Sunday 27 April 2014

मन-आश्रम (note)

Photo: मन-आश्रम :
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एक सुखद  , नाम मे ही शीतलता , और सानिध्य  बुद्ध का ,   सहभागी  मित्र  सत्संगी  . एक आश्रम कि यही कल्पना  भी है और वास्तविकता  भी यही  है जो  आश्रम की ओर कदम बढ़ चलते है। 

जरा सोचिये !  नदी  का निर्मल घाट  बस आपसे चन्द कदम  की दूरी पर , आपका  निवास  शांत  हरियाली  और नैसर्गिक  सौंदर्य  से भरा ,  पक्षी  उड़ते  , मछलिया  तैरती ,  मृग  विहग  आपके चारोँ ओर   सिर्फ़ आपको  निहार रहे है  प्रेम से , और इन्तजार मे है कि आपका ध्यान समाप्त हो और आप उनको भोजन दें, 

या समंदर  का किनारा ,   स्वक्छ  तेज  चलती  समुद्री हवाएँ  , बरबस  मन खिंचा चला जाता है   , किसी  सुन्दर  जगह कि तरफ।  जहाँ सिर्फ शांति हो  , सिर्फ़ प्रेम हो , संसार की सांसारिकता से अलग  कुछ पल  जीवन के जीने कि इक्छा  सभी की होती है। 

पर क्या  वास्तव मे ऐसा  आश्रम  है ? आत्मा  क्यों  भटकती हैँ इधर उधर ? क्या चाहिए  आखिरकार ? जरूर  कुछ मिलता भी होगा , अधिक धन  खर्च करके  थोड़ा  चैन , थोड़े  सुकून , इसीकारण  तो  लोग लालायित  रहते है।  

शायद स्वयं से  वो निर्मित नहीं कर पा रहे  है ऎसी व्यवस्था , इसीलिए  कहीं की भी सुचना  मिलते ही , प्यास से छटपटाते  हाजिर हो जाते है , थोड़े से  शीतल जल की  इक्छा  लिये।  

पर  हर किसी को ऐसा मनोवांछित  मनोहर  स्थान  सुलभ भी नहीं, फ़िर क्या करें ?  

मित्रों  भटकने  से लाख गुना  अच्छा ,  मन को  स्थिर करें  , मस्तिष्क  को  समझे ,  स्थिर  ह्रदय के साथ   हर स्थान उतना ही  मनमोहक बन जाता है , 

"अपना मन चंगा  तो कठौती  मे गंगा "

श्रम भी बचेगा , धन भी बचेगा , और  आप अनावश्यक  भीड़  तथा  धोखे  से भी  बच  सकेंगे।   

एम्बिएंस  तो अपना  काम है , जहा खड़े  एम्बिएंस  बना लिया।   सब कुछ अपने ही अंदर है ,  हजारों इक्छाओं  से लिप्त  धागे  जितने उलझे  और दुष्कर  दिखते  है ,  दरअसल  उतने ही सुलझे  और एक एक करके  हर   धागा  अंदर को ही जाता है। वहीं उसका मूल उद्गम है।  वहीँ आश्रम  वहीँ ज्ञान , वहीं गुरु  , वहीं प्रेम  सब कुछ वहीं है , इस बार ध्यान से देखिएगा !

कहीं नहीं  भटकना ,  प्रेम से  अपनी ही जगह पे  आसन लग के ,  प्रेम मुद्रा  के साथ , गहरी साँसे लेते हुए , स्वयं को  भेंट करना है  स्वयं अपने आपको।  

ॐ ॐ ॐ

एक सुखद, नाम मे ही शीतलता , और सानिध्य बुद्ध का , सहभागी मित्र सत्संगी . एक आश्रम कि यही कल्पना भी है और वास्तविकता भी यही है जो आश्रम की ओर कदम बढ़ चलते है। 

जरा सोचिये ! नदी का निर्मल घाट बस आपसे च
न्द कदम की दूरी पर , आपका निवास शांत हरियाली और नैसर्गिक सौंदर्य से भरा , पक्षी उड़ते , मछलिया तैरती , मृग विहग आपके चारोँ ओर सिर्फ़ आपको निहार रहे है प्रेम से , और इन्तजार मे है कि आपका ध्यान समाप्त हो और आप उनको भोजन दें,

या समंदर का किनारा , स्वक्छ तेज चलती समुद्री हवाएँ , बरबस मन खिंचा चला जाता है , किसी सुन्दर जगह कि तरफ। जहाँ सिर्फ शांति हो , सिर्फ़ प्रेम हो , संसार की सांसारिकता से अलग कुछ पल जीवन के जीने कि इक्छा सभी की होती है।

पर क्या वास्तव मे ऐसा आश्रम है ? आत्मा क्यों भटकती हैँ इधर उधर ? क्या चाहिए आखिरकार ? जरूर कुछ मिलता भी होगा , अधिक धन खर्च करके थोड़ा चैन , थोड़े सुकून , इसीकारण तो लोग लालायित रहते है।

शायद स्वयं से वो निर्मित नहीं कर पा रहे है ऎसी व्यवस्था , इसीलिए कहीं की भी सुचना मिलते ही , प्यास से छटपटाते हाजिर हो जाते है , थोड़े से शीतल जल की इक्छा लिये।

पर हर किसी को ऐसा मनोवांछित मनोहर स्थान सुलभ भी नहीं, फ़िर क्या करें ?

मित्रों भटकने से लाख गुना अच्छा , मन को स्थिर करें , मस्तिष्क को समझे , स्थिर ह्रदय के साथ हर स्थान उतना ही मनमोहक बन जाता है , 



"अपना मन चंगा तो कठौती मे गंगा "



श्रम भी बचेगा , धन भी बचेगा , और आप अनावश्यक भीड़ तथा धोखे से भी बच सकेंगे।

एम्बिएंस तो अपना काम है , जहा खड़े एम्बिएंस बना लिया। सब कुछ अपने ही अंदर है , हजारों इक्छाओं से लिप्त धागे जितने उलझे और दुष्कर दिखते है , दरअसल उतने ही सुलझे और एक एक करके हर धागा अंदर को ही जाता है। वहीं उसका मूल उद्गम है। वहीँ आश्रम वहीँ ज्ञान , वहीं गुरु , वहीं प्रेम सब कुछ वहीं है , इस बार ध्यान से देखिएगा !

कहीं नहीं भटकना , प्रेम से अपनी ही जगह पे आसन लग के , प्रेम मुद्रा के साथ , गहरी साँसे लेते हुए , स्वयं को भेंट करना है स्वयं अपने आपको। 



ॐ ॐ ॐ

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