Sunday, 9 February 2014

सदगुरु : गुण और पहचान -Note

यद्यपि  , मैं बहुत छोटा पाती हूँ इस  विशद और अति गम्भीर  विषय  में अपना मत देने के लिए , चलिए  कुछ   भागवद   से लेते है  कुछ शबद से और कुछ  ओशो से , और फिर   निष्कर्ष निकलने का प्रयास करते है।  

गुरु के सम्बन्ध में   बहुत सारे  समुदायो  ने व्याख्या  की है , गुण  और पहचान के  संकेत भी  देने कि चेष्टा कि गयी है ताकि लोगों का असमंजस दूर हो सके और वे विश्वास पूर्वक  अपनी अध्यात्मिक यात्रा पे चल सकें।     


कहा गया है : " एक सच्चे संत  में दैवीय  दिव्य प्रेम  प्रकाशित होता है। जब पूरी निष्ठां के साथ  शिष्य अपने ऐसे  संत गुरु के साथ जुड़ता है  वो  सद्गुरु की  दिव्यता का  आभास  ईश्वर  के  प्रति   पूर्ण  समर्पित प्रेम  तथा  सांसारिक  विषयों में  आसक्ति  कम करके  कर पाता है।  "


Lord Krishna describes these ecstatic Divine states in the Bhagavatam,"My Devotee (the realized Guru) sings My glories in a voice choked with loving emotion. His heart melts due to extreme love for Me and flows out in the form of tears. At times, he laughs, thinking Me to be near him; at times, thinking Me to be far from him, he starts crying uncontrollably. Sometimes he sings at the top of his voice and sometimes dances in order to please Me. Such a devotee of Mine purifies the entire world."


  "Radhanath Swami writes that in the presence of Srila Prabhupada he felt to be in the presence of a spotless mirror; coming in the presence of such a spotless soul helped him see both the beauty and ugliness of his own inner life. His faith and doubts, virtues and sins, strengths and weaknesses were being revealed to him. It was both a joyful and a painful experience to be in the association of SrilaPrabhupada. 

    




गुरुमुखी शबद  में  वर्णन मिलता है;

 " ਇਹੁ ਮਨੁ ਨਿਹਚਲੁ ਹਿਰਦੈ ਵਸੀਅਲੇ ਗੁਰਮੁਖਿ ਮੂਲੁ ਪਛਾਣਿ ਰਹੈ ॥"
Ihu manu nihachalu hiradai vaseeale gurmukhi moolu pachhaani rahai:
By becoming the Gurmukh, when one Realizes his Mool (Source, प्रकाश ),
then his mind (that has become stable-ਅਡੋਲ ,  बुध्ही ) abides in the Heart within (स्थिर  हो के ह्रदय की आज्ञा का पालन करता है )  (sggs 945). 



ओशो  ने बहुत विस्तार  में  इसको समझाया है , "गुरु का अर्थ है, जिसके भीतर परमात्मा सर्वाधिक सजगता से जी रहा है; और तो कोई अर्थ नहीं है। चट्टान के भीतर ही परमात्मा है लेकिन बिलकुल सोया हुआ। तुम्हारे भीतर भी परमात्मा है लेकिन शराब पीया हुआ। चोर के भीतर भी परमात्मा है, लेकिन चोर। हत्यारे के भीतर भी परमात्मा है, लेकिन हत्यारा।





गुरु का क्या मतलब है? गुरु का इतना ही मतलब है, जिसके भीतर परमात्मा अपने शुद्धतम रूप में प्रकट है। जिसमें अग्नि शुद्धतम रूप में जल रही है, जिसमंर धुआं बिलकुल नहीं है। निर्धूम अग्नि--गुरु का अर्थ है।अगर तुम्हें वहां नहीं दिखाई पड़ती अग्नि, तो तुम्हें कहां दिखाई पड़ेगी? जहां धुआं ही धुआं है, वहां दिखाई पड़ेगी? जब निर्धूम अग्नि नहीं दिखाई पड़ती, तो जहां धुआं ही धुआं है, वहां तुम्हें कैसे दिखाई पड़ेगी? वहां तो धुएं के कारण तुम्हारी आंखें बिलकुल बंद हो जाएंगी। गुरु के पास तुम्हारी आंख नहीं खुलती तो तुम्हारी आंख पत्थरों के पास कैसे खुलेगी? गुरु तो केवल प्रतीक है। अर्थ है, जिसने जान लिया। अगर तुम उसके पास झुको, तो तुम भी उसकी आंखों से देख सकते हो। और तुम भी उसके हृदय से धड़क सकते हो। और तुम भी उसके हाथों से परमात्मा को छू सकते हो।एक बार तुम्हारी पहचान करवा देगा वह, फिर तो बीच से हट जाता है। फिर बीच में कोई जरूरत नहीं है। पर एक बार तुम्हारी पहचान करवा देना जरूरी है। गुरु का इतना ही मतलब है, कि परमात्मा तुम्हें अपरिचित है, उसे परिचित है। तुम भी उसे परिचित हो, परमात्मा भी उसे परिचित है। वह बीच की कड़ी बन सकता है। वह तुम्हारी मुलाकात करवा दे सकता है। वह थोड़ा परिचय बनवा दे सकता है। वह तुम दोनों को पास ला दे सकता है। एक दफा पहचान हो गई, फिर वह हट जाता है। उसकी कोई जरूरत नहीं है फिर।लेकिन यह मत सोचो, कि तुम समर्पण अस्तित्व के प्रति कर सकते हो। कर सको, तो बहुत अच्छा। वही तो है सारी शिक्षा सभी गुरुओं की, कि तुम समर्पित हो जाओ अस्तित्व के प्रति। लेकिन धोखा मत देना अपने को।"



संक्षेप में  यदि चित्रों  बाह्य  दिखावे में ना आयें , तो आप  मुख्य रूप से पाएंगे , गुरु  और शिष्य के सम्बन्धो में सरलता , और एक  प्राकृतिक बहाव और आकर्षण  बिना किसी  सांसारिक उपलब्धियों के।  चित्र  कई बाते  कहते है  जो  स्पष्ट चित्र में आँखों से दिखती है , जैसे  गुरु कि वेशभूषा , शिष्य  का  गुरु के कदमो के पास नीचे बैठना  , किसी पेड़ के नीचे  कई शिष्यों से घिरा गुरु  अपने शिष्यों को  आशीर्वाद मुद्रा में कुछ कुछ समझा रहा है  ,  आश्रम का चित्र  भी मनोरम है , बाग़  बगीचे  पशु पक्षियों से  हरा भरा आश्रम और गुरु और शिष्य  आदि आदि  … पर  सम्भवतः , वास्तविकता में ऐसा कुछ न मिले।   आपका गुरु आपको  एक  छोटे से  कमरे में रहता हुआ भी मिल सकता है , जो  गरीब भी हो सकता है , कुछ भी हो सकता है।   पर  एक बात जो अवश्यम्भावी होती है  वो है नैसर्गिक  आकर्षण  गुरु  का  शिष्य के प्रति और शिष्य का गुरु के प्रति। 



 आश्चर्य जनक पर ऐसा भी होसकता है वो गुरु शिष्य एक साथ एक ही शरीर में विद्यमान हो  ,  ऐसी ही स्थति  में तथागत थे , सिद्धार्थ , बुध्ह,  इसलिए उन्होंने  ही ये  सिद्धांत भी दिया "आपो गुरु  आपो भव "  बाहर की दुनिया  संयोग की दुनिया है    कदम कदम पे  छलावा है  कभी गुरु ठगा जाता है  तो कभी शिष्य ठगा जाता है।

  

या तो ऐसा गुरु  मिले  जो जैसे ही परमात्मा का बोध करे  साथ ही साथ अपना  साम्राज्य भी आपके ह्रदय से समाप्त कर सके , कि बस होगया मेरा काम , अब आगे कि यात्रा तुम  ऐसे ही पूरी करो.  अन्य लोगो कि राह में दिए जलाओ  , और दिए जलते ही हट जाओ  उस राह से , आगे बढ़ जाओ ,  न तुमको रुकना है न मुझको।  और शिष्य भी मिले ऐसा , जो परमात्मा  कि एक  झलक जैसे ही मिले  उसे  आत्मसात करे  और  गुरु  द्वारा बताये  राह पे आगे बढ़ जाए । फिर घटना घट गयी   वो तथागत का शिष्य है , और वो गुरु तथागत है।  




पारे सदृश  तरलता  और सरलता  आवश्यक है;  दोनों ही तरफ से।




और एक बात जो कही गयी  है कि  सदगुरु  चूँकि सरल  है  और   शरीर के अंदर  सिमित भी , तो नैसर्गिक अच्छाईया और बुराईयां दोनों ही अपनी पूर्ण सरलतम  अवस्था में  प्रकट होती है।  ये साहस भी शिष्य  का ही है वो मानवगत अच्छी और बुरी  भावनाओ   को  स्वीकार करे  या फिर  आत्मसात करे  जैसे  एक गुरु शिष्य  के  विष को निर्मल करता है ।  इसीलिए कहा गया है , शिष्य  और गुरु  दोनों ही एक दूसरे पे निर्भर है।  अच्छे शिष्य  का मिलना भी उतना ही दुष्कर है जितना कि अच्छे गुरु का।   



संक्षेप में दोनों ही मानव रूप है  इसकी स्वीकरोक्ति  आवशयक है।  


और यदि आत्मिक युध्ह  ज्यादा गहन है , तो स्वयं  अपने गुरु  बनने का भी साहस रखिये।   क्यूंकि  दुष्कर कुछ नहीं। "अप्पो  दिप्पो अप्पो भवः "





आपकी यात्रा ,  निर्णय भी आपका ही।  

शुभेक्षा , शुभकांक्षा ,


 ॐ  प्रणाम। 

2 comments: