Wednesday 29 January 2014

एक ही धागे के दो छोर :आध्यात्मिकता और धार्मिकता - Note






 से शुरुआत करते है प्रयास की  ,
से आशीर्वाद के बाद  अपनी तरंगो कि यात्रा की शुरुआत करते है 



अध्यात्म  अध्यात्मिक  आध्यात्मिकता ... धर्म के सन्दर्भ में  या के  धर्म धार्मिक और धार्मिकता ..  अध्यात्म के सन्दर्भ में , एक ही धागे के दो छोर , जितना दूर छोर यानि की  विपरीत दिशा में किनारों की  तरफ खींचे होते , उतने विपरीत से लगते  और जितने  मध्य में आ जाते  एक से लगने लगते।  

किसी यदि समझाना हो  तो  शब्दो में समेटना  अति कठिन है  इस विषय को , तर्क करे तो अभी भी जारी है  जन समुदाय में,

पर ह्रदय से यात्रा करे  तो बस एक तरंग जिसने आपको जैसे ही   छुआ  और आप  तरंगित हो गए , एक भीनी सी खुशबु  जैसे ही आपके पास से गुजरी आपका रोम रोम सुगंध से भर गया बस या के मय का सिर्फ एक घूँट  और सुरूर ऐसा कि  जिसको बयां करना  असम्भव है , ये तो  रूमी  खयाम  ग़ालिब  ही बता सकते  है  या फिर वो जिन्होंने वो हद देख ली।  । 



तो मेरा यहाँ   प्रयास है तरंग को  उचित  वातावरण में तरंगित करने का , आखिर  सब कायनात और इसका कोई भी सूत्र एक धागे से से जुड़े से है .... जो भी है ; उसकी ही झलक दिखता है ब कि धर्म और धार्मिकता  (समस्त  सम्प्रदाय ) , अध्यात्म और आध्यात्मिकता (समस्त  धाराएं ) कटरवादी और  निहायत ही विरोधी  दिखायी देते है   एक दूसरे के।    

वो ही परम  का लक्ष्य  अपने मस्तिष्क  और ह्रदय कमान पे निशाना साधे दोनों  प्रयास रत।  हठ,  भक्ति और साधना  दोनों के पास है (इनके  सांत्वना के लिए हम योग साथ में जोड़ देते है यानीकि  हठ योग  भक्ति योग और  साधना योग )  यहाँ  हम प्रेम भाव  की कमी पाते है उस प्रेम कि जो तरंगित होता है  और सीधा  परम से जुड़ता है , हाँ  यदि  अस्तित्व है तो प्रेम योग का   वो दोनों के पास होता है।  पर  परम का ह्रदय तो भाव से भरा है ,  योग के साथ वो भी परम योगी  है।   दोनों ही चाहे कितने  ही विदवता के तर्क दे, पर  दोनों ही द्वैत्व भाव से बंधे  होते है  .  

साधारण सी बात है , जो आत्माएं  शरीर के सहयोग से  किसी की  भी  साधना में रत है  अवश्य ही  किसी उद्देश्य के लिए है !  अपने लिए तो फिर साधना गिर गयी , योग महत्वहीन हो गया।  यदि स्व  के लिए है उस  परम के लिए है तो उद्देश्य सांसारिक न रह गया , पाना खोने का गणित समाप्त हुआ , पूर्ण सपर्पण हुआ , बात समाप्त हो गयी , क्रिया  ख़त्म  .. अब भाव का कार्य  भाव करेगा।  मस्तिष्क  लुप्त हुआ  तर्क गिर गए।  

कल ही  जग्गी वासुदेव कि  कुछ महत्वपूर्ण पंक्तिया पढ़ी " “There is something called ‘love’, and there is something called ‘attachment.’ What people call ‘love’ is just a way of binding themselves to somebody, getting identified with somebody, but this is not love—this is attachment.” सद्गुरु  जग्गी  वासुदेव।  

अति साधारण सरल  अर्थ में  , प्रेम और जुड़ाव के बीच का भेद  है इन पंक्तियों में , जो आपको बांध ले   वो प्रेम  होता नहीं दिखता सा लगता है , चाहे फिर वो ईश्वर  अल्लाह या फिर  गॉड क्यूँ न हो  .  सीमाये  बीच में आयी और प्रेम छू  हो  गया। आप जान भी नहीं पाएंगे।   

यहाँ यदि  गौर से देखें (बारीक़ काम है जरा भी ध्यान भटका तो अंतर पाना आसान न होगा )  असली रहस्य  ये कि प्रेम जो उत्पन्न हुआ है वो  भाव से है कि योग से , योग से उत्पन्न है तो शिव  (परम ) सदृश योगी कोई नहीं , और यदि भाव है तो उस जैसा प्रेमी कोई नहीं ( उसने अपना कृष्ण रूप अति प्रेमियों को दिया  और राम रूप  कर्तव्यनिष्ठा को) ये तो समझने समझने कि बात हो गयी , नाम से क्या काम   हमको  किस ब्रांड की है  कितने  दाम की है  इस चक्कर में तो  दिमाग वाले पड़ते है इस मधुशाला में  नाम और दाम नहीं , सिर्फ भाव मिलेगा।  भाव से भर के  आओ और पाओ और भरपूर पाओ।   और फिर ज्यादा पियो  और थोड़ी पिलाओ।  

दास  भाव भी एक यदि योग है यानि कि  क्रिया है  तो  हाथ के रूप में  लक्षित  होती है , वैसे भी  दास कि भक्ति भी हाथ में बदलते देखी गयी है।  यहाँ सिर्फ  ये कहना  है  कि " मान  लेते है कि  दासत्व  एक योग नहीं   भाव है  किसी किसी  का; ऐसे अपवाद समाज में मिलते  है।   किन्तु यह  बात ध्यान देने की है , दास के लिए  स्वामी  के   ह्रदय की यात्रा    अति दुर्गम है , क्यूंकि न तो उसकी दृष्टि है  और न ही भाव  जो स्वामी के ह्रदय तक जासके , जा ही नहीं सकता  कोई मार्ग नहीं।  



ह्रदय का रास्ता सिर्फ  मित्र  के लिए  खुलता है  सीधा ..... प्रेमी के लिए खुलता है  सीधा।  ये हाथ जोड़ के आँखे बंद करके सिर्फ स्वामी का आदेश नहीं मानते  , मित्र बनके  स्वामी को सलाह भी देते है  और प्रेमी बन के   प्रेमी के एक एक कदम का साहचर्य सुख भी पाते है।  



अपने द्वैत्व भाव में  ये शरीर और ये आत्मा , अपने परम से  समागित होती है , अध्यात्म में  भी और  धर्म में भी।   रास्ते कई है  … पर भाव एक ही है,' परम  समागम का '। यहाँ  हम भाव रूप  देखेंगे   यदि  दासत्व है  . परम का स्वामी रूप है , यदि  मित्र  रूप है  तो  परम जैसा मित्र  कोई नहीं , और यदि प्रेमी भाव है  तो उस जैसा प्रेमी दूजा नहीं। 



आप उसको जिस रूप में चाहेंगे पाएंगे।  साकार  या के  निराकार  कोई भी नाम कोई भी शब्द  वह काम नहीं आता , क्युंकि वह  ये भाषा काम नहीं करती , फिर  चाहे वो  अरबी  हो या अंग्रेजी  या फिर संस्कृत  (देववाणी ) ही क्यूँ न हो।  किसी भरम में मत पड़ना , वो किसी शब्द का मोहताज नहीं , किसी भाषा में बंधा नहीं , या किसी क्षेत्र तक सीमित नहीं ।




यही पे  अध्यात्म और धर्म  द्वैतव है ,यानिकि  एक कट्टर  धार्मिक  तो प्रचलित द्वैतवाद में है क्यूंकि मूर्ति को माध्यम बनाया  है।   एक कट्टर  अध्यात्मिक भी द्वैतवाद में ही है क्यूंकि उसने भी ह्रदय को माध्यम बनाया ।  जरा और महीन बुनावट तक जाए , तो आप पायंगे  कि  इन दोनों में प्रेम योग तो है प्रेम भाव का संतुलन नहीं है।  यानि कि हठी दोनों है , इस प्रेमहठ-योग का प्रतिफल प्रेमहठ-योग के रूप में मिले  तो समझ लेना  तुमको तुम्हारे अपने ह्रदय  के भाव-तार  ही  सन्देश देंगे।  



एक और  अध्यात्म का पुष्प  है  वो है कमल  का  जो सस्त्राधार  में खिलता है और जिसका प्रकाश आपके  ह्रदय तक जाता है।  सरल भाषा में  आपके मस्तिष्क से तरंगित हो के  आपके  ह्रदय को यानि की भाव को  प्रकाशित करता है।  वो है  समर्पण मित्रवत  प्रेमी सदृश , ध्यान रहे दासवत नहीं ।  


ये पुष्प सिर्फ उस भाव से खिलता है  जब आपकी और उसकी  तरंगो से मेल होता है , अति सरल  अति कोमल  अति शुध्हतम (इसके आगे शब्द  नहीं है ) भाव से भाव का।  

निष्कर्ष ये कि  जो जरा भी ... अंश मात्र  भी  निचले तल है ,  वो कट्टरवाद में उलझे है  , कर्मकांड में उलझे है  या फिर  ध्यान से योग मुद्रा  से  युध्ह  कर रहे है  , इनके भी ऊपर  परम का  केंद्र  है  जिसका नाम  योगियों ने  सस्त्राधार दिया है  , जहाँ पे कमल के ऊपर  स्वयं शिव अपने सम्पूर्ण स्वरुप में  विराजमान है।



(ये भी शब्दो में बांधने जैसा है पर  मजबूरी है , और कोई उपाय नहीं , क्यूंकि जब भाव से भाव मिलते है तो  शारीर  या द्वित्व  कि उपस्थिति होती ही नहीं)  आपको जादू जैसा लगेगा  कल्पनातीत भी लग सकता है।  

पर दुष्कर नहीं  प्रेम  समर्पण से  कठिन नहीं  एक पल में  आप ये  रास्ता तै कर लेते है। आप शिव कि जगह अपने प्रिय को स्वयं कोई भी नाम दे सकते है , आप जो भी नाम देंगे ,  आश्चर्य  होगा कि सस्त्राधार  में वो ही विराजमान होगा।  

पर कट्टरवाद  से नहीं  यहाँ भी आपको  इस  धर्म और अध्यात्म के मध्यबिंदु तक आना ही होगा।




जिज्ञासा  होगी आखिर  ये   मध्यबिन्दु क्या है ? आप स्वयं जानेगे आहिस्ता आहिस्ता  जब आप नेति-नेति  का रास्ता अपनाएंगे।   अपने को साफ़ और शुध्ह  बनाते चलिए ,  किसी भी अत्ति  से परहेज  करिये , प्रेम भी आएगा , करुणा भी आएगी और   प्रकृति  से एकाकार भी होगा , आपको उनकी निशानिया भी मिलेंगी  जो इस राह पे चल चुके , पर ध्यान रहे उन निशानियों को  अपनी गठरी में मत समेटलेने , नहीं तो आपका ही नुकसान होगा , गठरी फिर से भरी हो जायेगी।  और आपकी चाल सुस्त या फिर चल ही न सको।  कुछ भी हो सकता है।  



निशानिया देखो  प्रभु को धन्यवाद दो   और उन आत्माओ के प्रति  करुणा और मित्रता  से भर जाओ  जो आपका स्वागत कर रही है। 





और वो  निशानियाँ  जगमगा रही है प्रकाश दे रही है  आपके रास्ते को मुलायम और सुगम बना रही है।  




सुगंध  आनी शुरू हो जायेगी , तो  जान जाना कि उपवन पास ही है  




और उपवन में प्रवेश करते ही  वो कमल भी दिखेगा और कमल पे विराजमान आपका मित्र और प्रेमी भी।  





अंत में  कोई दुविधा न हो  तो मैं  स्पष्ट कर दू , ये सारे प्रयास  आत्मा  के है  , शरीर सिर्फ माध्यम है , तो  यहाँ जो भी घटना होगी  वो आत्मा  के साथ ही होगी , शरीर  सिर्फ और सिर्फ माध्यम है  और रहेगा  , आप हठयोग करे  प्रेम योग  या के  प्रेम भाव पुष्प  समर्पण ।   

 ये तरंगो कि दुनिया है  तरंगे ही प्रवेश कर सकेंगी। 




चित्रों के बहकावे में मत आना , सब सांकेतिक  है इशारा मात्र है।  असल भाव तो चित्र  में  अंतर्निहित  तरंग में है  तो सांसारिक दृष्टि से नहीं दिख सकेगी....  किसी धार्मिक अध्यात्मिक  प्रसंग या  कथा के  किसी भुलावे में मन को मत आने देना।  समस्त  कथाएँ भी एक माध्यम है भाव को  प्रसारित करने का।  सत्यता  का प्रमाण नहीं है। धर्म राज  युधिष्ठिर  सशरीर  गए स्वर्ग , प्रासंगिक ही है  और  भाव को  प्रेषित करने कि  अति प्रयास।  उस तार को  तरंगित करने का प्रयास जहा से आपकी तरंगे  उस सूत्र को पकड़ सके  जो आपकी यात्रा में सहायक  हो।   धर्म  और अध्यात्म का पूरा उद्देश्य यही है।  

बस  इतना ही।  

ॐ प्रणाम 

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