Thursday 30 October 2014

(hindi) किताब ए मीरदाद - अध्याय - 29 / 30

अध्याय 29
     मीरदाद कोई चमत्कार करने नहीं आया
     दिव्य ज्ञान अपने आप में ही चमत्कार है .

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शमदाम साथियों को मनाकर अपने साथमिलाने का असफल यत्न करता है मीरदाद चमत्कारपूर्ण ढंग से लौटता है और शमदाम के अतिरिक्त सभी साथियों को विश्वास का चुम्बन प्रदान करता है
नरौंदा ; जाड़े ने हमें आ दबोचा था, बहुत सख्त, बर्फीले, कँपा देने वाले जाड़े ने । सातों साथी कभी आशा तो कभी संदेह की लहरों के थपेड़े खा रहे थे ।
मिकेयन, मिकास्तर, जामोरा इस आशा का दामन थामे हुए थे कि मुर्शिद अपने वचन के अनुसार लौट आयेंगे । बेनून, हिम्बल तथा अबिमार मुर्शिद के लौटने के बारे में संदेह को पकडे बैठे थे ।
लेकिन सब एक भयानक खालीपन तथा वेदनापूर्ण निरर्थकता का अनुभव कर रहे थे । नौका शीत-ग्रस्त थी निष्ठुर और स्नेह हीन । उसकी दीवारों पर एक वर्फीली खामोशी छाई हुई थी,
यदयपि शमदाम उसमे जीवन तथा उत्साह का संचार करने का भरपूर प्रयास कर रहा था । क्योंकि जब मीरदाद को ले जाया गया तब से शमदाम दया के द्वारा हमें वश में करने की कोशिश कर रहा था ।
पर उसकी नम्रता और स्नेह ने हमें उससे और अधिक दूर कर दिया ।
शमदाम ; मेरे साथियो, यदि तुम समझते हो कि मैं मीरदाद से घृणा करता हूँ तो तुम मेरे साथ अन्याय कर रहे हो । मुझे तो सच्चे दिल से उसपर दया आती है । मीरदाद एक बुरा व्यक्ति भले ही न हो लेकिन वह एक खतरनाक आदर्शवादी है,
और जिस सिद्धान्त का वह इस ठोस वास्तविकता और व्यावहारिकता के जगत में प्रचार कर रहा, वह सर्वथा अव्यावहारिक और झूठा है । गत कई वर्षों में नौका का प्रबन्ध कौन मुझसे अधिक लाभदायक ढंग से चला सकता था ?
जिसका हम इतने समय से निर्माण करते आ रहे हैं वह सब एक अजनबी के हाथों क्यों नष्ट करने दिया जाए । और जहां विश्वास का प्रभुत्व था वहाँ उसे अविश्वास का, तथा जहाँ शांती का राज्य था वहाँ उसे कलह का बीज क्यों बोने दिया जाए ?
वह हवा में, अपार शून्य में एक नौका जुटाने का वादा करता है .एक पागल का सपना, एक बचकानी कल्पना, एक मधुर असंभावना ।
क्या वह माँ नौका के संस्थापक पिता नूह से भी अधिक समझदार है ? उसकी बे-सर पैर की बातों पर विचार करने के लिए तुमसे कहते हुए
मुझे बहुत दुःख हो रहा है ।
मीरदाद के विरुद्ध अपने मित्र बेसार के सुलतान से उसकी सशक्त भुजाओं की सहायता मांगकर मैंने नौका तथा उसकी पवित्र परम्पराओं के प्रति अपराध भले ही किया हो, किन्तु मैं तुम्हारी भलाई चाहता था ।
किन्तु अब, मेरे साथियो, मैं अपने आपको हजरत नूह के प्रभु तथा उनकी नौका की, और तुम्हारी सेवा में समर्पित करता हूँ । पहले की तरह प्रसन्न रहो ताकि तुम्हारी प्रसन्नता से मेरी प्रसन्नता पूर्ण हो जाए ।
नरौंदा ; यह कहते-कहते शमदाम रो पड़ा । बहुत दयनीय थे उसके आंसू क्योंकि आंसू बहाने वाला वह अकेला था ; उसके आंसुओं को हमारे ह्रदय और आँखों में कोई साथी नहीं मिल रहा था । एक दिन प्रातःकाल, जब धुंधले मौसम की लम्बी घेराबन्दी के बाद सूर्य ने पहाड़ियों पर अपनी किरणें बिखेरीं, ज़मोरा ने अपना रबाब उठाया और गाने लगा अब जम गया है गाना शीतहत होठों परमेरे रबाब के ।
घिर गया बर्फ में सपना बर्फ से घिरे ह्रदय में मेरे रबाब के । है श्वांस कहाँ वह तेरे गाने को जो दे पिघला ऐ रबाब मेरे ? हैं हाथ कहाँ वह तेरे सपने को जो छुड़वा दें , ऐ रबाब मेरे ? बेसार के तहखाने में । आओ, ऐ भिखारिन वायु , मांग लो मेरी खातिरइक गाना जंजीरों से बेसार के तहखाने की ।
जाओ , ऐ चतुर रवि किरणो, चुरा लाओ मेरी खातिरएक सपना जंजीरों सेबेसार के तहखाने की । पंख गरुड़ का मेरेछाया था पुरे नभ पर,उसके नीचे मैं राजा । अब हूँ अनाथ इक केवल और परित्यक्त इक बालक, है नभ पर राज उलूक का,क्योंकि उड़ गया गरुड़ है बहुत दूर एक नीड़ को …….बेसार के तहखाने को ।
नरौंदा ; ज़मोरा के हाथ शिथिल हो गये, सर रबाब पर झुक गया और उसकी आँखों से आंसू टपक पड़ा । उस आंसू ने हमारी दबी हुई वेदना के बाँध को तोड़ दिया और हमारी आँखों से आंसुओं की धारा बह चली।
मिकेयन सहसा उठकर खड़ा हो गया,
और ऊँचे स्वर में यह कहते हुए
कि मेरा दम घुट रहा है । वह तेजी से बाहर खुली हवा में चला गया । जामोरा मिकास्तर और मैं उसके पीछे-पीछे चार दिवारी के द्वार तक पहुँच गए जिससे आगे बढ़ने का साहस करने की
अनुमति साथियों की नहीं थी.
मिकेयन ने एक जोरदार झटके के साथ भारी अर्गला को खींच लिया, धक्का देकर द्वार खोल दिया और पिंजरे से भागे बाघ की तरह बाहर निकल गया अन्य तीनो भी मिकेयन के साथ-साथ बाहर चले आये ।
सूर्य की सुहावनी गर्मी और चमक थी, और उसकी किरणे जमी हुई बर्फ से टकराते हुए मुड़कर अपनी चमक से हमारी आँखों को चकाचोंध कर रहीं थी, जहाँ तक दृष्टी पहुँचती बर्फ से ढकी ऊँची-नीची वृक्ष-रहित पहाड़ियाँ हमारे सामने फैली हुई थीं लगता था मानो सब कुछ प्रकाश के विलक्षण रंगों से प्रदीप्त है चारों ओऱ गहरी ख़ामोशी छाई हुई थी जो कानो में चुभ रही थी, केवल हमारे पैरों के नीचे चरमरा रही बर्फ उस ख़ामोशी के जादू को तोड़ रही थी ।
हवा यदयपि शरीर को वेध रही थी , फिर भी हमारे फेफड़ों को इस तरह दुलार रही थी कि हमें लग रहा था हम अपनी ओऱ से कोई यत्न किये बिना ही उड़े जा रहे हैं । और तो और, मिकेयन की मनोदशा भी बदल गई । वह रूककर ऊँची आवाज में बोला, ” कितना अच्छा लगता है साँस ले सकना ।
आह, केवल सांस ले सकना ।
और सचमुच ऐसा लगा कि हमने पहली बार स्वतन्त्रता से सांस लेने का आनंद पाया है और सांस के अर्थ को जाना है ।हम थोड़ी दूर चले ही थे कि मिकास्तर को दूर ऊँचे टीले पर एक काली छाया सी दिखाई दी । हममें से कुछ ने सोचा याक कोई अकेला भेड़िया है ; कुछ को लगा वह एक चट्टान है । पर वह छाया हमारी ओर आती लग रही थी ; हमने उसकी दिशा में चलने का निश्चय किया ।
वह हमारे निकट और निकट आती गई और धीरे-धीरे उसने एक मानवीय आकार धारण कर लिया ।
अचानक मिकेयन ने आगे की ओर छलाँग लगाते हुए जोर से कहा अरे ” ये तो वही हैं ! ये तो वही हैं !और वे थे भी वही — उन्ही की मनमोहक चाल, उन्ही की गौरवशाली मुद्रा, उन्ही का गरिमामय उन्नत मस्तक । परन्तु उनके काले, स्वप्न दर्शी, सदा की तरह ज्योतिर्मय नेत्रों से गम्भीर शांति और विजयी प्रेम की लहरें प्रभावित हो रहीं थीं ।
मिकेयन सबसे पहले उनके पास पहुंचा । सिसकते तथा हँसते हुए उनके चरणो में गिर गया और बेसुधी- की-सी दशा में बड़बड़ाया ” मेरी आत्मा मुझे वापिस मिल गई ।”एक एक सभी उनके चरणों में गिर पड़े । मुर्शिद ने एक एक करके उठाया असीम प्यार से हर एक को गले लगाया और कहा ;मीरदाद ; विश्वास का चुम्बन ग्रहण करो । अब से तुम विश्वास में सोओगे और विश्वास में जागोगे ; संदेह तुम्हारे तकिये में बसेरा नहीं करेगा,
और न ही तुम्हारे कदमो को अनिश्चय के द्वारा जकड़ेगा । शमदाम शून्य दॄष्टि से देखता रहा । वह सर से पैर तक काँप रहा था उसका चेहरा मुर्दे जैसा पीला पद गया था । अचानक वह अपने आसन से सरका और हाथो तथा पैरों के बल रेंगते हुए वहाँ जा पहुँचा जहाँ मुर्शिद खड़े थे ।
उसने मुर्शिद के पैरों को अपनी बाहों में ले लिया और जमीन की तरफ मुंह किये हुए व्याकुलता के साथ कहा ” मुझे भी विश्वास है ।” मुर्शिद ने उसे भी उठाया, लेकिन उसे चूमे बिना कहा ;मीरदाद ; यह भय है जो शमदाम के भारी- भरकम शरीर को कँपा रहा है और उससे कहलवा रहा है ” मुझे भी विश्वास है । शमदाम उस जादू के सामने काँप रहा है और सिर झुका रहा है जिसने मीरदाद को काले – खड्ड तथा बेसार की कालकोठरी से बाहर निकाल दिया ।
और शमदाम को डर है कि उससे बदला लिया जाएगा । इस बारे में उसे निश्चिन्त रहना चाहिए और अपने ह्रदय को विश्वास की दिशा में मोड़ना चाहिए । वह विश्वास जो भय की लहरों पर उठता है, भय का झाग मात्र होता है ; वह भय के साथ उठता है और उसी के साथ बैठ जाता है । सच्चा विश्वास प्रेम की टहनी पर ही खिलता है, और कहीं नहीं । उसका फल होता है दिव्य ज्ञान ।
अगर तुम्हे प्रभु से डर लगता है तो प्रभु पर विश्वास मत करो । ….शमदाम ; ( पीछे हटते हुए आँखें निरंतर फर्श पे गड़ाये हुए ) अपने ही घर में अनाथ और बहिष्कृत है शमदाम कम से कम एक दिन के लिए तो मुझे आपका सेवक बनने और आपके लिए कुछ भोजन तथा कुछ गर्म कपडे लाने की अनुमति दें, क्योंकि आपको बहुत भूख लगी होगी और ठण्ड सता रही होगी ।
मीरदाद ; मेरे पास वह भोजन है जिससे रसोई घर अनजान है : और वह गर्माहट है जो ऊन के धागों या आग की लपटों से उधार नहीं ली जा सकती । काश, शमदाम ने अपने भण्डार में वह भोजन और गर्माहट अधिक तथा अन्य खाद्य- सामग्री और ईंधन कम रखे होते । देखो, समुद्र पर्वत-शिखरों पर शीतकाल बिताने आया है ।
शिखर जमे हुए समुद्र को कोट के समान पहनकर प्रसन्न हो रहे हैं, और अपने कोट में गर्माहट महसूस कर रहे हैं । प्रसन्न है समुद्र भी कुछ समय के लिए शिखरों पर इतना शांत, इतना मंत्रमुग्ध हो लेटने में, लेकिन कुछ समय के लिए ही ।
क्योंकि बसंत अवश्य आयेगा, और समुद्र शीतकाल में निष्क्रिय पड़े सर्प की तरह अपनी कुण्डली खोलेगा तथा अस्थाई तौर पर गिरवी रखी अपनी स्वतन्त्रता वापस ले लेगा एक बार फिर वह एक तट से दूसरे तट की ओर लहरायेगा ; एक बार फिर वह हवा पर सवार होकर आकाश की सैर करेगा, और जहाँ चाहेगा फुहार के रूप में अपने आपको बिखेर देगा ।
किन्तु तुम जैसे लोग भी हैं जिनका जीवन एक अन्तहीन शीतकाल और गहरी दीर्घ- निद्रा है । ये वे लोग हैं जिन्हे अभी तक बसंत के आगमन का संकेत नहीं मिला । देखो, मीरदाद वह संकेत है ।
जीवन का संकेत है मीरदाद, मृत्यु का सन्देश नहीं तुम और कब तक गहरी नींद सोते रहोगे ? विश्वास करो शमदाम जो जिंदगी लोग जीते हैं और जो मौत वे मरते हैं दोनों ही दीर्घ – निद्रा हैं । और मैं लोगों को उनकी नींद से जगाने और उनकी गुफाओं और बिलों से निकालकर उन्हें अमर जीवन की स्वतंत्रता में ले जाने के लिए आया हूँ । मुझ पर विश्वास करो मेरी खातिर नहीं, तुम्हारी अपनी खातिर ।
मीरदाद ; बेसार का बंदीगृह अब बंदीगृह नहीं रहा, एक पूजा- स्थल बन गया है । बेसार का सुलतान भी अब सुलतान नहीं रहा । आज वह तुम्हारी तरह सत्य का खोजी यात्री है । किसी अँधेरी कालकोठरी को एक उज्जवल प्रकाश – स्तम्भ में बदला
जा सकता है, बेनून ।
किसी अभिमानी सुलतान को भी सत्य के मुकुट के सामने अपना मुकुट त्यागने के लिए प्रेरित किया जा सकता है ।
और क्रुद्ध जंजीरों से भी दिव्य
संगीत उत्पन्न किया जा सकता है
दिव्य ज्ञान के लिए
कोई काम चमत्कार नहीं है ।
चमत्कार तो स्वयं दिव्य ज्ञान है ।
अध्याय 30
   मुर्शिद आप के सभी
  सपनों को जानता है
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  ☞निज घर के लिए महाविरह ☜
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          मुर्शिद मिकेयन का स्वप्न सुनाते हैं
नरौंदा ; मुर्शिद के बेसार से लौटने से पहले और इसके बाद काफी समय तक हमने मिकेयन को एक मुसीबत में पड़े व्यक्ति कि तरह आचरण करते देखा । अधिकतर वह अलग रहता, न कुछ बोलता, न खता और कम ही अपनी कोठरी से बाहर निकलता । एक दिन जब मिकेयन तथा बाक़ी साथी अँगीठी के चारों ओर बैठे आग ताप रहे थे, मुर्शिद ने ” निज घर के लिए महाविरह ” के विषय में प्रवचन आरम्भ किया ।
मीरदाद ; एक बार किसी ने एक सपना देखा, और वह सपना यह था ; उसने अपने आपको एक चौड़ी, गहरी खामोशी से बहती नदी के हरे-भरे तट पर खड़े देखा । तट हर आयु के और हर बोली बोलनेबाले स्त्री-पुरुष और बच्चों के विशाल समूह से भरा हुआ था । सबके पास अलग-अलग नाप तथा रंग के पहिये थे जिन्हे वे तट पर ऊपर और नीचे की ओर ठेल रहे थे ।
ये जन-समूह शोख रंग के वस्त्र पहने हुए थे और मौज मनाने तथा खाने – पीने के लिए निकले थे । उनके कोलाहल से वातावरण गूंज रहा था । अशांत सागर की लहरों की तरह वे ऊपर-नीचे, आगे-पीछे आ-जा रहे थे । वही एक ऐसा व्यक्ति था जो दावत के लिए सजा- सँवरा नहीं था, क्योंकि उसे किसी दावत की जानकारी नहीं थी ।
और केवल उसी के पास ठेलने के लिए कोई पहिया नहीं था । उसने बड़े ध्यान से सुनने का यत्न किया, पर उस उस बहुभाषी भीड़ से वह एक भी ऐसा शब्द नहीं सुन पाया जो उसकी अपनी बोली से मिलता हो, उसने बड़े ध्यान से देखने का यत्न किया,।
पर उसकी दॄष्टि एक भी ऐसे चेहरे पर नहीं अटकी जो उसका जाना पहचाना हो । इसके अतिरिक्त भीड़ जो उसके चारों ओर उमड़ रही थी उसकी ओर अर्थ – भरी नजरें डाल रही थी मानो कह रही हों, ” यह विचित्र व्यक्ति कौन है ?”
फिर अचानक उसकी समझ में आया यह दावत उसके लिए नहीं है ; और तब उसके मन में एक टीस उठी । …….शीघ्र ही उसे तट के ऊपरी सिरे से आती हुई एक ऊँची गरज सुनाई दी, और उसी क्षण उसने देखा वे असंख्य लोग दो पंक्तियों में बँटते हुए घुटनो के बल झुक गए, उन्होंने अपने हाथों से अपनी आँखें बंद कर लीं और अपने सर धरती पर झुका दिये ;
और उन पंक्तियों के बीच तट की पूरी लम्बाई तक एक खली, सीधा और तंग रास्ता बन गया और वह अकेला ही रास्ते के बीच खड़ा रह गया ।
वह समझ नहीं पा रहा था कि वह क्या करे और किस ओर मुड़े । जब उसने उस ओर देखा जिधर से गरज कि आवाज आ रही थी तो उसे एक बहुत बड़ा साँड़ दिखाई दिया जो मुंह से आग की लपटें और नथुनों से धुंएँ के अम्बार, और जो उस मार्ग पर बिजली की गति से बेतहाशा दौड़ता हुआ आ रहा था ।
भयभीत होकर उसने उस क्रोधोन्मत्तपअस की ओर देखा तथा दाईं या बाईं तरफ भागकर बचना चाहा, पर बचाव का कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया । उसे लगा वह जमीन में गाड़ गया और अब मृत्यु निश्चित है ।
ज्यों ही साँड़ उसके इतना नजदीक पहुंचा कि उसे झुलसाती लौं और धुआँ महसूस हुआ, उसे किसी ने हवा में उठा लिया । उसके नीचे खड़ा साँड़ ऊपर की ओर आग और धुंआं छोड़ रहा था ; किन्तु वह ऊँचा और ऊँचा उठता गया, और यद्यपि आग और धुंआं उसे अब भी महसूस हो रहे थे तो भी उसे कुछ विश्वाश हो गया था कि अब साँड़ उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता ।
उसने नदी को पार करना शुरू कर दिया। नीचे हरे-भरे तट पर उसने दृष्टी डाली तो देखा कि जन समुदाय अब भी पहले की तरह घुटनोके बल झुका हुआ है, और साँड़ अब उस पर आग और धुएँ के बजाय तीर छोड़ रहा है । अपने नीचे से होकर निकलने रहे तीरों की सरसराहट उसे सुनाई दे रही थी ; उसमे से कुछ उसके कपड़ों में धँस गए, पर उसके शरीर को एक भी न छू सका ।
आखिर साँड़, भीड़, नदी आँखों से ओझल हो गए ; और वह व्यक्ति उड़ता चला गया । उड़ते उड़ते वह एक सुनसान, धूप से झुलसे भू-खण्ड पर से गुजरा जिस पर जीवन का कोई चिन्ह न था । अंत में वह एक ऊँचे, बीहड़ पर्वत की उजाड़ तलहटी में उतरा जहाँ घांस की एक पत्ति तो क्या, एक छिपकली, एक चींटी तक न थी । उसे लगा कि पर्वत के ऊपर से होकर जाने के सिवाय उसके लिए कोई चारा नहीं है ।
बड़ी देर तक वह ऊपर चढ़ने का कोई सुरक्षित मार्ग ढूँढता रहा, किन्तु उसे एक पगडण्डी ही मिली जो मुश्किल से दिखाई देती थी , और जिस परसिर्फ बकरियां ही चल सकती थीं । उसने उसी राह पर चलना निश्चय किया ।वह अभी कुछ सौ फुट ही ऊपर चढ़ा होगा कि उसे अपनी बाईं ओर निकट ही एक चौड़ा और समतल मार्ग दिखाई दिया ।
वह रुका और अपनी पगडन्डी को छोड़ने बल ही था कि वह मार्ग एक मानवीय प्रवाह बन गया जिसका आधा भाग बड़े श्रम से ऊपर चढ़ रहा था, और दूसरा आधा भाग अंधाधुंध बड़ी तेजी के साथ पहाड़ से नीचे आरहा था । अनगिनत स्त्री पुरुष संघर्ष करते हुए ऊपर चढ़ते, और फिर कलाबाजी खाते हुए नीचे लुढक जाते थे, और जब बे नीचे लुढ़कते थे तो ऐसी चीख -पुकार करते थे कि दिल दहल जाता था ।
वह व्यक्ति थींदी देर यह अद्भुत दृष्य देखता रहा और मन ही मन इस नतीजे पर पहुंचा कि पहाड़ के ऊपर कहीं एक बहुत बड़ा पागलखाना है, और नीचे लुड़कने वाले लोग उनमे से निकल भागने वाले पागलों में से कुछ हैं । कभी गिरते तो कभी संभलते हुए वह अपनी घुमावदार पगडण्डी पर चलता रहा, लेकिन चक्कर काटते हुए वह निरंतर ऊपर की ओर बढ़ता गया |
थके, बोझिल पैरों से मार्ग पर रक्त-चिन्ह छोड़ते हुए वह आगे बढ़ता गया । कठिन जी-तोड़ परिश्रम के बाद वह एक ऐसी जगह पहुँचा जहाँ मिटटी नरम और पत्थरों से रहित थी । उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा जब उसे चारों ओर घांस के कोमल अंकुर दिखाई दिए ; घांस इतनी नरम थी और मिटटी इतनी मखमली और हवा इतनी सुगंधमय और शान्ति दायक कि उसे वैसा ही अनुभव हुआ जैसा अपनी शक्ति के अंतिम अंश को खो देने वाले किसी व्यक्ति को होता है ।
अतएव उसने हाथ-पैर ढीले छोड़ दिए उसे नींद आगई । किसी हाथ के स्पर्श और एक आवाज ने उसे जगाया, ”उठो ! शिखर सामने है और बसंत शिखर पर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है ।” वह हाथ और वह स्वर था स्वर्ग की अप्सरा-सी एक अत्यंत रूपवती कन्या का जो अत्यंत उज्जवल सफ़ेद वस्त्र पहने थी ।
उस कन्या ने कोमलता-पूर्वक उस व्यक्ति का हाथ अपने हाथ में लिया और एक नै स्फूर्ति तथा उत्साह के साथ वह उठ खड़ा हुआ उसे सचमुच शिखर दिखाई दिया । उसे सचमुच बसंत की सुगन्ध आई । किन्तु जैसे ही उसने पहला डग भरने को पैर उठाया, वह जाग पड़ा और उसका सपना टूट गया ।
ऐसे सपने से जागकर मिकेयन यदि देखे कि वह चार साधारण दीवारों से घिरे एक साधारण-से बिस्तर पर पड़ा हुआ है, परन्तु उसकी पलकों की ओट में उस कन्या की छवि जगमगा रही हो और उस शिखर की सुगंधपूर्ण कांटी उसके ह्रदय में ताजी हो,
तो वह क्या करेगा ?
मिकेयन ; (मानो उसे सहसा गहरी चोट लगी हो ) पर वह सपना देखने वाला तो मैं हूँ मेरा ही वह सपना । मैंने ही देखा है उस कन्या और शिखर की झलक ।
आज तक वह सपना मुझे रह रह कर सताता है और मुझे ज़रा भी चैन नहीं लेने देता । उसने तो मुझे मेरे लिए ही अजनबी बना दिया है ।
उसी के कारण मिकेयन मिकेयन को नहीं पहचानता । आह ! उस शिखर की स्वतंत्रता ! आह, उस कन्या का सौंदर्य ! कितना तुच्छ है और सब उनकी तुलना में । मेरी अपनी आत्मा उनकी खातिर मुझे छोड़ गई थी । जिस दिन मैंने आपको बेसार से आते देखा उसी दिन मेरी आत्मा मेरे पास लौटी और मैंने अपने आपको शांत तथा सबल पाया ।
पर यह एहसास अब मुझे छोड़ गया है, और अनदेखे तार मुझे एक बार फिर मुझसे दूर खींच रहे हैं । मुझे बचा लो, मेरे महान साथी । मैं वैसे नज़ारे की एक झलक के लिए घुला जा रहा हूँ । मीरदाद ; तुम नहीं जानते, तुम क्या मांग रहे हो, मिकेयन । क्या तुम अपने मुक्तिदाता से मुक्त होना चाहते हो ?
मिकेयन ; मैं इस संसार में, जो अपने घर में इतना सुखी है, बेघर होने की इस असह्य यातना से मुक्त होना चाहता हूँ । मैं उस शिखर पर कन्या के
पास पहुंचना चाहता हूँ ।
ख़ुशी मनाओ कि निज घर के
लिए महाविरह ने तुम्हारे ह्रदय
को जकड लिया है ।
क्योंकि वह एक अटल आश्वासन है कि तुम्हे अपना देश और अपना घर आवश्य मिलेगा और तुम उस शिखर पर उस कन्या के पास अवश्य पहुंचोगे
अबीमार,; कृपया हमें इस विरह के
बारे में और बताएं ।
हम इसे किन चिन्हों से पहचान सकते हैं ?

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