Wednesday 23 July 2014

मन की आवाज और हृदय की आवाज (Osho )

पांचवां प्रश्न: मन की आवाज कौन-सी है और हृदय की आवाज कौन-सी है? जानने की कसौटी क्या है? कृपया समझाएं।


मन की ही सब आवाजें हैं, हृदय की कोई आवाज नहीं। जहां आवाजें खो जाती हैं, वहां हृदय है।

मौन है हृदय की आवाज।
शून्य है हृदय का स्वर।

इसलिए झंझट बिलकुल नहीं है। तुम सोचते हो, कोई आवाज हृदय की और कोई मन की; तो तुम बड़ी गलती में पड़े जा रहे हो। सब आवाजें मन की हैं। यह मन ही है।

धन को भी मन ही पकड़ना चाहता है और धन को मन ही त्यागना चाहता है। मन बड़ा जटिल है। एक तरफ कहता है, पकड़ लो, लूट लो मजे। दूसरी तरफ कहता है क्या रक्खा? सब असार है।

पर दोनों मन हैं। एक तरफ कहता है दौड़ लो। चार दिन मिले जिंदगी के, कुछ पा लो पद। दूसरी तरफ से कहता है, क्या रखा है पदों में? जो पहुंच गए उनको तो देखो।

मन अपने से ही एकालप करता रहता है, मोनोलाग करता रहता है। एक तरफ से जवाब देता है, एक तरफ से उत्तर खड़ा करता है। पर दोनों आवाजें मन की हैं।

यास कहती है कुछ, तमन्ना कुछ
किसकी बातों का एतबार आए

फिर धीरे-धीरे तुम्हें जो-जो समझाया गया है कि शुभ है, सत्य है, अगर मन वही कहता है तो तुम सोचते हो, यह हृदय की आवाज है। जब मन कहता है वेश्या के घर चलो तो तुम कहते हो, यह मन की, इंद्रियों की, शरीर की। और जब मन कहता है मंदिर चलो, तुम कहते हो, यह आत्मा की, हृदय की।

गलती बात है। जो वेश्या के घर ले जाता है वही मंदिर भी ले जाता है। वे सब जुड़े हैं। हृदय तो कहीं नहीं ले जाता। वहीं छोड़ देता है जहां तुम सदा से हो। न मंदिर, न वेश्या; न धन, न धर्म; न भोग, न त्याग।

इसलिए तो महावीर कहते हैं धर्म-अधर्म दोनों के पार जाना है। पाप-पुण्य दोनों के पार जाना है।

तुम सोचते हो पाप की आवाज मन की और पुण्य की हृदय की? नहीं, दोनों मन की ही हैं। सब आवाजें मन की हैं। मन व्यर्थ ही ऊहापोह में लगा रहता है।

कुछ कटी हिम्मते-सवाल में उम्र
कुछ उम्मीदे-जवाब में गुजरी

और ऐसे ही मन समय को गंवाता रहता है। इधर पूछता, इधर खोजता है। उत्तर भी बना लेता, फिर उत्तर में से दस नए प्रश्न बना लेता। फिर प्रश्नों में से दस उत्तर खड़े कर लेता। ऐसा बुनता जाता मकड़ी का जाला। अपने में से ही निकाल-निकाल कर जाले को बुनता चला जाता है। मगर यह सब मन का ही खेल है।

तुम पूछते हो हृदय की आवाज कौन-सी? हृदय की कोई आवाज नहीं। जब सब आवाज तिरोहित हो जाती है तो जो सन्नाटा शेष रह जाता है, वही हृदय का है। उस सन्नाटे में ही तुम्हें दिखाई पड़ेगा, दर्शन होगा। उस शून्य में ही पूर्ण का अवतरण होता है। 

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