Tuesday 1 April 2014

सर पर ढेरों धूल जमी है, भागो! टखने-टखने आग बिछी है, भागो! Osho (Apui gai Hira -01)

पलटू कह रहे हैं: पिय को खोजन मैं चली, आपुई गई हिराय। 

सोचा तो था कि प्यारे को खोज लूं। सोचा तो था कि बिना उसे खोजे कैसे चलेगा! सोचा तो था कि बिना उसे जाने जिंदगी का क्या अर्थ, क्या मूल्य! जीवन में कैसा उत्सव? कैसा आनंद? लेकिन खोज बड़ी अजीब जगह पर जाकर समाप्त हुई। 

पलटू दीवाल कहकहा! 

परमात्मा क्या था दीवाल कहकहा था। हंसी तो आई, बहुत आई। हंसी किस पर आई? हंसी अपने पर आई।

कहते हैं, बोधिधर्म जब ज्ञान को उपलब्ध हुआ, परम ज्ञान को उपलब्ध हुआ, तो सात दिन तक अहर्निश हंसता रहा, रुका ही नहीं, सोया नहीं। संगी-साथी परेशान हुए। शक तो उन्हें हमेशा था कि यह आदमी कुछ पागल है, दीवाना है। सत्य के खोजी सदा ही झूठ की दुनिया में रहने वाले लोगों को दीवाने मालूम पड़े हैं। और ठीक भी है कि दीवाने मालूम पड़ें। क्योंकि झूठ की दुनिया का गणित अलग, तर्क अलग, हिसाब-किताब अलग, सोच-समझ अलग। झूठ की दुनिया का आयाम अलग। सत्य की दुनिया का गणित और। सत्य की दुनिया का तर्क और। सत्य की दुनिया के तराजू और। सत्य की दुनिया और असत्य की दुनिया के बीच कहीं कोई तालमेल नहीं; एक-दूसरे के विपरीत। यहां बाहर के धन की कीमत है; वहां भीतर की धन्यता की कीमत है। यहां बाहर के पद का मूल्य है; और वहां भीतर परमपद की ही प्रतिष्ठा है। यहां बाहर की दुनिया में, झूठ की दुनिया में, खिलौनों से लोग उलझे हैं; और भीतर की दुनिया में जिन्हें जाना है उन्हें खिलौने तोड़ देने पड़ते हैं। यहां बाहर हर आदमी जल रहा है, आग में जल रहा है; अगर भागता भी है तो एक आग से दूसरी आग में भागता है। 


सर पर ढेरों धूल जमी है, भागो!
टखने-टखने आग बिछी है, भागो!
बंद है कारोबार, दुकानें खाली;
और सड़कों पर भीड़ लगी है, भागो!
मंजिल है दो-चार कदम की दूरी पर;
और आगे दीवाल खड़ी है, भागो!
धरती का दिल कांप रहा है शायद;
घर-घर हाहाकार मची है, भागो!
सर पर ढेरों धूल जमी है, भागो!
टखने-टखने आग बिछी है, भागो!

मगर भागोगे कहां? यहां से वहां। एक कारागृह से दूसरे कारागृह में। एक दुकान से दूसरी दुकान में। एक मंदिर से दूसरी मस्जिद में। एक मस्जिद से दूसरे गिरजाघर में। बाइबिल से कुरान, कुरान से गीता, गीता से वेद। भागोगे कहां? एक शब्द से दूसरा शब्द, एक उलझन से दूसरी उलझन। हां, थोड़ी देर राहत मिलती है।

जैसे लोग मरघट की तरफ अरथी को लेकर चलते हैं तो रास्ते में कंधा बदल लेते हैं; बाएं कंधे पर रखी थी अरथी, दाएं पर रख लेते हैं। वजन वही, कंधे भी अपने हैं, फिर बायां हो कि दायां, क्या फर्क पड़ता है? लेकिन थोड़ी देर को राहत मिल जाती है। बायां थक गया, दाएं पर रख लेते हैं। फिर दायां थक गया तो बाएं पर रख लेते हैं।

यूं ही चल रही है दुनिया। हिंदू मुसलमान हो जाते हैं, मुसलमान हिंदू हो जाते हैं। ईसाई हिंदू हो जाते हैं, हिंदू ईसाई हो जाते हैं। जैन बौद्ध हो जाते हैं, बौद्ध जैन हो जाते हैं। कंधे बदल लेते हैं, मगर अरथी वही--वही मुर्दा लाश! अपनी ही लाश ढो रहे हैं, किसी और की भी नहीं। 


मनुष्य के मन की एक प्रकृति है। शायद वैसी प्रकृति न होती तो आदमी को जिंदा रहना मुश्किल हो जाता। वह प्रकृति यह है कि वह सुख को तो चुन-चुन कर सजा लेता है, उनकी तो फूलमालाएं बना लेता है और दुख को विस्मृत करता जाता है। नहीं तो जिंदगी बहुत मुश्किल हो जाए। जीओ भी दुख में और इकट्ठा भी दुख हो, तो जीओगे कैसे? भार बहुत हो जाएगा। जीओ तो दुख में, लेकिन सुख की कल्पनाएं और सुख की स्मृतियां बढ़ा-चढ़ा कर इकट्ठी करते चले जाओ। ऐसा कोई जमाना न था...।


Apui Gai Hira - 01

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