Tuesday 15 July 2014

जन्म और मृत्यु : परिधि के गुणात्मक घेरे

कुछ समय से , ऐसे वक्तव्य से सामना हो रहा है , की बुद्धि से यकीं करना कठिन है , पर शक्ति सीमित है और अनुभव  में  विभिन्नता है , यानि की अपने अपने प्रारब्ध के अनुसार अपने अपने अनुभव का संकलन होता चलता है........वस्तुतः  इस गूढ़  विषय को जानने  समझने  के लिए शब्द समर्थ नहीं  मौन में ही उत्तर मिलता है।  परमात्मा के आशीर्वाद से  फिर भी प्रयास  करती हूँ .... 


हम तो बहुत छोटी इकाई है , यद्यपि  परमात्मा के  तेज से  प्रकाशित है , फिर भी , सीमित है  शरीर बुद्धि और मन से भी।

दो वाक्य है , जिन्होंने कुछ सोचने पे मजबूर किया , थोड़ा समीकरण में संयोजित करने की चेष्टा , तर्क पे कितना सही है , मुझे नहीं पता , पर  परमात्मा के रास्ते  सब सही है , कुछ भी हो सकता है।

संवेदनशील  विषय है , जन्म और मृत्यु से  जुड़ा हुआ , परमात्मा  से प्रार्थना  है की इस विचार को भी उचित दिशा ज्ञान दें , और आपके सबके सामने जो भी वो लिखवा रहे है वो स्पष्ट हो के पहुंचे।

दो वक्तव्य  एक अघोरी सन्यासी जो  साधना में लिप्त है  ऐसी  ऊर्जा  के है  जो स्वयं को शिव का पुत्र  भी कहते  है , (  ऐसा  मानना  या के न  मानना  व्यक्तिगत है ) तर्क  में देखें तो सभी उसी की संतान है  , परन्तु एक और पहलु है  वो है आत्मा की गुणात्मक पात्रता और उस की गति का , गति यानि  प्रारब्ध और परिधि दोनों  ही सन्दर्भ में।

पहला है :  
" Shivputra Chaitanya shared his status update.
14 July at 08:16 AM
जरासंध मृत्यु को प्राप्त हुआ।

द्वापर युग में श्रीकृष्ण के मामा राजा कंश का स्वसुर जरासंध इस बार के जीवन में अपनी मृत्यु को प्राप्त हुआ।

आज से लगभग 17-18 दिन पूर्व उसकी मृत्यु हृदय गति रूक जाने से हुई।

उसने इस बार लगभग 50 वर्ष का जीवन जीया।
उसके परिवार में पत्नी तथा एक बेटी है।

''Aghor Shivputra''
------------------------------------------------------------------------------------------------------------ जिज्ञासा के उत्तर में उन्होंने कहा "

Shivputra चैतन्य : Umesha Kant Guruvar ji Sadar Pranaam ! Jarasnadh ki Mukti to nhi hogi phir Janma lega !
14 July at 08:58 AM · Like · 1

Shivputra चैतन्य : khus rahiye ..Umesha Kant ji........Han, nhin, milega Mukti,... usse Manw Janm ka adhikar chhin liya gaya hai....anya ninm yoniyon me janm lena hoga.

दूसरा   है :

Shivputra Chaitanya shared his status update.
Yesterday at 07:50 AM
श्रीकृष्ण की जन्मदायिनी माता देवकी की इस जन्म के पति का देहांत

माता देवकी को पति शोक प्राप्त हुआ।

द्वापर युग में श्रीकृष्ण की जन्मदायिनी माता देवकी की इस जन्म के पति का देहांत पिछले दिनों तारीख 30 Jun 2014 की मध्य रात्रि में हो गया।

''Aghor Shivputra''

जिज्ञासा :
Niraj Yadav : nahi par aap kese nischit ho? ke wo janm le hi rahe he?

Anita अग्रहरि : Wahi to hm janna chahte h plz meri zigyasa shant kre....maa devki bhagwan krishna k maa thi wo ab tk mukt nhi ho payi? Ab tk unka jnm ho rha h? Phir hm sadharn log kaise mukt ho skte h?


उत्तर में उन्होंने कहा :
Shivputra Chaitanya : Anita Agrahari ji, Niraj Yadav ji, Un sabhi ne Us janm ke pahle bhi mere hi sane apna jiwan jiya..
us Janm me bhi unhe jite huye dekha, or aaj bhi mere charo taraf unhen jiwan jite huye dekh rha hoo....
badi lambi kahani hai jiwan ki esiliye Jan raha hoo.

Kya kisi Pradhan Mantri ki MaTa-Pita bhi Pradhan Mantri ka adhikar prapt kar lete hain.....?
Jabki unhone hi Pradhan mantri ko janm Diya hota hai.


Niraj Yadav shivputra chaitanya, ji nahi ye bilkul jaruri nahi ki jo hum dekh rahe he usse aage koi n adekh paye.....bade bade gyani he iss bharat varsh me....par wo log kabhi bhi aese gudh rahashy ko bahar nahi laate.........

उपर्युक्त  पहले पढ़ने पर दो भविष्यवाणी सी लगती है।  उत्तर  से मैं संतुष्ट नहीं हुई थी  , देने वाले ने आधा उत्तर दिया , पर उस उच्च स्थति में शायद आत्मा के शब्द खो जाते है , जो जितना  वो जान रहे है  उतना कह नहीं पाते , और नतीजा  आधे आधे शब्दों से  ज्ञान की प्यास से आतुर  विव्हल  लोग  अपना अपना मत बनाते है और कहानी  अलग अलग मस्तिष्क में अलग अलग सारांश के साथ छपती जाती है।  यही कारन है की  धर्म और शास्त्र  समझे नहीं जा सके।  व्याख्याएं  कठिन होती चली गयी।

चलिए  आपसे  अपना ध्यान और मत   बांटती  हूँ ,  यहाँ पर  मुझे सोचने केलिए  एक नया ही समीकरण मिला , शायद आपको  कुछ  संकेत मिल सके -

****
                               हर जीव का  बार बार  जन्म और मृत्यु  सुनिश्चितत है।   यानि की  जो मेरा पहले  अनुभव था वो ही और अधिक  स्पष्ट हुआ। कार्मिक   गुणवत्ता के अनुसार  परिधि  का निर्धारण  सुनिश्चित है और परिधि  के सुनिश्चित होते ही  जन्म का काल और अवधि निश्चित हो जाती है।   और इस गुणवत्ता के नियम में स्वयं परमात्मा भी है।

****
                             गर्भ का निर्धारण  जीव के प्रारब्ध से निश्चित  है।  जिसमे कहीं भी  ईश्वर नाम की कोई लौकिक  सत्ता का विशेष प्रयोजन नहीं।  क्यूंकि परम  स्वयं अपने ही गुणों से चलित है  चूँकि वो स्वयं प्रकति और पुरुष का समग्र रूप है।   जिस प्रकार हर जीव  प्राकर्तिक गुणों से चालित है क्यूंकि  इस सिमित जीव ऊर्जा में  ऊर्जा  और तत्व  दोनों उधार के है , न तो जीव स्वयं में स्वतंत्र है  न ही प्रकति के तत्व को धारण करने की क्षमता रखता है।  इस तरह न तो जीव  की ऊर्जा स्वयं से प्रज्वलित है  न ही पांच तत्व  उसके अनुसार है। सारांश रूप में सब कुछ उधार का है। और किराये की कोठरी है , परिधि बाधित ऊर्जा ।

****
                             चूँकि   आत्माए  ऊर्जा रूप में है  तो संभव है  पृथ्वी पे बार बार  प्रस्फुटन , कार्मिक बंध के अनुसार  गर्भ का निर्धारण।  बहुत से लोग तर्क देते है  की यदि आत्माओं की  गिनती है  तो असंख्य जनसँख्या और प्रकति में अन्य जीव  कैसे  बढ़ते जा रहे है।   उचित  है बौद्धिक तर्क है  ,  उत्तर मेरे पास  सिर्फ इतना है की , ऊर्जा का स्रोत  असीमित है (अभी तक उसकी सीमा नहीं मिली ) जहाँ से ऊर्जा प्रस्फुटित हो रही है  और जीवन में परिवर्तित हो रही है।  सवाल  तो इसके बाद भी आपके और मेरे मन में उभर रहे है  जैसे -
तो कार्मिक बंधन  क्या  ?
तो क्या हर जीव का  अपना कर्म खाता  नया बनता जाता है ?
तो क्या  हर जीव के कर्म खाते के निर्धारण और फल के लिए  वहां भी कोई सरकार है ?  आदि  आदि , जो किसी भी साधारण उत्सुक के मन में आ सकते है।
उत्तर  जो मुझे  समझ आरहा है  वो ये की  ये विशाल आकाश गंगाये  जो  नियमित होके गतिरत है   एक मुख्य नियम  जो  विभाजित होक स्वयं  के नियम के संचालित  होने लगता है , उदाहरण के लिए , जीवन की   छोटी इकाई को लेते है , हम  अपना जीवन  प्रारब्ध से पाते है  पर जीवन का  बहाव  प्रकति से नियमित है , घटनाये स्वभाव  और  तदनुसार भाग्य   तारागण के चुंबकत्व से  बाधित है जिनके अपने  गति के नियम है , तारागण के जन्म और मृतुय के बीच  उनकी गति तो नियमित   है पर संख्या निश्चित नहीं  वो उनका प्रस्फुटन है।   इसी प्रकार जैसे हम संचालित है , बहाव  में है  ऐसे ही समस्त चेतना  संचालित है और बहाव में है।   तो जीवों की संख्या   कोई गिनती रूप में निश्चित नहीं  ये तो प्रस्फुटन है।   दूसरा नियम घेरे  का परिधि  का  जो जन्म के साथ ही  चलने लगता है  वो है कार्मिक बंध  का ,  इसको   जानना ही इसको काटना है , पर  इस धोके में मत रहना की  की जन्म मृत्यु के घेरे से  बाहर है। कार्मिक गुणवत्ता से   सिर्फ परिधि से और परिधि के लिए निश्चित काल से  बाहर  होते है , यानी जन्म  के दायित्व ( स्वभावगत ) और  काल में ( अंतराल ) में अंतर आता है ,  साथ ही  ऊर्जा की गुणवत्ता अनुसार  उसको  जन्म के दायित्व भी  जाने अनजाने उठाने पड़ते है।   जैसे  उदाहरण दूँ  बुद्ध के ,दायित्व , जाने अनजाने  उनकी गति उनको  उसी तरफ खींच के ले गयी  वो  स्वयं अपने  ज्ञान और अनुभव  से अपने दायित्व को जान सके , फलस्वरूप कार्मिक  और  प्रारब्ध के प्रवाह में स्वयं को  समर्पित कर दिया।  इसी प्रकार असंख्य नाम है  जो  ज्ञान को उपलब्ध हुए  और जिन्होंने स्वयं को  जन्म के दायित्व के अनुसार जीवन यापन किया।   वो उनकी आत्मिक गुणवत्ता थी।   वो उनकी परिधि और काल  है जिसके अंतर्गत वो जन्म ले रहे है।  और  ध्यान देने वाली  बात  है   की  कोई विशेष अदालत नहीं , कोई न्यायाधीश  नहीं , कोई वकील नहीं  कोई मुजरिम भी नहीं बस कर्म बंध है , और उसी से बंधे  प्रवाह  है  उसी से संचालित  जीवन के उद्देश्य।  सब कुछ एक विशेष  चुंबकीय  प्रभाव से संचालित है। भोग  के अनुभव का जीव से  ज्यादा सम्बन्ध नहीं  क्यूंकि वो   जो भी अनुभव है  वो शरीर के  है , भावनाएं   भाव  मस्तिष्क की उपज है पर इत्र रूप में  प्रभाव  जीव को सहना पड़ता है कर्म बंध-भाग्य बंध- प्रारब्ध बंध में लेख  में इसी विषय को विस्तार से देखा है।  

****
                               तो  निष्कर्ष  ये की  नाम में  यदि न उलझे  तो जीव के जन्म संभव है , और तदुनसर  मृत्यु  भी।   और   जीवन के उद्देेश्य  भी  आत्मा की गुणवत्ता अनुसार  हो जाते है। अपने ही उद्देश्य को   पहचान पाना  सामान्य  जीव  के लिए संभव नहीं  तो  उच्च कोटि के जीव के उद्देशय  को जन्म के साथ पहचान पाना असंभव है।   पर उनकी दृष्टि और बुद्धि में  संग्रहण की क्षमता  अधिक होती है , जो रहस्य हमारे लिए है  वो उनके लिए खुली किताब है , कोई रहस्य है ही नहीं , सिर्फ ज्ञात  है। इसमें  उनका भी विशेष प्रयास नहीं  बस गुणवत्ता है  और जन्मो की  या फिर जन्म की   प्रारब्ध की यात्रा है।   नाम बदलते है , शरीर बदलते है , जीव नहीं  और जीव के संचित प्रारब्ध नहीं बदलते।   तो संभव है  की   परमात्मा , देव  और दानव जन्म ले रहे है , समाप्त नहीं हुए , क्यूंकि उए  ऊर्जा की गुणवत्ता है  इसलिए  विभाजित है , और अपनी  धुरी पे अपनी ही पारधी पे चक्कर काट रहे है।  संभव है।

****
                                जिज्ञासा  एक और है , तो  पुराण और शास्त्र  में वर्णित  विभिन्न  धर्म युद्ध , राक्षसो के मर्दन  और विजय गाथा  का  क्या अर्थ ?
१-   सामान्य समाज में नियम की  दुष्ट का वध  होना ही है ,
२-  अच्छे और बुरे के ज्ञान से  आत्मा अपना मार्ग देख सकती है
                              इस काल की गति को समझे तो परमात्मा   देव-देवी और दुष्ट  का जन्म  औचित्य  और मृत्यु  अनत प्रक्रिया है ,  सिर्फ काल  से बंधी है।  हमको दिखे ये अलग है पर  किसी का कोई  विशेष उद्देश्य स्वयं में नहीं , कहीं कोई जादू नहीं , जादुई शक्तियां  जिनको हम  लौकिक प्रार्थना में इस्तेमाल  करने लगते है, उच्छ्तम् ऊर्जा के रूप में देवी देवता  वास्तव में  अपने ही प्रारब्ध बंध और  उद्देश्य से  जन्म लेती है। धर्म पुराणो में भी कई कई जगह  इसी भाव को सुनिश्चित  तौर पे स्पष्ट करने की मुनियों ने प्रयास किया है। पूज्यनीय इसलिए क्यूंकि ऊर्जा रूप में  ज्यादा  प्रखर है।  समझने की आवश्यकता ये है की , प्रार्थनाएं तो तो ठीक है , पर प्रार्थना का स्वरुप हमारा क्या है ? बहुत ही छोटे स्तर पे , अपने ही स्वार्थ के इर्द गिर्द घूमती है हमारी प्रार्थनाएं।  जो कभी प्रारब्ध से फलित  होती है  तो कभी भाग्य  से। देवी देवता का विशेष योगदान होता भी नहीं।  पर हम मूर्ख अपनी हार का और जीत का ठीकरा  उन्ही को सौंपते  है  , और   सुख के समय  एक बारी ये काम न भी आये पर दुःख के समय  अपना बोझ  उन्नत आत्माओ पे जरूर  डाल के हलके हो जाते है , पर इससे   बड़ा नुक्सान हमारा ही है , अपनी ही यात्रा में बाधक बनते है।

****
                            इसीलिए  संभवतः  अच्छे बुरे  जैसे भी  प्रारब्ध से निर्देशित  भोग को सहनशीलता से भोगने का सुझाव दिया जाता है , और प्रार्थना स्वरुप  समस्त जीव के कल्याण की  प्रार्थना पर बल दिया जाता है।  समस्त जीवो के प्रति दया भाव की सलाह दी जाती है क्यूंकि सभी अपनी गति में है ,  राक्षसीया  तथा  दैवीय  गुण  प्रवत्ति के रूप में देखे जाने चाहिए , शरीर  से बांधने का इनका कोई औचित्य नहीं।  मूर्खता से भरा काम  है।

इस लेख  को यदि सार रूप में दोहराये

१- जीव  की संख्या  और सीमा   अनिशिचित है।

२- परमात्मा  से  लेकर  आत्मा का ऊर्जा प्रस्फुटन  सामायिक , प्रारब्ध और परिधि के  गुणात्मक  घेरे में है।

३-  सभी उर्जाये  अपनी अपनी परिधि  में  अपने अपने कर्मबन्ध से  बंधी है। उच्च  ऊर्जा  अपनी क्षमता नुसार गर्भ का चयन करती है ,  पर उद्देश्य  पूर्व प्रारब्ध से बंधे है , वो चयनित नहीं।

४- कोई एक  कहीं  बैठा नहीं  जो कटपुतली की डोर संभल रहा है , उसकी ऊर्जा  व्याप्त  है  समग्र है।  काल और परिधि  के अनुसार    जन्म  के कारन बनते है।  और परमात्मा समेत  समस्त जगत स्वकारण से प्राकृतिक रूप से नियम संचलित  है।  सबकी परिधि  सबके घेरे  सबके कार्मिक बंध  भाग्य बंध  और तदनुसार प्रारब्ध बंध।  योग्यता और कल अनुसार जन्म  का  और गर्भ का निर्धारण।  और यही अनंत चक्र है  ब्रह्मा के दिन ब्रह्मा की रात।

५- प्रार्थना  सूक्ष्म  से उठ कर विस्तृत  समस्त  कल्याण  के लिए  होना ही उचित है।  देवी देवता से ज्यादा  प्रारब्ध  और  भाग्य  मिल के फलित होते है।  प्रार्थनाएं  आपकी अपनी ऊर्जा की क्षमता को बढाती है यानि अधिक ऊर्जावान करती है।

६- अच्छे बुरे  जैसे भी  प्रारब्ध से निर्देशित  भोग को सहनशीलता से भोगने का सुझाव दिया जाता है।   और अपनी  जीवन ऊर्जा को गुणवान  बनाना है , मोक्ष की कामना से नहीं , वरन गुणवत्ता  के उन्नत स्तर  को पाने के लिए।   जन्म मृत्यु के घेरे से बाहर  आने के लिए नहीं।  वरन  कार्मिक और प्रारब्ध  में सुधार  लाने के लिए।

७-  सिर्फ इसी भाव से   परिधि  का स्तर  उन्नत हो सकता है , और अंत में  परम की ऊर्जा के साथ मिल सकता है।  और तब  ईश्वर  के और आपके बंध  मिल जाते है , आपके अनुभव  आपके नहीं  रह जाते , ऊर्जा परमऊर्जा के संग  एकलय  हो जाती है।  ( सम्पूर्ण गति  आपकी  इक्षाशक्ति  जिज्ञासा , संदेह की सत्यता और आपके प्रारब्ध  पे निर्भर करती है )

संभवतः  यदि  ये जटिल विषय  समझने में  और  समझाने  में मुझे  किंचित भी सफलता मिली हो  तो परमात्मा का परम आभार )

जीवन  यात्रा शुभकामनायें

प्रणाम  

No comments:

Post a Comment