Sunday 27 April 2014

डुबकियां लग रही है ,बेहिसाब (note)






























समुद्र एक ही है , रोज करोडो डुबकियां लग रही है , लहरे आ रही है और वापिस जा रही है , मानवता की संरचना से , मानव के मानव होने के ज्ञान से भी पहले से , डुबकियां लग रही है , मेरे और तेरे के द्वैत में डूबा इंसान स्वयं से समझ ही नहीं पा रहा , और दूसरे की सुनने की आदत ही नहीं , सामने वाले की भी उतनी ही सुनता है जो उसके मस्तिष्क में उपज रहा है , उसके बाद स्वभाववश आखों पे परदे और कानो में ढक्कन , फिर कुछ और न दिखाई देता है न सुनाई देता है।

सदियों से यही कार्यक्रम बेरोकटोक चला आरहा है , हर बार हर जनम में नयी डुबकी लगाने का मज़ा ही कुछ और है , बार बार देखा गया सुना गया और कहा गया , सत्य किसी से छुपा नहीं , रोज रोज घट रहा है आँखों के आगे , परन्तु पर्दो का और ढक्कन का क्या करे ?

वो ही चिरपुरातन ..... नया स्नान , वो कर्मो का चक्कलस , वो ही मगजमारी , वो ही माया के प्रलोभन , वो ही अहंकार , वो ही मार काट , वो ही फिरकापरस्ती , वो ही राजनीती , वो ही छल , वो ही द्वेष , वो ही अन्धो की तरह जीवन जीना , और मृत्यु शय्या पे पड़े रोते हुए पश्चाताप करते रहना। वो ही भयभीत ह्रदय को पोषित करते रहना , वो ही मस्तिष्क का चालाकियों में डूबे रहना , वो ही क्षणिक दिखावे की संतुष्टि की नीति , वो ही जन्मो जन्मो का फेरा जानते हुए भी फिर भी वो ही दोहराते जाने में परम प्रसन्नता का अनुभव समझना। वो ही बीमारियो और शारीरिक तथा भाव पीड़ाओं से पीड़ित होक इस दर उस दर भटकना ; कोसना स्वयं को भी और सामने वाले को भी। वो ही जीवन से उपजे संकट से क्षणिक मुक्ति की बात करते , तैरते उथले धर्म के कर्मकांडो पे इतनी आस्था की अंधे बनके सारे संसार को उसी आस्था तले कुचलने की योजना अनवरत बनाते रहना। और धर्म का सञ्चालन भी राजनेताओं के सामान शक्ति प्रदर्शन जैसा बना लेना जिसके धर्म में जितनी भीड़ (रोड शो जैसी ) वो उतना शक्तिवान , ये क्या पागलपन है ?

यदि पुनर्जन्म को मानते हो तो क्या आपको नहीं लगता की जन्मो जन्मो से यही करते चले आ रहे हो , अब तो चेतो !

और यदि पुनर्जन्म को नहीं भी मानते तो भी , पुराने अनुभव (इतिहास ) से कुछ सीखना बनता है ना ! दोस्त !!

चलो पुराने अनुभव भी बासी हो गए , मान लिया ! तो क्या इस जीवन की सार्थकता सिर्फ इतनी है की " जो चाहे जिधर चाहे धक्का दे " , एक दो आदमी हजारों को गाय बैल की तरह किसी भी दिशा में भगा दे ! और हम बैल दौड़ में शामिल प्रथम स्थान के लिए दौड़ लगा रहे है ! तो परम ने जो हमें सोचने की और अपने लिए समझने की शक्ति दी उसके होना_मात्र का ख्याल ......मात्र..... क्या किसी गढ़े हुए पुश्तैनी धन के सामान अपने धनवान होने के समान आपको प्रसन्न कर देता है या फिर किसी खानदानी धरोहर के रूप में मिली बेशकीमती चादर की तरह धुल झाड़ के वापिस रख लेना है ताकि आगे आने वाली पीढ़ी को सौंपा जा सके , बिना उपयोग के ? आपकी - अपनी दिव्य चादर ,' ज्यूँ की त्यूं धरी दिनी " बिना सिलवट के बिना ओढ़े , कोशिश की की एक भी धब्बा न लगे अपनी समझ का , बाकी धब्बो की परवाह भी नहीं की , भांति भांति के रंग के छींटे पड़ते गए और हम बेपरवाह ही रहे। परवाह की उसकी जो घडी-घडी बदल रहा है, परवाह की मुठी में रेत भरने की , बहुत पीड़ा सही हथेलिया घायल भी हो गयी , खून बह चला पर मुठी नहीं खुलने दी , पर रेत थी की रुकी ही नहीं फिसलती ही रही , और अब जब दोनों हाथ खाली है , तो क्या सोचते हो ?

आपकी चादर यदि आप उपयोग नहीं करोगे तो अन्य किसी के लिए वो काम की नहीं , बहुत निजी है कीमती जरूर है पर धरोहर नहीं बन पायेगी , आपके जन्म के साथ आपके जीवन भी रहेगी और मृत्यु के बाद आपके ही साथ चली जाएगी ,

आगे का क्या कार्यकर्म है, सखा ?


वास्तव में कहते है शरीर में सात चक्र के आलावा और है क्या पूरा मानव जीवन ऊर्जा क्लेश इसी के संतुलन और असंतुलन में समाया हुआ है। चक्र साधे तो सीधा मोक्ष पे द्वार खुलता है , इसका मात्र औचित्य इतना ही है की सारे भरम दूर हो जाते है , सारे विवाद और विषाद की जड़ असंतुलन ही है। और सार्वभौमिक सत्य है सारे समाधान अंदर ही है , बाहर सिर्फ भटकाव , तो यही पे ध्यान आपको अंतर्दृष्टि देता है , स्वयं की ऊर्जा को संतुलित करने में सहायता करता है , प्रथम प्रवेश भी यही और और आखिरी मोक्ष का द्वार यही है।आपो गुरु आपो भव

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