Sunday 20 April 2014

मित्रज्ञानी का भाव_सन्देश (sandesh)

Photo: मित्रज्ञानी का भाव_सन्देश :
------------------------------

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया 
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्। 

क्यूंकि , आरम्भ में , मैं एक (अहंकारी ज्ञानतत्व से भरा ) सामान्य इंसान था  ..... मेरे  मन के  कारन थे ,  बुद्धि के तर्क थे और शरीर  का तो भी कभी विचार किया ही नहीं , ऐसे ही  जैसे जब तक पीड़ा न हो अंग का पता ही नहीं चलता।  जब पीड़ा होती है तो उद्घोषणा शुरू होती है, मांगे आती है , हड़ताल होती है , बिलकुल  वैसे ही  जैसे कोई भी  मानवीय संस्था  कार्य करती है , हमारा  तंत्र  भी वैसे ही कार्य करता है , और ज्ञानी  एक कुशल  मैनेजर है , जो वक्त से पहले सब  संभल लेता है , जिसको ज्ञान है , और वो इसलिए  क्यूंकि   मैनेजर  न   डायरेक्टर ग्रुप में है  न ही  स्टाफ  में  वो तो दोनों के बीच "पुल" है।  दोनों के गुण से वो जानकर है , अपने कर्तव्यो के प्रति सचेत है , जब तक वो इस संस्था में है  अंतिमपल तक  उसका कार्य और कर्त्तव्य   संस्था को कुशलता से चलाना है।  

पहले मैं  जीता था  बेलगाम घोड़ो की दौड़ के साथ ,अज्ञानता  में    दृश्य / भावो को सत्य मान के  छोटी छोटी चोट  से देह को भी कष्ट होता था और दिल को भी , बेलगाम सरपट दौड़ते घोड़े रुकते ही न थे  भागे ही जा रहे थे , अपनी ही बनायीं कल्पनाओ को वास्तविकता  मान के जीते हुए , अपनी ही  बनायीं दुनिया से सुखी भी और दुखी भी , स्वस्थ भी और अस्वस्थ भी। एक दिन स्थिरता आई और तब जाना   ... मन की भी एक दुनिया है  , जैसी देह की है , मन का भी वो ही व्यापर है  जो देह का है , अर्थात , आवश्यक  और उचित  मात्र  में  भोजन ग्रहण  करना , अधिक  और  असुरक्षित  से परहेज।  जो भी ग्रहण करने योग्य है वो आत्मसात किया जाता है  अर्थात शरीर और मन  उसको पचा के  उपयोग योग्य ऊर्जा बनाता है...ये सिर्फ मल मूत्र  तक ही  सीमित नहीं  ,  मन  पे भी लागू है , मन भी  दूषित होता है  भारी होता है , दोनों को आवश्यकता है उसी प्रक्रिया की उचित का   ग्रहण  और अनावश्यक का  त्याग .... इन अर्थो में  आप अपने शरीर और मन को  पनचक्की  समझ सकते है ,  जो संसार से ग्रहण करके ऊर्जा में बदल के कुछ उपयोग में लाता है   और अनावश्यक  दैनिक क्रिया  द्वारा  त्यागा जाता है।  

यहाँ मन तरंगित है  इसलिए भाव_ऊर्जा ग्रहण करता है , और शरीर  पांच तत्व निर्मित  है इसलिए उसको  पदार्थो_ऊर्जा मिलती है।  शरीर  मिटटी है  चेतना के आभाव में  बिलकुल अलमारी में टंगे वस्त्र के समान जिसका उपयोग शरीर  को ढ़कने  के काम आता  है।  इसी प्रकार यहाँ शरीर रुपी वस्त्र  आत्मा  को ढकने के काम आता है।   यही शरीर रुपी वस्त्र क्रियान्वित  हो जाता है  जब मन और बुद्धि का संयोग होता है।  मन प्रेरणा है (प्रेरक )  और बुद्धि  आदेश देती है (  ज्ञानी का कुल सार यही है ) 

आत्मा के लिए समस्या  यहाँ यही  दो  पैदा करते है  अगर माया रूप  अंधकार में घिरे होते है, ये संसार  मन और बुद्धि का विस्तार है , इस विस्तार के सिमटते ही माया विलुप्त हो जाती है , सत्य प्रकट हो जाता है। अंधकार में घिरे मन और बुद्धि असतय को सत्य मान आजीवन व्यवहार करते रहते है , ये व्यवहार इनको भ्रमित करता है , तनाव देता है , इसका नुकसान भी स्वयं शरीर और  तरंगित भाव को ही होता है , क्यूंकि यहाँ भी घेरा बन चुका होता है , प्रेरक  मन बुद्धि को आंदोलित करता है >  बुद्धि शरीर को >  असफलता  की स्थति में शरीर पुनः  मनको सन्देश देता है > मन बुद्धि को।  और ये चक्कर चलता ही रहता है , जब तक  शरीर  तनाव ग्रस्त हो के रोगी नहीं हो जाता ।   जब रोगी हुआ  तो डॉक्टर चाहिए  फिर दूसरा घेरा अस्पताल-आश्रम , योग ध्यान (सांसारिक अर्थ में )   इलाज़  दवाओं  खरचे  और  पीड़ाओं  का  शुरु हो गया  और  पहले भूल फिर सुधर में समस्त जीवन आशंकाओं असफलताओं  और तत्जनित  तनाव में  काट जाता है।  

क्यों न वहाँ चले  जहाँ पौधा बोया था! वहां  की जमीं  मुलायम थी , जहाँ इस अनावश्यक बीज को पानी डाला था। जो आज वृक्ष बनके कष्ट देरहा है। । जी  हाँ , मैं  वहाँ की बात कर रही हूँ  जहाँ  मन बुद्धि और शरीर  अपना अपना  वर्चस्व  खोज रहे थे !  वहीं समाधान मिलेगा ! ( संकेत : जरुरी नहीं की वो आपका जन्म काल हो )

ज्ञानी  कहते है ,'अब मुझे मन बुद्धि और शरीर  ठग नहीं सकते , अब मैं इनकी वास्तविकता से वाकिफ हूँ ! अब मुझे इनकी बनायीं सारी माया का स्मरण है।  और सब मुझे अब इंसान नहीं ज्ञानी कहते है , मेरे पास आते है पूजते है , भगवान कहते है , अब मैं कैसे समझाऊ , इन नासमझों  को ,' तुम्हारी तरह मेरा भी जनम हुआ इस देह में , मन बुद्धि  शरीर  के संताप मेरे साथ भी है, बस मै  इनका उद्गम स्थल  देख आया जिस कारण  सतर्क हो जाता हूँ ,   परन्तु  फिरभी  हाड़ मांस का जीव हूँ  , मेरे भी प्रेरक प्राकतिक  है  बुद्धि है , शरीर  है।  अंततोगत्वा मैं भी इंसान हूँ।  

उद्देश्य  सिर्फ इतना :-   जाना  गया  की कंकण  नहीं खाया जा सकता , जाना गया मलिन भाव  मन पचा नहीं सकता , और  मन सतर्क  है तो  वो प्रेरक नहीं हो सकता , और बुद्धि को आज्ञा नहीं दे सकता।  बुद्धि  इन्द्रियों को  आज्ञा नहीं देगी , ग्रहण  की गयी ऊर्जा का  तीनो ही तत्व  सदुपयोग करेंगे , और सतुलन स्थापित होगा।  शरीर  बुद्धि  और मन  अनावश्यक बिमारियों से दूर रहेगा।  सबसे बड़ी उपलब्धि  होगी ; जब ये " त्रिविर  का घेरा " टूटेगा।

फिर किसी अज्ञान के लिए  स्थान नहीं होगा , फिर  कोई बाह्य शक्ति आपको धोखा नहीं दे सकेगी , क्यंकि  तब आप जान जायेंगे  की धोखा बाहर से नहीं अंदर से ही आ रहा है।  ओंकार  की ऊर्जा  का अर्थ  और उद्देश्य  स्वतः स्पष्ट होगा। 

असीम शुभकामनाओ  सहित प्रणाम 
  
ॐ ॐ ॐ


सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया 
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्। 

क्यूंकि , आरम्भ में , मैं एक (अहंकारी ज्ञानतत्व से भरा ) सामान्य इंसान था ..... मेरे मन के कारन थे , बुद्धि के तर्क थे और शरीर का तो भी कभी विचार किया ही नहीं , ऐसे ही जैसे जब तक पीड़ा न हो अंग का पता ही नहीं चलता। जब पीड़ा होती है तो उद्घोषणा शुरू होती है, मांगे आती है , हड़ताल होती है , बिलकुल वैसे ही जैसे कोई भी मानवीय संस्था कार्य करती है , हमारा तंत्र भी वैसे ही कार्य करता है , और ज्ञानी एक कुशल मैनेजर है , जो वक्त से पहले सब संभल लेता है , जिसको ज्ञान है , और वो इसलिए क्यूंकि मैनेजर न डायरेक्टर ग्रुप में है न ही स्टाफ में वो तो दोनों के बीच "पुल" है। दोनों के गुण से वो जानकर है , अपने कर्तव्यो के प्रति सचेत है , जब तक वो इस संस्था में है अंतिमपल तक उसका कार्य और कर्त्तव्य संस्था को कुशलता से चलाना है।

पहले मैं जीता था बेलगाम घोड़ो की दौड़ के साथ ,अज्ञानता में दृश्य / भावो को सत्य मान के छोटी छोटी चोट से देह को भी कष्ट होता था और दिल को भी , बेलगाम सरपट दौड़ते घोड़े रुकते ही न थे भागे ही जा रहे थे , अपनी ही बनायीं कल्पनाओ को वास्तविकता मान के जीते हुए , अपनी ही बनायीं दुनिया से सुखी भी और दुखी भी , स्वस्थ भी और अस्वस्थ भी। एक दिन स्थिरता आई और तब जाना ... मन की भी एक दुनिया है , जैसी देह की है , मन का भी वो ही व्यापर है जो देह का है , अर्थात , आवश्यक और उचित मात्र में भोजन ग्रहण करना , अधिक और असुरक्षित से परहेज। जो भी ग्रहण करने योग्य है वो आत्मसात किया जाता है अर्थात शरीर और मन उसको पचा के उपयोग योग्य ऊर्जा बनाता है...ये सिर्फ मल मूत्र तक ही सीमित नहीं , मन पे भी लागू है , मन भी दूषित होता है भारी होता है , दोनों को आवश्यकता है उसी प्रक्रिया की उचित का ग्रहण और अनावश्यक का त्याग .... इन अर्थो में आप अपने शरीर और मन को पनचक्की समझ सकते है , जो संसार से ग्रहण करके ऊर्जा में बदल के कुछ उपयोग में लाता है और अनावश्यक दैनिक क्रिया द्वारा त्यागा जाता है।

यहाँ मन तरंगित है इसलिए भाव_ऊर्जा ग्रहण करता है , और शरीर पांच तत्व निर्मित है इसलिए उसको पदार्थो_ऊर्जा मिलती है। शरीर मिटटी है चेतना के आभाव में बिलकुल अलमारी में टंगे वस्त्र के समान जिसका उपयोग शरीर को ढ़कने के काम आता है। इसी प्रकार यहाँ शरीर रुपी वस्त्र आत्मा को ढकने के काम आता है। यही शरीर रुपी वस्त्र क्रियान्वित हो जाता है जब मन और बुद्धि का संयोग होता है। मन प्रेरणा है (प्रेरक ) और बुद्धि आदेश देती है ( ज्ञानी का कुल सार यही है )

आत्मा के लिए समस्या यहाँ यही दो पैदा करते है अगर माया रूप अंधकार में घिरे होते है, ये संसार मन और बुद्धि का विस्तार है , इस विस्तार के सिमटते ही माया विलुप्त हो जाती है , सत्य प्रकट हो जाता है। अंधकार में घिरे मन और बुद्धि असतय को सत्य मान आजीवन व्यवहार करते रहते है , ये व्यवहार इनको भ्रमित करता है , तनाव देता है , इसका नुकसान भी स्वयं शरीर और तरंगित भाव को ही होता है , क्यूंकि यहाँ भी घेरा बन चुका होता है , प्रेरक मन बुद्धि को आंदोलित करता है > बुद्धि शरीर को > असफलता की स्थति में शरीर पुनः मनको सन्देश देता है > मन बुद्धि को। और ये चक्कर चलता ही रहता है , जब तक शरीर तनाव ग्रस्त हो के रोगी नहीं हो जाता । जब रोगी हुआ तो डॉक्टर चाहिए फिर दूसरा घेरा अस्पताल-आश्रम , योग ध्यान (सांसारिक अर्थ में ) इलाज़ दवाओं खरचे और पीड़ाओं का शुरु हो गया और पहले भूल फिर सुधर में समस्त जीवन आशंकाओं असफलताओं और तत्जनित तनाव में काट जाता है।

क्यों न वहाँ चले जहाँ पौधा बोया था! वहां की जमीं मुलायम थी , जहाँ इस अनावश्यक बीज को पानी डाला था। जो आज वृक्ष बनके कष्ट देरहा है। । जी हाँ , मैं वहाँ की बात कर रही हूँ जहाँ मन बुद्धि और शरीर अपना अपना वर्चस्व खोज रहे थे ! वहीं समाधान मिलेगा ! ( संकेत : जरुरी नहीं की वो आपका जन्म काल हो )

ज्ञानी कहते है ,'अब मुझे मन बुद्धि और शरीर ठग नहीं सकते , अब मैं इनकी वास्तविकता से वाकिफ हूँ ! अब मुझे इनकी बनायीं सारी माया का स्मरण है। और सब मुझे अब इंसान नहीं ज्ञानी कहते है , मेरे पास आते है पूजते है , भगवान कहते है , अब मैं कैसे समझाऊ , इन नासमझों को ,' तुम्हारी तरह मेरा भी जनम हुआ इस देह में , मन बुद्धि शरीर के संताप मेरे साथ भी है, बस मै इनका उद्गम स्थल देख आया जिस कारण सतर्क हो जाता हूँ , परन्तु फिरभी हाड़ मांस का जीव हूँ , मेरे भी प्रेरक प्राकतिक है बुद्धि है , शरीर है। अंततोगत्वा मैं भी इंसान हूँ।

उद्देश्य सिर्फ इतना :- जाना गया की कंकण नहीं खाया जा सकता , जाना गया मलिन भाव मन पचा नहीं सकता , और मन सतर्क है तो वो प्रेरक नहीं हो सकता , और बुद्धि को आज्ञा नहीं दे सकता। बुद्धि इन्द्रियों को आज्ञा नहीं देगी , ग्रहण की गयी ऊर्जा का तीनो ही तत्व सदुपयोग करेंगे , और सतुलन स्थापित होगा। शरीर बुद्धि और मन अनावश्यक बिमारियों से दूर रहेगा। सबसे बड़ी उपलब्धि होगी ; जब ये " त्रिविर का घेरा " टूटेगा।

फिर किसी अज्ञान के लिए स्थान नहीं होगा , फिर कोई बाह्य शक्ति आपको धोखा नहीं दे सकेगी , क्यंकि तब आप जान जायेंगे की धोखा बाहर से नहीं अंदर से ही आ रहा है। ओंकार की ऊर्जा का अर्थ और उद्देश्य स्वतः स्पष्ट होगा।

असीम शुभकामनाओ सहित प्रणाम

ॐ ॐ ॐ

No comments:

Post a Comment