Tuesday 15 April 2014

मानवीय स्व-शक्तियां और सदुपयोग ; बस एक एक कदम चमत्कारी है (note)



मनुष्य का मनुष्य होना गर्व की बात है वही विचारों की बेड़िया देख कर अचम्भा होता है , अस्तित्व बहुत बड़ा है और मनुष्य जन्म सीमित और दुर्लभ , सीमित इसलिए की आयु के साथ शारीरिक क्षमता शक्ति क्षण क्षण घट रही है और दुर्लभ इसलिए की बुद्धि के साथ जनम हुआ है (कठिन भी यही की बुद्धि की स्वतंत्र चाल है ) , दुर्लभ इसलिए भी की जीव का संभावनाओं के साथ जन्म हुआ है , दुर्लभ इसलिए भी की ज्ञात - जन्म यही एक है , अभी है , आगे का और पीछे का कुछ पता नहीं। दुर्लभ इसलिए भी की अधिकांश समय बालपन का तो समझने और उससे भी ज्यादा वृद्धावस्था का अपने अनुभव समझाने में निकल जाता है , बाकी जो बचा वो व्यवस्था को सँभालने में ऐसा भागता है की बिना ब्रेक के गाडी सीधा वृद्धवस्था पे रूकती है , ये तो वो कारन है जिनमे हमारा सीधा बहुत दखल नहीं , जिनमे सीधा दखल है उनको चौपट करने की जिम्मेवारी हमने ले रखी है , जी हाँ , अपने ही लिए अपने ही दिमाग से ऐसी_ऐसी चाले चली की हम उलझ के रह गए , जी हाँ ! ऐसा ही विषय है भूतकाल के दुःख और भविष्यकाल की चिंता , और इस आधार पे हमने अपना आज समाप्त कर दिया , और देखिये मजे की बात की , इस दुःख नियोजन के सम्पूर्ण कर्ता-धर्ता हम ही है। अब उलझने इतनी बढ़ गयी की स्वस्थ्य पे असर आने लगा , अब रोजमर्र्रा का जीवन भी चलना कठिन हो गया , तब याद आई निदान की , जीवन को चलना ही चाहिए , सही समय पे उपचार का ख्याल आया , लेकिन जड़ें नहीं समझ आ रही अभी भी , क्यूंकि करता का भाव गहरा है। कारन कर्म के साथ हमने जोड़ रखें है , एक ऐसी लौह- जंजीर का निर्माण हो चुका है..... जिसमे हम लिपट गए है। 

चूँकि ये कर्मजनित लौह श्रृंखला हमारे वैचारिक जगत से निर्मित , किन्तु तरंगित है इसलिए इनको काटने का आयोजन भी तरंगे ही करेंगी। , और हथियार है "नेति नेति " . किसी भी भी मर्ज को सही करने के लिए उसका उत्पत्ति का स्थान समझना , आवश्यक है। जरूर हमारे अपने ही विचार कही ऐसे हो गए (किसी भी कारन से ) जो अनावश्यक रूप से संगृहीत हो गए। 

कुछ भी उपाय करने से पहले , दो तीन बातो को मूल में रखना आवश्यक है 

* साक्षी भाव 
* नेति नेति 
* सत्य से साक्षात्कार 

जब हम साक्षी भाव साधते है , तो हमें अपनी मूल स्थति का पता चलता है , हमारी अपनी मूल एकांतिक अवस्था से सामना होता है और नेति नेति हमको हमारे ही अनावश्यक धारणाओं से मुक्त करती है और इसके साथ ही ये भी पता चलता है , जाने अथवा अनजाने में हमारा जीवन किस कदर अनावश्यक कृत्यों में उलझ गया था। जब इतना अनुभव होता है , तो भूत कल और भविष्यकाल आपको छू भी नहीं पाते , आप सिर्फ आज में जीवन जीते है , यथोचित आज में कर्म करते है , जिसके परिणाम धीरे धीरे सुधार की तरफ बढ़ने लगते है।

आप यहाँ पाते है , जैसे आपने वो दुखी करने
वाली विचारो की लौह श्रंखला निर्मित की थी , वैसे ही ये भी श्रृंखला ही है जो आपका उपचार कर रही है , आश्चर्य की स्वयं को कष्ट देने वाले भी आप ही थे , और स्वयं के लिए सुखी होने प्रयास करते भी आप ही है। 

ये भी अंत नहीं , इतना अनुभव करने के बाद आपको आभास होगा की वास्तव में सुख और दुःख एक ही धागे के निर्मित हुए दो सिरे है , जो अति विपरीत है पर है एक ही धागे से जुड़े। ये भाव आपको संतुलन देगा। सजह आपको सांसारिक विपरीतताओं से सामना होगा जो आपके स्वयं के अंदर ही है।

वैसे सुनने में ये सरल सा लग रहा है , पर एक एक अंतर्मन का स्वयं का फेरा काटना इतना सरल भी नहीं , स्वयं के धैर्य और आत्मावलोकन आपके सहायक होंगे। एक नियम मुझे बहुत पसंद है , " कोई भी किसी भी प्रकार से यदि हमारा सहायक है ..... अपना है और उसका सम्मान... उससे प्रेम करना सिर्फ आवश्यक ही नहीं हमारा धर्म है " इस आधार पे सर्व प्रथम स्वयं से प्रेम करना और सम्मान करना अति आवश्यक है , क्यूंकि विपरीत परिस्थतियों में अंत तक
शरीर ही साथ निभाता है। इसके बाद धैर्य और संयम दो गुण ऐसे है जो आपको मीठा फल देते है। इसके बाद आप स्वयं अपनी सूची बनाये जिसमे आप उन सबको शामिल करे जो किसी न किसी रूप में आपसे जुड़े है और आपकी जीवन यात्रा में सहभागी है। सभी का सम्मान सभी को प्रेम। 

मौन , आत्मावलोकन के लिए अतिआवश्यक है , इस दिव्य अंतरयात्रा में साक्षित्व से परिचय मौन ही करवाएगा। जब आप मौन साधेंगे तो विचार सधेंगे और विचारो के सधते ही ध्यान स्वयं उपस्थित हो जायेगा। 

और ध्यान साधते ही साक्षी भाव सधेगा इसके साथ ही आपको आपके सारे स्वयं ही समाधान मिल जायंगे।

कोई बाह्य गुरु नहीं , आप स्वयं अपने गुरु है , बाह्य तरंगे भी आपकी सहायक तभी होंगी जब आप अपनी मदत स्वयं करेंगे। और एक बार
जब आप अपनी मदत करने को तैयार होते है , तो सम्पूर्ण प्रकर्ति आपकी सहायक होने लगती है , ये प्रक्रति का अपना स्वभाव है। 

असीम शुभकामनाओ के साथ। 

प्रणाम 



ॐ ॐ ॐ

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