Sunday 20 July 2014

संवेदनशील मृत्यु-ध्यान

ॐ 

                               दोस्त ने, ओशो का एक लेख   टैग  किया , जिसमे  एक  महिलामित्र  ने ओशो से सवाल  किया  और  भाव बांटे की किस तरह से  उसने अपनी  कैंसर  से पीड़ित  अंतिम सांस लेती बहन को न सिर्फ ओशो की शिक्षा अनुसार   शाररिक  रूप से  सँभालने  की  चेष्टा की वरन आध्यात्मिक  रूप से भी   उसने भरकस प्रयास किया की वो  संतुष्टि से अपनी आँखे  बंद करसके , किसी भी परिवार के लिए  और पीड़ित के लिए  बहुत ही पीड़ादायक अवस्था है, जिसको शब्दों में बंधना ही संभव ही नहीं । 

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BELOVED MASTER,

FOR THE PAST TWO MONTHS I HAVE BEEN TAKING CARE OF MY SISTER WHILE SHE WAS DYING OF CANCER IN HOSPITAL. I WAS ABLE TO GIVE HER LOVE AND PHYSICAL CARE, AND ALTHOUGH, WHILE SHE WAS IN THE LAST DAYS OF COMA I WAS CONSTANTLY PLAYING YOUR DISCOURSES TO HER, I FELT I FAILED TO INTRODUCE HER TO MEDITATION; SHE REFUSED TO FACE DEATH.

BELOVED MASTER,

IT'S A PUZZLE TO ME THAT AFTER ALL THE TORTURE AND SUFFERING SHE MUST HAVE FELT, AT THE LAST MOMENT A BIG SMILE STARTED TO GROW MORE AND MORE ON HER FACE. BELOVED MASTER, COULD YOU COMMENT ON HER SMILE AND ON MY TRYING TO INTRODUCE HER TO MEDITATION?

ओशो ने  इसका उत्तर भी दिया -

Meera, the question you have asked raises a very fundamental thing, and that is: if by chance -- and I will explain to you what I mean by chance -- if by chance somebody dies in great suffering like cancer, the suffering of the cancer does not allow the person to fall into unconsciousness.

So just before death when the body separates from the soul, a tremendous experience happens which happens only to the mystics, to the meditator. To them it does not happen by accident, they have been preparing for it. Their meditation is nothing but an effort to dis-identify themselves with the body.

Meditation does prepare them for death, so they can die without being unconscious; otherwise in ordinary cases one dies in unconsciousness. So one does not know that he was separate from the body, that he has not died. Only the connection between himself and the body has disappeared, and his consciousness is so thin that the separation of the body from the soul breaks that small thread of consciousness.

But the meditator goes many times into the same position consciously, where he stands out, away from his own body. In other words the meditator experiences death many times consciously, so that when death comes it is not a new experience. The meditator has always died with laughter.

You were trying to teach your sister meditation. But it is difficult because when one is in such suffering all your talk seems to be nonsense. But when she really died, just a moment before, as the separation happened, she must have realized, "My God, I was thinking I am the body and that was my suffering. My identification was my suffering." Now the separation, the thread is cut -- aand she smiled.
Certainly you must have been puzzled about what happened, because she was fighting with death, fighting with suffering, was not listening to you or making any effort to learn meditation. Still she died in a very meditative state. This happened accidentally.

The most important thing in life is to learn that you are not the body. That will give you such freedom from pain and from suffering. Not that suffering will disappear, not that there will not be any pain or cancer, they will be there but you will not be identified with them. You will be just a watcher. And if you can watch your own body as if it is somebody else's body, you have attained something of tremendous importance. Your life has not been in vain. You have learned the lesson, the greatest lesson that is possible for any human being.

My own approach is that meditation should be a compulsory thing for every student, for every retired person. There should be universities and colleges available to teach meditation. Every hospital should have a section specially for those who are going to die. Before they die they must be able to learn meditation. Then millions of people can die with laughter on their faces, with joy. Then death is simply freedom, freedom from the cage you have been calling your body. You are not the body.

That's what your sister understood at the last moment. And she must have smiled at her own misunderstanding, and she must have smiled that she resisted death. She must have smiled that she was not willing to learn meditation. Her smile contains many strains, and I can understand that you have been puzzled.

Do not forget it. Her smile may become a tremendously meaningful experience for you. She has given you a gift, an invaluable gift. She could not say a single word, there was not enough time, but her smile has said everything.

Okay, Maneesha?

Yes, Beloved Master.

Om Shantih Shantih Shantih
Chapter #24
Chapter title: A great waiting... a great longing for the unknown
15 March 1988 pm in Gautam the Buddha Auditorium

इसी पोस्ट पे  एक मित्र ने  मुझसे  सवाल किया  मेरे इस कमेंट पे

Lata Tewari very deep ... hmmm , understand !

Guru Chela dear lata ji,what deep did you understand can u please tell ?      

क्या कहु ! इस जवाब में ? क्या कहना चाहिए ? जो मैंने पढ़ा वो सबने पढ़ा , पर जो मुझे महसूस हुआ  वो शायद सबको नहीं हुआ , अवश्य ही अलग अलग  मस्तिष्क से  पढ़े गए इस लेख को अलग अलग  ही समझा गया होगा।  ठीक वैसे ही , जैसे  ये कहे  गये  या कहूँगी  दोहराये गए , सालों पहले  किसी सभा में   जीवित  किसी सदगरु  ने कहे थे। और उस वख्त भी हजारों की भीड़ मौजूद होगी।  सिर्फ मंडप में नहीं , उनके कहे  एक एक शब्द  ग्रन्थ का रूप ले लेते थे , जिनको  लाखों लोगो तक  पहुँचाया जाता था।  आज भी  बदस्तूर  प्रचार प्रसार का काम  हो रहा है। भव्य  रूप था , लोगो पे कही बात का जादू सा असर होता था।  आज भी वो  ही असर पढ़ के होता है।  पर हर एक पे एक सा असर न तब होता था न आज  होता है, तब भी  न तब लोग पूरा सुन के ग्रहण करते थे न ही आज पढ़ के और सुन के ग्रहण  करते है। आधा समझे जाने के कारण अधूरे मन का अधूरा  सी जिज्ञासा से भरा ऐसा सवाल जेहन में  उपजता है।

संवेदनशील विषय है , जिसमे  उतरा ही तभी जा सकता है  जब चरित्र में उत्तर जाये। मृत्यु का ध्यान करना है तो मृत्यु में उतरना पड़ेगा।  बिना स्वयं के उतरे  मृत्यु ध्यान पूरा नहीं होगा। यानि मरना पड़ेगा , यहाँ भी यदि  मीरा की बहन की मुस्कराहट को समझना है तो मीरा  की बहन  के चरित्र में जाना पड़ेगा , उसकी पीडाओ को ओढ़ना पड़ेगा , उसके दर्द  को अपनी नसों में उतारना होगा , उसके जीवन मृत्यु  के संघर्ष जीना पड़ेगा।  कैसे कैसे  करके  उसकी गहन पीड़ा  में मीरा ने उसको  भावनात्मक और  शरीरी तौर पे संभाला। इस कैंसर के मर्ज में जबकि मरीज जान रहा है, असह्य  दर्द के साथ मरीज को पता है  की वो एक एक कदम साँसे खो रहा है। उसकी जीवन की इक्छा  बढ़ती जाती है , दर्द असहनीय है। परिवार के लोग प्रयासरत है। दुखी है।  इस सब भावो को जीते हुए। अचानक ऐसा कौन सा भाव जगता है , जो आखरी सांस लेते  वख्त मीरा की बहन  मुस्कराई  और मृत्यु की  गोद में चली गयी।

मित्रों , ये किसी फिल्म का अभिनय नहीं , जीवन की सच्चाई है। किसी के जीवन पे बीती है, मैंने भी देखा है मेरे अपने ही आस पास  , इसका दर्द  महसुस  किया है।   और जब ध्यान किया , तो मैं स्वयं  , पहले मीरा  को और फिर बाद में मीरा की बहन को जिया। किसी गहरे अभिनय से कम नहीं , किसी चरित्र में उतरना , संभवतः  कलाकार भी  गहरी अनुभूति के साथ ही  चरित्र को जी पाते है , और ध्यान की गहरी अवस्था में उतरने के बाद जाके  उस दोनों तरफ की पीड़ा , चिंता , लाचारीयुक्त  निरर्थक सा थका देने वाला श्रम फिर भी ;  प्रयासरत उम्मीद  का गहन अनुभव हुआ , पर अब उस गहनतम  भाव को कहने के लिए शब्द नहीं बचे। फिर भी  प्रयास करती हु , शायद  किसी के ह्रदय में प्रवेश कर सके।

आपके भी आस पास  मृत्यु रोज ही घट रही है , अलग अलग रूप धारण करके  मृत्यु  घटना को अंजाम देती है , पर कैंसर  आजकल बहुत  आम हो गया है ,कष्टों में कमी नहीं , हर  पीड़ित  उतने ही दर्द से गुजरता है और उसके  परिवार के लोग  भी।  ये मर्ज ऐसा है जो प्रियजन को तो ले ही जाता है साथ में  उस परिवार को भी मानसिक और आर्थिक रूप से तोड़ जाता है।

अभी  आधारहीन पर जीवन का आधार इस अर्थ (सम्पदा ) का जिक्र  क्या करे  जहाँ मृत्यु के गहन अनुभव की चर्चा हो रही हो ------

एक असंतुष्ट  जीवन की लालसा  , एक एक सांस के लिए  तड़पते जीव को कैसा लगता होगा जब उसको पल पल ये अहसास हो की  एक एक सांस  गिनती की है  जो उलटी गिनती गिन रही है। जो पुसके अपने खड़े है , धुंधला रहे है , उनके शब्द  धीमे पड़ते जा रहे है।  मैंने देखा है  ऐसे  जीव को , जो उस वख्त सिर्फ मौन आंसू बहते है , बोल नहीं सकते  पर कहना चाहते है , बात करना चाहते है , पर जिव्हा ने दो कारणों से साथ छोड़ दिया  एक कमजोरी  और दूसरी  उखड़ती हुई आधी आधी  साँसे ,  बेचैन है  क्यूंकि बहुत कुछ कहने को है , पर वख्त ने साथ छोड़ दिया , अपनी बात पहुंचा नहीं पा  रहे पर आखो के कोरो से  आंसू बह रहे है …उनको ही इस अवस्था  में भी अत्यंत  लाचारी  और असमर्थता  के गहन भाव तले शांत होते भी देखा है, और फिर गहन पीड़ा के साथ  सिर्फ मुस्कराहट की हलकी सी लकीर , क्यूंकि शरीर में सामर्थ्य ही नहीं बची  अब तो जाने  की सारी  तैयारी पूरी हो चली , बस ये सांस  आखिरी  की … वो एक और । विश्वास कीजिये अंतिम श्वांस का कोई साथी नहीं ,सिवाय  स्वयं के और ये समझना ही पड़ता है। मृत्यु की छलांग स्वयं की है और अकेले की। उसके आगे  कोई नहीं जा सकता। स्वयं  आपको भी  सब कुछ छोड़ के ये छलांग लगानी है।

पर अवश्य ही चेतना  यदि इस अवस्था में भी जागृत हो जाये , यदि  शरीर की जीवन की इक्छा  और मृत्यु के बीच साक्षी भाव घर कर जाये , और  ये स्वीकार भाव आ जाये , की जो परम की इक्छा  वो सजह स्वीकार है , और मृत्यु भी  समर्पण के साथ  आभार के साथ स्वीकार हो।

कठिन है , पर असंभव नहीं !  यदि ये चेतना जागृत  हो जाये , तो  मोह भंग  होता है , मोह भंग  होते ही संघर्ष और जीवन  के प्रति लिप्सा  भी शांत होती है।  लिप्सा शांत होते ही , ऐसे मरीज को  मृत्यु  से पहले मृत्यु ध्यान में उतरना  , सहज होने लगता है।  और निश्चित ही ऐसी मृत्यु   उस जीव के लिए  सुखद बनती है।  शारीरिक कष्ट  सहते हुए भी , चेहरे पे मुस्कान आ सकती है। वो मुस्कान  , असीम असह्य वेदना  की, या संघर्ष के आगे समर्पण की , या लाचारी की अंतिम सीमा की या  फिर  ईश्वर की सत्ता  शक्ति  और करुणा के आगे  समर्पण  की  , जीव की  अब तक की यात्रा  आत्मिक विकास की या  जो अंत समय पे  गुरु / ईश्वर  चेतना  को  समझा गया ,  जो भी हो  पर स्वयं की  सामर्थ्य की  अंतिम सीमा का भी मौन  इशारा करती है।

इस ध्यान ज्ञान को जाने वाले जीव पे  लिए  उपकार  के समान  ही  समझा जाये , ठीक वैसे ही  जैसे किसी अंतिम सांस लेने वाले को  गीता  का तेहरवां  अध्यायः  सुनाया जाए ,गरुण पुराण  या कुरआन की आयतें और बाइबिल के वर्सेज पढें  जाए।

इन सबका  मात्र उद्देश्य यही है की जाने वाला  पूर्ण रूप से   तैयार हो जाये ,  और जो भी हो रहा है  उसको सहज  समर्पण के साथ स्वीकार करे।

सारा जीवन  जिसने जैसे जिया है , अंतिम समय भी वो ही भाव  हावी रहता है , जैसे  गीता  पे आस्था रखने वाला गीता सुन के  शांति से अंतिम सांस  लेता है ,  कुरान पे आस्था रखने वाला , आयतें सुन शांत होता है , इसी प्रकार  अध्यात्म  पे आस्था रखने वाला , इस ध्यान और आध्यामिक  संवाद  सुन के शांत होता है।

मृत्यु ध्यान से  गहरा  कोई और ध्यान है ही नहीं ,

मात्र एक ध्यान  जो  सशक्त  सबल  स्थिर  और  आभार  ,करुणा , समर्पण एक साथ उत्पन्न करता है , स्वयं की स्थिति का पल में आभास  होता है। शायद इस ध्यान को सफलता पूर्वक करने के बाद  फिर कोई गलतफहमी जैस अवस्था ही नहीं बचती।



हमारा  तथा आपका  और जो भी इसको पढ़े , सभी का  नैतिक दायित्व है , जाते हुए जीव की आस्था के अनुसार उसे शांत करें , उसकी मृत्यु को आसान बनाये। इससे बड़ा  उपकार जीव के ऊपर हो नहीं सकता की आप उसकी मृत्यु को आसान बना दे।  शायद  आपक छोटा सा कृत्य  उसको  इस जीवन- चक्र संताप से मुक्त कर सके।

शुभकामनाये !! 

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