Friday 18 April 2014

आत्मज्ञानी / कर्म / समाधी = बंधमुक्त

ज्ञानी का कोई भगवान नहीं होता , ज्ञानी का कोई धर्म नहीं होता। सभी कर्म बंधन से ज्ञानी मुक्त होता है ........उस भगवन को वो राम नाम में भी देखेगा , जीसस नाम में भी रहीम नाम और बुद्ध में भी और तुममे और मुझमे भी वृक्ष नदी पहाड़ अन्य जीव सभी में वो उसी ईश्वरत्व के दर्शन कर लेगा। फिर जहाँ वो खड़ा है मंदिर भी वहीं है।

" केवल ज्ञान की अग्नि से ही ये सारे के सारे संचित कर्म एक क्षण मे भस्म हो जाते है।" (भगवदगीता-4-37 ,4-17)

ज्ञान ही मात्र ऐसा साधन है जो अज्ञानता के अंधकार को दूर करता है , कर्म कर्मो के विभिन्न प्रकार ( संचित कर्म , प्रारब्ध कर्म , क्रियमान कर्म आदि ) भी अज्ञानता की ही निशानियाँ है , एक ज्ञानी सजह भाव से अपने को सभी कर्मो की परिभाषा से मुक्त पता है , न सिर्फ कर्म अपितु कर्म फल और भोगना जनित क्लेश भय आदि से भी मुक्त हो जाता है

ज्ञानियों ने व्याख्या हेतु कर्मो को तीन प्रकार में बंधा है

1.संचित कर्म : जन्मों से संचित वे कर्म जो भोगने को बाकि है , ऐसा भाव ज्ञान की अग्नि से भस्म हो जाते है।

2.प्रारब्ध कर्म : वे कर्म जो जन्म से जीव साथ लाता है... ऐसा भाव ज्ञानी को भी जब तक भी ये शरीर जीवित रहता है तब तक उसे वो भोगना ही पड़ता है और वो खुशी खुशी भोग लेता है.

3.क्रियामान कर्म : जो कर्म हो रहे है... ऐसा भाव अकर्ता के भाव से उसको अब आने वाले सारे ही कर्मो का बंधन नही रह जाता है

आत्मज्ञानी इन सारे ही कर्मो के बंधन से मुक्त होता है , स्वेक्छा से समाधी को प्राप्त होता है .....

समाधी ...............समाधी!!

मित्रों यहाँ समाधी का अर्थ समझ आया .................!!

यहाँ कोई चमत्कार नहीं छिपा है , कोई जादू नहीं , जैसा अक्सर कहा और समझाया जाता रहा है।

जीव को जो ऊर्जा रूप है , पंचतत्व निर्मित इस देह को त्यागना ही पड़ता है , इसमें कोई संदेह नहीं। मृत्य एक स्वाभाविक कृत्य प्राकृतिक है , जब आत्मा का शरीर रूप में जन्म होता है तो मृत्यु भी निश्चित है , एक मृत्यु जो अज्ञानता में होती है , वो जीव कष्ट में रहता है , सिर्फ शारीरिक ही नहीं आत्मिक कष्ट में भी रहता है , जिसकी आत्यंतिक पीड़ादायक अवस्था का वर्णन ही संभव नहीं , परन्तु ज्ञानी संतुष्ट होता है , अवश्यम्भाविता को जानता समझता है और जो भी परिस्थति है उसको स्वीकार करता है। जीव की यही सहज स्वीकारोक्ति उसकी समाधी है। इसका कोई दूसरा अर्थ नहीं। ऐसा होता तो समाधी तो ऐसी ज्ञानसमाधी उस जीव के लिए अति पीड़ा का विषय हो जाता , जिसको मोक्ष मिला ही नहीं .....आजीवन आध्यात्मिक साधना का ...और... उसके ज्ञान का यही फल मिला उसको की अब उसकी समाधी घटित हो गयी .... ये तो पीड़ा हो गयी , आत्मा बंधक हो गयी यानि वो मरा ही नहीं , उसकी आत्मा अब इंसानो की इक्षाओं की गुलाम हो गयी ! ये कैसी समाधी और ये कैसा ज्ञान का रास्ता ? उसके समाधी का मात्र उद्देश्य यही रह गया की अब वो जीवित लोगो की परिवर्तनशील इक्षाओं की पूर्ती करता रहे , सदा सदा के लिए चित्रों और बुतों में बस के। 


Photo: आत्मज्ञानी  / कर्म / समाधी = बंधमुक्त
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ज्ञानी का कोई भगवान नहीं होता , ज्ञानी का कोई धर्म नहीं होता। सभी कर्म बंधन से ज्ञानी मुक्त होता है ........उस भगवन को  वो राम नाम  में भी देखेगा ,  जीसस नाम  में भी   रहीम नाम और बुद्ध में भी  और तुममे और मुझमे भी  वृक्ष  नदी  पहाड़  अन्य जीव सभी में वो उसी ईश्वरत्व के दर्शन कर लेगा।  फिर जहाँ वो खड़ा है मंदिर भी वहीं है। 

" केवल ज्ञान की अग्नि से ही ये सारे के सारे संचित कर्म एक क्षण मे भस्म हो जाते है।" (भगवदगीता-4-37 ,4-17)

ज्ञान  ही मात्र  ऐसा  साधन है  जो अज्ञानता के अंधकार को दूर करता है , कर्म कर्मो  के विभिन्न  प्रकार ( संचित कर्म , प्रारब्ध कर्म , क्रियमान कर्म आदि )   भी अज्ञानता की ही निशानियाँ है , एक ज्ञानी  सजह भाव से  अपने को सभी कर्मो की परिभाषा से मुक्त पता है , न सिर्फ कर्म  अपितु  कर्म फल और  भोगना जनित क्लेश  भय आदि  से भी  मुक्त हो जाता है 

ज्ञानियों ने  व्याख्या  हेतु  कर्मो को तीन प्रकार में बंधा है 

1.संचित कर्म : जन्मों  से संचित  वे कर्म जो भोगने को बाकि है ,  ऐसा भाव  ज्ञान की अग्नि से भस्म हो जाते है।

2.प्रारब्ध कर्म :  वे कर्म जो  जन्म से जीव साथ लाता है... ऐसा भाव  ज्ञानी को भी जब तक भी ये शरीर जीवित रहता है तब तक उसे वो भोगना ही पड़ता है और वो खुशी खुशी भोग लेता है.

3.क्रियामान कर्म : जो कर्म हो रहे है...  ऐसा भाव अकर्ता के भाव से उसको अब आने वाले सारे ही कर्मो का बंधन नही रह जाता है

आत्मज्ञानी इन सारे ही कर्मो के बंधन से मुक्त होता है , स्वेक्छा से  समाधी को प्राप्त होता है .....

समाधी ...............समाधी!!

मित्रों यहाँ समाधी का अर्थ समझ आया .................!! 

यहाँ कोई  चमत्कार नहीं  छिपा है , कोई जादू नहीं , जैसा अक्सर  कहा  और समझाया जाता रहा है।  

जीव को  जो ऊर्जा रूप है , पंचतत्व निर्मित  इस देह को  त्यागना ही पड़ता है , इसमें कोई संदेह नहीं। मृत्य एक स्वाभाविक कृत्य  प्राकृतिक है , जब आत्मा का शरीर  रूप  में  जन्म होता है  तो मृत्यु  भी निश्चित है , एक मृत्यु जो अज्ञानता में होती है , वो जीव कष्ट में रहता है ,  सिर्फ शारीरिक  ही नहीं  आत्मिक  कष्ट में भी रहता है , जिसकी आत्यंतिक पीड़ादायक अवस्था का वर्णन ही संभव  नहीं , परन्तु  ज्ञानी संतुष्ट होता है , अवश्यम्भाविता को जानता समझता है  और जो भी परिस्थति है उसको स्वीकार करता है।   जीव  की यही  सहज  स्वीकारोक्ति  उसकी समाधी है।  इसका कोई दूसरा अर्थ नहीं।  ऐसा होता तो समाधी तो ऐसी  ज्ञानसमाधी उस जीव के लिए  अति पीड़ा का विषय हो जाता , जिसको मोक्ष मिला ही नहीं .....आजीवन आध्यात्मिक साधना का   ...और... उसके ज्ञान का यही फल मिला उसको की अब उसकी समाधी घटित हो गयी .... ये तो  पीड़ा हो गयी , आत्मा बंधक हो गयी  यानि वो मरा ही नहीं , उसकी आत्मा अब  इंसानो की  इक्षाओं की गुलाम हो गयी !  ये कैसी समाधी  और ये कैसा ज्ञान का रास्ता ? उसके  समाधी का मात्र उद्देश्य यही रह गया की अब वो जीवित लोगो की  परिवर्तनशील इक्षाओं की पूर्ती  करता रहे , सदा  सदा  के लिए चित्रों  और  बुतों  में   बस के।  

जिस  समाधी  भाव का योग में अर्थ है  वो मात्र  क्रिया है  जो अभ्यास से घटित होती है  , उसको कुछ ऐसे समझा जा सकता है  जैसे  मरने से पूर्व मृत्य  के प्रयास।  बस इससे अधिक उसका कोई अर्थ नहीं।  तो उसको ज्ञान योग से भी जाना जा सकता है  और हठयोग से भी , शरीर  तो  ढलना जानता   है,  शरीर में बेहद  लचीलापन होता है , हठ पूर्वक जिस राह चलाओ उस राह चलने का अभ्यस्त हो जाता है।  यौगिक समाधी भी  वो ही मृत्यु का पूर्वाभ्यास है।  वास्तविक समाधी घटने के बाद तो   सामान्य मृत्यु  का नाम दिया जा सकता है।  जो अक्सर भक्तो को  अपने श्रद्धेय  के लिए मैंने में कष्ट होता है।  तो वो उनकीमृत्यु को समाधी का ही नाम देते है , एक मान्यता ये भी है की समाधी  में गए जीव का अंत नहीं माना जाता है , श्रद्धालुओं के ह्रदय में  जो जीव जीवित रहता है वो भी समाधी को ही प्राप्त होता है।   मानने को कुछ भी माना जा सकता है , सरलतम रूप में  शरीर का त्यागना एक अवश्यम्भावी अत्यंत नैसर्गिक  और स्वाभाविक प्रक्रिया है।  

 ॐ ॐ ॐ
जिस समाधी भाव का योग में अर्थ है वो मात्र क्रिया है जो अभ्यास से घटित होती है , उसको कुछ ऐसे समझा जा सकता है जैसे मरने से पूर्व मृत्य के प्रयास। बस इससे अधिक उसका कोई अर्थ नहीं। तो उसको ज्ञान योग से भी जाना जा सकता है और हठयोग से भी , शरीर तो ढलना जानता है, शरीर में बेहद लचीलापन होता है , हठ पूर्वक जिस राह चलाओ उस राह चलने का अभ्यस्त हो जाता है। यौगिक समाधी भी वो ही मृत्यु का पूर्वाभ्यास है। वास्तविक समाधी घटने के बाद तो सामान्य मृत्यु का नाम दिया जा सकता है। जो अक्सर भक्तो को अपने श्रद्धेय के लिए मैंने में कष्ट होता है। तो वो उनकीमृत्यु को समाधी का ही नाम देते है , एक मान्यता ये भी है की समाधी में गए जीव का अंत नहीं माना जाता है , श्रद्धालुओं के ह्रदय में जो जीव जीवित रहता है वो भी समाधी को ही प्राप्त होता है। मानने को कुछ भी माना जा सकता है , सरलतम रूप में शरीर का त्यागना एक अवश्यम्भावी अत्यंत नैसर्गिक और स्वाभाविक प्रक्रिया है।

ॐ ॐ ॐ


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