Monday 28 April 2014

आसमान / धरती से जुड़ा "मैं " ; एकत्व से एकाकार हुआ मेरा अस्तित्व (Note )

मित्रों , ये चित्र स्वयम मे सब कुछ कह रहा है .... इस सूर्य_केंद्र में ... परम_केंद्र में .... और आपके ह्रदय_केंद्र में ... कर्त्तव्य रूप में कोई फर्क नहीं , अपितु ब्रह्मण्ड के सभी केंद्र (रेखागणित के रूप में) एक समान गुणधर्म वाले है , शक्ति सबमे विद्यमान ! विज्ञान भी यही कहता है - प्रकाश-किरणों का स्वभाव ही चहूँ दिशाओं मे समान रूप से फैलना है ....... ध्यान से देखिये !!! ऊर्जा का केंद्र बिंदु ओम से ऊर्जान्वित है , और इसकी किरणे यत्रतत्र सर्वत्र बिखर रही है , कोइ भेद नहीं है , ये सूर्य का चित्र है , सामान्य रुप से ऐसा ही प्रकाशित ऊर्जा_केंद्र .. हम मे से ..हर एक मे .. है , ऐसी ही ऊर्जा का मुख्य केंद्र भी ऐसा ही है , भाव हमारी तरंगे है जो सूर्य किरण का रुप है , और विस्तृत अर्थ मे परम ऊर्जा का नाभि स्थल जिसका एक छोर हमारी नाभि यानी कि भाव से जुड़ा है। जब उसके प्रकाश फैलाने मे किरणे भेद नहीं करती तो हम भी नहीं कर सकते क्यूंकि ऐसी हि किरणे हम सबसे निकल रही है , जिनको रोकना या विपरीत विचार भी बाधा डालता है , जब भी हम प्रकति के विपरीत चलते है कष्ट होता ही है। 

Photo: आसमान / धरती से जुड़ा "मैं " ; एकत्व से एकाकार हुआ मेरा  अस्तित्व  : 
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एक तरफ  मै जुड़ा अपने स्रोत से , दूसरी तरफ मैं बंधा  भावनाओ से , एक तरफ "मैं " छटपटाता   मिलने " मैं " से  तो दूजी तरफ मेरा "मै"  बन्द  दरवाजा , एक तरफ  में जुड़ा धरा से  , दूजी तरफ  मेरा " मै "  ... उड़ता  ब्रह्मण्ड मे , एकतरफ  इस इश्क़  ने जकड़ा  दूजी तरफ  उस इश्क़  ने पकडा।  "मैं" इधर भी  "मैं" उधर भी।   मेरा "मैं"  सोच में था  किसकी बेड़ी काटूं.....धरती की या आसमाँ  की  ?  किसको गले लगाऊँ ?  किसको  अपनाउं  किसको  त्यागूँ  , कोइ भी त्याग योग्य नहीं ,धरती की बेड़ी काटता हूँ  तो  पंचतत्व  से जाता हूँ , और अगर आसमान  से अलग होता हूँ , तो जीते ज़ी  मर जाता हूँ .....

क्या करूँ ?  

क्या करूँ ?  

समझ नहीं आता , ये उलझन है की  सुलझती ही नहीं।  

पंचतत्व से जुड़े  कर्म  मेरी जिम्मेदारी है , और परम से जुड़ाव  मेरी नाभि  से है ....

आप मे भी यही उलझन जागती होंगी  ,  

एक को पकडो तो एक छूटता ही है , अब क्या करें ? 

सहसा  दिल ने कहा ,'  क्यों इतनी सोच ? क्यों इतना भटकाव ? प्रेम  उत्तर है तेरे  हर मलाल का , प्रेम कर , खुद से  खुदा से  और  खुदा  के बन्दों से  , न किसी को छोड़ना  है न किसी को पाना है , ये ख्याल ही सिर्फ़   ख़याल है ,  कि कुछ छूट रहा है , कुछ को पाने मे।  

" सबसे पहले ये ख्याल  रूखसत  कर , की तु कर्ता  है  के  भोक्ता  है।  बैठ  आसान लगा  चुपचाप  महसूस कर एक एक सांस  का आना और जाना , जो सांस  तु ले रहा है  वो प्रयास रहित है , सांस  लेते वक्त  जो  प्राण अंदर जा रहे है  वो प्रयास रहित है ,  किसी फूल के नज़दीक  जा के देख  , सुगंध उठी  और  मन पुलकित होगया , न तूने कुछ  कर्म  किया  और न हि उस फुल ने  अपनी  शक्ति  को तुझपर  जाया किया , सब कुछ हो ग़या , स्वतः "

यही प्रकृति है।   और इसी  को आत्मसात करना है  कि हम कुछ कर नही रहे , स्वतः हो रहा है ,  

इस " करने " के भाव को स्वयं से  अलग कीजिये , महसूस  किजिये  की  आप मे क्या क्या प्रकृति प्रदत्त भाव  है , तत्व है।  जो मौलिक है ; वो सब आप नहीं कर रहे।  उदाहरण के लिए ,  मूलभूत  भाव है , प्रेम का  वो आप कर नहि सकते , ये तो बहाव है , जो अपने से हो रहा है , अब ये प्रेम  मात्र  पितृ   भाई बन्धु  बहन  पत्नी  पति  मित्र  कैसा भी हो सकता है जैसा भी  रिश्ता बनेगा  भाव उत्पन्न होगा।  प्रेम के अंदर ही जिंम्मेदारी और करुणा के फल लगते है।  तो ये भी  आप कर नही  रहे  , हो रहा है , इसको  समझने के लिये ज्यादा दूर नहीं  सिर्फ प्रकृति  कि गोद मे बैठना है।  जीव जंतु को देखना है  क्यूंकि वो अत्यंत  स्वाभाविक है, अभी इतना संज्ञान उनमे  नहि ,  अभी नकलीपन  उनमे नहि।  अगर वो  अपनी संतानो को  पाल पोस रहे है  तो हम इसमें कौन सा  कमाल कर रहे है ? 

स्वाभाविक प्रेम हो रहा है , भूक लग रही है , स्वास  आ जा रही है ,स्वाभाविक नींद  शरीर  स्वयम से  ले रहा है, प्यास  लगी है  यानि कि शरिर  क़ी जल क़ी इक्छा  स्वाभाविक है ,यदि  आपमे करुणा जाग रही है  तो वो भी  आपका मूल स्वाभाव है  .... 

तो फ़िर आपके अंदर  अस्वाभाविक क़्या क़्या है ! और  इसके विपरीत  कमाल क्या है , मनुष्य का ! 
विचार कीजिये ...... ! 
सोचिये ......! 
ऐसा क्या आप मूल मे है जो अन्य अधिकांश  जीव मे नही  ,  बहुत  मौलिक  और मूल भाव   पहला   बहुत  मित्रों के मन मे आएगा  बुद्धि !  दूसरा  उत्तर  आएगा भाव    कुछ प्रतिशत  सच भी है , पर सम्पूर्ण सच ये नहीं , ये तो प्रेरक है  उस  बिंदु तक पहुँचने के , अध्यात्म का फल  , ये सिर्फ़  मानव  के  ह्रदय मे चक्रों द्वारा  उपजता है , उपलब्धियों का फल , विज्ञानं का फल  किसी जीव में नहीं लगता  , ये सिर्फ़  मानव  की बुद्धि मे खिलता है। विभिन्न विषय ज्ञान  कला  अादि  के फल मनुष्यता की देन है  किसी और के लिये   नहीं  हम जो भी कर रहे है मनुष्य के लिये ही कर रहे है , बहुत सीमित दायरे मे;  इसमें भी  हम स्वार्थी है अपने समाज के , अपने घर के  , अपने दो चार प्रियजन तक  सिर्फ़ अपने दायरे तक , अपने दड़बे  से बाहर  निकल के कभी देखा ही नहीं , वास्तविकता  से सामना किया हीं नहीं  और उम्र गुजार दी। अधिकांश का यही जीवन है और सबसे ज्यादा अस्वाभाविक है , नकलीपन का आवरण के साथ ही  सार्वभौमिक  होने का विचार, यानि कि करेला  वो भी नीम चढ़ा  

मन  स्वयं मे रेगिस्तान है  और इसी कारण मन मे भटकते जीव को  भोलेपन  के कारण  ही मृग  कह्ते है , और  इक्षाएं   मृगमरीचिका , जो लगती है कि कभी  पूरी हो रही है  और कभी अधूरी रह जाती  हुई सी , वास्तव मे  इनका अस्तित्व ही नहीं , इनके  मायावी रूप का पता भी तभी चलता है  जब  जीव (अंतरात्मा ) मे जागरण  होता है। 

मित्रों , जिम्मेदारी और करुणा  प्रेम से ही प्रकट होते है , बिन प्रेम के यदि ये भाव प्रकट हुए है  तो छल है , फ़िर तो करुणा भी छल है और जिम्मेदारी भी  छल है , ध्यान दीजियेगा, ऐसी  करुणा  ऐसी जिम्मेेदारी  , कहीं गहरे  अंदर  मे ये आपके ही  किसी लौकिक  निजी भाव का ही तुष्टिकरण है।  

ध्यान कीजिये , अंतरयात्रा कीजिए .... प्याज के छिलके उतरने दीजिये , एक एक करके  स्वयं से साक्षात्कार कीजिये  ! 

मित्रों , ये चित्र  स्वयम मे सब कुछ कह रहा है  .... इस सूर्य_केंद्र में ... परम_केंद्र में .... और आपके ह्रदय_केंद्र  में ... कर्त्तव्य रूप में कोई फर्क नहीं , अपितु  ब्रह्मण्ड के सभी केंद्र  (रेखागणित  के रूप में) एक समान गुणधर्म  वाले  है , शक्ति सबमे विद्यमान ! विज्ञान भी यही कहता है - प्रकाश-किरणों का स्वभाव ही चहूँ दिशाओं मे समान रूप से  फैलना है ....... ध्यान से देखिये !!! ऊर्जा का केंद्र  बिंदु  ओम  से ऊर्जान्वित है , और इसकी किरणे  यत्रतत्र  सर्वत्र  बिखर रही है , कोइ भेद नहीं है ,   ये  सूर्य  का चित्र है , सामान्य रुप से ऐसा ही  प्रकाशित ऊर्जा  हममे से  हर एक मे है , ऐसी  ही ऊर्जा का मुख्य  केंद्र भी ऐसा ही है ,  भाव  हमारी  तरंगे  है  जो  सूर्य किरण का रुप है   , और  विस्तृत  अर्थ मे  परम ऊर्जा का  नाभि  स्थल  जिसका एक छोर  हमारी  नाभि  यानी कि भाव से जुड़ा है।   जब उसके प्रकाश  फैलाने  मे  किरणे भेद नहीं करती  तो हम भी नहीं कर सकते क्यूंकि ऐसी हि किरणे  हम सबसे निकल रही है , जिनको रोकना  या विपरीत विचार भी बाधा डालता है   , जब भी  हम प्रकति के विपरीत चलते है  कष्ट होता ही है।  

ॐ ॐ ॐ


एक तरफ मै जुड़ा अपने स्रोत से , दूसरी तरफ मैं बंधा भावनाओ से , एक तरफ "मैं " छटपटाता मिलने " मैं " से तो दूजी तरफ मेरा "मै" बन्द दरवाजा , एक तरफ में जुड़ा धरा से , दूजी तरफ मेरा " मै " ... उड़ता ब्रह्मण्ड मे , एकतरफ इस इश्क़ ने जकड़ा दूजी तरफ उस इश्क़ ने पकडा। "मैं" इधर भी "मैं" उधर भी। मेरा "मैं" सोच में था किसकी बेड़ी काटूं.....धरती की या आसमाँ की ? किसको गले लगाऊँ ? किसको अपनाउं किसको त्यागूँ , कोइ भी त्याग योग्य नहीं ,धरती की बेड़ी काटता हूँ तो पंचतत्व से जाता हूँ , और अगर आसमान से अलग होता हूँ , तो जीते ज़ी मर जाता हूँ .....

क्या करूँ ?

क्या करूँ ?

समझ नहीं आता , ये उलझन है की सुलझती ही नहीं।

पंचतत्व से जुड़े कर्म मेरी जिम्मेदारी है , और परम से जुड़ाव मेरी नाभि से है ....

आप मे भी यही उलझन जागती होंगी ,

एक को पकडो तो एक छूटता ही है , अब क्या करें ?

सहसा दिल ने कहा ,' क्यों इतनी सोच ? क्यों इतना भटकाव ? प्रेम उत्तर है तेरे हर मलाल का , प्रेम कर , खुद से खुदा से और खुदा के बन्दों से , न किसी को छोड़ना है न किसी को पाना है , ये ख्याल ही सिर्फ़ ख़याल है , कि कुछ छूट रहा है , कुछ को पाने मे।

" सबसे पहले ये ख्याल रूखसत कर , की तु कर्ता है के भोक्ता है। बैठ आसान लगा चुपचाप महसूस कर एक एक सांस का आना और जाना , जो सांस तु ले रहा है वो प्रयास रहित है , सांस लेते वक्त जो प्राण अंदर जा रहे है वो प्रयास रहित है , किसी फूल के नज़दीक जा के देख , सुगंध उठी और मन पुलकित होगया , न तूने कुछ कर्म किया और न हि उस फुल ने अपनी शक्ति को तुझपर जाया किया , सब कुछ हो ग़या , स्वतः "

यही प्रकृति है। और इसी को आत्मसात करना है कि हम कुछ कर नही रहे , स्वतः हो रहा है ,

इस " करने " के भाव को स्वयं से अलग कीजिये , महसूस किजिये की आप मे क्या क्या प्रकृति प्रदत्त भाव है , तत्व है। जो मौलिक है ; वो सब आप नहीं कर रहे। उदाहरण के लिए , मूलभूत भाव है , प्रेम का वो आप कर नहि सकते , ये तो बहाव है , जो अपने से हो रहा है , अब ये प्रेम मात्र पितृ भाई बन्धु बहन पत्नी पति मित्र कैसा भी हो सकता है जैसा भी रिश्ता बनेगा भाव उत्पन्न होगा। प्रेम के अंदर ही जिंम्मेदारी और करुणा के फल लगते है। तो ये भी आप कर नही रहे , हो रहा है , इसको समझने के लिये ज्यादा दूर नहीं सिर्फ प्रकृति कि गोद मे बैठना है। जीव जंतु को देखना है क्यूंकि वो अत्यंत स्वाभाविक है, अभी इतना संज्ञान उनमे नहि , अभी नकलीपन उनमे नहि। अगर वो अपनी संतानो को पाल पोस रहे है तो हम इसमें कौन सा कमाल कर रहे है ?

स्वाभाविक प्रेम हो रहा है , भूक लग रही है , स्वास आ जा रही है ,स्वाभाविक नींद शरीर स्वयम से ले रहा है, प्यास लगी है यानि कि शरिर क़ी जल क़ी इक्छा स्वाभाविक है ,यदि आपमे करुणा जाग रही है तो वो भी आपका मूल स्वाभाव है ....

तो फ़िर आपके अंदर अस्वाभाविक क़्या क़्या है ! और इसके विपरीत कमाल क्या है , मनुष्य का !
विचार कीजिये ...... !
सोचिये ......!
ऐसा क्या आप मूल मे है जो अन्य अधिकांश जीव मे नही , बहुत मौलिक और मूल भाव पहला बहुत मित्रों के मन मे आएगा बुद्धि ! दूसरा उत्तर आएगा भाव कुछ प्रतिशत सच भी है , पर सम्पूर्ण सच ये नहीं , ये तो प्रेरक है उस बिंदु तक पहुँचने के , अध्यात्म का फल , ये सिर्फ़ मानव के ह्रदय मे चक्रों द्वारा उपजता है , उपलब्धियों का फल , विज्ञानं का फल किसी जीव में नहीं लगता , ये सिर्फ़ मानव की बुद्धि मे खिलता है। विभिन्न विषय ज्ञान कला अादि के फल मनुष्यता की देन है किसी और के लिये नहीं हम जो भी कर रहे है मनुष्य के लिये ही कर रहे है , बहुत सीमित दायरे मे; इसमें भी हम स्वार्थी है अपने समाज के , अपने घर के , अपने दो चार प्रियजन तक सिर्फ़ अपने दायरे तक , अपने दड़बे से बाहर निकल के कभी देखा ही नहीं , वास्तविकता से सामना किया हीं नहीं और उम्र गुजार दी। अधिकांश का यही जीवन है और सबसे ज्यादा अस्वाभाविक है , नकलीपन का आवरण के साथ ही सार्वभौमिक होने का विचार, यानि कि करेला वो भी नीम चढ़ा

मन स्वयं मे रेगिस्तान है और इसी कारण मन मे भटकते जीव को भोलेपन के कारण ही मृग कह्ते है , और इक्षाएं मृगमरीचिका , जो लगती है कि कभी पूरी हो रही है और कभी अधूरी रह जाती हुई सी , वास्तव मे इनका अस्तित्व ही नहीं , इनके मायावी रूप का पता भी तभी चलता है जब जीव (अंतरात्मा ) मे जागरण होता है।

मित्रों , जिम्मेदारी और करुणा प्रेम से ही प्रकट होते है , बिन प्रेम के यदि ये भाव प्रकट हुए है तो छल है , फ़िर तो करुणा भी छल है और जिम्मेदारी भी छल है , ध्यान दीजियेगा, ऐसी करुणा ऐसी जिम्मेेदारी , कहीं गहरे अंदर मे ये आपके ही किसी लौकिक निजी भाव का ही तुष्टिकरण है।

ध्यान कीजिये , अंतरयात्रा कीजिए .... 

प्याज के छिलके उतरने दीजिये , एक एक करके स्वयं से साक्षात्कार कीजिये ! 



ॐ ॐ ॐ

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