Saturday 18 October 2014

कार्मिक चक् तल




मित्रो !

अभी तक हमने  प्रारब्ध और भाग्य , जीवन और मृत्यु  से सम्बंधित   विभिन तल  और चक्रो को जाना समझा था।  आज इसी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए , कर्म और उसके विभिन्न तलों  का सत्संग करेंगे।  

धर्म में  धार्मिक ग्रंथों में पहले से ही इनका वर्णन है , और इनकी व्याख्या भी है। इसका अर्थ है  मैं जो भी  आपसे कहने जा रही हूँ वो नया नहीं है  पर  समयकाल में  वो इतने गहन दुरूह और  जटिल हो चुके  की अधिकाशं  से  प्रसंग अछूता ही रह जाता है।  मेरा भी मनना  है की सबसे पहली सीढ़ी ध्यान की है।  स्वधर्म ज्ञान की है  इसके बाद ही   जब हम उस व्योम को छूने के अधिकारी हो पाते  है।  ध्यान एक ऐसी प्रक्रिया है , जो प्रथम भी  है और अंतिम भी।  ये स्वयं सघन ज्ञान सहज करती जाती है।  इसी  ध्यान के माध्यम से  कुछ सत्य स्वतः सामने आये , जिनपे पहले भी क्रमबद्ध  तरीके से आपसे बांटती  आई हूँ , इसी श्रृंखला में  आज की चर्चा  शामिल है। 

मुख्यतः कर्म -तल  को तीन  भागो में  देखा जा सकता है  उच्च   मध्य और निम्न।   वस्तुतः  प्रत्यक्ष इनमे कोई भेद नहीं , सारे भेद शाब्दिक है, क्यूंकि  ये  पूर्णतः तरंगित है  आकार रहित है , और कुछ  समझाने का प्रयास  शाब्दिक है  और कुछ समझने का प्रयास शाब्दिक है , अजब  सी बात है किन्तु  इन्ही शब्दों के माध्यम से उस जादुई  तरंग को छूने का प्रयास है  क्यूंकि मनुष्य की  यही  गति है , कुछ भी समझना शब्दों से शुरू होके  तरंगो को छूता है , इसको ज्ञान की श्रेणी  में तब तक रखा जा सकता है  जब तक ये स्वयं का अनुभव न बन जाये। ये कार्मिक - चक्र व्यक्ति के निजी स्वभाव में प्रवेश करके  अपना कार्य करते है।  मनुष्य की  बुद्धि जिस तल  पे विचरण कर रही  होती है उसकी विषय ग्राह्यता वही से  शुरू होती है। अपने  तल से ही वो किसी भी विषय को समझती है  ग्रहण करती है  और आगे भी बढाती है, इस प्रकार   ऐसा लगता है की हर व्यक्ति  अपने मूल स्वभाव-वश   क्रिया   और प्रतिक्रिया में लिप्त होते है , उनकी समझ और व्यवहार भी  कार्मिक  बंधन से ही प्रभावित होते है ।  

ये  बौद्धिक तल  क्या है ?  इसके  सिमित होने के क्या कारन है ?  क्या कोई अवस्था  ऐसी  जहां से  इसे  अपने तल से  ऊर्ध्वगमन  संभव हो ? फिर मैं कहूँगी  जो भी शब्द का उपयोग  है वो सिर्फ  कहने का प्रयास है , वस्तुतः चक्रो के सिर्फ घेरे  है  वहां  शब्द नहीं है  कर्म है  और परिणाम है।   फिर भी उच्च और निम्न जैसे शब्द का उपयोग करना ही पड़ेगा  स्थति को  साफ़ करने के लिए।  वस्तुतः  सब ज्ञान तरंगमय है , चक्रीय घेरे  में है।   ध्यान  की अवस्था में  ये सारे घेरे  स्पष्ट होते है ,  असंख्य  घेरे , जितने  जीव  उतने घेरे , घेरो के भी अपने कारन  और परस्थिति , कुछ प्रारब्ध से जुड़ती  है तो कुछ पिछले कर्म से   आज के कर्म से गुजरति हुई  भविष्य के कर्म की नींव  रखती है।  

इस तरंगमय जगत को  समझने के लिए  तरंग में उतरना ही पड़ेगा।  ध्यान में  केंद्रित हो के  विचार करना ही पड़ेगा।  मेरे कहे को  आप विश्वास करे न या न करें , अपना स्वयं का अनुभव बनाये।  

बौद्धिक तल  व्यक्ति  को सोच  देते है   और निर्णय का आधार बनाते है।  यही से व्यक्ति  अपने या दूसरे के विषय में सही या गलत निर्णय लेते है।  इसलिए  बौद्धिक तल को समझना  महत्वपूर्ण है।   बौद्धिक तल  का निर्धारण  माता के गर्भकाल से ही  शुरू हो जाता है , इसमें  माता का स्वस्थ्य  पिता का का स्वस्थ्य (मानसिक और शारीरिक )  महत्वपूर्ण है।  क्यूंकि बीज का  प्रथम  भोजन  वही से शुरू  होता है , इसके पश्चात  नौ महीने माता की मानसिक स्थति का योगदान , तत्पश्चात  जन्म , जन्म का  वातावरण  स्थान , परिस्थति   समय  के सहयोग से   अपनी  परतें  मस्तिष्क और मन पे  जमाते चलते है  और इस प्रकार एक व्यक्तित्व का निर्माण होता है।  

व्यक्तित्व  यानि की सोच  व्यवहार  और  समस्त  गुण बीज रूप में   जमीन में रोप जा चुके है , इसमें कुछ सकारात्मक है  और कुछ नकारात्मक।  

शरीर के अंदर ये बीज रूप गुण   दो तल पे  वास  करते है , उच्च  और निम्न  और  इनके प्रति मात्र जागरूक हो जाना ही  इनसे परिचय के लिए पर्याप्त है।  मनोविज्ञान  की दृष्टि से जाने  तो  इनका प्रकटीकरण क्रोध , लोभ, मोह, प्रेम, या  घृणा  किसी भी रूप में हो सकता है , अज्ञानता की स्थति में  व्यक्ति  बंद कमल  के समान  होता है , जिसको यदि अपनी अवस्था का मात्र ज्ञान हो जाये  फिर सोया नहीं रह सकता।   पर ये  भाव जब भी आक्रमण करते है  व्यक्ति सुप्त  ही होता है।  यानि अवस्था  होती है , जागृत मस्तिष्क और सोया भाव।  तर्क जागृत मस्तिष्क के  है , निर्णय  जागृत मस्तिष्क  है , कर्म जागृत मस्तिष्क से  है ,  इसलिए ऐसे व्यक्ति का ये मानना  की वो सो रहा है , असंभव ही है।  पूछने पर तनिक  उत्तेजित हो के कहेगा  " देखिये जाग ही तो रहा  हूँ  और समझ भी सब रहा हूँ  यही मेरे जागने का  प्रमाण है। " माने  की सोया व्यक्ति ये माँन ही नहीं सकता की वो सोया है। क्यूंकि  सारे  प्रमाण  और कार्य  तो जागरण के है फिर सोये कैसे !

मात्र  उसकी स्व पीड़ाये ही  उसे जागृत करती है , बार-बार अंदर  कोई खटखटाता है कहता  है  कुछ तो गलत है जो मानस को अस्वस्थ कर रहा है पीड़ा इतनी गहरी है  की सहन करना  असंभव  हो रहा है , इतना विष  इतना दर्द  कहाँ  से आ रहा है , जानो क्या गलत है कहाँ गलत है ? और व्यक्ति का जागरण शुरू होता है।   यही प्रयास उसे पूर्ण जागृत अवस्था तक ले जाता है।   जहाँ से  उसकी संसार के प्रति दृष्टि  ही बदल जाती है। माया   लुप्त तो नहीं   आवरणविहीन जरूर  हो जाती है।   और यही चेतना का जागरण है किन्तु  यह तभी  संभव होता है जब चेतना स्वेक्षा  से तल  बदलती  है और उर्ध्वगामी होती है और  स्ववलोकन  आरम्भ होता है ,  दृष्टि  बाह्य के स्थान पे अंदर  की और मुड़ती है  जिससे  आग्यां चक्र  जाग्रत  होता है , तीसरा नेत्र  खुलता है।  और  वे सभी आयाम जो  रहस्यमयी दुनिया का हिस्सा लगते थे , साकार और सजीव हो उठते है। अनहद का नाद सुनाई देता है , आनंद  जैसे शब्द का वास्तविक अर्थ  पता चलता है।  सब एक एक करके  या फिर अकस्मात्  एक साथ।  


आइये   समझते है , तीन  चक्रीय  घेरे  ये तीन चक्रीय  घेरे  सात सात चक्र  के  समूह के है  हर  चक्र का अपना महत्त्व है  उसके अपने गुण है और  संतुलन न हो पाने के अपने दुष्परिणाम है।   अब कल्पना करें  इस तरंग जगत की  एक  धागे के  सीधे रूप में  जो  अपने  रंगो में रंगे  है , मध्य सात चक्र  को केंद्र  आधार  बना के  सात ऊपर और सात  नीचे  इनके गुणों  का विस्तार है  इनके  नाम है 

उच्च स्थति 

मध्य स्थति 

निम्न स्थति 


इन स्थति के अपने ऊर्जा चक्र है  जिनको चित्र में कहने का प्रयास किया है , ये मात्र तरंग जगत की अति मनोवैज्ञानिक मानसिक स्थतियां  है। जिनको जानना और समझना  आवश्यक है।  इनके आलावा निम्न तल की २१ अधोगति सूक्ष्मतम  चक्र स्थतियों का वर्णन मिलता  है , जो मध्य के   चक्रो द्वारा संचालित और ऊर्जान्वित होती है ये  द्विपथगामी   सूक्ष्तम्  चक्र  पैर ,हाथ , घुटने , कोहनी , कमर , गर्दन , नाभि , कंधे और कान  दवरा अपना कार्य संपादन  करते है।  

ये चक्र  व्रतीयों को भी  निर्देश करते है , जैसे  उच्च स्थति  देवत्व  को , निम्न  राक्षसत्व  को और मध्य मनुष्यस्तव को इंगित करते है।  

इनमे  हर चक्र के साथ  हर स्तर  पे  हर रंग का  मेल होता है , कम या ज्यादा गुणवत्ता के अनुसार।  इन्ही रंगो के मिलान  में  आप  जैसा चित्र में देख रहे है , उच्च ताल पे  बैंगनी प्रकाश  जब उर्धगामी होता है  तो बैंगनी  के साथ मेल खा के ही  उपर  अन्य चक्रो की ओर से होता हुआ उच्छ्तम्  स्थति मूलाधार की ओर अग्रसर होता है , और निम्न  गति में मूलाधार का जोड़ मूलाधार से ही शुरू हो के निम्न फलित  सहस्त्रधार की और बढ़ता है। इसका मात्र इतना ही अर्थ है  की  चक्र अपनी स्थति और स्तर  के अनुसार ही फल देते है।   सहस्त्रधार अगर नीच को उन्मुख  है तो फल निम्न ही देगा , और मूलाधार अगर उर्ध्व को अग्रसर है  तो  उच्च फलदायी होगा।   ये मात्र भाव -स्थ्तिया  है।  मजे की  बात ये की  जिस प्रकार  सातों रंग  समस्त  वातावरण में सामान रूप से व्याप्त है ,  उसी प्रकार ये  तीनो स्तर  भी  अपने तीनो रूपों समेत  में  हर चक्र  में व्याप्त है  हर चक्र के हर भाव में ये तीन स्तर  अपने अपने उच्च और निम्न  शक्ति के साथ मिश्रित है।  

यहाँ इनका जिक्र करना आवश्यक था  क्यूंकि  इन चक्रीय भावों का कार्मिक चक्र  पे खासा प्रभाव है।  अब कार्मिक चक्रों की   चर्चा करते है , कार्मिक  चक्र  इन समस्त  चक्रो के रंगो को अपने आलिंगन  ने घेरे हुए है, और एक एक कार्मिक चक्र  इन रंगो से पूर्ण  है।  एक एक कार्मिक चक्र ने एक एक जीव  को  अपने आवरण में कैद करके रखा है  जिसमे मनुष्य भी आते है।   मनुष्य में सोच  का गुण  है , उसके अंदर  शक्ति  है  जो केंद्र द्वारा उपहार में मिली है  वो है  जानना ( इनफार्मेशन ) >  ज्ञान ( नॉलेज ) >  और मानना (   विजडम ) , इनसे ही  मनुष्य  प्रयास करता है,और  सफल भी होता है।  

ये मनुष्य के प्रयास  ही मनुष्य को मनुष्य  बनाने में  और संतुलन में सहायक भी होते है।   और इन्ही शक्तियों की मदद से  मनुष्य  ध्यान स्थति  हो के  अपनी शक्तियों को जगाता है  , और  फिर इन कार्मिक घेरो के तल को  पराक्रम से बदलने का  साहस  रखता है।   पर ये वो तभी कर पता है जब आंतरिक चेतना का उदय होना आरम्भ होता है , आंतरिक  दर्शन ही उसको  आगे का मार्ग सुगम करते है।  

आश्चर्य की बात ये है ,  ज्ञान  और अनुभव  स्व प्रयास द्वारा  शक्तिशाली छलांग संभव है  क्यूंकि तरंग जगत ऐसा ही है , मात्र जागरूकता  और साक्षित्व  में बड़ी शक्ति है।  परन्तु  सर्वप्रथम  ये भाव आवश्यक है  की भ्रमित करने वाली माया  से निकलना है  जागना है , जन्म जन्मांतर इसी चक्र में उलझे कर्म वो ही दोहराते रहे , बार बार  जन्म लेते रहे  भोग करते रहे  और मृत्यु को गले लगाते  रहे।  ये चेतना भी  इसी दुखमय संसार से  मिलती है।  प्रकर्ति  सुअवसर देती है  बार बार दुखमय  सुखमय  स्थतियां  पैदा  करती ही रहती है , जब स्थतियां असहनीय होती है तो अवसर का सदुपयोग होता है।  किन्तु यहाँ भी  व्यक्ति अपने अपने कार्मिक चक्रो के अनुसार ही  सोच  पाते  है  और निर्णय ले पाते है।   इसीलिए  कार्मिक तल का  जिक्र किया।  यदि कार्मिक तल निम्न है  तो कोई अवसर हो , कैसी भी  परिस्थति हो  वेदना की या  प्रसाद  की। उसकी  बुद्धि मायलिप्त  ही रहेगी , उसकी चेतना का जागरण  नहीं हो सकता , उसके तर्क  भी  बौद्धिक होंगे , व्यवहार  आदि सब  किन्तु उसकी अपने कार्मिक घेरे के स्तर  होंगे।  यही कारन है  की एक ही शब्द  अनेक अर्थ में बदल जाता है  , एक वाक्य  को ग्रहण करने वाले अपने-अपने घेरों के अनुसार   अर्थ ग्रहण करते है और तदनुसार  तार्किक रूप से  बौद्धिक  निर्णय लेते  जाते  है , जो वस्तुतः उनको  सौ प्रतिशत सही ही लगते है ।  

अब देखिये , उच्च स्थति  के घेरे  में …… क्या यहाँ  क्रोध है ?  लोभ है  ?  घमंड है  ? मोह है  ?  द्वेष है  ? और वासनाएं भी  है ? है , अवश्य है परन्तु  प्रभाव वो ही नहीं  जो अन्य स्तर पे इन गुणों  के मिलते है , यद्यपि यदि ये  सारे गुण  देव प्रभाव  युक्त  है  पर  मनुष्यता की  परिधि  में है  जो  इशारा करते है की  मनुष्य अभी मनुष्यता से जुड़ा है और सिर्फ ये   बताते   है की चेतना का उच्छ्तम् विकास की ओर  अग्रसर है परन्तु उस जीव   में अभी भी  कमी है , कुछ दुर्गुण  है  अभी भी बाकी है, इस श्रेणी  में  तमाम आध्यात्मिक उच्च आत्माए उन्नत उच्च कोटि के ज्ञान अनुभव  और शारीरिक लावण्य और  ओज  से प्रभावित करती है क्यूंकि इनकी चेतना  इतनी उन्नत है की  इनकी " औरा " प्रभावशाली हो चुकी है किन्तु  मनुष्य परिधि सीमा  में  जीवित रहने  के कारण अज्ञानता का प्रदर्शन भी  करती पायी गयी है , उनमे भी  ये  सभी मनुष्यगत गुण और दुर्गुण भी  देखे गए है और ऐसे  की श्रद्धालु  सहज विश्वास भी नहीं कर पाते  की उनके पूज्यनीय  उनके श्रद्धेय सामान्य व्यक्ति  जैसे कैसे व्यवहार कर सकते है , मनुष्य को मनुष्य  मानने में कैसा संकोच ? किन्तु  फिर भी इस सत्य को स्वीकार करने में हर्ज भी क्या है  को मानव शरीर में ये मानव  अपनी उच्च अवस्था में है , यदि इस अवस्था के किसी मनुष्य से  किसी दूसरे मनुष्य को  धक्का लगता भी है  तो मात्र स्वयं  के  अधकचरे ज्ञान और काम समय में अधिक पाने की  आकांशा  से ही इन आत्माओं  के प्रलोभन के  चक्कर में आते है , जो स्वयं में ही अभी परिश्रम कर रही है।  परन्तु ये भी   मनुष्य के  कर्म और फल के अंदर ही सब है।  ये भी आवश्यक है , ज्ञान अनुभव का आधार है।   चूँकि संसार में मनुष्य ही है जो हर स्तर  पे समूह  बनाते है , संघ बनाते है, और इस समूह या  संघ नियोजन  के आधार में ही  ऊँची ऊँची  उंचाईयों तक  पहुँचते है ।  तो ये सब भी  फल तो आएंगे ही ।  बस थोड़ा ज्ञान थोड़ी सावधानी।  

किन्तु ध्यान रहे !  इनके परिणाम  फिर भी  निम्न   स्थति जैसे घातक  और विनाशकारी नहीं ।  उच्च स्थति में ये गुण  एक सीमा तक मनुष्यता  का  भला ही करते है ,  भले ही ये उच्च स्थति के  दो घेरों  के मध्य   अहंकार क्रोध  पद  ख्याति  आदि से उपजे मोह  की टकराहट का कारन हो या  फिर ये वर्ग  धन सम्पदा  या  वासना  में भी लिप्त हो ।  नुक्सान तो  पहुँचता है  फिर भी मध्य  स्थति को  ये उस अधिकता से  हानि  नहीं दे सकते , जिस प्रताप  के साथ  निम्न मुखी  चेतनाएं   मनुष्यता को  समाप्त कर सकती है।  इन उच्चश्रेणी की जीवात्माओं से मनुष्य  स्व अज्ञान  से ही  दुःख  नुक्सान  या हानि  को पाते है थोड़े  से ज्ञान और सावधानी  से इनके आघात से बचा जा सकता है , जबकि  निम्न  स्थति को  उन्मुख  ये ही भाव  भयंकर  विनाशकारी यद्ध की स्थति पैदा करते है , मात्र अनर्थ विनाश को ही बढ़ावा मिलता है , जिसका सीधा असर  मनुष्यता पे  पड़ता है।  उदाहरण के लिए प्रथम  और द्वतिया विश्व युद्ध  और अब अधिक  शक्ति  प्रदर्शन के  साथ  तीसरे महा युद्ध की ओर मनुष्यता  के  बढ़ते कदम  दैवत्व  और  राक्षत्व के भाव के साथ। 

उच्च  और निम्न  के बीच एक स्थति  मध्य की है  मनुष्य की , मनुष्यता की   अधिकतर  जीव शक्ति का वास यही पे है  उच्च  और निम्न अति शक्तिशाली  चेतनाओं का वास है।  मध्य  स्तर  पे  वो ही सात चक्र , प्रभावित रंग क्रोध है  लोभ है   घमंड है  मोह है   द्वेष है   वासनाएं  है , किन्तु साथ ही साथ उच्च और निम्न स्तर पे ढुलकने  की  सम्भावनाये भी।   यही  वो  स्तर  है जहाँ  जीव  भक्ति  ध्यान   अध्यात्म की  ओर बढ़ता  है , और यही  वो मध्यस्थल  है जहाँ  से  संदेह  जन्म लेता है और   नासमझ  तमाम  दृष्टिगत  ऊर्जा के  चिन्हों  को अनदेखा करता हुआ अपने ही  विचारो पे दृढ  रहता है , जहाँ न उसको  ईश्वर दीखता है   न  ही  उसकी  करुणा और कृपा , पृथ्वी  समेत  तमाम शक्तिया  मात्र विज्ञानं  की सत्त्ता  के अंदर दिखती है।  एक ही  तर्क उसको मान्य  है वो है विज्ञानं का।  ऐसे जीव  अनीश्वरवाद के समर्थक होते है।   पर  इस तरीके से  भी वो अपने ही प्रारब्ध रचित मार्ग पे चल रहे होते है।  क्यूंकि  एक मार्ग  अध्यात्म का  ऐसा है जहा से कब  किस  जीव  का कदम  मुड़ जाए   स्वयं जीव भी नहीं जानता , कोई नियत मोड़ नहीं , कोई निश्चित  मार्ग नहीं।  बस तरंगित ऊर्जाएं  स्वतः   बहाव  लिए हुए  बहाये ले जाती  है।  और हमें लगता है की हम प्रयास  कर रहे है।  केंद्र  ही आकर्षित करता है  , वस्तुतः  केंद्र ही  यात्रा का  मार्ग और पड़ाव सुनिश्चित करता है , फिर दोहरा दूँ , इस तरंगित जगत में कोई तत्व नहीं कोई आकृति नहीं , बस आकर्षण  और चुंबकत्व  है शक्ति है  और प्रभाव है। प्रकटीकरण तो तत्व से मिल के ऊर्जा का होता है।   जिसको जीव जगत  भी कहते है।  वस्तुतः  इस जीव जगत में  ऊर्जा और तत्व दोनों में   केंद्रित  शक्ति का ही वास है।  

अंत में , स्वज्ञान  और स्वानुभव से शक्तिशाली  कोई अन्य माध्यम  नहीं ,  कार्मिक -चक्र की शक्ति   अपना कार्य करती है परिणाम भी देती है,प्रारब्ध-चक्र  यही   कार्मिक चक्र से संयुक्त हो के , जीव को  अवसर देते है। चूँकि  कार्मिक चक्र भी  कुछ पहले से  किये गए कर्म  परिणाम  समेटे है  यदि कुछ संभव है  तो  वर्तमान  के कार्मिक चक्र को  ही पकड के प्रयास संभव है।   पिछला अपना प्रभाव देगा ही देगा।  उसको  यथावत स्वीकार  करना है , किन्तु वर्तमान अपने हाथ में।  यदि आज का कर्म संभल गया  तो  इस कार्मिक चक्र के घेरे को तोड़ उच्च अवस्था  में स्थित चक्र  के कार्मिक घेरे में छलांग संभव है।  जो  आपको  अन्य आयामो  के दर्शन करा सकती है।  मात्र  ,  पूर्ण स्वीकृति  ,पूर्ण द्विपक्षीय  क्षमा  , और पूर्ण समर्पण सहायक  है।  किसी भी  कर्म  विचार या  निर्णय से पूर्व  याद रखियेगा ,  जीवन स्वयं का है , फल और भोग स्वयं के है , जन्म स्वयं का है और मृत्यु भी स्वयं की है ,  मध्य में जो भी  आते है  वो  अपने अपने  कर्म  से जुड़े है , जैसे आपका वैसे सबका। हर जीव अपनी यात्रा में है  और अकेले ही है।  भोग का कोई साथी नहीं।  मित्रता  और सहयोग भाव के साथ   निजता का भी मान  और प्रेम रखना है।    


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