दूसरा प्रश्न: भगवान,
मैं प्रश्नों से भरा हूं, आप उत्तरों से।
क्या मैं आशा करूं कि आप मेरी सारी जिज्ञासाओं का समाधान कर देंगे?
यदि आप आश्वासन दें तो मैं संन्यास तक लेने को तैयार हूं।
मैं प्रश्नों से भरा हूं, आप उत्तरों से।
क्या मैं आशा करूं कि आप मेरी सारी जिज्ञासाओं का समाधान कर देंगे?
यदि आप आश्वासन दें तो मैं संन्यास तक लेने को तैयार हूं।
भाईदास भाई,
भाई, कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो! संन्यास तक! जैसे कि कोई कहे कि जहर तक पीने को तैयार हूं! ऐसी झंझट में न पड़ो। अच्छे-भले आदमी, चंगे आए, चंगे ही जाओ! क्या बिगड़ना है?
और तुमसे किसने कहा कि मैं उत्तरों से भरा हूं। हां, प्रश्नों से खाली हो गया हूं। तुम प्रश्नों से भरे हो, मैं प्रश्नों से खाली हूं। उत्तरों से मैं भरा हूं, इस भ्रांति में न रहो। मैं कोई पंडित नहीं हूं। हां, तुम्हें भी प्रश्नों से खाली होना हो तो मुझसे जुड़ सकते हो--वही संन्यास है। प्रश्नों के उत्तर नहीं होते।
सदगुरु प्रश्नों के उत्तर नहीं देता है, प्रश्नों को तोड़ता है। तुम जरा गौर तो करो कि मैं तुम्हारे जो प्रश्नों के उत्तर देता हूं, वे उत्तर हैं? कि इधर से लंगड़ी मारी, उधर से एक दचका दिया, इधर खोपड़ी पर लट्ठ मारा! एक हुद्दा आगे से, एक पीछे से। इसको तुम उत्तर कहते हो? उत्तर होते हैं शास्त्रों में। यहां तो कुटाई-पिटाई हो जाती है।
और तुम कह रहे हो कि "आप मेरी जिज्ञासाओं का समाधान कर देंगे। यदि आप आश्वासन दें...!'
गारंटी चाहते हो! एक ही बात की गारंटी दे सकता हूं कि तुम्हारे प्रश्नों को नष्ट कर दूंगा। एक-एक प्रश्न को उखाड़कर फेंक दूंगा। और उत्तर बाहर से नहीं आते। जब सारे प्रश्न गिर जाते हैं तो तुम्हारे भीतर ही उत्तरों का उत्तर, समाधानों का समाधान। इसीलिए तो हम उस अवस्था को समाधि कहते हैं, क्योंकि वह समाधानों का समाधान है। उत्तर नहीं है। जिंदगी कोई स्कूल की परीक्षा नहीं है कि प्रश्न पूछे और उत्तर दे दिए। लेकिन आदतें हमारी खराब हैं; सड़ी-गली आदतें हैं; दकियानूसी आदतें हैं।
गुलाम रूहों के कारवां में
जरस की आवाज भी नहीं है
उठो, तमद्दुन के पासबानो!
तुम्हारे आकाओं की जमीं से
उबल चुके जिंदगी के चश्मे
निशान सिजदों के अब जबीं से
मिटाओ, देखो छुपा न ले वो
लहू टपकता है आस्तीं से
गुलाम रूहों के कारवां में
नफस की आवाज भी नहीं है
उठो, मुहब्बत के पासबानो!
ये कोहरो-सहरा, ये दश्तो-दरिया
तुम्हारे अजदाद गा चुके हैं
यहां पे वो आतिशीं तराना
जो गर्मिए-बज्म था, मगर अब
गुजर गया उसको इक जमाना
समंदे-अय्याम बर्क-पा है
उठो कि तारीख हर वरक पर
तुम्हारा शुभ नाम ढूंढती है
न देंगे आवाज उसके शहपर
जो वक्त उड़ता चला गया है
जमीन आंखों से मत कुरेदो
न मिल सकेंगी वो हड्डियां जो
जमीं का तारीक गहरा सीना
निगल चुका है--नया करीना
सिखाओ पामाल जिंदगी को
उठो, मजारों के पासबानो!
चलो न गर्माओ जिंदगी को
ये ढेर सूने पड़े हैं, इन पर
कहीं से दो फूल ही चढ़ाओ
गुलाम रूहों के कारवां में
जरस की आवाज भी नहीं है
यह देश क्या है--एक गुलाम रूहों का कारवां हो गया है, जिसमें कोई जीवन की घंटियां भी नहीं बजतीं!
गुलाम रूहों के कारवां में
जरस की आवाज भी नहीं है
गुलाम रूहों के कारवां में
नफस की आवाज भी नहीं है
घड़ियाल तो क्या बजेंगे, यहां सांस की आवाज तक खो गई है!
उठो, तमद्दुन के पासबानो!
हे संस्कृति के पागलो!
उठो, मुहब्बत के पासबानो!
बहुत हो चुकीं प्रेम की बातें, अब उठो!
उठो, मजारों के पासबानो!
पूज चुके कब्रों को बहुत, उठो अब थोड़े जिंदगी को जीओ।
ये ढेर सूने पड़े हैं, इन पर
कहीं से दो फूल ही चढ़ाओ
भाईदास भाई, तुम कहते हो कि प्रश्नों से भरे हो। तुम्हारे प्रश्न तुम्हारे ही प्रश्न होंगे न। और अज्ञान में क्या प्रश्न हो सकते हैं? और ज्ञान में तो प्रश्न होंगे ही क्यों? अज्ञान में व्यर्थ के कुतूहल होते हैं या चालबाजियां होती हैं या धोखा होता है या पाखंड होता है। तुम्हारे प्रश्नों में तुम्हारी ही छाप होगी न! तुम्हारे प्रश्न तुम्हारे ही प्रतिबिंब होंगे न! तुम्हारे प्रश्न आखिर तुम्हारे भीतर ही से तो आएंगे। अब बबूल में कोई गुलाब के फूल तो न लगेंगे। अब बबूल के कांटों को मैं बैठा रहूं, तोड़ता रहूं, इससे भी क्या होगा? नए कांटे उगते रहेंगे।
इसलिए मैं तो जड़-मूल से तुम्हें मिटा दूंगा। भाईदास भाई, अगर तैयारी हो बिलकुल मिटने की तो संन्यासी हो जाओ। आश्वासन एक देता हूं कि मिटाऊंगा, बिलकुल मिटा दूंगा, जड़ों से उखाडूंगा। कहीं कुछ शेष न रहेगा तुम्हारा तुम में। और जब तुम्हारा तुम में कुछ भी शेष न रहेगा तो पा जाओगे तुम सभी समस्याओं का समाधान।
दादा चूहड़मल फूहड़मल बीमार थे। डाक्टर के यहां गए। डाक्टर ने सब जांचा-परखा और दो दवा की गोली देकर कहा, एक सुबह एक शाम खाना। बस एक ही दिन में बिलकुल चंगे नजर आओगे।
दादा घबराकर बोले, क्या बोले बरी डाक्टर, नंगे नजर आओगे!
डाक्टर ने कहा कि नहीं-नहीं, मैंने कहा, चंगे हो जाओगे। यानी मेरी दवा इतनी बढ़िया है कि एक ही दिन में बिलकुल ठीक हो जाओगे।
दादा बोले, अच्छा-अच्छा, यह बात है! बरी यह तो बताओ कि दवा काहे के साथ खानी है?
जवाब मिला, चाय या दूध के साथ खाइएगा। दादा को संतोष न हुआ--बरी डाक्टर हमको तो एक बात बोल दो--या चाय या दूध। हमको दोहरी बातें ठीक नहीं लगतीं।
डाक्टर ने कहा, अच्छा तो दूध के साथ गोली लीजिएगा।
दादा ने पूछा, दूध गाय का या भैंस का?
डाक्टर ने कहा, माफ करिए, मुझे और भी मरीज देखने हैं। अब आप ही अकेले तो नहीं कि आप से ही थोड़े ही सिर मारता रहूं। आपको जो दूध मिल जाए उसी के साथ ले लेना, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता।
दादा बोले, बरी डाक्टर, गुस्सा क्यों होते हो? हम आज पहली बार ही ऐलोपैथी का इलाज करवा रहे हैं, इसलिए सब बातें क्लियर-क्लियर जानना चाहते हैं। न हमारे घर गाय है न भैंस, बकरियां हैं। यदि बकरी के दूध के साथ गोली खा लूं तो कोई नुकसान तो नहीं है न?
उत्तर मिला, नहीं।
मगर दादा की जिज्ञासा अभी समाप्त न हुई--बरी, एक बार और बताओ न! दूध गर्म चाहिए या ठंडा?
डाक्टर ने पिंड छुड़ाने के लिहाज से कह दिया, कुनकुना।
दादा बोले, ठीक। दूध गिलास में पीना कि कटोरी में?
डाक्टर को गुस्सा आ गया--साईं अब घर भी जाइए न! आपको कुछ और काम नहीं है क्या?
दादा बोले, काम क्यों नहीं है। पर जब हमने आपको पूरी फीस दी है तो बदले में हमें भी पूरी-पूरी जानकारी तो दीजिए। बताइए कि दूध खड़े-खड़े पीना है कि बैठकर पीना है?
डाक्टर ने अपना माथा ठोंक लिया--साईं आप यह लीजिए अपनी फीस वापस। दस का नोट पकड़ाते हुए उसने कहा--खुदा के वास्ते अब मेरा पीछा छोड़िए।
दादा बोले, लेकिन बरी तुम तो नाराज होते हो। हम तो सीधा-सादा आदमी है। कभी ऐलोपैथी का इलाज नहीं करवाया, इसलिए पूछता है कि दूध खुद अपने हाथ से पीना है या मेरे मुन्ने की अम्मा यदि पिला दे तो कोई नुकसान है?
डाक्टर को भी हंसी आ गई। बोला, साईं, तुम तो बड़ा जानदार आदमी है! जा अब अपने घर और मुन्ने की अम्मा के हाथ से दूध पी।
दादा ने कहा, अच्छा तो जाता हूं बरी डाक्टर, मगर एक बात तो बताओ कि घर तक पैदल जाऊं या रिक्शे में बैठकर?
डाक्टर ने कहा, रिक्शे में जाओ, इस बुखार में पैदल चलना ठीक नहीं।
दादा डाक्टर से राम-राम बरी साईं कहकर चल दिए। डाक्टर ने संतोष की सांस ली, लेकिन आश्चर्य की बात तो तब घटी जब आधा घंटे बाद दादा लौट आए और बोले, बरी डाक्टर, तुम कैसा इंसान है! हमको यह नहीं बताया कि कौन सी गोली सुबह खानी है और कौन सी शाम को खानी है। हमारा मुन्ने की अम्मा ने हमको बहुत डांटा।
डाक्टर ने संयम साधकर कहा, यह सुबह खाइए और यह शाम को।
दादा बोले, तुम्हारी भूल के कारण हमको वापस आना पड़ा बरी, हमको फिर से घर जाने के लिए दस रुपए रिक्शा का भाड़ा दो, वर्ना हम कैसे जाएंगे?
डाक्टर ने आधा मिनट गंभीरता से सोचा और चुपचाप दस का नोट दादा के हाथ में थमा दिया, इसी में ज्यादा भलाई थी। दादा मुस्काते बाहर आए और वेटिंग रूम में बैठी अपनी बीबी को आंख मारकर बोले कि लोग कहते हैं कि "जाको राखे साइयां, मार सके न कोय', ऐसा कहने वाले निरे मूर्ख हैं, गधे हैं। उनको कहना चाहिए: जाको लूटे साइयां, बचा सके न कोय। बीबी हंसती हुई उठी और बोली, तो फिर आज कौन से पिक्चर चला जाए मुन्ने के पापा? इस डाक्टर से आज कितने रुपए वसूल करे? अरे, बरी बोलो न!
तुम्हारी जिज्ञासाएं, भाईदास भाई, किसी काम न आएंगी। यहां तो जिज्ञासाएं तोड़नी हैं। यहां तो प्रश्न गिराने हैं। उत्तर मेरे पास कोई नहीं है। उत्तरों का उत्तर है, और वह तुम्हारे भीतर है; उसे खोजने का रास्ता बता सकता हूं।
Peevat Ram Ras Lagi Khumari - 04
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