Saturday 5 April 2014

सुंदरता के बाह्य दर्शन / सौंदय्र का स्व -भाव

ये संसार विपरीतताओं में जीता है सदा से , अपनी लौकिक दृष्टि से इस पल पल बदलते संसार में पूर्ण सुंदरता नहीं दिखायी देगी , आवरण के साथ हीसौंदर्य बोध रहता है , और आवरण के हटते ही वो ही वस्तु या स्थति कुरूप दिखेगी , इसी कारन इस संसार में एक नज़र से जिसमे अप्रतिम सुंदरता नज़र आती है और दूसरी नज़र से उसी में कुरूपता नज़र आती है , इसी कारन दूर से दिखने वाली हर वस्तु / स्थति लुभावनी और पास आते आते नजरिया बदलने लग जाता है। इसमें व्यक्ति का दोष नहीं दोष सांसारिकता है। जो जितना सुंदर माना और जाना जा सकता है उसी अनुपात में उसका दूसरा पहलु उतना ही कुरूप पाया जाता है , द्वित्व में ये विरोधाभास इस संसार में मिलेगा ही मिलेगा। 



इस मरणशील और परिवर्तनशील संसार में जब भी और जहाँ भी सुंदरता जरा सी भी नज़र आये समझ लेना ये जो सौंदर्य है वो उसी परम की दृष्टि से दिख रहा है और " दिव्यता के कारण ही सौंदर्यबोध है " । दिव्यता ही सुंदरता के दर्शन करा सकती है।

जो सरल होगा उसको सरलता दिखेगी , जो उलझा हुआ होगा उसको हर तरफ उलझन ही दिखेगी। क्यूंकि सरलता , सौंदर्य दर्शन , कृतिमता क्लिष्टता ये सब आंतरिक स्थति है , सिर्फ इनका प्रकटीकरण बाह्य है। निश्चित ही सौंदर्य का दिखना एक निजी और आंतरिक घटना है ये बाह्य नहीं है ।

इसीलिए ये भी आपने सुना होगा की जिसकी स्वयं कि नज़र सुंदर होती है वो ही बाह्य सौंदर्य देख सकता है। जिसका अपना दिल प्रेम से भरा होगा वो ही बाह्य प्रेम देख सकता है। इसके आभाव में सिर्फ तुलना और आलोचना का ही बोलबाला रहता है।

ॐ ॐ ॐ

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