लगा  , दर्शन का मतलब  ऐसा कुछ जिसे दिव्य नेत्रों से जाना  गया।  

अलग अलग समय पे अलग  अलग मत विचार ले के लोग आते रहे और समझ पे आधारित दर्शन नाम का  विषय फल _फूल  के  दर्शन_शास्त्र बन गया।  किसी ने कहा प्रारब्ध  किसी ने कहा  कर्म  का महत्त्व है किसी ने भाग्यवाद को बढ़ावा दिया .....  तो किसी ने कहा कर्म और भाग्य दोनों का संयोग  ... तो किसी ने कहा   कर्म और भाग्य  का संयोग प्रारब्ध । जिसको जो समझ में आया  हाथी की काया को  विश्लेषित  करता रहा 

शंकराचार्य ने कुछ कहा ,  मठाधीश ने कुछ कहा , गुरु देव ने  कुछ कहा , शास्त्र  कुछ और उलझा गए।  किसकी माने.....  किसकी न माने , सभी आदरणीय  पूज्यनीय।  किसीने कहा  जीवन का एक एक  पल का हिसाब जन्म के साथ  भ्रूण में छिपा होता है , तो किसी ने कहा  जन्म से किये गए कर्म ही फलदायी है , इस जनम का इसी जनम में  कर्म पूरा करके  जीवात्मा  दूसरे  जन्म में जाती है नए जन्म को जीने के लिए।   तो किसी ऋषि ने  जड़ से इंकार किया की पुनर्जन्म होता ही नहीं , सब बकवास है।   यही जनम  और यही जीवन सच है।  फिर किसी ने कहा  नहीं नहीं इतने  देवी देवता  तो  अलग अलग मानसिकता से बने  , वास्तव में तो ऊर्जा एक है , ईश्वर एक है।  देवी देवताओं में भी भेद  किसी ने कहा एक एक  ऊर्जा के देव और देवता पूजनीय है और सुफल  देने वाले है , तपश्चर्यासे  साक्क्षात्कार होता है।  जीव  का मोक्ष होता है आदि आदि  प्रलोभन भी है। आप क्या मानते है  और कितना जानते है ? शायद मानते ही मानते है , जानना  हो ही कहाँ पता है ?  और फिर अपना दिमाग  एक की भी पूरी तरह मानता कहाँ है ?  वो अपनी चाल चलता है ,  सबकी सुनके  निष्कर्ष अपने ही निकलता है।  अजीब सी खिचड़ी है ....

इसी कारन  जो गुरु पद पे आत्मन बैठा  है वो जो भी  कहता जाता है  हमारी श्रद्धा उसे स्वीकार करती जाती है।  सवाल तो आते ही नहीं  ..... आते भी हैं तो  स्वयं को समझा के दिमाग शांत कर लेते है , भाई और भी तो काम है , अब यही एक काम तो है नहीं ! 

ऐसा ही एक विषय है प्रारब्ध  को माने  या नहीं ! कर्म प्रधान या के भाग्य  ! सद गुरु ने कहा ," जब आप सफल होते है  तो आप भाग्य की बात करते है !  नहीं  जब असफल होते है तब आप  भाग्य की बात करते है , जब भी आप का दृष्टिकोण बढ़ता है  आप  भाग्य की बात करना बंद कर देते है , संकुचित दायरे में  रोज मर्रा के  हानि लाभ  भाग्य के घेरे में आते है।  जो भी हमारी जानकारीमे कर्म किया जाता है  वो कर्म कहलाता है , और जो भी  अनजाने में कर्म हो जाता है  वो भाग्य  के अंदर आता है।  इसीलिए जो  कर्म  हमारे जानकारी में  किये गए  होते है  और हम उनके लिए जिम्मेदार होते है। पर वो भी कर्म हम ही कर रहे है जो हमारी जानकारी में नहीं।  "  और फिर तो  कर्म और तदनुसार फल की बात  आती है।  

किसी ने कहा , हमारी बुद्धि सीमित है , सब कुछ जानकारी में नहीं हो सकता , कुछ परिस्थतियाँ  विवश करती है , और कर्म बिना जानकारी के घटित हो जाता है , और तदनुसार फल ,  भाग्य है।  कर्म की श्रृंखला  भी है  जो जन्म जन्मान्तर से जुडी है  , कुछ फल   पिछले संचित कर्मो का परिणाम होते है , जिनमे हमारा वश नहीं। " ऐसे कर्म और फल प्रारब्ध  के अन्तर्गत आते है। "

तीसरी तरफ एक और धारा है , जो कहती है न  पिछला जनम सोचो न अगला , जनम तो बहुत बड़ी बात है , पल  पीछे और एक आगे की सोचना भी व्यर्थ है , बस आज में जियो ......... आज अच्छा होगा तो भूत और भविष्य दोनों सुधर जायंगे। 

ये दर्शन किसी एक धर्म का नहीं  वरन सम्पूर्ण  संसार की बात करता है , सम्पूर्ण मानव जाति की बात करता है , अब ये अलग बात है की दर्शन भी दो भागों में बंटा हुआ है पाश्चत्य दर्शन  और  भारतीय दर्शन।  

जब तीनो  तरफ तर्क  मौजूद हो तो चौथी तरफ खड़े  आप क्या सोचेंगे ?

क्रमशः .... भाग -2, दर्शन परिचय

जब तीनो तरफ तर्क मौजूद हो तो चौथी तरफ खड़े आप क्या सोचेंगे ?


क्रमशः .... भाग -2, दर्शन परिचय

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