Monday 27 October 2014

(hindi) किताब ए मीरदाद - अध्याय -12/13

         मौन -अनअस्तित्व को
         अस्तित्व में बदल देगा
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     अध्याय 12
      सिरजनहार मौन
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नरौन्दा: जब तीन दिन बीत गये तो सातों साथी,
मानो किसी सम्मोहक आदेश के आधीन,
अपने आप इकटठे हो गये
और नीड़ की ओर चल पड़े।
मुर्शिद हमसे यों मिले जैसे
उन्हें हमारे आने की पूरी आशा हो।
मीरदाद: मेरे नन्हे पंछियों……
एक बार फिर  मैं तुम्हारे नीड़ में
तुम्हारा स्वागत करता हूँ।
अपने विचार और इच्छाएँ
मीरदाद से स्पष्ट कह दो।
मिकेयन: हमारा एकमात्र विचार
और इच्छा मीरदाद के निकट रहने की है,
ताकि हम उनके सत्य को महसूस कर सकें
और सुन सकें;
शायद हम उतने ही छाया-मुक्त हो जायें
जितने वे हैं।
फिर भी उनका मौन हम
सबके मन में श्रद्धामिश्रित
भय उत्पन्न करता है।
क्या हमने उन्हें किसी
तरह से नाराज कर दिया है?
मीरदाद: तुम्हे अपने आप से दूर हटाने के लिये मैं तीन दिन मौन नहीं रहा हूँ,
बल्कि मौन रहा हूँ
तुम्हे अपने और अधिक
निकट लाने के लिये।
जहां तक मुझे नाराज
करने की बात है,
याद रखो जिस किसी ने
भी मौन की अजेय शान्ति
का अनुभव किया है,
उसे न कभी नाराज किया जा सकता है;
न वह कभी किसी को नाराज कर सकता है।
मिकेयन: क्या मौन रहना बोलने से अधिक अच्छा है?
मीरदाद: मुख से कही बात अधिक से अधिक एक निष्कपट झूठ है; जबकि मौन कम से कम सत्य है।
अबिमार: तो क्या हम यह निष्कर्ष निकालें कि मीरदाद के वचन भी, निष्कपट होते हुए भी, केवल झूठ हैं?
मीरदाद: हाँ..
मीरदाद के वचन भी उन
सबके लिए केवल झूठ हैं,
जिनका ”मैं” वही नहीं जो मीरदाद का है।
जब तक तुम्हारे सब विचार
एक ही खान में से
खोदकर न निकाले गए हों,
और जब तक तुम्हारी सब कामनाएँ
एक ही कुएँ में से खींचकर न निकाली गई हों,
तब तक तुम्हारे शब्द,
निष्कपट होते हुए भी झूठ ही रहेंगे।
जब तुम्हारा ”मैं और मेरा ”मैं” एक हो जायेंगे,
जैसे मेरा ”मैं” प्रभु का ”मैं” एक हैं,
हम शब्दों को त्याग देंगे
और सच्चाई-भरे मौन में भी
खुल कर दिल की बात करेंगे।
क्योंकि तुम्हारा ”मैं” और
मेरा ”मैं” एक नहीं है,
मैं तुम्हारे साथ शब्दों का
युद्ध करने को बाध्य हूँ,
ताकि मैं तुम्हारे ही शस्त्रों
से तुम्हे पराजित कर सकूँ
और तुम्हे अपनी खान और
अपने कुएँ तक ले जा सकूँ।
और केवल तभी तुम संसार में
जाकर उसे पराजित करके
अपने वश में कर सकोगे,
जैसे मैं तुम्हे पराजित करके
अपने वश में करूंगा।
और केवल तभी तुम इस होगे
कि संसार को परम चेतना के मौन तक,
शब्द की खान तक,
और दिव्य ज्ञान के कुएँ तक ले जा सको।
जब तक तुम मीरदाद के हाथों
इस प्रकार पराजित नहीं हो जाते,
तुम सच्चे अर्थों में अजेय
और महान विजेता नहीं बनोगे।
न ही संसार अपनी निरंतर
पराजय के कलंक को धो सकेगा
जब तक कि वह तुम्हारे हाथों
पराजित नहीं हो जाता।
इसलिए, युद्ध के लिए कमर कस लो।
अपनी ढालों और कवचों को चमका लो
और अपनी तलवारों और भालों को धार दे दो।
मौन को नगाड़े की चोट करने दो
और ध्वज भी उसी को थामने दो।
बैनून: यह कैसा मौन है
जिसे एक साथ नगाड़ची
और ध्वज-धारी बनना होगा?
मीरदाद: जिस मौन में मैं तुम्हे ले
जाना चाहता हूँ,
वह एक ऐसा अंतहीन विस्तार है
जिसमे अनस्तित्व अस्तित्व में बदल जाता है,
अस्तित्व अनस्तित्व में।
वह एक ऐसा विलक्षण शून्य है
जहाँ हर ध्वनि उत्पन्न होती है
और शान्त कर दी जाती है;
जहाँ हर आकृति को रूप दिया जाता है
और रूप-रहित कर दिया जाता है;
जहाँ हर अहं को लिखा जाता है
और अ-लिखित किया जाता है;
जहाँ केवल ‘वह’ है,
और ‘वह’ के सिवाय कुछ नहीं।
यदि तुम उस शून्य और
उस विस्तार को मूक
ध्यान में पार नहीं करोगे,
तो तुम नहीं जान पाओगे
कि तुम्हारा अस्तित्व कितना यथार्थ है,
और तुम्हारा अनस्तित्व कितना कल्पित।
न ही तुम यह जान सकोगे
कि तुम्हारा यथार्थ
सम्पूर्ण यथार्थ से कितनी दृढ़ता से बँधा हुआ है।
मैं चाहता हूँ कि इसी मौन में भ्रमण करो
तुम, ताकि तुम अपनी पुरानी तंग केंचुली
उतार दो और बंधन- मुक्त,
अनियन्त्रित होकर विचरण करो।
मैं चाहता हूँ की इसी मौन में बहा दो
तुम अपनी चिताओं और आशंकाओं को,
ताकि तुम उन्हें एक-एक करके
मिटते हुए देखो
और इस तरह अपने कानों को
उनकी निरंतर चीख-पुकार से छुटकारा दिल दो,
और बचा लो अपनी पसलियों को
उनकी नुकीली एड़ों की पीड़न से।
मैं चाहता हूँ कि इसी मौन में फेंक दो
तुम इस संसार के धनुष्य-बाण
जिनसे तुम संतोष और
प्रसन्नता का शिकार
करने की आशा करते हो,
परन्तु वास्तव में अशांति
और दुःख के सिवाय और
किसी चीज का शिकार
नहीं कर पाते।
मैं चाहता हूँ कि इसी मौन में
तुम अहं के अँधेरे और
घुटन-भरे खोल में से
निकलकर उस ‘एक अहं ‘
की रौशनी और
खुली हवा में आ जाओ।
इस मौन की सिफारिश करता हूँ मैं तुमसे,
न की बोल-बोल कर थकी
तुम्हारी जिव्हा के लिये विश्राम की।
धरती के फक दायक मौन की
सिफारिस करता हूँ मैं
तुम से, न कि अपराधी
और धूर्त के भयानक मौन की।
अण्डे सेनेवाली मुर्गी के
धैर्य पूर्ण मौन की
सिफारिश करता हूँ मैं तुमसे,
न कि अण्डे देनेवाली
उसकी बहन की
अधीर कुडकुडाहट की।
एक इक्कीस दिन तक इस
मूक विश्वाश के साथ अण्डे सेती है
कि उसकी रोएँदार छाती
और पंखों के नीचे वह
अदृश्य हाथ करामात कर दिखायेगा।
दूसरी तेजी से भागती हुई
अपने दरबे से निकलती है
और पागलों की तरह
कुडकुडाती हुई ढिंढोरा पीटती है
कि मैं अण्डा दे आई हूँ।
डींग मारती नेकी से खबरदार रहो,
मेरे साथियों।
जैसे तुम अपनी शर्मिन्दगी का
मुँह बन्द रखते हो,
वैसे ही अपने सम्मान का मुँह भी बन्द रखो।
क्योंकि डींग मारता सम्मान
मूक कलंक से बदतर है;
शोर मचाती नेकी गूँगी बदी
से बदतर है।बहुत बोलने से बचो।
बोले गये हजार शब्दों
में से शायद एक,
केवल एक, ऐसा हो जिसे
बोलना सचमुच आवश्यक है।
बाकी सब तो केवल बुद्धि
को धुँधला करते हैं,
कानों को ठसाठस भरते हैं,
जिव्हा को कष्ट देते है,
और ह्रदय को भी अन्धा करते हैं।
कितना कठिन है वह शब्द बोलना
जिसे बोलना सचमुच आवश्यक है!
लिखे गए हजारों शब्दों में से शायद एक,
केवल एक, ऐसा हो जिसे लिखना
सचमुच आवश्यक है।
बाकी सब तो व्यर्थ में
गँवाई स्याही और कागज़ हैं,
और ऐसे क्षण हैं
जिन्हें प्रकाश के पंखों की
बजाय सीसे के पैर दे दिये गये हैं।
कितना कठिन, ओह,
कितना कठिन है वह शब्द लिखना
जिसे लिखना सचमुच आवश्यक है!
बैनून: और प्रार्थना के बारे में क्या कहेंगे,
मुर्शिद मीरदाद? प्रार्थना में हमें
आवश्यकता से कहीं अधिक से कहीं
अधिक शब्द बोलने पड़ते हैं,
और आवश्यकता से
कहीं अधिक चीजें माँगनी पड़ती हैं।
किन्तु माँगी हुई चीजों में से
हमें शायद ही कभी कोई प्रदान की जाती है।

    हमेशा अपने -आप को
    प्रार्थना करो
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अध्याय-13
    ☞ प्रार्थना ☜
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मीरदाद: तुम व्यर्थ में प्रार्थना करते हो
जब तुम अपने आप को छोड़
देवताओं को सम्बोधित करते हो।
क्योकि तुम्हारे अंदर है
आकर्षित करने की शक्ति,
जैसे दूर भगाने की की शक्ति तुम्हारे अंदर है।
और तुम्हारे अंदर हैं वे वस्तुएँ
जिन्हें तुम आकर्षित करना चाहते हो,
जैसे वे वस्तुएँ जिन्हें तुम दूर
भगाना चाहते हो तुम्हारे अंदर हैं।
क्योंकि किसी वस्तु को लेने का
सामर्थ्य रखना उसे देने का
सामर्थ्य रखना भी है।
जहां भूख है, वहां भोजन है।
जहां भोजन है, वहां भूख भी अवश्य होगी।
भूख की पीड़ा से व्यथित होना
तृप्त होने का आनंद लेने का सामर्थ्य रखना है।
हाँ, आवश्यकता में ही
आवश्यकता की पूर्ति है।
क्या चाबी ताले के प्रयोग
का अधिकार नहीं देती?
क्या ताला चाबी के प्रयोग
का अधिकार नहीं देती ?
क्या ताला और चाबी दोनों
दरवाजे के प्रयोग का अधिकार नहीं देते ?
जब भी तुम चाबी गँवा बैठो
या उसे कहीं रखकर भूल जाओ,
तो लोहार से आग्रह करने के लिये
उतावले मत होओं।
लोहार ने अपना काम कर दिया है,
और अच्छी तरह से कर दिया है;
उसे वही काम बार-बार
करने के लिये मत कहो।
तुम अपना काम करो और
लोहार को अकेला छोड़ दो;
क्योंकि जब एक बार वह तुमसे निपट चूका है,
उसे और भी काम करने हैं।
अपनी स्मृति में से दुर्गन्ध
और कचरा निकाल फेंको,
और चाबी तुम्हे निश्चय ही मिल जायेगी|
अकथ प्रभु ने उच्चारण द्वारा
जब तुम्हे रचा तो तुम्हारे रूप
में उसने अपनी ही रचना की।
इस प्रकार तुम भी अकथ हो।
प्रभु ने तुम्हे अपना कोई
अंश प्रदान नहीं किया–
क्योंकि वह अंशों में नहीं बाँट सकता;
उसने तो अपना समग्र,
अविभाज्य, अकथ ईश्वरत्व ही
तुम सबको प्रदान कर दिया।
इससे बड़ी किस विरासत की
कामना कर सकते हो तुम ?
और तुम्हारी अपनी कायरता का
अन्धेपन के सिवाय और कौन,
या क्या, तुम्हे पाने से रोक सकता हैं ?
फिर भी, कुछ–अन्धे कृतध्न लोग–
अपनी विरासत के लिये
कृतज्ञं होने के बजाय,
उसे प्राप्त करने की
राह खोजने के बजाय,
प्रभु एक प्रकार का कूडाघर
बना देना चाहते हैं
जिसने वे अपने दांत
और पेट के दर्द,
व्यापार में अपने घाटे,
अपने झगडे, अपनी बदले
की भावनाएं तथा
अपनी निद्राहीन रातें ले
जाकर फेंक सकें।
कुछ अन्य लोग प्रभु को
अपना निजी कोष बना लेना चाहते हैं
जहां से वे जब चाहें संसार की
चमकदार निकम्मी वस्तुओं में से
हर ऐसी वस्तु को पाने की
आशा रखते हैं जिसके
लिए वे तरस रहे हैं।
कुछ अन्य लोग प्रभु को
एक प्रकार का निजी मुनीम
बना लेना चाहते हैं,
जो केवल यह हिसाब ही न रखे
कि वे किन चीजों के लिये दूसरों के कर्जदार हैं
और किन चीजों के लिये उनके कर्जदार है,
बल्कि उनके दिये कर्ज को वसूल भी करे
और उनके उनके खाते में हमेशा
एक बड़ी रकम जमा दिखाये।
हाँ…..
अनेक तथा नाना प्रकार के हैं
वे काम जो मनुष्य प्रभु को सौंप देता है।
फिर भी बहुत थोड़े लोग ऐसे होंगे
जो सोचते हों कि यदि सचमुच
इतने सारे काम करने की
जिम्मेदारी प्रभु पर है
तो वह अकेला ही उनको निपटा लेगा,
और उसे यह आवश्यकता नहीं होगी
कि कोई उसे प्रेरित करता रहे
या अपने कामों की याद दिलाता रहे।
क्या प्रभु को तुम उन घड़ियों की
याद दिलाते हो
जब सूर्य उदय होना है
और जब चन्द्र को अस्त ?
क्या उसे तुम दूर के खेत में पड़े
अनाज के उस दाने की याद दिलाते हो
जिसमे जीवन फूट रहा है ?
क्या उसे तुम उस मकडी की
याद दिलाते हो
जो रेशे से अपना कौशल-पूर्ण
विश्राम-गृह बना रही है ?
क्या उसे तुम घोंसले में पड़े
गौरेया के छोटे-छोटे बच्चों की
याद दिलाते हो ?
क्या तुम उसे उन अनगिनत
वस्तुओं की याद दिलाते हो
जिनसे यह असीम ब्रह्माण्ड भरा हुआ है ?
तुम अपने तुच्छ व्यक्तित्व को
अपनी समस्त अर्थहीन
आवश्यकताओं सहित बार-बार
उसकी स्मृति पर क्यों लादते हो ?
क्या तुम उसकी दृष्टि में गौरेया,
अनाज और मकड़ी की तुलना में
कम कृपा के पात्र हो ?
तुम उनकी तरह अपने उपहार
स्वीकार क्यों नहीं करते
और बिना शोर मचाये,
बिना बिना घुटने टेके,
बिना हाथ फैलाये और
बिना चिंता-पूर्वक भविष्य में
झाँके अपना-अपना काम
क्यों नहीं करते ?
और प्रभु दूर कहाँ है
कि उसके कानों तक अपनी सनकों
और मिथ्याभिमानों को, अपनी
स्तुतियों और अपनी
फरियादों को पहुँचाने के लिये
तुम्हे चिल्लाना पड़े ?
क्या वह
तुम्हारे अंदर और
तुम्हारे चारों ओर नहीं है ?
जितनी तुम्हारी जिव्हा
तुम्हारे तालू के निकट है,
क्या उसका कान तुम्हारे
मुँह के उससे कहीं
अधिक निकट नहीं है ?
प्रभु के लिये तो उसका
ईश्वरत्व ही काफी है जिसका
बीज उसने तुम्हारे अंदर रख दिया है।
यदि अपने ईश्वरत्व का बीज
तुम्हे देकर तुम्हारे बजाय
प्रभु को ही उसका ध्यान
रखना होता तो तुममे क्या खूबी होती ?
और जीवन में तुम्हारे करने के
लिये क्या होता ?
और यदि तुम्हारे करने को
कुछ भी नहीं है,
बल्कि प्रभु को ही तुम्हारी
खातिर सब करना है,
तो तुम्हारे जीवन का क्या महत्व है ?
तुम्हारी सारी प्रार्थना से क्या लाभ है ?
अपनी अनगिनत चिंताएँ और
आशाएँ प्रभु के पास मत ले जाओ।
जिन दरवाजों की चाबियाँ
उसने तुम्हे सौंप दी है,
उन्हें तुम्हारी खातिर खोलने
के लिये मिन्नतें मत करो।
बल्कि अपने ह्रदय की विशालता में खोजो।
क्योंकि ह्रदय की विशालता में मिलती है
हर दरवाजे की चाबी।
और ह्रदय की विशालता में मौजूद हैं
वे सब चीजें जिनकी तुम्हे भूख और प्यास है,
चाहे उनका सम्बन्ध बुराई से है या भलाई से।
तुम्हारे छोटे से छोटे आदेश
का पालन करने को तैयार
एक विशाल सेना तुम्हारे
इशारे पर काम करने के
लिये तैनात कर दी गयी है।
यदि वह अच्छी तरह से सज्जित हो,
उसे कुशलतापूर्वक शिक्षण दिया गया हो
और निडरता पूर्वक उसका
संचालन किया गया हो,
तो उसके लिये कुछ भी
करना असम्भव नहीं,
और कोई भी बाधा उसे
अपनी मंजिल पर पहुँचने से रोक नहीं सकती।
और यदि वह पूरी तरह सज्जित न हो,
उसे उचित शिक्षण न दिया गया हो
और उसका सञ्चालन साहसहीन हो,
तो वह दिशाहीन भटकती रहती है,
या छोटी से छोटी बाधा के सामने
मोरचा छोड़ देती है,
और उसके पीछे-पीछे
चली आती है शर्मनाक पराजय।
वह सेना और कोई नहीं,
सधुओ…
इस समय तुम्हारी रगों में
चुपचाप चक्कर लगा रही
सूक्ष्म लाल कणिकाएँ हैं;
उनमे से हरएक शक्ति का चमत्कार,
हरएक तुम्हारे समूचे जीवन का
और समस्त जीवन का–उनकी
अन्तरतम सूक्ष्मताओं सहित–
पूरा और सच्चा विवरण।
ह्रदय में एकत्रित होती है यह सेना;
ह्रदय में से ही बाहर निकलकर
यह मोरचा लगाती है।
इसी कारण ह्रदय को इतनी
ख्याति और इतना सम्मान प्राप्त है।
तुम्हारे सुख और दुःख के आँसू
इसी में से फूटकर बाहर निकलते हैं।
तुम्हारे जीवन और मृत्यु के भय
दौड़कर इसी के अन्दर घुसते हैं।
तुम्हारी लालसाएँ और कामनाएँ
इस सेना के उपकरण हैं
तुम्हारी बुद्धि इसे अनुशासन में रखती है।
तुम्हारा संकल्प इससे कवायद करवाता है
और इसकी बागडोर संभालता है ।
जब तुम अपने रक्त को एक प्रमुख
कामना से सज्जित कर लो
जो सब कामनाओं को चुप कर देती है
और उन पर छा जाती है;
और अनुशासन एक प्रमुख विचार को सौंप दो,
तब तुम विश्वास कर सकते हो
कि तुम्हारी वह कामना पूरी होगी।
कोई संत भला संत कैसे हो सकता है
जब तक वह अपने मन की
वृति को संत-पद के अयोग्य
हर कामना से तथा हर वि
चार से मुक्त न कर दे,
और फिर एक अडिग संकल्प के द्वारा
उसे अन्य सभी लक्ष्यों को
छोड़ केवल संत-पद की प्राप्ति
के लिये यत्नशील रहने का निर्देश न दे?
मैं कहता हूँ कि आदम के समय से
लेकर आज तक की हर पवित्र कामना,
हर पवित्र विचार,
हर पवित्र संकल्प उस मनुष्य की
सहायता के लिये चला आयेगा
जिसने संत-पद प्राप्त करने का
ऐसा दृढ़ निश्चय कर लिया हो।
क्योंकि सदा ऐसा होता आया है
कि पानी, चाहे वह कहीं भी हो,
समुद्र की खोज करता है
जैसे प्रकाश की किरने
सूर्य को खोजती हैं।
कोई हत्यारा अपनी योजनाएँ
कैसे पूरी करता है?
वह कवल अपने रक्त को
उत्तेजित उसमे ह्त्या के
लिये एक उन्माद-भरी
प्यास पैदा करता है,
उसके कण-कण को हत्यापूर्ण
विचारों के कोड़ों की
मार से एकत्र करता है,
और फिर निष्ठुर संकल्प से
उसे घातक बार करने
का आदेश देता है।
मैं तुमसे कहता हूँ कि केन*
से लेकर आज तक का हर
हत्यारा बिना बुलाये
उस मनुष्य की भुज को
सबल और स्थिर बनाने के
लिये दौड़ा आयेगा जिस पर
ह्त्या का ऐसा नशा सवार हो।
क्योंकि सदा ऐसा होता आया है
कि कौए, कौओं का साथ देते हैं
और लकड़ बग्घे लकड़-बग्घों का।
इसलिये प्रार्थना करना
अपने अंदर एक ही प्रमुख कामना की
एक ही प्रमुख विचार की
एक ही प्रमुख संकल्प की
संचार करना है।
यह अपने आप को इस
तरह सुर में कि जिस वस्तु
के लिये भी तुम प्रार्थना करो,
उसके साथ पूरी तरह एक-सुर,
एक-ताल हो जाओ।
इस ग्रह का वातावरण,
जो अपने सम्पूर्ण रूप में
तुम्हारे ह्रदय में प्रतिबिम्बित है,
उन सब बातों की आवारा
स्मृतियों से तरंगित है जिन्हें
उसने अपने जन्म से देखा है।
कोई वचन या कर्म;
कोई इक्षा या निःश्वास;
कोई क्षणिक विचार या
अस्थाई सपना; मनुष्य या
पशु का कोई श्वास;
कोई परछाईं; कोई भ्रम ऐसा
नहीं जो आज के दिन तक
अपने-अपने रहस्यमय रास्ते
पर न चलता रहा हो,
और समय के अंत तक इसी
प्रकार उस पर चलते न रहना हो।
उनमे से किसी एक के साथ भी तुम
अपने ह्रदय का सुर मिला लो,
और वह निश्चय ही उसके तारों
पर धुन बजाने के लिय तेजी से दौड़ा आयेगा।
प्रार्थना करने के लिए तुम्हे
किसी होंठ या जिव्हा की
आवश्यकता नहीं।
बल्कि आवश्यकता है एक मौन,
सचेत ह्रदय की,
एक प्रमुख कामना की,
एक प्रमुख विचार की,
और सबसे बढ़कर,
एक प्रमुख संकल्प की
जो न संदेह करता है न संकोच।
क्योंकि शब्द व्यर्थ हैं
यदि प्रत्येक अक्षर में ह्रदय
अपनी पूर्ण जागरूकता के
साथ उपस्थित न हो।
और जब ह्रदय उपस्थित और सजग है,
तो जिव्हा के लिये यह बेहतर होगा कि
वह सो जाये,
या मुहरबन्द होंठों के पीछे छिप जाये।
न ही प्रार्थना करने के लिये
तुम्हें मन्दिरों की आवश्यकता है।
जो कोई अपने ह्रदय में
मन्दिर को नहीं पा सकता,
वह किसी भी मन्दिर में
अपने ह्रदय को नहीं पा सकता।
फिर भी मैं तुमसे यह सब कहता हूँ,
और जो तुम जैसे हैं उनसे भी,
किन्तु प्रत्येक मनुष्य से नहीं,
क्योंकि अधिकाँश लोग अभी भ्रम में हैं।
वे प्रार्थना की जरुरत तो महसूस करते हैं,
लेकिन प्रार्थना करने का ढंग नहीं जानते।
वे शब्दों के बिना प्रार्थना कर नहीं सकते,
और शब्द उन्हें मिलते नहीं
जब तक शब्द उनके मुँह में न
डाल दिये जायें।
और जब उन्हें अपने ह्रदय
की विशालता में विचरण
करना पड़ता है तो वे खो जाते हैं,
और भयभीत हो जाते हैं;
परन्तु मंदिरों की दीवारों के
अंदर और अपने जैसे प्राणियों
के झुंडों के बीच उन्हें सांत्वना
और सुख मिलता है।
कर लेने दो उन्हें अपने मंदिरों का निर्माण।
कर लेने दो उन्हें अपनी प्रार्थनाएँ।
किन्तु तुम्हें तथा प्रत्येक मनुष्य
को दिव्य ज्ञान के लिये
प्रार्थना करने का आदेश देता हूँ।
उसके सिवाय अन्य किसी
वस्तु की चाह रखने का अर्थ है
कभी तृप्त न होना।
याद रखो,
जीवन की कुंजी ”
सिरजनहार शब्द” है। ‘
सिरजनहार शब्द’ की कुंजी प्रेम है।
प्रेम की कुंजी दिव्य ज्ञान है।
अपने ह्रदय को इनसे भर लो,
और बचा लो अपनी जिव्हा को
अनेक शब्दों की पीड़ा से,
और रक्षा कर लो
अपनी बुद्धि का अनेक प्रा
र्थनाओं के बोझ से,
और मुक्त कर लो अपने ह्रदय
को सब देवताओं की दासता
से जो तुम्हे उपहार देकर
अपना दास बना लेना चाहते हैं;
जो तुम्हें एक हाथ से केवल
इसलिए सहलाते हैं कि दूसरे
हाथ से तुम पर बार का सकें;
जो तुम्हारे द्वारा प्रशंसा
किये जाने पर संतुष्ट और कृपालु होते हैं,
किन्तु तुम्हारे द्वारा कोसे जाने
पर क्रोध और बदले की भावना से भर जाते हैं;
जो तब तक तुम्हारी बात नहीं
सुनते जब तक तुम उन्हें पुकारते नहीं;
और तब तक तुम्हे देकर
बहुधा देने पर पछताते हैं;
जिनके लिये तुम्हारे आँसू अगरबत्ती हैं,
जिनकी शान तुम्हारी दयनीयता में है।
हाँ…….
अपने ह्रदय को इन सब देवताओं
से मुक्त कर लो, ताकि तुम्हें उसमे
वह एकमात्र प्रभु मिल सके जो
तुम्हें अपने आप से भर देता है चाहता है
की तुम सदैव भरे रहो।
बैनून: कभी तुम मनुष्य को
सर्वशक्तिमान कहते हो तो
कभी उसे लावारिस
कहकर तुच्छ बताते हो।
लगता है तुम हमें धुन्ध में लाकर छोड़ रहे हो।
मीरदाद हँसता है और आकाश की और देखता ..
मौन से कुछ अलोकिक
आता दिखाई देता है ….

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3 comments:

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    1. _()_ feel very heppy , the verses reach to you . thank you lord .

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