Sunday 27 April 2014

सम्मोहन नहीँ संतुलन (Note)

कथन : 
दो चार लोगों से 
रिश्ते बनाये रखिये...!!
कब्र तक लाश को
दौलत नहीं ले जाया करती

उत्तर : आप शायद नहीं जानते मैं अपनी बॉडी डोनेट कर चूका हु वैसे भी इस मिटी में रखा ही क्या है आत्मा तो अमर है कभी मरती नही और मैं आत्मा हु

(आपको प्रथम दर्शन मे ये भाव आत्मतत्व ज्ञानी का लगेगा, परन्तु महीन बुनावट मे विचार कीजिये तो ये भाव असंतुलन का इशारा करता हुआ भी लगेगा , ज्ञान मे अज्ञानता की छाया सी छायी है ... किसी दबे हुए उद्वेग असंतुलन के दर्शन, मित्रों आत्मा की उद्घोषणा नहीं होती मात्र दर्शन होता है, यदि आप मे भी उद्घोषणा हो रही है तो सावधान )


Photo: सम्मोहन नहीँ  संतुलन: 
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कथन : 
दो चार लोगों से 
रिश्ते बनाये रखिये...!!
कब्र तक लाश को 
दौलत नहीं ले जाया करती

उत्तर :  आप  शायद  नहीं  जानते  मैं   अपनी  बॉडी  डोनेट  कर  चूका  हु  वैसे  भी  इस  मिटी  में  रखा  ही  क्या  है   आत्मा  तो  अमर   है  कभी  मरती  नही  और  मैं  आत्मा  हु

(आपको प्रथम दर्शन मे ये  भाव  आत्मतत्व ज्ञानी का लगेगा, परन्तु महीन बुनावट मे  विचार कीजिये  तो ये भाव  असंतुलन का इशारा करता हुआ भी लगेगा , ज्ञान मे अज्ञानता की छाया  सी छायी है ... किसी दबे  हुए  उद्वेग  असंतुलन के दर्शन, मित्रों आत्मा की उद्घोषणा नहीं होती  मात्र दर्शन होता है, यदि आप मे भी  उद्घोषणा हो रही है तो सावधान   )

विचार_चिंतन :  

सम्मोहन  और  संतुलन में  संतुलन श्रेष्ठ है  और प्रयासयुक्त है , मित्रो सम्मोहन अच्छा या बुरा नहि होता , चित्त की एक दशा है , एक ऐसी दशा जिसमे भाव-पलड़ा एक दिशा मे  झुकता जाता  है , आम भाषा मे इसको पागलपन के नाम से भी जाना जाता है , और प्रेम और   भक्ति के सागर  मे इसको श्रद्धा  और   समर्पण  कहते है। समर्पण  भक्ति ज्ञान के साथ होता है निर्विचार  के साथ होता है मौन के साथ होता है  और पागलपन मे उद्वेग उफान  समुद्र  मे उठ रहे  ज्वार सदृश होता है।  जिसमे बंधन नहीं होता  ना लहरो की उंचाईयों का  और न  उन्ही लहरों की गहराईयों का, समर्पण  और भक्ति भाव  शांत ठहरा होता है।  हर स्थिति और परिस्थति में  स्वयं का मानसिक  और  आत्मिक  ठहराव  बहुत आवश्यक है।  

मानसिक ठहराव के अंदर  समस्त विचार और उनके प्रवाह तथा  प्रेरणाएँ  आती है , आत्मिक ठहराव के अंतर्गत  भावनात्मक  स्थिरता   मन मस्तिष्क की अचलता  , आंतरिक  चक्षु के खुलते ही  अंतर्दृष्टि  से समस्त संसार  अलग ही सौन्दर्य से भर दिखाई देता है। 

असंतुलन कहाँ है ? मित्र  असंतुलन   विचारो के वेग मे  है  फ़िर वो चाहे जिधर को भी झुके , इधर झुके तो  दिव्यता  के दर्शन/ उधर झुके तो जीवन के प्रति  उदासीनता के घेरे , इधर झुके तो  मृत्यु  का अर्थ समझ आया / उधर झुके तो  मृत्यु  को गले लगा लिया , इधर झुके  तो  सन्यस्थ  हो गये { मित्रो .... ध्यान  दीजियेगा  सन्यस्थ  और सन्यास  में किंचित  अँतर है  ,  सन्यास  संज्ञा  है  जिसका उपयोग कोइ भी कर सकता है किन्तु सन्यस्थ  एक भावदशा  का सूचक है, गुण है जो व्यक्तित्व से झलकता है } तो इधर झुके तो सन्यस्थ और  / उधर झुके  तो  दुराचारी .. व्यसनी .. लम्पट।  

जबकि  किसी भी भाव दशा मे मानवता  के लिये  महत्वपूर्ण  संतुलन ही है , झुकने क अर्थ है  कि संतुलन से सम्बन्ध खतम  और किसी भी एक दिशा मे  भाव झुके जा रहा है  अनियंत्रित सा ;

ये संतुलन  हर समय  कार्यरत रहता है , किसी भी भाव चित्त दशा मे , संतुलन हमारे अपना  ऊर्जा के स्त्रोत  के मध्य मे स्थिर भाव है।  मित्रों , अत्ति  का चुनाव यदि  अनुभव ले  लिये है   तो स्वागत योग्य है  , परन्तु अत्ति मे स्थिरता नहि होती , यदि आपका चुनाव_प्रयास  स्थिरता के लिये है  तो अस्थिरता  से निराशा हाथ लगेगी। 

अब आपकी जिज्ञासा स्वाभाविक है  कि  फिर स्थिरता  कैसे  आएगी  , उदाहरण के लिये  एक झूले को पैंग लगा के छोङ दीजिये , धीरे धीरे  स्वतः  उसकी  इस  ऊंचाई से उस ऊंचाई  की दौड़  थमने लगती  है , और अन्त मे झूला  पूरा स्थिर  हो जाता है , किसी तरंगित  किये गये जल को देखिये  किस तरह  स्वतः शान्त होता है ,  हम भी इसी प्रकर्ति के पुत्र  है  हमारे अंदर  भी  वो ही दिव्यता  है ... गुण  है .... वो ही संभावनाएं है , 

प्रकृति के अन्य  पदार्थो के समान हमारे भी  मन मस्तिष्क के वेग को शांत करने का एक ही उपाय है ,प्रयास रहित हो के.. साक्षी भाव का साधना  और ध्यान द्वरा   मौन को मुखर करना , जिससे  अस्थिर  चित्त दशा  स्थिर  हो। तो अनुभव कीजिये  स्वप्रयास का सुँदर फल ,  स्वप्रयास द्वारा संतुलित स्थिर होती  अस्थिरता  , वस्तुतः   किसी भी तरफ  अतिरेक झुकाव  अस्थिर चित्तभाव दशा  की ही सूचक है।  बस यही सावधानी की आवश्यकता है। 

स्मरण रखियेगा : 

" अति का भला न बरसाना  अति की भली न धूप
अति का भला न बोलना ,  अति की भली चुप। "

असीम शुभकामनाओं के साथ .....

ॐ ॐ ॐ

विचार_चिंतन : 

सम्मोहन और संतुलन में संतुलन श्रेष्ठ है और प्रयासयुक्त है , मित्रो सम्मोहन अच्छा या बुरा नहि होता , चित्त की एक दशा है , एक ऐसी दशा जिसमे भाव-पलड़ा एक दिशा मे झुकता जाता है , आम भाषा मे इसको पागलपन के नाम से भी जाना जाता है , और प्रेम और भक्ति के सागर मे इसको श्रद्धा और समर्पण कहते है। समर्पण भक्ति ज्ञान के साथ होता है निर्विचार के साथ होता है मौन के साथ होता है और पागलपन मे उद्वेग उफान समुद्र मे उठ रहे ज्वार सदृश होता है। जिसमे बंधन नहीं होता ना लहरो की उंचाईयों का और न उन्ही लहरों की गहराईयों का, समर्पण और भक्ति भाव शांत ठहरा होता है। हर स्थिति और परिस्थति में स्वयं का मानसिक और आत्मिक ठहराव बहुत आवश्यक है। 

मानसिक ठहराव के अंदर समस्त विचार और उनके प्रवाह तथा प्रेरणाएँ आती है , आत्मिक ठहराव के अंतर्गत भावनात्मक स्थिरता मन मस्तिष्क की अचलता , आंतरिक चक्षु के खुलते ही अंतर्दृष्टि से समस्त संसार अलग ही सौन्दर्य से भर दिखाई देता है। 

असंतुलन कहाँ है ? मित्र असंतुलन विचारो के वेग मे है फ़िर वो चाहे जिधर को भी झुके , इधर झुके तो दिव्यता के दर्शन/ उधर झुके तो जीवन के प्रति उदासीनता के घेरे , इधर झुके तो मृत्यु का अर्थ समझ आया / उधर झुके तो मृत्यु को गले लगा लिया , इधर झुके तो सन्यस्थ हो गये { मित्रो .... ध्यान दीजियेगा सन्यस्थ और सन्यास में किंचित अँतर है , सन्यास संज्ञा है जिसका उपयोग कोइ भी कर सकता है किन्तु सन्यस्थ एक भावदशा का सूचक है, गुण है जो व्यक्तित्व से झलकता है } तो इधर झुके तो सन्यस्थ और / उधर झुके तो दुराचारी .. व्यसनी .. लम्पट। 

जबकि किसी भी भाव दशा मे मानवता के लिये महत्वपूर्ण संतुलन ही है , झुकने क अर्थ है कि संतुलन से सम्बन्ध खतम और किसी भी एक दिशा मे भाव झुके जा रहा है अनियंत्रित सा ;

ये संतुलन हर समय कार्यरत रहता है , किसी भी भाव चित्त दशा मे , संतुलन हमारे अपना ऊर्जा के स्त्रोत के मध्य मे स्थिर भाव है। मित्रों , अत्ति का चुनाव यदि अनुभव के लिये है तो स्वागत योग्य है , परन्तु अत्ति मे स्थिरता नहि होती , यदि आपका चुनाव_प्रयास स्थिरता के लिये है तो अस्थिरता से निराशा हाथ लगेगी। 

अब आपकी जिज्ञासा स्वाभाविक है कि फिर स्थिरता कैसे आएगी , उदाहरण के लिये एक झूले को पैंग लगा के छोङ दीजिये , धीरे धीरे स्वतः उसकी इस ऊंचाई से उस ऊंचाई की दौड़ थमने लगती है , और अन्त मे झूला पूरा स्थिर हो जाता है , किसी तरंगित किये गये जल को देखिये किस तरह स्वतः शान्त होता है , हम भी इसी प्रकर्ति के पुत्र है हमारे अंदर भी वो ही दिव्यता है ... गुण है .... वो ही संभावनाएं है , 

प्रकृति के अन्य पदार्थो के समान हमारे भी मन मस्तिष्क के वेग को शांत करने का एक ही उपाय है ,प्रयास रहित हो के.. साक्षी भाव का साधना और ध्यान द्वरा मौन को मुखर करना , जिससे अस्थिर चित्त दशा स्थिर हो। तो अनुभव कीजिये स्वप्रयास का सुँदर फल , स्वप्रयास द्वारा संतुलित स्थिर होती अस्थिरता , वस्तुतः किसी भी तरफ अतिरेक झुकाव अस्थिर चित्तभाव दशा की ही सूचक है। बस यही सावधानी की आवश्यकता है। 

स्मरण रखियेगा : 

" अति का भला न बरसाना अति की भली न धूप
अति का भला न बोलना , अति की भली चुप। "

असीम शुभकामनाओं के साथ .....

ॐ ॐ ॐ

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