Wednesday 9 April 2014

आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी बुद्ध पुरुष अथवा स्त्री और गर्भित प्रेम कथा ; एक रहस्यवादिता (Note )

आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी बुद्ध पुरुष अथवा स्त्री और गर्भित प्रेम कथा ; एक रहस्यवादिता :

"वा जाने जो होये "

कुछ भाव बाँटना चाहती हूँ , यद्यपि ज्ञान स्वानुभव की नीव पे टिका होता है , फिर भी कभी कभी अपनी नीव को मजबूत करने के लिए कुछ अनुभव काम आ जाते है , मेरी श्रध्हा मेरा सम्मान समर्पित करती हूँ पहले शुध्ह बुधः आत्माओं को , फिर मैं ये कहना चाहूंगी की कोई भी कुछ भी कहता रहे कितनी भी तर्क पूर्ण बुध्हिमानी से भरी या के करुणा से भरी दूसरे के भले के लिए बात कहता हो , उनके कहने और सामान्य व्यक्ति के सुनने के भाव में अंतर रहेगा ही रहेगा , ये भाव एकदम मेल नहीं खा सकते।

इसकी पीड़ा से या के करुणा से वो बुद्ध ज्यादा गुजरते हैं जिनको लगता है कि उनके सामने बैठा * जिज्ञासु या तो * पिपासु है , या के फिर * भक्त है या फिर उसका * आत्म_संतोष हासिल करने का स्वार्थ है , इन चारो में से कोई एक तो है जिसका भाव उसे ज्ञानियों की छत्र छाया में खींच के ले आता है। फिर वो ज्ञानी अपनी योग्यता अनुसार अपना ज्ञान उसके अंदर प्रेषित करने का प्रयास करते है , ताकि वो इक्षुक अपनी उथल-पुथल , जिज्ञासा या पीड़ाओं से बाहर आके एक अध्यात्मिक_स्वतंत्र स्वस्थ जीवन जी सके।

ऐसे में कई कई बार अनेक मन बुध्ही और आकाँक्षाओं के वेगशील प्रहाव और भावनाओ के उद्वेग का शिकार भी हो जाते है ऐसे बुधः पुरुष। चूँकि वे स्वयं तो सुलझे होते है , पर सामने जो और जितने भी बैठे है , या फिर समाज में जितने भी संपर्क में आ रहे है , सब उतने ही सुलझे नहीं हो सकते। परन्तु आलोचना में प्रपंच के रस में कोई किसी से कम भी नहीं। और यही वो बुधः पुरुष शिकार होते है।

दिल थोड़ा उदास है ये सब भाव बांटते हुए , परन्तु क्या करें ! सब साथ ही चलता है ! सारा समाज एक साथ ज्ञानी नहीं हो सकता। और न ही अपने स्वार्थी भाव को छोड़ सकता है , उसको चाहिए सब एक बच्चे कि तरह , और साथ ही जिस तरह वो अपने आस पास के वातावरण को अपनी तरह से ढलता देखना चाहता है उसी के घेरे में वो जिज्ञासु अपने गुरु का आचरण और स्वभाव भी ढलता देखना चाहता है , अपने नियम खुद ही बनाता है और उनको सामने वाले पे ढलते हुए भी देखना चाहता है , यदि वो ही गुण देख लिए तो गुरु महान हो गए भगवन हो गए , वर्ना इसके विपरीत भी परिभाषाओं की कमी नहीं है। (अब ये अलग श्रंखला है कि उस जिज्ञासु के लिए भी कोई समाज-समूह नियम बना रहा है, उसका व्यक्तित्व इसी वातावरण में विकसित हुआ है)

ज्ञान और अध्यात्म एक प्रयोगशाला की तरह है और जीवन एक अवसर , चूँकि हर व्यक्ति के इस राह पे कदम पहले -पहले ही डाले होते है , उनके भी कदम पहले ही पहले होते है , बस उनके अनुभव और समझ गहरी ज्यादा होती है , इसमें भी आश्चर्य नहीं क्यूंकि जिधर भी प्राकृतिक झुकाव होता है आत्मा का प्रयास भी उधर ही होते जाते है ,और एक एक कदम से राह निकलती चली जाती है। वे इस राह पे निकल चुके है और , जरूरतमंद बीच बीच में जुड़ रहे है अलग अलग स्वार्थ से , कुछ तो कुछ पल के लिए , तो कुछ किसी खास भावनात्मक उपचार मात्र के लिए , तो कुछ अध्यात्म प्राप्ति के लिए, वजह अलग अलग पर सभी जुड़ते चले जाते है और समुदाय बढ़ता चला जाता है।

ध्यान देने योग्य ये बात है , कि प्राथमिक बात अब भी वही है , इतने तरीके के रंग मिले आपसे में , परन्तु जल तो वही है , " ज्ञान और अध्यात्म एक प्रयोगशाला है , और जीवन एक अवसर ," जो यह दूसरों को समझा रहा है , उसके खुद के जीवन में ये वाक्य क्या मायने रखता होगा ? ये समझना कठिन नहीं। .... इस पायदान तक आते आते जो व्यक्ति आपको भावनाओ को कैसे वश में करके अध्यात्म के रस्ते पे मोड़ा जाये करने कि विधि सीखा रहा हो वो खुद किस कदर इनका प्रयोग करके पारंगत हो चुका होगा , ये दोबारा समझने की ... समझाने की जरुरत नहीं।

जो स्वयं हर विधा से गुजर चुका हो उसके लिए कोई भी उद्घोषणा करने से पहले उसके भाव को भी समझना अति आवशयक है। सही या गलत हमेशा एक ही धागे के दो सिरे इसलिए कहे गए है , एक दृष्टिकोण से वो ही बात सही लगती है और दूसरे से गलत। ये तो अपना अपना नजरिया है जो अपने अपने सामाजिक परिवेश से तैयार होता है। इसमें सही गलत जैसा कुछ नहीं।

किसी गुरु के प्रेम में जब कोई भक्त पड़ता है , तो सभी मानवीय कमियों से भरा होता है , क्यूंकि वो गुरु नहीं , गुरु जैसा सक्षम भी नहीं , इसी लिए वो शिष्य है। प्रेम भी यदि आत्मिक भक्ति का है तो भी ठीक , पर कभी कभी यही प्रेम अधिकार स्थापित करने का दुःसाहस कर बैठता है , वो भी पुरे मानवीय भावों के साथ , जिसका उस सद्गुरु को कोई लेना देना ही नहीं। गुरु तो बहुत पहले निकल चुका है इन सब सांसारिक जालो से। क्यूँकर फंसेगा दोबारा ? उसका जीवन तो पहले से ही प्रायोगिक हो चूका है। परन्तु कम ज्ञान वाले लोग इसको नहीं समझते , और भावनात्मक खेल खेलने लगते है , उनका ही परिणाम दुखद होता है।

खेलना ही है तो सामान कद वाले खिलाडी से खेलो , तो उत्तर भी मिलेगा , उससे क्या खेलना जिसके सवाल और जवाब ही सारे खो गए है। वो तो अपने ही सामान तुम्को बनाए कि फ़िराक में है और तुम उसको अपने जैसा बनाने पहुँच गए ! हो गया ना मजाक ! अरे सांसारिक खेल ही खेलना था तो संसार में लोग कम थे क्या ? या फिर तुम भी अपना कद इतना बढ़ा लो कि संसार तुमसे छूट जाये , माया प्रकट हो जाये , फिर भावनाओ के रंग तुमको छल न सके , इसके बाद उस समान कद वाले से अपना प्रेम बढ़ाओ , तो पाओगे कि तुम्हारा भी जीवन प्रयोगशाला बन चुका है और जीवन एक अवसर। फिर तुम्हारी मांगे भी समाप्त हो चुकी होंगी। फिर कोई समस्या न होगी , बात बराबर की होगी।

बेमेलता यहाँ भी सर चढ़ के बोलती है , अलौकिक से लौकिक प्रेम कर बैठता है , पुरुष से ज्यादा स्त्रियां जब प्रेम कर बैठती है तो परिणाम और भी खतरनाक हो जाते है , स्त्रियां सीधा भावनाओ से जुड़ जाती है।

इसी कारन साधू संतो का का आचरण सामाजिक अर्थों में आलोचनाओ का शिकार हो जाता है। बौध्ह व्यवहार और चरित्र स्वतंत्र होते है , किसी भी बंधन को स्वीकार नहीं करते। स्त्री यदि बांधने का प्रयास भी करेगी तो निराशा ही हाथ आएगी। क्यूंकि उनका जीवन स्वयं में प्रयोगशाला है तो उनके जीवन कि हर छोटी मोटी घटने वाली घटनाएं उनके लिए अनुभव बन जाती है , वे स्वयं ऐसे अनुभव का प्रतिक्षण स्वागत करते है ; जो उनको उनकी ही राह पे थोडा और आगे बढ़ाता चले ..... अन्य कोई दूसरा नहीं सिर्फ यही कारन है कि इस राह पे चलने वाले बौध्हपुरुष को स्त्रियों से बचने की सलाह दी जाती रही है , यदि स्त्री से न भी बच सके तो स्त्री प्रेम से अवश्य बचे । रिश्ते में बांधना , और प्रेम करना स्त्री का स्वभाव है। समाज और परिवार इसी कारन चल पाते है क्यूंकि इनके मूल में स्त्री है। पर सन्यासी को यदि यही स्त्री बांधना चाहे तो कैसे बांधेगी ? और फिर भावनाए आहत होती है कटुता आती है , आलोचनाये होती है , लांछन लगना तो आम बात है। ये सब सहज और स्वाभाविक कड़ियाँ ही है।

समस्या यहाँ सही और गलत कि है ही नहीं , अंतर सिर्फ दो व्यक्तित्वों कि धारणाओ का है , योजनाओ का है , और आकाँक्षाओं और अपेक्षाओं का है।

एक तरफ वो है " जिसका जीवन ही प्रयोगशाला बन गया " दूसरी तरफ एक स्त्री या पुरुष जो सामान्य से थोडा ऊपर उठ सका ..... इस व्यक्ति कि प्रसिध्दि आचरण योग्यता या फिर किसी भी वजह से आकर्षण हो रहा है। परन्तु संसार और व्यसन छूटे नहीं और सजह ही लौकिक रूप से स्त्री या पुरुष आकर्षित हो गया। खुद तो उलझनो में घिरा और उसको भी घेरना चाहता है जिसके लिए अब ये सब घेरे अस्तित्व रूप में रह ही नहीं गए।

फिर क्या हो?

क्यूँ नहीं हम ये स्वीकार कर सकते की सामने बैठा व्यक्ति सिर्फ पंचतत्वों से बना एक सामान्य व्यक्ति है सभी शारीरिक पीडाओ से गुजरना , मानसिक गति , मन की चपलता उसके साथ भी है , जन्मो जन्मो की यात्रा में चक्कर काटता वो भी हमारी ही तरह उसी राह पे चल रहा है , जिसपे हम चलने की कोशिश कर रहे है।

क्यूँ अपनी ही बनायीं परिभाषाओं में पहले हम खुद को फंसने देते है फिर उसको भी उसी परिभाषा में उतार लेते है ? खुद अपने जीवन से परेशां हताश नया जीवन लेने उसके दर पे जाते है और उसको भी अपने ही जैसा बनाने की भूल करने लगते है। अथक प्रयास से स्वतंत्र हुए उस बुध्ह पुरुष को क्यूँ हम उसको वो ही कैदखाना देना चाहते है जिससे आजादी के लिए तड़पते हुए हम उसके पास जाते है ? जोम्बी रहस्य को भी समझने की जरुरत है ....

सही गलत अच्छा बुरा सब अपने-अपने आस पास के वातावरण कि सामाजिक देन है हर व्यक्ति को , जो उसके जन्म से जुडी होती है , जो उसके बढ़ते व्यक्तित्व को बनाती संवारती है है। सही और गलत कि घोषणा यही से होती है। तभी तो एक बात एक के लिए सही और दूजे के लिए गलत हो जाती है। तभी तो हर देश के सामाजिक ढांचे के अनुसार रहने वालो के अपने अपने सही और गलत होते है , एक देश के हर प्रदेश में यही सही गलत का सांस्कृतिक भेद पाया जाता है , और हर प्रदेश के हर शहर का अपना सामाजिक ढांचा होता है , और तिसपर हर शहर से जुड़े एकएक गाँव का अपना अपना सही और गलत होता है।

Photo: आकर्षक  व्यक्तित्व  के स्वामी बुद्ध पुरुष  या  स्त्री  और गर्भित प्रेम कथा ; एक रहस्यवादिता :
------------------------------------------------------------------

कुछ भाव  बाँटना चाहती हूँ , यद्यपि  ज्ञान स्वानुभव  की नीव पे  टिका होता है , फिर भी कभी कभी  अपनी नीव को मजबूत करने के लिए  कुछ अनुभव काम आ जाते है , मेरी  श्रध्हा मेरा  सम्मान समर्पित  करती हूँ पहले  शुध्ह बुधः  आत्माओं को , फिर मैं ये कहना  चाहूंगी  की  कोई भी कुछ भी कहता रहे कितनी भी तर्क पूर्ण  बुध्हिमानी से भरी या के करुणा से भरी दूसरे के भले के लिए  बात कहता हो  , उनके कहने और  सामान्य  व्यक्ति  के  सुनने के भाव में अंतर  रहेगा ही  रहेगा  ,  ये भाव   एकदम   मेल नहीं खा सकते।  

इसकी पीड़ा से  या के करुणा  से  वो  बहुत ज्यादा गुजरते हैं  जिनको लगता है कि उनके सामने बैठा * जिज्ञासु   या तो * पिपासु  है , या के   फिर * भक्त है  या फिर   उसका * आत्म संतोष हासिल करने का स्वार्थ है  , इन चारो में से कोई एक तो है  जिसका भाव  उसे ज्ञानियों कि छत्र छाया में  खींच के ले आता है। फिर वो ज्ञानी अपनी योग्यता अनुसार  अपना ज्ञान  उसके अंदर प्रेषित करने का प्रयास करते है , ताकि  वो इक्षुक अपनी जिज्ञासा या पीड़ाओं से बाहर आके  एक  अध्यात्मिक_स्वतंत्र  जीवन जी सके। 

ऐसे में  कई कई बार  अनेक  मन बुध्ही  और   आकाँक्षाओं  के  वेगशील प्रहाव  और  भावनाओ  के  उद्वेग  का शिकार भी हो जाते है  ऐसे बुधः पुरुष।   चूँकि  वे स्वयं तो सुलझे होते है , पर सामने जो और जितने भी बैठे है , या फिर  समाज में  जितने भी  संपर्क में आ रहे है , सब उतने ही सुलझे नहीं हो सकते।  परन्तु  आलोचना में  प्रपंच  के रस  में  कोई किसी से कम भी नहीं।  और यही  वो बुधः  पुरुष शिकार होते है।  

दिल थोड़ा उदास  है ये सब  भाव बांटते हुए , परन्तु   क्या करें !  सब  साथ ही चलता है !  सारा समाज एक साथ ज्ञानी नहीं हो सकता।  और न ही  अपने  स्वार्थी भाव को छोड़ सकता है , उसको  चाहिए  सब  एक बच्चे कि तरह , और साथ ही  जिस तरह  वो अपने आस पास के वातावरण को अपनी तरह से  ढलता देखना चाहता  है उसी के घेरे में  वो जिज्ञासु  गुरु का  आचरण और स्वभाव भी रखता है , अपने नियम  खुद ही  बनाता  है  और उनको  सामने वाले पे  ढलते हुए भी देखना चाहता है , यदि  वोही  गुण देख लिए  तो गुरु  महान हो गए  भगवन  हो गए , वर्ना   इसके विपरीत भी परिभाषाओं की कमी नहीं है।  (अब ये अलग  श्रंखला है कि  उस  जिज्ञासु के लिए भी कोई समूह  नियम बना रहा है, उसका व्यक्तित्व  इसी वातावरण में विकसित हुआ है  )

ज्ञान  और अध्यात्म  एक प्रयोगशाला की  तरह है  और जीवन एक अवसर , चूँकि हर व्यक्ति के  इस राह पे कदम   पहले -पहले  ही डाले होते है , उनके भी कदम पहले ही पहले  होते है , बस  उनके अनुभव और समझ गहरी ज्यादा होती है , इसमें भी आश्चर्य नहीं  क्यूंकि  जिधर भी  प्राकृतिक झुकाव होता है आत्मा  का  प्रयास भी उधर ही होते जाते है ,और  एक एक कदम से  राह  निकलती चली जाती है।  वे इस राह  पे निकल चुके है  और , जरूरतमंद बीच बीच में  जुड़ रहे है  अलग अलग स्वार्थ से , कुछ तो  कुछ पल के लिए , तो कुछ किसी  खास  भावनात्मक उपचार मात्र के लिए , तो कुछ  अध्यात्म प्राप्ति के लिए, वजह  अलग अलग  पर  सभी जुड़ते  चले जाते है  और  समुदाय बढ़ता चला जाता है।  

ध्यान देने योग्य ये बात है , कि प्राथमिक बात  अब भी  वही है , इतने  तरीके के रंग मिले  आपसे में , परन्तु  जल तो वही है ,  " ज्ञान और अध्यात्म  एक  प्रयोगशाला है  , और जीवन एक अवसर ,"  जो यह दूसरों को समझा रहा है , उसके खुद के जीवन में ये वाक्य क्या मायने रखता होगा ?  ये समझना कठिन नहीं। .... इस पायदान तक आते आते  जो व्यक्ति आपको  भावनाओ को कैसे  वश में  करके अध्यात्म  के रस्ते पे  मोड़ा जाये  करने कि  विधि सीखा  रहा हो  वो खुद  किस कदर इनका प्रयोग करके  पारंगत हो चुका होगा , ये  दोबारा  समझने की ... समझाने  की  जरुरत नहीं।  

जो स्वयं  हर विधा से  गुजर चुका हो  उसके लिए  कोई भी उद्घोषणा करने से पहले  उसके भाव को भी समझना अति आवशयक  है।  सही या गलत  हमेशा  एक ही धागे के दो सिरे इसलिए कहे गए  है , एक दृष्टिकोण से  वो ही बात सही लगती  है और दूसरे से गलत।  ये तो अपना अपना  नजरिया   है  जो अपने अपने सामाजिक परिवेश  से तैयार होता है।  इसमें सही गलत जैसा कुछ नहीं।  

किसी  गुरु के प्रेम में  जब कोई भक्त  पड़ता है , तो सभी मानवीय कमियों से  भरा होता है , क्यूंकि वो गुरु नहीं ,  गुरु जैसा सक्षम भी नहीं , इसी लिए वो शिष्य है।   प्रेम  भी  यदि आत्मिक  भक्ति  का है तो भी ठीक  , पर कभी कभी यही प्रेम  अधिकार  स्थापित  करने का दुःसाहस  कर बैठता  है , वो भी  पुरे  मानवीय  भावों के साथ  , जिसका उस सद्गुरु को कोई लेना देना ही नहीं।   गुरु तो बहुत पहले निकल चुका है इन सब सांसारिक जालो से।  क्यूँकर फंसेगा दोबारा ? उसका जीवन  तो पहले से ही प्रायोगिक हो चूका है।  परन्तु  कम ज्ञान वाले लोग इसको नहीं समझते , और भावनात्मक खेल खेलने लगते है , उनका ही परिणाम दुखद होता है।  

खेलना ही है  तो सामान  कद  वाले  खिलाडी से खेलो , तो उत्तर भी मिलेगा , उससे क्या खेलना  जिसके  सवाल और जवाब ही सारे  खो गए है।   वो तो अपने ही सामान तुम्को बनाए कि फ़िराक में है और तुम  उसको अपने जैसा बनाने पहुँच गए !  हो गया ना  मजाक !   अरे  सांसारिक खेल ही खेलना था  तो  संसार में लोग कम थे क्या ?  या फिर तुम भी अपना कद इतना बढ़ा लो  कि संसार  तुमसे छूट जाये , माया  प्रकट  हो जाये , फिर  भावनाओ के रंग  तुमको छल न सके , इसके बाद उस समान कद वाले से अपना प्रेम बढ़ाओ , तो पाओगे  कि तुम्हारा भी जीवन प्रयोगशाला बन चुका है  और जीवन  एक अवसर।  फिर तुम्हारी मांगे भी समाप्त  हो चुकी होंगी।  फिर कोई समस्या न होगी , बात बराबर की होगी।  

बेमेलता   यहाँ भी सर चढ़ के बोलती है , अलौकिक से लौकिक प्रेम कर बैठता  है , पुरुष  से ज्यादा स्त्रियां जब प्रेम कर बैठती है  तो  परिणाम और भी खतरनाक हो जाते है ,  स्त्रियां सीधा भावनाओ से जुड़ जाती है।  

इसी कारन साधू संतो का   का आचरण  सामाजिक अर्थों में  आलोचनाओ का शिकार हो जाता है।  बौध्ह  व्यवहार  और  चरित्र  स्वतंत्र होते है , किसी भी बंधन को स्वीकार नहीं करते।   स्त्री  यदि बांधने का प्रयास भी करेगी तो निराशा ही हाथ आएगी।   क्यूंकि उनका जीवन  स्वयं में प्रयोगशाला है  तो उनके जीवन कि हर छोटी मोटी  घटने  वाली  घटनाएं  उनके लिए  अनुभव बन जाती है , वे स्वयं  ऐसे अनुभव का प्रतिक्षण स्वागत करते है ; जो उनको उनकी ही राह पे  थोडा और आगे बढ़ाता चले ..... अन्य  कोई  दूसरा   नहीं  सिर्फ  यही कारन है कि  इस राह पे चलने वाले बौध्हपुरुष को  स्त्रियों से बचने की सलाह दी जाती रही है , यदि स्त्री से न भी बच सके तो स्त्री प्रेम से अवश्य बचे  । रिश्ते में   बांधना , और  प्रेम करना स्त्री का स्वभाव है।  समाज और परिवार इसी कारन  चल पाते है  क्यूंकि इनके मूल में स्त्री है। पर सन्यासी को यदि यही स्त्री बांधना चाहे तो कैसे  बांधेगी ?  और फिर भावनाए आहत होती है  कटुता आती है , आलोचनाये होती है , लांछन  लगना तो आम बात है।  ये सब सहज और स्वाभाविक कड़ियाँ ही है। 

समस्या यहाँ  सही और गलत कि है ही नहीं , अंतर  सिर्फ दो व्यक्तित्वों  कि  धारणाओ  का है , योजनाओ का है , और आकाँक्षाओं और अपेक्षाओं  का है।  

एक तरफ वो है " जिसका  जीवन ही प्रयोगशाला बन गया " दूसरी तरफ  एक स्त्री  या  पुरुष जो सामान्य से थोडा ऊपर उठ सका ..... इस व्यक्ति कि प्रसिध्दि आचरण योग्यता या फिर किसी भी वजह से आकर्षण हो रहा है।  परन्तु  संसार  और व्यसन छूटे नहीं और सजह ही लौकिक रूप  से  स्त्री या पुरुष आकर्षित हो गया।  खुद तो   उलझनो में घिरा  और उसको भी घेरना चाहता है  जिसके लिए अब ये सब घेरे  अस्तित्व रूप में रह ही नहीं गए।  

फिर क्या हो?

क्यूँ नहीं  हम  ये स्वीकार  कर सकते   की सामने बैठा व्यक्ति सिर्फ पंचतत्वों से बना  एक  सामान्य  व्यक्ति   है   सभी शारीरिक पीडाओ से गुजरना  , मानसिक  गति , मन की  चपलता  उसके साथ भी है , जन्मो जन्मो की यात्रा में  चक्कर काटता  वो भी  हमारी ही तरह  उसी  राह  पे  चल  रहा  है  , जिसपे हम  चलने की कोशिश कर रहे है।  

क्यूँ  अपनी ही बनायीं परिभाषाओं में  पहले हम खुद को फंसने देते है  फिर उसको भी  उसी परिभाषा में उतार लेते है  ?  खुद अपने जीवन से परेशां हताश  नया जीवन  लेने उसके दर पे जाते है  और उसको भी अपने ही जैसा  बनाने की भूल करने लगते है।   अथक प्रयास से स्वतंत्र हुए उस बुध्ह पुरुष को  क्यूँ हम उसको  वो ही कैदखाना देना चाहते  है  जिससे  आजादी के लिए  तड़पते हुए हम उसके पास  जाते है ? जोम्बी  रहस्य  को भी समझने की  जरुरत है ....

सही गलत अच्छा बुरा  सब  अपने-अपने आस पास  के वातावरण कि सामाजिक  देन है  हर व्यक्ति  को , जो उसके जन्म से जुडी होती है ,  जो उसके  बढ़ते  व्यक्तित्व को  बनाती  संवारती  है है।  सही और गलत कि घोषणा यही से होती है।  तभी  तो  एक बात एक के लिए सही और दूजे  के लिए  गलत हो जाती है।  तभी तो  हर  देश के  सामाजिक ढांचे के अनुसार  रहने वालो के  अपने अपने सही और गलत होते है ,  एक देश के  हर प्रदेश  में यही  सही गलत का सांस्कृतिक भेद पाया जाता है ,  और हर प्रदेश के हर  शहर का अपना सामाजिक ढांचा होता है , और तिसपर   हर शहर से जुड़े  एकएक  गाँव का अपना अपना  सही और गलत होता  है।  

सही और गलत ही बड़ा भ्रामक है।  

सोचे समझे  और विचार करे , इस सही और गलत  जैसे भ्रामक शब्द का।  और फिर निरपेक्ष भाव से  किसी के लिए  कोई  उद्घोषणा करे। सम्भावना है कि हमारे समझने में ही कोई चूक हो गयी हो !   

ॐ ॐ ॐ
(सुलझे  अनसुलझे  , सरल  और सहज , किन्तु दुरूह और दुर्गम्य )

सही और गलत ही बड़ा भ्रामक है। 


सोचे समझे और विचार करे , इस सही और गलत जैसे भ्रामक शब्द का। और फिर निरपेक्ष भाव से किसी के लिए कोई उद्घोषणा करे। सम्भावना है कि हमारे समझने में ही कोई चूक हो गयी हो ! 



ॐ ॐ ॐ

No comments:

Post a Comment