" मैं चाहता हूँ , मेरा सन्यासी मेरे साथ चले मेरे पीछे नहीं । " Osho
ये वाक्य या भाव ने मुझे कुछ कहने के लिए प्रेरित किया है , जो भी अवतरण शब्द का उपयोग हम लोग करते है मित्रों ! वो अपनी श्रद्धा को अपने श्रद्धेय को समर्पित करते है । पर ये सब भी हमारी आपकी ही तरह जन्म और मृत्यु के बीच का जीवन जिए है। वो ही संघर्ष , वो ही शारीरिक कष्ट , इनके सामने भी थे जो हमारे सामने है। फर्क सिर्फ जागरूकता है।
कुछ यूँ समझे जैसे , एक कक्षा में 25 विद्यार्थी है , उनमे से एक है जो सब बहुत शीघ्रता से गुरु का पाठ समझ लेता है , और गुरु के बताये निर्देश को आत्मसात कर लेता है। बाकि अन्य को फिर वो अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझ लेता कि इनको भी कुछ सिखा दू , ताकि मेरे साथ ही ये भी पार हो जाये।
ऐसा सहपाठी , बुध्हिमान है , जागरूक है , करुणा से भरा है , पर है आपका सहपाठी , आपके साथ ही पढ़ने वाला , उसी विश्वविद्यालय का शिक्षार्थी है , जिसके आप है ; तो हुआ न आपका मित्र !
परम ऊर्जा तो एक ही है , वो ही आपके परम गुरु भी है , वो ही आपको इस विश्विद्यालय तक भेजते है , प्रकृति आपके लिए अवसर भी बनती है और आपकी परीक्षा , तारिख और समय भी वो ही नियत करती है। इस परीक्षा में सम्मलित वो भी है , जो उत्तम तो है पर है शिक्षार्थी आपके सहपाठी और सहयोगी । शिक्षक नहीं हो सकते।
ध्यान से पुनः पढियेगा जो आपके मित्र_गुरु का वास्तविक भाव है " मैं चाहता हूँ , मेरा सन्यासी मेरे साथ चले मेरे पीछे नहीं ।" वो स्वयम चाहते है कि उनके सहयोगी उनके साथ मित्रवत रहे गुरुवत वो स्वयं को स्थापित नहीं करना चाहते थे।
ये पागलपन तो इंसानो का है , कहीं भी फूट पड़ता है , कोई तो चाहिए श्रध्हा सुमन चढाने को , कोई तो स्थान चाहिए जहा घंटा बजा सके , या नमाज पढ़ सके। जबकि जानकार सिर्फ आपको ये बताते है कि वास्तविकता ये नहीं .... ये है कि " सिर्फ शुन्य ही है ... और वहाँ ऐसा कुछ आकार - प्रकार नहीं जिस पर आप अपनी लौकिक पुष्पहार चढ़ा सके , वह ही परम पूज्यनीय है " तो ...... अब क्या करे ? आपके हांथो कि मालाएं व्यर्थ जाएँगी क्या ? आप ने उसी पे फूलमाला पहननी शुरु कर दी …… यही परंपरा चली आरही है सदियों से। बुध्ह भी इसी भाव से लड़ते दिखे और ओशो भी। परन्तु उनके जीवन तो कम पड़ गए।
एक बार ओशो ने कहा था , " इंसानो से उनके , भगवान् छीनने की गलती कभी मत करना वर्ना वो तुमको ही भगवान् बना देंगे " ........ जरा सोचे ...... एक मित्र को ऐसा कहने कि क्या जरुरत पड़ गयी ?
क्या यह विचारणीय नहीं कि मित्र को मित्र समझा जाये , प्रेम किया जाये और उसके साथ खेला जाये , खिलखिलाया जाये , खुश हुआ जाए ?
न कि मित्र को गुरु भगवन बना के , उस परम सत्ता को भी ये कहा जाये ," लिल्लाह हम न समझे है न समझेंगे तेरी बात. कर ले चाहे लाख जतन हम है इंसान , हम है इंसान ..... न हम तेरी समझे रज़ा , न हम उसकी जिसको तूने समझने का इशारा किया , हमकुछ नहीं समझते , हम किसी कि भी नहीं समझते "
very surprising facts , कृष्ण औरराम के तो ऐसे कहे का कोई प्रसंग नहीं मिलता कि मुझे भगवन मत समझो मैं तुम्हारे जैसा ही हूँ पर ये सच है कि इनके साथ समकालीन भक्त मित्र एक ही थे , उदाहरण के लिए हनुमान जी , और कृष्ण के सुदामा अर्जुन , और द्रौपदी .... फिर उसके बाद , कई नाम जुड़े जैसे Mohammad specially he says many times ," मेरे पास कोई चमत्कार नहीं मैं बहुत साधारण तुम्हारे ही जैसा एक इंसान हूँ , मेरी सुनो कि मैं क्या कहता हु , इसके साथ ही कुरान नाम के दिव्यग्रंथ कि रचना मोहम्मद ने की जिसकी भाषा काव्यात्मक थी जिसको काफी अर्से तक मुसलमानो में ही दो मत बने हुए थे की इसको धार्मिक ग्रन्थ का दर्ज़ा मिलना चाहिए कि नहीं .. ," मोहम्मद का जीवन किसी से छिपा नहीं , किसी भी संत का जीवन एक खुली किताब ही होता है। शायद मोहम्मद को स्वयं का ज्ञान बहुत बाद में हुआ था। and Jesus , Budhh , Mahaveer , Ramkrishn , Maharshi Ramanna .. (thank God Vivekannad is saved ) Stya Sai baba , Shree shree Sai baba and Osho , Jaggi vasudev (is in line ) , Mooji (is in line )...... here is endless list , and are more ready to come in que .. सबका कहना एक ही था... " सच एक ही है , उसको देखो , उसको पहचानो ."" fact is only one try to see that , try to understand that . "
Om Pranam
ये वाक्य या भाव ने मुझे कुछ कहने के लिए प्रेरित किया है , जो भी अवतरण शब्द का उपयोग हम लोग करते है मित्रों ! वो अपनी श्रद्धा को अपने श्रद्धेय को समर्पित करते है । पर ये सब भी हमारी आपकी ही तरह जन्म और मृत्यु के बीच का जीवन जिए है। वो ही संघर्ष , वो ही शारीरिक कष्ट , इनके सामने भी थे जो हमारे सामने है। फर्क सिर्फ जागरूकता है।
कुछ यूँ समझे जैसे , एक कक्षा में 25 विद्यार्थी है , उनमे से एक है जो सब बहुत शीघ्रता से गुरु का पाठ समझ लेता है , और गुरु के बताये निर्देश को आत्मसात कर लेता है। बाकि अन्य को फिर वो अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझ लेता कि इनको भी कुछ सिखा दू , ताकि मेरे साथ ही ये भी पार हो जाये।
ऐसा सहपाठी , बुध्हिमान है , जागरूक है , करुणा से भरा है , पर है आपका सहपाठी , आपके साथ ही पढ़ने वाला , उसी विश्वविद्यालय का शिक्षार्थी है , जिसके आप है ; तो हुआ न आपका मित्र !
परम ऊर्जा तो एक ही है , वो ही आपके परम गुरु भी है , वो ही आपको इस विश्विद्यालय तक भेजते है , प्रकृति आपके लिए अवसर भी बनती है और आपकी परीक्षा , तारिख और समय भी वो ही नियत करती है। इस परीक्षा में सम्मलित वो भी है , जो उत्तम तो है पर है शिक्षार्थी आपके सहपाठी और सहयोगी । शिक्षक नहीं हो सकते।
ध्यान से पुनः पढियेगा जो आपके मित्र_गुरु का वास्तविक भाव है " मैं चाहता हूँ , मेरा सन्यासी मेरे साथ चले मेरे पीछे नहीं ।" वो स्वयम चाहते है कि उनके सहयोगी उनके साथ मित्रवत रहे गुरुवत वो स्वयं को स्थापित नहीं करना चाहते थे।
ये पागलपन तो इंसानो का है , कहीं भी फूट पड़ता है , कोई तो चाहिए श्रध्हा सुमन चढाने को , कोई तो स्थान चाहिए जहा घंटा बजा सके , या नमाज पढ़ सके। जबकि जानकार सिर्फ आपको ये बताते है कि वास्तविकता ये नहीं .... ये है कि " सिर्फ शुन्य ही है ... और वहाँ ऐसा कुछ आकार - प्रकार नहीं जिस पर आप अपनी लौकिक पुष्पहार चढ़ा सके , वह ही परम पूज्यनीय है " तो ...... अब क्या करे ? आपके हांथो कि मालाएं व्यर्थ जाएँगी क्या ? आप ने उसी पे फूलमाला पहननी शुरु कर दी …… यही परंपरा चली आरही है सदियों से। बुध्ह भी इसी भाव से लड़ते दिखे और ओशो भी। परन्तु उनके जीवन तो कम पड़ गए।
एक बार ओशो ने कहा था , " इंसानो से उनके , भगवान् छीनने की गलती कभी मत करना वर्ना वो तुमको ही भगवान् बना देंगे " ........ जरा सोचे ...... एक मित्र को ऐसा कहने कि क्या जरुरत पड़ गयी ?
क्या यह विचारणीय नहीं कि मित्र को मित्र समझा जाये , प्रेम किया जाये और उसके साथ खेला जाये , खिलखिलाया जाये , खुश हुआ जाए ?
न कि मित्र को गुरु भगवन बना के , उस परम सत्ता को भी ये कहा जाये ," लिल्लाह हम न समझे है न समझेंगे तेरी बात. कर ले चाहे लाख जतन हम है इंसान , हम है इंसान ..... न हम तेरी समझे रज़ा , न हम उसकी जिसको तूने समझने का इशारा किया , हमकुछ नहीं समझते , हम किसी कि भी नहीं समझते "
very surprising facts , कृष्ण औरराम के तो ऐसे कहे का कोई प्रसंग नहीं मिलता कि मुझे भगवन मत समझो मैं तुम्हारे जैसा ही हूँ पर ये सच है कि इनके साथ समकालीन भक्त मित्र एक ही थे , उदाहरण के लिए हनुमान जी , और कृष्ण के सुदामा अर्जुन , और द्रौपदी .... फिर उसके बाद , कई नाम जुड़े जैसे Mohammad specially he says many times ," मेरे पास कोई चमत्कार नहीं मैं बहुत साधारण तुम्हारे ही जैसा एक इंसान हूँ , मेरी सुनो कि मैं क्या कहता हु , इसके साथ ही कुरान नाम के दिव्यग्रंथ कि रचना मोहम्मद ने की जिसकी भाषा काव्यात्मक थी जिसको काफी अर्से तक मुसलमानो में ही दो मत बने हुए थे की इसको धार्मिक ग्रन्थ का दर्ज़ा मिलना चाहिए कि नहीं .. ," मोहम्मद का जीवन किसी से छिपा नहीं , किसी भी संत का जीवन एक खुली किताब ही होता है। शायद मोहम्मद को स्वयं का ज्ञान बहुत बाद में हुआ था। and Jesus , Budhh , Mahaveer , Ramkrishn , Maharshi Ramanna .. (thank God Vivekannad is saved ) Stya Sai baba , Shree shree Sai baba and Osho , Jaggi vasudev (is in line ) , Mooji (is in line )...... here is endless list , and are more ready to come in que .. सबका कहना एक ही था... " सच एक ही है , उसको देखो , उसको पहचानो ."" fact is only one try to see that , try to understand that . "
Om Pranam
yes thank you didi ...
ReplyDeletePranam Bhayi ji
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