Thursday 16 October 2014

वृत्ति का निरोध योग : पतंजलि - Osho




इंद्रियज्ञान और अतींद्रियज्ञान में क्या अंतर


वह जो अभी किसी ने पूछा कि इंद्रियज्ञान और अतींद्रियज्ञान में क्या अंतर है ? वह अंतर यही है, इंद्रियज्ञान पर का होता है, अतींद्रियज्ञान स्व का होता है। आंख से मैं आपको देख सकता हूं, आंख से अपने को नहीं देख सकता। हाथ से मैं आपको पकड़ सकता हूं, हाथ से मैं अपने को नहीं पकड़ सकता। कान से मैं आपको सुनता हूं, कान से मैं अपने को नहीं सुन सकता। इंद्रियां और उनका ज्ञान बाहर का है। अगर कहें, इंद्रियों का ज्ञान सुख-दुख का है। इंद्रियों का ज्ञान बाहर का है, इंद्रियों का ज्ञान सुख-दुख का है। एक ज्ञान ऐसा भी है जो इंद्रियों का नहीं है, वह सुख-दुख का नहीं है, वह आनंद का है। इंद्रियां सुख-दुख पर ले जाएंगी, अतींद्रियता आनंद पर ले जाएंगी। इंद्रियों का ज्ञान पर्तें बढ़ाता है, अतींद्रिय का ज्ञान पर्तों को काटता है। तो आंख खोलूंगा तो आपको देख सकता हूं, कान खोलूंगा तो आपको सुन सकता हूं, हाथ फैलाऊंगा तो आपको छू सकता हूं। अगर अपने को छूना हो और अपने को देखना हो और अपने को सुनना हो, तो क्या करना होगा? उलटा करना होगा। जो द्वार बाहर की तरफ ले जाता है, जो रास्ता बाहर की तरफ ले जाता है, अगर भीतर चलना हो तो उलटा चलना होगा। आप जिस रास्ते से इस भवन तक आए हैं, अब वापस लौटिएगा अपने घर तो कैसे जाइएगा? उलटे जाइएगा। जिस ढंग से इधर को आए हैं उसकी विपरीत दिशा में जाना होगा। जिस रास्ते से हम बाहर के जगत को जानते हैं अगर अंतस के जगत को जानना है तो उलटा चलना होगा।  अगर आंख न खोलूं तो आप दिखाई नहीं पड़ेंगे, तो आंख खोलता हूं तो आप दिखाई पड़ते हैं। मतलब यह हुआ, अगर भीतर चलना है तो आंख बंद करनी पड़ेगी। कान खोलता हूं तो आप सुनाई पड़ते हैं, मतलब यह हुआ कि अगर भीतर सुनना है तो कान बंद करने पड़ेंगे। शरीर को गतिमान करता हूं तो आपको छू पाता हूं, अर्थ यह हुआ, अपने को छूना है तो शरीर को अगतिमान, अक्रिया में ले जाना होगा, शरीर को जड़वत छोड़ देना होगा, उसमें कोई क्रिया न हो। आंखों को सुन्न कर लेना होगा, जो वे देखे नहीं, कान को सुन्न कर लेना होगा, जो वे सुने नहीं। समस्त इंद्रियों को इतना शिथिल कर देना होगा कि वे क्रियाशील न रह जाएं। जब कोई भी इंद्रिय क्रियाशील नहीं होगी, तब क्या होगा? तब भी भीतर तो मैं रहूंगा। अभी भी आंख थोड़े ही देखती है, आंख के पीछे से कोई है जो देखता है। आपका चश्मा थोड़े ही देखता है, चश्मे के पीछे से कोई आंख है जो देखती है। फिर और गौर करिए, तो आंख भी नहीं देखती है, आंख के पीछे भी कोई और है जो देखता है।
कई दफा ऐसा हुआ होगा, आंख देखती मालूम होती है फिर भी दिखाई नहीं पड़ता, वह जो भीतर वाला है कहीं और मौजूद है। तो आंख देखती भी है फिर भी दिखाई नहीं पड़ता। कान सुनते मालूम होते हैं फिर भी सुनाई नहीं पड़ता, क्योंकि वह सुनने वाला कहीं और उलझा हुआ है, कहीं और मौजूद है।
एक आदमी के मकान में आग लग जाए, वह रास्ते से जा रहा हो, आप उसको किनारे पर मिल जाएं तो दिखाई थोड़े ही पड़ेंगे, देखेगा जरूर, लेकिन दिखाई नहीं पड़ेंगे, वह भागा जा रहा है। उसका पूरा का पूरा चित्त वहां मौजूद है जहां आग लग गई है। अब आप मिले तो आप दिखाई थोड़े ही पड़ेंगे। अगर उससे कल कोई पूछे कि रास्ते पर कौन-कौन मिले थे? तो कहेगा, मुझे कुछ याद नहीं। देखे तो जरूर होंगे क्योंकि आंख तो खुली थी; देखे लेकिन दिखाई नहीं पड़े, क्योंकि देखने वाला अनुपस्थित था। आंख नहीं देखती, आंख के पीछे कोई और देखने वाला है। तो जब आंख नहीं देखेगी तब क्या होगा? तब देखने वाला अंदर अकेला रह जाएगा। कान सुनेंगे नहीं तो क्या होगा? सुनने वाला अंदर अकेला रह जाएगा। हाथ छुएंगे नहीं तो क्या होगा? छूने वाला अंदर अकेला रहा जाए गा। वह जो ज्ञान की शक्ति है अंदर अकेली रह जाएगी।
समस्त इंद्रियों को बंद कर लेना योग है। समस्त इंद्रियों के बाहर जाते द्वारों को अवरुद्ध कर लेना योग है। इसको पतंजलि ने कहा है: वृत्ति का निरोध योग है। वृत्ति इंद्रियों की है।  आंख की वृत्ति देखना है, कान की वृत्ति सुनना है, ये सारी वृत्तियां इंद्रियों की हैं। पांच इंद्रियां हैं हमारे पास, उनकी पांच वृत्तियां हैं। और इन पांच इंद्रियों के पीछे हमारा मन है, जिसका काम पांचों इंद्रियों से जो वृत्तियां फलित हुईं उनको इकट्ठा कर लेना है। वह संग्राहक है। सारी इंद्रियां इकट्ठा करती हैं, मन उनका संग्राहक है। यानी आंख देखती है, मन देखने में चित्र को स्मरण में रख लेता है। कान सुनता है, मन सुने हुए शब्द को स्मरण में रख लेता है। मन संग्राहक है, मन रिजर्वायर है। इंद्रियां इकट्ठा करने के द्वार हैं, मन संग्रह करने का केंद्र है। जो मैंने कहा कि पर्तें इकट्ठी होती चली जाती हैं, इंद्रियां लाती हैं पर्तों को और मन पर वह इकट्ठी होती चली जाती हैं। इंद्रियां लाती हैं प्रभावों, इंप्रेशन, संस्कारों को और मन पर वे इकट्ठे होते चले जाते हैं। मन पर पर्त पर पर्त घनी होती चली जाती हैं। मन मोटा और वजनी होता चला जाता है। मन जितना वजनी और सख्त होता चला जाता है, चेतना उतनी नीचे सरकती चली जाती है। मिट्टी की पर्तें घनी हो जाती हैं, पानी नीचे उतर जाता है।
अगर अब ठीक से समझें तो पर्त का अर्थ मन है। मिट्टी का अर्थ मन है। अगर मन से पर्तें मिटानी हैं तो मन को शून्य करना होगा, न करना होगा। उसके सारे प्रभाव बाहर फेंक देने होंगे। इसको महावीर ने निर्जरा कहा है।  वह पूर्ण शब्द है, वह उनका अपना टेक्नीकल शब्द है, उनका अपना परिभाषित शब्द है। शब्दों का मुझे मोह नहीं है बहुत, लेकिन इन पर्तों को खिसका देने का नाम निर्जरा है। यह जो मन पर एक ही जन्म की नहीं अनंत जन्मों की पर्तें हैं। वह जो पर्त पर पर्त प्रभाव हैं, उन प्रभावों को निष्प्रभाव कर देना है। उन प्रभावों के बाहर हो जाना, उनको तोड़ देना। उस निर्जरा के...सारे प्रभाव विलीन हो जाएंगे, केवल वही रह जाएगा जिस पर प्रभाव इकट्ठे हो गए थे, तो हम अपने को जानेंगे, वह आत्मज्ञान होगा।

 - "ओशो"...

DHARM AUR ANAND # 01

Source : https://www.facebook.com/aakashajain/posts/735244253195397:0

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