Sunday 27 April 2014

भक्त( सूफी और संत)_धर्म_अध्यात्म के उत्पत्ति , रहस्य , उपयोगिता-(Note)



It is Good when A Spiritual get fearless ... it is Good when religious get involved in traditions and rituals , it is Good when sufi and saints plunged in devotion ..... 

but if this fearlessness comes in savage mind .. it is disaster ... as we are seeing in today's social scenario ....



दोस्तों ! पता तो हम सबको ही है सामान्य विषय जीवन मृत्यु , जीवन के लिये संघर्ष और इस संघर्ष मे मृत्यु की विजय। कई विचार उभरे है मन में , एक तो मृत्यु कहीं जीवन से अलग नहीं , साथ साथ चल रही है , सांस है तो जीवन और ये डोर टूटी किसी भी करन से तो इसी जीवन रुपी डोर अगला सिरा मृत्यु है , इसी कारन मृत्यु और जीवन अलग अलग नहीं , एक ही हैं।

दूसरा विचार ये की जंगल मे बसने वाले जानवर (जीव ) या फ़िर बस्ती मे बसने वाले मित्र जीव या जन्तुः , पक्षी , वृक्ष फल फुल जो भी जन्म ले रहे है , मृत्यु उन के भी उतना ही साथ है जितना उन के साथ उनका जीवन , बिल्कुल ह
मारी तरह। क्या फर्क है ? कुछ नहीं ....

मित्रों ... मैने देखा ... महसूस किया .... वृत्तियों का दोष उन जीवों मे भी उसी मात्रा मे विद्यमान है जितना हम इंसानो मे।

वो भी घात लगाते है , शिकार करते है , झगड़ते है , प्रेम करते है , भूक प्यास से बेहाल होते है , छल बल सभी कुछ उनमे है , जीवन के लिये संघर्ष भी उतना ही है , कुछ कम नहीं। जब बलशाली जीव आक्रमण करते है तो कमजोर जीव जीवन से जाते है। वो भी स्वयम के प्राण के लिये संघर्ष करते है। बीमार भी होते है , अकेले भी रहते है , रोते भी है हँसते गाते भी है।

यही प्रकृति की मूक वार्ता है , जो कहती है , " जीवन आज मेँ अभी मेँ जीने के लिये है " इससे ज्यादा का विचार और लालसा उचित नहीं , जीवन मे आना और जाना एक सामान्य सी प्रक्रिया है जिसका प्रकर्ति विचार भी नहीं करती , क्युकी ये जीवन तो रोज उसकी छत्रछाया में पल पल  जन्म  ले  के  विकसित और  विलुप्त  हो  रहा है  … उसकी छाया तले , उसकी आगोश मे , हर पल हर क्षण जीवन और मृत्यु का नर्तन चल रहा है। इतना समझने के लिये इतना प्रयास क्यों? समर्पण मे इतना संघर्ष क्यों ? 


फर्क सिर्फ़ इतना है उन जीवों मे सभी वृत्तियाँ अलग अलग गुन धर्म के अनुसार विभाजित है , किन्तुं मनुष्य में सृजनतत्व और विद्व्ता का भी समावेश है , इसलिए मुखर होके एक साथ मनुष्य जीव मे इनका समग्र रूप मे प्रकटीकरण है , अब अच्छा या बुरा सही या गलत जैसे विरोधाभासी शब्द समूह मे दिमाग लगाये या सहज स्वीकार करें। " जो है सो है ". मनुष्य ये भी बहुत अच्छी तरह जानता है , पाशविकता पे अंकुश ही एकमात्र उपाय है मानवता को बचाने का। और इसी का फल धर्म व्यवस्था है.... सामाजिकता है.... संस्कृति है...कलाएं है... जो इंसानो के कोमल भावों को जीवित रखती है .... और पाशविकता पे काबू। देवता और दानव दोनों गुणों से सम्पन्न व्यक्ति मे दोनो सम्भावनाये है देवता की भी और दानव की भी , ये मनगढंत धार्मिक कथायें नहीं , वास्तविकता है और इनका समाधान प्रचलित आजकल का धर्म नहीं , मूल धर्म की आत्मा है। आध्यात्म है , ध्यान है .... जिनमे प्रकृति से एकाकार होने का आदेश सन्नहित है। 

वो धर्म है , जिसमे प्रवेश पाते ही आत्मा शांत होने लगती है , समर्पण ही शेष बचता है , एक ही भाव बचता है ," हे परम ! अब और क्या मांगू , विश्वरूप देखने के बाद , अब शेष हीं क्या है ! कोई अर्थ ही नहीं , छोटी छोटी महत्वहीन सांसारिक इक्षाओं का , नगण्य हुआ मेरा सांसारिक भाव लगाव , मेरे शब्द ही खो गये , इक्छायें विलुप्त हो गयी , मौन मे जो देखा , धन्य हुआ। चमत्कार हुआ , प्रभु अपनी स्थिति का अहसास हुआ , घायल भटकता हिरन सा मन , अचानक बैठ तेरे चरणों मे शांत हो गया.... " वो आध्यात्म है !!

मित्रों !! ये किसी मंदिर मे बजते गूंजते स्वर से है... किसी
अजान से उभरे निःशब्द स्वर है... प्रार्थनाएं है , ये वो स्वर नहीं जो घड़ियालों की आवाज़ मे खो जाएँ , और घर आके भुल जायेँ , फ़िर से सांसारिक व्यवहार मे लिप्त हो गये तो , व्यर्थ है ये स्मरण , घंटो की आवाज़ गर आत्मा तक नहीँ गयी , सांसारिक पूजन हो गया। ये आत्मा का स्नान है , गंगा जी की डुबकी है , सत्य से साक्षात्कार है।

अभी भी यदि किसी धार्मिक संघ मे धर्म के उपर बहस कि गुंजाइश बची है तो वो धार्मिकता नहीं राजनैतिकता है , फ़िर उसका धर्म अभी बहुत निचले स्तर पे रुका हुआ है , उसकी यात्रा मे कही अवरोध है। मस्तिष्क की दौड़ अभी बाकी हैं वास्तव मे धर्म जैसा मौन का समर्थक कोइ नही , धार्मिक जितना मौन को समझता है उतना तर्कों नहीं , धर्म सब भ्रांतियों से उपर है , वहां सिर्फ़ व्यवस्था है समूचे मनुष्य समाज के लिये। वहाँ धर्म की दृष्टि मे सब समान है , भेद रहित है धर्म।

व्यवस्था के आलावा धर्म का कोइ अन्य महत्वपूर्ण कार्य भी नहीं , सभी मनुष्यसमाज मन बुद्धि और शरीर से स्वस्थ हो , यही प्रथम उद्देश्य है। इसी उद्देेश्य प्राप्ति के लिए तमाम नियम विनियम ईश्वरत्व की आड़ पे मनवाने की कोशिश , क्यूंकि मात्र दैवीय भय ही इस स्वक्छंद मानव बुद्धि को काबू कर सकते है … 


अध्यात्म भी ऐसा ही धर्म के सामान इस स्वक्छंद मानव बुद्धि को काबू करने का एक जरिया है जिसमें व्यक्ति ध्यान द्वरा अपने एकांत में वास्तविकता से रूबरू होते है , और इसलिए ये भी इसी सामाजिक व्यवस्था के अंदर माना गया , क्यूंकि जो भी बिना बनावट ओर छलावे के वास्तविक रूप से दिव्यता से रूबरू हुआ स्वाभाविक रूप से पाशविक वृत्तियों पे लगाम लगती हैं। और एक स्वस्थ समाज को यही तो चाहिये। है न ! यही चमत्कार भी है। सूफी और संत वो है , जो उसकी भक्ति के चक्कर मे घूम रहे है इनका धर्म इनकी भक्ति बन ग़या ये समाज के लिये हानिकारक हो ही नहीं सकते अपने भक्ति भाव के करन इनका समाज मे विशेष स्थान है , वास्तविक आध्यात्मिक वो है जो ध्यान से सरल और सहज हो गये व्यवस्था से इनका कोइ सीधा सरोकार नही , ह्रदय परिवर्तन ही सामाजिक व्यवस्था मे योगदान हो ग़या , और धार्मिक वो है जो सदैव समाज की व्यवस्था मे सक्रिय है; धार्मिक सदैव समाज को नियम देता रहता है।
जीवन मृत्यु में उलझे व्यक्ति की गुत्थी भी सुलझ जाती है। समर्पित भक्त , धर्म और अध्यात्म के उद्देश्य हो गये न एक ! "सम्पूर्ण सुव्यवस्था "


ॐ ॐ ॐ

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