Thursday 30 October 2014

(hindi) किताब ए मीरदाद-अध्याय - 33 / 34

अध्याय -33
समय आ गया है
    आदमी आदमी को लुटना बंद करे
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     रात्रि अनुपम गायिका
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नरौंदा ; पर्वतीय नीड़ के लिये, जिसे बर्फीली हवाओं और बर्फ के भारी अम्बारों ने पूरे शीतकाल में हमारी पहुँच से परे रखा था,
हम सब इस प्रकार तरस रहे थे जिस प्रकार कोई निर्वासित व्यक्ति अपने घर के लिए तरसता है ।
हमें नीड़ में ले जाने के लिये मुर्शिद ने बसन्त की एक ऐसी रात चुनी जिसके नेत्र कोमल और उज्जवल थे, उसकी साँस उष्ण और सुगन्धित थी, जिसका ह्रदय सजीव और सजग था ।
वे आठ सपाट पत्थर, जो हमारे बैठने के काम आते थे, अभी तक वैसे ही अर्ध-चक्र के आकार में रखे थे जैसे हम उन्हें उस दिन छोड़ गए थे जब मुर्शिद को बेसार ले जाया गया था ।
स्पष्ट था कि उस दिन से कोई
भी नीड़ में नहीं गया था । एक शिला से दूसरी शिला पर गिर रहे पहाड़ी झरनों ने रात्रि को अपने तुमुल संगीत से भर दिया था ।बीच-बीच में किसी उल्लू की घू-घू या किसी झींगुर के गीत के खण्डित स्वर सुनाई देते थे
मीरदाद;- इस रात की शांति में मीरदाद चाहता है कि तुम रात्रि के गीत सुनो ।
रात्रि के गायक-वृन्द को सुनो । क्योंकि सचमुच ही रात्रि एक अनुपम गायिका है । अतीत की सबसे अँधेरी दरारों में से, भविष्य के उज्जवल दुर्गों में से, आकाश के शिखरों तथा धरती की गहराईयों में से निकल रहे है रात्रि के स्वर, और तेजी से पहुँच रहे हैं विश्व के दूरतम कोनों तक ।
विशाल तरंगों के रूप में ये तुम्हारे कानों के चारों ओर लहरा रहे हैं । अपने कानों को अन्य सब स्वरों से मुक्त कर दो ताकि इन्हे सुन सको । उतावली- भरा दिन जिसे आसानी से मिटा देता है, उतावली से मुक्त रात्रि उसे अपने क्षण भर के जादू से पुनः बना देती है क्या चाँद और तारे दिन की रौशनी में छिप नहीं जाते ?
दिन जिसे कल्पना और असत्य के मिश्रण में डुबा देता है, रात्रि उसे नपे-तुले उल्लास के साथ दूर-दूर तक गाती है । जड़ी-बूटियों के सपने भी रात्रि के गायक-वृन्द में शामिल होकर उनके गीत में योग देते हैं सुनो आकाशपिण्डों को :गगन में वे झूलते सुनाते हैं
लोरियाँदलदली बालू के पालने में सो रहे भीमकाय शिशु को,चीथड़े कंगाल के पहने हुए राजा को,बेड़ियों-जंजीरों में जकड़ी हुई दामिनी को–पोतड़ों में लिपटे स्वयं परमात्मा को सुनो तुम धरती को,एक ही समय पर जो प्रसव में कराहती है, दूध भी पिलाती है,पालती है,
ब्याहती है, कब्र में सुलाती है। सुनो वन पशुओं को : घूमते हैं जंगलों में टोह में शिकार की, चीखते, गुर्राते हैं, चीरते, चिर जाते हैं ;
सुनो अपनी राहों पर रेंगते जंतुओं को,रहस्यमय गीत अपने गुनगुनाते कीड़ों को;किस्से चारागाहों के, गीत जल- प्रवाहों के , सुनो अपने सपनों में दोहराते विहंगों को; वृक्षों को, झाड़ियों को, हर एक जीव को मृत्यु के प्याले में गट-गट पीते जीवन को । शिखर से और वादी से, मरुस्थल और सागर से,
तृणावत भूमि के नीचे से और वायु से आ रही हैं चुनौती समय में छिपे प्रभु को । सुनो सभी माताओं को, कैसे वे रोती हैं, कैसे बिलखती हैं और सभी पिताओं को, कैसे वे कराहते हैं कैसे आहें भरते हैं ।
सुनो उनके बेटों को और उनकी बेटियों को बन्दूक लेने भागते, बन्दूक से डर भागते,प्रभु को फटकारते,और भाग्य को धिक्कारते ।स्वाँग रचते प्यार का और घृणा फुसफुसाते हैं,पीते हैं जोश, और डर से पसीने छूट जाते हैं, बोते हैं मुस्काने और काटते आँसू हैं,अपने लाल खून से उमड़ रही बाढ़ के प्रकोप को पैनाते हैं ।
सुनो उनके क्षुधा-ग्रस्त पेटों को पिचकते,सूजी हुई उनकी पलकों को झपकते, कुम्हलाई अँगुलियों को उनकी आशा की लाश को ढूंढते, और उनके हृदयों को फूलत–फूलते ढेरों में फूटते । सुनो क्रूर मशीनों को तुम गड़गड़ाते हुए,दर्प-भरे नगरों को खण्डहर बन जाते हुए,शक्तिशाली दुर्गों को अपने ही अवसान की घण्टियाँ बजाते हुए,पुरातन कीर्ति-स्तम्भों को पंकिल रक्त-ताल में गिर छीटे उड़ाते हुए ।
सुनो न्यायी लोगों की तुम प्रार्थनाओं को लोभ की चीखों के साथ सुर मिलाते हुए, बच्चों की भोली-भाली तोतली बातों को दुष्टों की बकबक के साथ तुक मिलाते हुए। और किसी कन्या की लज्जारुण मुस्कान को वेश्या की धूर्त्तता के संग चहचहाते हुए, और एक वीर के हर्षोन्माद को किसी मायावी के विचार गुनगुनाते हुए ।
हर जनजाती और हर एक गोत्र के हर खेमे,हर कुटिया में रात्रि सुनाती है ऊँचे स्वर में तुम्ही पर युद्ध-गीत मनुष्य के । पर जादूगरनी रात्रि लोरियाँ, चुनोतियाँ, युद्ध-गीत, सब कुछ ढाल देती एक ही मधुरम संगीत में ।
गीत इतना सूक्ष्म जो कान सुन पाये न —गीत इतना भव्य, और अनन्त फैलाव में,स्वर में गहराई और टेक में मिठास इतनी,तुलना में फरिश्तों के तराने और वृन्द गान लगते मात्र कोलाहल और बड़बड़ाहट हैं आत्म-विजेता का यही विजय-गान है ।
पर्वत जो रात्रि की गोद में हैं ऊँघते,यादों में डूबे मरू लिये टीले रेत के,भ्रमणशील तारे, सागर नदी में जो घूमते, निवासी-प्रेत-पुरियों के,पावन-त्रयी और हरी इच्छा ,करते आत्म-विजेता का स्वागत है, जय घोष है । भाग्य वान हैं वे जो सुनते हैं और बूझते ।
भाग्य वान हैं लोग जिनको रात्रि संग अकेले में होती अनुभूति है रात्रि जैसी शान्ति की,गहराई की, विस्तार की ;लोग वे, अँधेरे में चेहरों पर जिनके अँधेरे में किये गयेअपने कुकर्मों की पड़ती नहीं मार है ;
लोग वे, आँसू जिनकी ररकते नहीं पलकों में साथियों की आँखों से जो उन्होंने बहाये थे ;हाथों में न जिनके लोभ से, द्वेष से, होती कभी खाज है ;कानो को न जिनके अपनी तृष्णाओं की घेरती फूत्कार है ;विवेक को न जिनके डंक कभी मारते उनके विचार हैं भाग्य वान हैं,
ह्रदय जिनके समय के हर कोने से घिरकर आती हुई विविध चिन्ताओं के बैठने के छत्ते नहीं ;बुद्धि में जिनकी भय सुरंग खोद लेते नहीं ;साहस के साथ जो कह सकते हैं रात्रि से, ”दिखा दो हमें दिन को ”कह सकते हैं दिन को, ”दिखा दो हमें रात्रि को ”।
हाँ, बहुत भाग्यवान हैं जिनको रात्रि संग अकेले में होती अनुभूति है रात्रि जैसी समस्वरता, नीरवता, अनन्तता की । उनके लिए ही केवल गाती है रात्रि यह गीत आत्म-विजेता का ।यदि तुम दिन के झूंठे लांछनों का सामना सिर ऊंचा रखकर विश्वास से चमकती आँखों से करना चाहते हो, तो शीघ्र ही रात्रि की मित्रता प्राप्त करो ।
रात्रि के साथ मैत्री करो । अपने ह्रदय को अपने ही जीवन रक्त से अच्छी तरह धोकर उसे रात्रि के ह्रदय में रख दो । अपनी आवरण हीं कामनाएँ रात्रि के वक्ष को सौंप दो, और दिव्य ज्ञान के द्वारा स्वतन्त्र होने की महत्त्वाकाँक्षा के अतिरिक्त अन्य सभी महत्त्वाकांक्षाओं की उसके चरणों में बलि दे दो ।
तब दिन का कोई भी तीर तुम्हे वेध नहीं सकेगा, और तब रात्रि तुम्हारी ओर से लोगों के सामने गवाही देगी कि तुम सचमुच आत्म- विजेता हो ।बेचैन दिन भले ही पटकें तुम्हे इधर- उधरतारक-हीन रातें चाहे अँधेरे में अपने लपेट लें तुमको,फेंक दिया जाये तुम्हे विश्व के चौराहों पर,चिन्ह पदचिन्ह न हों राह तुम्हें दिखाने को फिर भी न डरोगे तुम किसी भी मनुष्य से और न किसी स्थिति से,न ही होगा शक तुम्हे लेशमात्र इसका कि दिन और रातें,
मनुष्य और चीजें भी जल्दी ही या देर से आयेंगे तुम्हारे पास, और विनयपूर्वक प्रार्थना वे करेंगे आदेश उन्हें देने का । विश्वास क्योंकि रात्रि का प्राप्त होगा तुमको । और विश्वास रात्रि का प्राप्त जो कर लेता है सहज ही आदेश वह अगले दिन को देता है ।
रात्रि के ह्रदय को ध्यान से सुनो, क्योंकि उसी के अंदर आत्म-विजेता का ह्रदय धड़कताहै । यदि मेरे पास आंसू होते तो आज रात मैं उन्हें भेंट कर देता हर टिमटिमाते सितारे और रज-कण को; हर कल-कल करते नाले और गीत गाते टिड्डे को; वायु में अपनी सुगन्धित आत्मा को बिखेरते हर नील-पुष्प को ;
हर सरसराते समीर को; हर पर्वत और वादी को; हर पेड़ और घांस की हर कोंपल को — इस रात्रि की सम्पूर्ण अस्थाई शान्ति और सुंदरता को । मैं अपने आंसू मनुष्य की कृतध्नता तथा बर्बर अज्ञान के लिये क्षमायाचना के रूप में इनके सामने उँड़ेल देता ।
क्योंकि मनुष्य, घृणित पैसे के गुलाम, अपने स्वामी की सेवा में व्यस्त है, इतने व्यस्त की स्वामी की आवाज और इच्छा के अतिरिक्त और किसी आवाज और इच्छा की ओर ध्यान नहीं दे सकते ।और भयंकर है मनुष्य के स्वामी का कारोबार — मनुष्य के संसार को एक ऐसे कसाईखाने में बदल देना जहाँ वे ही गला काटनेवाले हैं और वे ही गला कटवाने वाले ।
और इसलिए, लहू के नशे में चूर मनुष्य मनुष्यों को इस विश्वास में मारते चले जाते हैं कि जिन मनुष्यों का कोई खून करता है, धरती के सब प्रसादों और आकाश की समस्त उदारता में उन मनुष्यों का सभी हिस्सा उसे विरासत में मिल जाता है ।
अभागे मूर्ख ! क्या कभी कोई भेड़िया किसी दूसरे भेड़िये का पेट चीर कर मेमना बना है ? क्या कभी कोई साँप अपने साथी साँपों कुचल और निगल कर कपोत बना है ? क्या कभी किसी मनुष्य ने अन्य मनुष्यों की ह्त्या करके उनके दुखों को छोड़ उनकी खुशियाँ विरासत में पाईं हैं ? क्या कोई कान दूसरे कान में डाट लगाकर जीवन की स्वर-तरंगों का अधिक आनन्द ले सकता है ?
या कभी कोई आँख अन्य आँखों को नोचकर सुंदरता के विविध रूपों के प्रति अधिक सजग हुई है ?क्या ऐसा कोई मनुष्य या मनुष्य का समुदाय है जो केवल एक घण्टे के वरदानों का भी पूरी तरह उपयोग कर सके, वरदान चाहे खाने पीने के पदार्थों के हों,
चाहे प्रकाश और शान्ति के ? धरती जितने जीवों को पाल सकती है उससे अधिक जीवों को जन्म नहीं देती । आकाश अपने बच्चों के पालन के लिये न भीख मांगता है, न चोरी करता है ।वे झूठ बोलते हैं जो मनुष्य से कहते हैं, ”यदि तुम तृप्त होना चाहते हो तो मारो और जिन्हे मारो उनकी विरासत प्राप्त करो ।”
जो मनुष्य का प्यार, धरती का दूध और मधु, तथा आकाश का गहरा स्नेह पाकर नहीं फला-फूला, वह मनुष्य के आंसू, रक्त और पीड़ा के आधार पर कैसे फले-फूलेगा ? वे झूठ बोलते हैं जो मनुष्य से कहते हैं, ”हर राष्ट्र अपने लिये है ।”कनख़जूरा कभी एक इंच भी आगे कैसे बढ़ सकता है यदि उसका हर पैर दूसरे पैरों के विरुद्ध दिशा में चले, या उसके पैरों के आगे बढ़ने में रुकावट डाले, या दूसरे पैरों के विनाश के लिए षड्यन्त्र रचे ?
मनुष्य भी क्या एक दैत्याकार कनखजूरा नहीं है, राष्ट्र जिसके अनेक पैर हैं ?वे झूठ बोलते हैं जो मनुष्य से कहते हैं, ” शासन करना सम्मान की बात है, शासित होना लज्जा की ।” क्या गधे को हांकने वाला उसकी दुम के पीछे-पीछे नहीं चलता ? क्या जेलर कैदी से बँधा नहीं होता । वास्तव में गधा अपने हाँकने वाले को हाँकता है ;
कैदी अपने जेलर को जेल में बंद रखता है । वे झूठ बोलते हैं जो मनुष्य से कहते हैं, ”दौड़ उसी की जो तेज दौड़े, सच्चा वही जो समर्थ हो ।”क्योंकि जीवन मांसपेशियों और बाहुबल की दौड़ नहीं है । लूले- लँगड़े भी बहुधा स्वस्थ लोगों से बहुत पहले मंजिल पर पहुँच जाते हैं ।
और कभी-कभी तो एक तुच्छ मच्छर भी कुशल योद्धा को पछाड़ देता है । वे झूठ बोलते हैं जो मनुष्य से कहते हैं कि अन्याय का उपचार केवल अन्याय से ही किया जा सकताहै । अन्याय के बदले में थोपा गया अन्याय कभी न्याय नहीं बन सकता । अन्याय को अकेला छोड़ दो, वह स्वयं ही अपने आपको मिटा देगा ।
परन्तु भोले लोग अपने स्वामी पैसे के सिद्धांतों को आसानी से सच मान लेते हैं । पैसे और जमाखोरों में वे भक्तिपूर्ण विश्वास रखते हैं और उनकी हर मनमानी सनक के आगे सिर झुकाते हैं ।रात्रि का न वे विश्वास करते हैं न परवाह । जबकि रात्रि मुक्ति के गीत गाती है, और मुक्ति तथा प्रभु-प्राप्ति की प्रेरणा देती है ।
तुम्हे तो मेरे साथियो, वे या तो पागल करार देंगे या पाखण्डी ।मनुष्य की कृतध्नता और तीखे उपहास का बुरा मत मानना ; बल्कि प्रेम और असीम धैर्य के साथ स्वयं उनसे तथा आग और खून की बाढ़ से, जो शीघ्र ही उनपे टूट पड़ेगी, उनके बचाव के लिये उद्यम करना । समय अ गया है कि मनुष्य मनुष्य की हत्या करना बंद कर दें । सूर्य, चन्द्र, और तारे अनादिकाल से प्रतीक्षा कर रहे हैं कि उन्हें देखा, सुना और समझा जाये;
धरती की लिपि प्रतीक्षा कर रही है कि उसे पढ़ा जाये; आकाश के राजपथ, कि उन पर यात्रा कि जाये, समय का उलझा हुआ धागा, कि उसमे पड़ी गांठों को खोला जाये, ब्रह्माण्ड की सुगंध, कि उसे सूँघा जाये; पीड़ा के कब्रिस्तान, कि उन्हें मिटा दिया जाये; मौत किई गुफा, कि उसे ध्वस्त किया जाये; ज्ञान की रोटी, कि उसे चखा जाये; और मनुष्य पर्दों में छिपा परमात्मा, प्रतीक्षा कर रहा है कि उसे अनावृत किया जाये ।
समय आ गया है कि मनुष्य मनुष्यों को लूटना बन्द कर दें और सर्वाहित के काम को पूरा करने के लिए एक हो जाएँ ।
बहुत बड़ी है यह चुनौती, पर मधुर होगी विजय भी । तुलना में और सब तुच्छ तथा खोखला है । हाँ, समय आ गया है । पर ऐसे बहुत कम हैं जो ध्यान देंगे ।
बाक़ी को एक और पुकार की
प्रतीक्षा करनी होगी —–
एक और भोर की ।

      अध्याय -34
        आदमी एक लघु परमात्मा है
      ☞ विराट कैसे होगा ☜
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 माँ–अण्डाणु
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मीरदाद; मीरदाद चाहता है कि इस रात के सन्नाटे में तुम एकाग्र चित्त होकर माँ–अण्डाणु के विषय में विचार करो । स्थान और जो कुछ्ह उसके अंदर है एक अण्डाणु है जिसका खोल समय है यही माँ-अण्डाणु है ।
जैसे धरती को वायु लपेटे हुए है, वैसे ही इस अण्डाणु को लपेटे हुए है विकसित परमात्मा, विराट परमात्मा—जीवन जो कि अमूर्त, अनन्त और अकथ है ।
इस अण्डाणु में लिपटा हुआ है कुंडलित परमात्मा लघु–परमात्मा–जीवन जो मूर्त है किन्तु उसी तरह अनन्त और अकथ ।
भले ही प्रचलित मानवीय मानदण्ड के अनुसार माँ–अण्डाणु अमित है, फिरभी इसकी सीमाएँ हैं । यद्यपि यह स्वयं अनन्त नहीं है, फिर भी इसकी सीमाएँ हर ओर अनन्त को छूती हैं |
ब्रह्माण्ड में जो भी पदार्थ और जीव हैं, वे सब उसी लघु- परमात्मा को लपेटे हुए समय-स्थान के अण्डाणुओं से अधिक और कुछ नहीं, परन्तु सबमें लघु-परमात्मा प्रसार की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में है ।
पशु के अंदर के लघु- परमात्मा की अपेक्षा मनुष्य के अंदर के लघु-परमात्मा का और वनस्पति के अंदर के लघु-परमात्मा की अपेक्षा पशु के अंदर के लघु- परमात्मा का समय-स्थान में प्रसार अधिक है ।
और सृष्टि में नीचे-नीचे की श्रेणी में क्रमानुसार ऐसा ही है । दृश्य तथा अदृश्य सब पदार्थो और जीवों का प्रतिनिधित्व करते अनगिनत अण्डाणुओं को माँ-अण्डाणु के अंदर इस क्रम में रखा गया है कि प्रसार में बड़े अण्डाणु के अंदर उसकेनिकटतम छोटा अण्डाणु है, और यही क्रम सबसे छोटे अंडाणु तक चलता है ।
अण्डाणुओं के बीच में जगह है और सबसे छोटा अण्डाणु केन्द्रीय नाभिक है जो अत्यन्त अल्प समय तथा स्थान के अंदर बन्द है । अण्डाणु के अंदर अण्डाणु, फिर उस अण्डाणु के अंदर अण्डाणु, मानवीय गणना से परे और सब प्रभु द्वारा अनुप्रमाणित—यही ब्रह्माण्ड है.
मेरे साथियो । फिर भी मैं महसूस करता हूँ कि मेरे शब्द कठिन हैं, वे तुम्हारी बुद्धि की पकड़ में नहीं आ सकते । और यदि शब्द पूर्ण ज्ञान तक ले जाने वाली सीढ़ी के सुरक्षित तथा स्थिर डण्डे बनाये गए होते तो मुझे भी अपने शब्दों को सुरक्षित तथा स्थिर डण्डे बनाने में प्रसन्नता होती ।
इसलिये यदि तुम उन ऊंचाइयों, गहराइयों और चौड़ाइयों तक पहुँचना चाहते हो जिन तक मीरदाद तुम्हे पहुँचाना चाहता है, तो बुद्धि से बड़ी किसी शक्ति के द्वारा शब्दों से बड़ी किसी वस्तु का सहारा लो ।
शब्द, अधिक से अधिक, बिजली की कौंध हैं जो क्षितिजों की झलक दिखती हैं; ये उन क्षितिजों तक पहुँचने का मार्ग नहीं हैं ;
स्वयं क्षितिज तो बिलकुल नहीं । इसलिए जब मैं तुम्हारे सम्मुख माँ–अण्डाणु और अण्डाणुओं की, तथा विराट-परमात्मा और लघु-परमात्मा की बात करता हूँ तो मेरे शब्दों को पकड़कर न बैठ जाओ, बल्कि कौंध की दिशा में चलो ।
तब तुम देखोगे कि मेरे शब्द तुम्हारी कमजोर बुद्धि के लिये बलशाली पंख हैं ।अपने चारों ओर की प्रकृति पर ध्यान दो ।क्या तुम उसे अण्डाणु के नियम पर रची गई नहीं पाते हो ? हाँ, अण्डाणु में तुम्हे सम्पूर्ण सृष्टि की कुंजी मिल जायेगी ।
तुम्हारा सिर, तुम्हारा ह्रदय,तुम्हारी आँख अण्डाणु हैं । अण्डाणु है हर फूल और उसका हर बीज ।
अंडाणु है पानी की एक बूँद तथा प्रत्येक प्राणी का प्रत्येक वीर्याणु ।
और आकाश में अपने रहस्यमय मार्गों पर चल रहे अनगिनत नक्षत्र क्या अण्डाणु नहीं हैं
जिनके अंदर प्रसार की भिन्न-भिन्न
अवस्थाओं में पहुँचा हुआ जीवन का
सार—लघु–परमात्मा—निहित है ?
क्या जीवन निरंतर अण्डाणु में से ही नहीं निकल रहा है और वापस अण्डाणु में ही नहीं जा रहा है ? निःसंदेह चमत्कारपूर्ण और निरंतर है सृष्टि की प्रक्रिया ।
जीवन का प्रवाह माँ अण्डाणु कि सतह से उसके केंद्र तक, तथा केंद्र से वापस सतह तकबीना रुके जारी रहता है ।
केंद्र- स्थित लघु- परमात्मा जैसे-जैसे समय तथा स्थान में फैलता जाता है, जीवन के निम्नतम वर्ग से जीवन के उच्चतम वर्ग तक एक अण्डाणु से दूसरे अण्डाणु में प्रवेश करता चला जाता है ।
सबसे नीचे का वर्ग समय तथा स्थान में सबसे कम फैला हुआ है और सबसे ऊँचा बर्ग सबसे अधिक । एक अण्डाणु से दूसरे अण्डाणु में जाने में लगने वाला समय भिन्न-भिन्न होता है–कुछ स्थितियों पलक की एक झपक होता है तो कुछ में पूरा युग ।
और इस प्रकार चलती रहती है सृष्टि की प्रक्रिया जब तक माँ–अण्डाणु का खोल टूट नहीं जाता और लघु-परमात्मा विराट-परमात्मा होकर बाहर नहीं निकल आता ।इस प्रकार जीवन एक प्रसार, एक वृद्धि और एक प्रगति है, लेकिन उस अर्थ में नहीं जिस अर्थ में लोग वृद्धि और पगति का उल्लेख प्रायः करते हैं; क्योंकि उनके लिए वृद्धि है आकार में बढ़ना, और प्रगति आगे बढ़ना ।
जबकि वास्तव में वृद्धि का तात्पर्य है समय और स्थान में सब तरफ फैलना ; और प्रगति का तात्पर्य है सब दिशाओं में समान गति ; पीछे भी और आगे भी, और नीचे तथा दायें-बायें और ऊपर भी ।
अतएव चरम वृद्धि है स्थान से परे फ़ैल जाना और चरम प्रगति है समय की सीमाओं से आगे निकल जाना, और इस प्रकार विराट-परमात्मा में लीन हो जाना और समय तथा स्थान के बन्धनों में से निकलकर परमात्मा की स्वतन्त्रता तक जा पहुँचना जो स्वतन्त्रता कहलाने योग्य एकमात्र अवस्था है ।
और यही है वह नियति जो मनुष्य के लिये निर्धारित है ।इन शब्दों पर ध्यान दो, साधुओ । यदि तुम्हारा रक्त तक इन्हे प्रसन्नता पूर्वक न कर ले, तो सम्भव है कि अपने आप और दूसरों को स्वतन्त्र कराने के तुम्हारे प्रयत्न तुम्हारी और उनकी जंजीरों में और अधिक बेड़ियां जोड़ दें ।
मीरदाद चाहता है कि तुम इन शब्दों को समझ लो ताकि इन्हें समझने में तुम सब तड़पने वालों की सहायता कर सको ।
मीरदाद चाहता है कि तुम स्वतन्त्र हो जाओ ताकि उन सब लोगों को जो आत्म-विजयी और स्वतन्त्र होने के लिए तड़प रहे हैं तुम स्वतन्त्रता तक पहुँचा सको । इसलिए मीरदाद अण्डाणु के इस नियम को और अधिक स्पष्ट करना चाहेगा, खासकर जहाँ तक इसका सम्बन्ध मनुष्य से है ।
मनुष्य से नीचे जीवों के सब वर्ग सामूहिक अण्डाणुओं में बन्द हैं । इस तरह पौधों के लिए उतने ही अण्डाणु हैं जितने पौधों के प्रकार हैं,
जो अधिक विकसित हैं उनके अंदर सभी कम विकसित बन्द हैं और यही स्थिति कीड़ों, मछलियों और स्तनपायी जीवों की है; सदा ही जीवन के एक अधिक विकसित वर्ग के अन्दर उससे नीचे के सभी वर्ग बन्द होते हैं ।
जैसे साधारण अण्डे के भीतर की जर्दी और सफेदी उसके अंदर के चूजों के भ्रूण का पोषण और विकास करती है, वैसे ही किसी भी अण्डाणु में बन्द सभी अण्डाणु उसके अन्दर के लघु-परमात्मा का पोषण और विकास करते हैं ।
प्रत्येक अण्डाणु में समय- स्थान का जो अंश लघु-परमात्मा को मिलता है, वह पिछले अण्डाणु में मिलने वाले अंश से थोड़ा भिन्न होता है ।
इसलिए समय-स्थान में लघु-परमात्मा के प्रसार में अन्तर होता है । गैस में वह बिखरा हुआ आकारहीन होता है, पर तरल पदार्थ में अधिक घना हो जाता है और आकर धारण करने की स्थिति में आ जाता है;
जबकि खनिज में वह एक निश्चित आकार और स्थिरता धारण कर लेता है । परन्तु इन सब स्थितियों में वह जीवन के गुणों से रहित होता है जो उच्चतर श्रेणियों में प्रकट होते हैं। वनस्पति में वह ऐसा रूप अपनाता है जिसमे बढ़ने, अपनी संख्या-वृद्धि करने और महसूस करने की क्षमता होती है।
पशु में वह महसूस करता है, चलता है और संतान पैदा करता है; उसमे स्मरण शक्ति होती है और सोच-विचार के मूल तत्व भी लेकिन मनुष्य में, इन सब गुणों के अतिरिक्त, वह एक व्यक्तित्व और सोच-विचार करने, अपने आपको अभिव्यक्त करने तथा सृजन करने की क्षमता भी प्राप्त कर लेता है ।
निःसंदेह परमात्मा के सृजन की तुलना में मनुष्य का सृजन ऐसा ही है जैसा किसी महान वास्तुकार द्वारा निर्मित एक भव्य मंदिर या सुन्दर दुर्ग की तुलना में एक बच्चे द्वारा बनाया गया तांस के पत्तों का घर। किन्तु है तो वह फिर भी सृजन ही।प्रत्येक मनुष्य एक अलग अण्डाणु बन जाता है,
और विकसित मनुष्य में कम विकसित मानव-अण्डाणुओं के साथ सब पशु, वनस्पति तथा उनके निचले स्तर के अण्डाणु, केंद्रीय नाभिक तक, बन्द होते हैं। जबकि सबसे अधिक विकसित मनुष्य में—आत्म-विजेता में—सभी मानव अण्डाणु और उनसे निचले स्तर के सभी अण्डाणु भी बन्द होते हैं।
किसी मनुष्य को अपने अंदर बंद रखने वाले अण्डाणु का विस्तार उस मनुष्य के समय-स्थान के क्षितिजों के विस्तार से नापा जाता है। जहाँ एक मनुष्य की समय चेतना और उसके शैशव से लेकर वर्त्तमान घडी तक की अल्प अवधि से अधिक और कुछ नहीं समा सकता,
और उसके स्थान के क्षितिजों के घेरे में उसकी दृष्टी की पहुँच से परे का कोई पदार्थ नहीं आता, वहाँ दूसरे व्यक्ति के क्षितिज स्मरणातीत भूत और सुदूर भविष्य को, तथा स्थान की लम्बी दूरियों को जिन पर अभी उसकी दृष्टी नहीं पड़ी है अपने घेरे में ले आते हैं।
प्रसार के लिए सब मनुष्यों को समान भोजन मिलता है, पर उनका खाने और पचाने का सामर्थ्य समान नहीं होता ; क्योंकि वे एक ही अण्डाणु में से एक ही समय और एक ही स्थान पर नहीं निकले हैं।
इसलिए समय-स्थान में उनके प्रसार में अन्तर होता है; और इसी लिये कोई दो मनुष्य ऐसे नहीं मिलते जो हूबहू एक जैसे हों।सब लोगों के सामने प्रचुर मात्रा में और खुले हाथों परोसे गये भोजन में से एक व्यक्ति स्वर्ण की शुद्धता और सुंदरता को देखने का आनंद लेता है और तृप्त हो जाता है,
जब कि दूसरा स्वर्ण का स्वामी होने का रस लेता है और सदा भूखा रहता है। एक शिकारी एक सुंदर हिरनी को देखकर उसे मारने और खाने के लिये प्रेरित होता है; एक कवी उसी हिरनी को देखकर मानो पंखों पर उड़ान भरता हुआ उस समय और स्थान में जा पहुँचता है जिसका शिकारी कभी सपना भी नहीं देखता ।
एक आत्म-विजेता का जीवन हर व्यक्ति के जीवन को हर ओर से छूता है, क्योंकि सब व्यक्तियों के जीवन उसमे समाये हुये हैं। परन्तु आत्म-विजेता के जीवन को किसी भी व्यक्ति का जीवन हर ओर से नहीं छूता। अत्यन्त सरल व्यक्ति को आत्म-विजेता अत्यन्त सरल प्रतीत होता है। अत्यन्त विकसित व्यक्ति को वह अत्यन्त विकसित दिखाई देता है।
किन्तु आत्म-विजेता के सदा कुछ ऐसे पक्ष होते हैं जिन्हे आत्म-विजेता के सिवाय और कोई न कभी समझ सकता है, न महसूस कर सकता है। यही कारण है कि वह सबके बीच में रहते हुए भी अकेला है; वह संसार में है फिर भी संसार का नहीं है।
लघु-परमात्मा बन्दी नहीं रहना चाहता। वह मनुष्य की बुद्धि से कहीं ऊँची बुद्धि का प्रयोग करते हुये समय तथा स्थान के कारावास से अपनी मुक्ति के लिये सदैव कार्य-रत रहता है। निम्न स्तर के लोगों में इस बुद्धि को लोग सहज-बुद्धि कहते हैं।
साधारण मनुष्यों में वे इसे तर्क और उच्च कोटि के मनुष्यों में इसे दिव्य बुद्धि कहते हैं। यह सब तो वह है ही, पर इससे अधिक भी बहुत कुछ है। यह वह अनाम शक्ति है जिसे कुछ लोगों ने ठीक ही पवित्र शक्ति का नाम दिया है, और जिसे मीरदाद दिव्य ज्ञान कहता है।
समय के खोल को बेधने वाला और स्थान की सीमा को लाँघने वाला प्रथम मानव- पुत्र ठीक ही प्रभु का पुत्र कहलाता है। उसका अपने ईश्वरत्व का ज्ञान ठीक ही पवित्र शक्ति कहलाता है।
किन्तु विश्वास रखो तुम भी प्रभु के पुत्र हो, और तुम्हारे अन्दर भी वह पवित्र शक्ति अपना कार्य कर रही है। उसके साथ कार्य करो उसके विरुद्ध नहीं।परन्तु जब तक तुम समय के खोल को बेध नहीं देते और स्थान की सीमा को लाँघ नहीं जाते, तब तक कोई यह न कहे, ”मैं प्रभु हूँ”।
बल्कि यह कहो ” प्रभु ही मैं हैं।” इस बात को अच्छी तरह ध्यान में रखो, कहीं ऐसा न हो कि अहंकार तथा खोखली कल्पनाएँ तुम्हारे ह्रदय को भ्रष्ट कर दें और तुम्हारे अन्दर हो रहे पवित्र शक्ति के कार्य का विरोध करें। क्योंकि अधिकाँश लोग पवित्र शक्ति के विरुद्ध कार्य करते हैं, और इस प्रकार अपनी अंतिम मुक्ति को स्थगितकअऋ देते हैं।
समय को जीतने के लिए यह आवश्यक है कि तुम समय द्वारा ही समय के विरुद्ध लड़ो। स्थान को पराजित करने के लिए यह आवश्यक है कि तुम स्थान को ही स्थान का आहार बनने दो।
दोनों में से एक का भी स्नेहपूर्ण स्वागत करना दोनों का बन्द होना तथा नेकी और बदी की अन्तहीन हास्य-जनक चेष्टाओं का बन्धक बने रहना है।
जिन लोगों ने अपनी नियति को पहचान लिया है और उस तक पहुँचने के लिए तड़पते हैं, वे समय के साथ लाड़ करने में समय नहीं गँवाते और न ही स्थान में भटकने में अपने कदम नष्ट करते हैं।
सम्भव है कि वे एक ही जीवन- काल में युगों को समेट लें तथा अपार दूरियों को मिटा दें। वे इस बात की प्रतीक्षा नहीं करते कि मृत्यु उन्हें उनके इस अण्डाणु से अगले अण्डाणु में ले जाये;
वे जीवन पर विश्वास रखते हैं कि बहुत से अण्डाणुओं के खोलों को एक साथ तोड़ डालने में वह उनकी सहायता करेगा। इसके लिए तुम्हे हर वस्तु के मोह का त्याग करना होगा,
ताकि समय तथा स्थान की तुम्हारे ह्रदय पर कोई पकड़ न रहे। जितना अधिक तुम्हारा परिग्रह होगा, उतने ही अधिक होंगे तुम्हारे बन्धन।
जितना कम तुम्हारा परिग्रह होगा, उतने ही कम होंगे तुम्हारे बन्धन।
हाँ, अपने विश्वास, अपने प्रेम
तथा दिव्य ज्ञान के द्वारा
मुक्ति के लिये अपनी तड़प के
अतिरिक्त हर वस्तु की
लालसा को त्याग दो।

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