** महावीर को एक तरफ तीर्थंकर का सम्मान मिलता है, वह भी सारे सुखों का इकट्ठा अनुभव है; और दूसरी तरफ असह्य पीड़ा भी झेलनी पड़ती है, वह भी सारे दुखों का इकट्ठा संघात है।
** रमण को एक तरफ हजारों-हजारों लोगों के मन में अपरिसीम सम्मान है। वह सारा सुख इकट्ठा हो गया। और फिर कैंसर जैसी बीमारी है, सारा दुख इकट्ठा हो गया।
समय थोड़ा है। सब संगृहीत और जल्दी और शीघ्रता में पूरा होता है।
इसलिए ऐसे व्यक्ति परम सुख और परम दुख दोनों को एक साथ भोग लेते हैं। समय कम होने से सभी चीजें संगृहीत और एकाग्र हो जाती हैं। लेकिन भोगनी पड़ती हैं। भोगने के सिवाय कोई उपाय नहीं है।
** रामकृष्ण भी मरते वक्त कैंसर से मरे। गले का कैंसर था। पानी भी भीतर जाना मुश्किल हो गया, भोजन भी जाना मुश्किल हो गया। तो विवेकानंद ने एक दिन रामकृष्ण को कहा कि आप, आप कह क्यों नहीं देते काली को, मां को? एक क्षण की बात है, आप कह दें, और गला ठीक हो जाएगा! तो रामकृष्ण हंसते, कुछ बोलते नहीं। एक दिन बहुत आग्रह किया तो रामकृष्ण ने कहा, तू समझता नहीं। जो अपना किया है, उसका निपटारा कर लेना जरूरी है। नहीं तो उसके निपटारे के लिए फिर आना पड़ेगा। तो जो हो रहा है, उसे हो जाने देना उचित है। उसमें कोई भी बाधा डालनी उचित नहीं है। तो विवेकानंद ने कहा कि न इतना कहें, इतना ही कह दें कम से कम कि गला इस योग्य तो रहे जीते जी कि पानी जा सके, भोजन जा सके! हमें बड़ा असह्य कष्ट होता है। तो रामकृष्ण ने कहा, आज मैं कहूंगा।
और सुबह जब वे उठे, तो बहुत हंसने लगे और उन्होंने कहा, बड़ी मजाक रही। मैंने मां को कहा, तो मां ने कहा कि इसी गले से कोई ठेका है? दूसरों के गलों से भोजन करने में तुझे क्या तकलीफ है? तो रामकृष्ण ने कहा कि तेरी बात में आकर मुझे तक बुद्धू बनना पड़ा है! नाहक तू मेरे पीछे पड़ा था। और यह बात सच है, जाहिर है, इसी गले का क्या ठेका है? तो आज से जब तू भोजन करे, समझना कि मैं तेरे गले से भोजन कर रहा हूं। फिर रामकृष्ण बहुत हंसते थे उस दिन, दिन भर। डाक्टर आए और उन्होंने कहा, आप हंस रहे हैं? और शरीर की अवस्था ऐसी है कि इससे ज्यादा पीड़ा की स्थिति नहीं हो सकती! रामकृष्ण ने कहा, हंस रहा हूं इससे कि मेरी बुद्धि को क्या हो गया कि मुझे खुद खयाल न आया कि सभी गले अपने हैं। सभी गलों से अब मैं भोजन करूंगा! अब इस एक गले की क्या जिद करनी है!
व्यक्ति कैसी ही परम स्थिति को उपलब्ध हो जाए, शरीर के साथ अतीत बंधा हुआ है; वह पूरा होगा। सुख-दुख आते रहेंगे, लेकिन जीवन्मुक्त जानेगा, वह प्रारब्ध है। और ऐसा जान कर उनसे भी दूर खड़ा रहेगा; और उसके साक्षीपन में उनसे कोई अंतर नहीं पड़ेगा। उसका साक्षी-भाव थिर है।
"और जिस प्रकार जग जाने से स्वप्न की क्रिया नाश को प्राप्त होती है, वैसे ही मैं ब्रह्म हूं, ऐसा ज्ञान होने से करोड़ों और अरबों जन्मों से इकट्ठा किया हुआ संचित कर्म नाश पाता है।"
Osho
** रमण को एक तरफ हजारों-हजारों लोगों के मन में अपरिसीम सम्मान है। वह सारा सुख इकट्ठा हो गया। और फिर कैंसर जैसी बीमारी है, सारा दुख इकट्ठा हो गया।
समय थोड़ा है। सब संगृहीत और जल्दी और शीघ्रता में पूरा होता है।
इसलिए ऐसे व्यक्ति परम सुख और परम दुख दोनों को एक साथ भोग लेते हैं। समय कम होने से सभी चीजें संगृहीत और एकाग्र हो जाती हैं। लेकिन भोगनी पड़ती हैं। भोगने के सिवाय कोई उपाय नहीं है।
** रामकृष्ण भी मरते वक्त कैंसर से मरे। गले का कैंसर था। पानी भी भीतर जाना मुश्किल हो गया, भोजन भी जाना मुश्किल हो गया। तो विवेकानंद ने एक दिन रामकृष्ण को कहा कि आप, आप कह क्यों नहीं देते काली को, मां को? एक क्षण की बात है, आप कह दें, और गला ठीक हो जाएगा! तो रामकृष्ण हंसते, कुछ बोलते नहीं। एक दिन बहुत आग्रह किया तो रामकृष्ण ने कहा, तू समझता नहीं। जो अपना किया है, उसका निपटारा कर लेना जरूरी है। नहीं तो उसके निपटारे के लिए फिर आना पड़ेगा। तो जो हो रहा है, उसे हो जाने देना उचित है। उसमें कोई भी बाधा डालनी उचित नहीं है। तो विवेकानंद ने कहा कि न इतना कहें, इतना ही कह दें कम से कम कि गला इस योग्य तो रहे जीते जी कि पानी जा सके, भोजन जा सके! हमें बड़ा असह्य कष्ट होता है। तो रामकृष्ण ने कहा, आज मैं कहूंगा।
और सुबह जब वे उठे, तो बहुत हंसने लगे और उन्होंने कहा, बड़ी मजाक रही। मैंने मां को कहा, तो मां ने कहा कि इसी गले से कोई ठेका है? दूसरों के गलों से भोजन करने में तुझे क्या तकलीफ है? तो रामकृष्ण ने कहा कि तेरी बात में आकर मुझे तक बुद्धू बनना पड़ा है! नाहक तू मेरे पीछे पड़ा था। और यह बात सच है, जाहिर है, इसी गले का क्या ठेका है? तो आज से जब तू भोजन करे, समझना कि मैं तेरे गले से भोजन कर रहा हूं। फिर रामकृष्ण बहुत हंसते थे उस दिन, दिन भर। डाक्टर आए और उन्होंने कहा, आप हंस रहे हैं? और शरीर की अवस्था ऐसी है कि इससे ज्यादा पीड़ा की स्थिति नहीं हो सकती! रामकृष्ण ने कहा, हंस रहा हूं इससे कि मेरी बुद्धि को क्या हो गया कि मुझे खुद खयाल न आया कि सभी गले अपने हैं। सभी गलों से अब मैं भोजन करूंगा! अब इस एक गले की क्या जिद करनी है!
व्यक्ति कैसी ही परम स्थिति को उपलब्ध हो जाए, शरीर के साथ अतीत बंधा हुआ है; वह पूरा होगा। सुख-दुख आते रहेंगे, लेकिन जीवन्मुक्त जानेगा, वह प्रारब्ध है। और ऐसा जान कर उनसे भी दूर खड़ा रहेगा; और उसके साक्षीपन में उनसे कोई अंतर नहीं पड़ेगा। उसका साक्षी-भाव थिर है।
"और जिस प्रकार जग जाने से स्वप्न की क्रिया नाश को प्राप्त होती है, वैसे ही मैं ब्रह्म हूं, ऐसा ज्ञान होने से करोड़ों और अरबों जन्मों से इकट्ठा किया हुआ संचित कर्म नाश पाता है।"
Osho
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