Monday, 17 February 2014

महावीर (Osho)

"जो वचन-उच्चारण की क्रिया का परित्याग करके वीतराग भाव से आत्मा का ध्यान करता है, उसको परम समाधि या सामायिक होती है।'




यह सूत्र बहुत महत्वपूर्ण है, "जो वचन-उच्चारण की क्रिया का परित्याग करके।'

महावीर ने मौन पर बहुत जोर दिया है। ऐसा किसी ने इतना जोर नहीं दिया मौन पर। जोर सभी ने दिया है, मौन इतना महत्वपूर्ण है कि कोई भी उसे छोड़ तो नहीं सकता, लेकिन जैसा जोर महावीर ने दिया है, वैसा किसी ने नहीं दिया। महावीर ने मौन को साधना का केंद्र बनाया। इसलिए अपने संन्यासी को मुनि कहा। बुद्ध ने अपने संन्यासी को भिक्षु कहा। हिंदुओं ने अपने संन्यासी को स्वामी कहा। अलग-अलग जोर है। हिंदुओं ने स्वामी कहा, क्योंकि उन्होंने कहा कि जो आत्मा को जानने लगा, वही अपना मालिक है--स्वामी। बुद्ध ने भिक्षु कहा, उन्होंने कहा जिसने अहंकार को पूरा गिरा दिया, इतना गिरा दिया कि कहा कि मैं भिक्षु हूं, कैसा स्वामी! जिसने अस्मिता जरा-भी न रखी, अहंकार जरा-भी न रखा, भिक्षापात्र लेकर खड़ा हो गया। जिसने सम्राट होने की घोषणा न की। जिसने सब घोषणाएं वापिस ले लीं, जिसने कहा मैं कुछ भी नहीं हूं। यही अर्थ है भिक्षु का।

महावीर ने अपने संन्यासी को मुनि कहा। मुनि का अर्थ है, जो मौन हो गया। जिसने वचन-उच्चारण की क्रिया का परित्याग किया। क्यों महावीर ने इतना जोर दिया मौन पर, इसे खयाल में लें। मनुष्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात बातचीत है, भाषा है, बोलने की क्षमता है। पशु हैं, पक्षी हैं, पौधे हैं, हैं तो, पर भाषा नहीं है। बोल नहीं सकते। इसलिए पशु-पक्षी-पौधे अकेले-अकेले हैं, उनका कोई समाज नहीं है। समाज के लिए भाषा जरूरी है। आदमी का समाज है। आदमी सामाजिक प्राणी है, क्योंकि आदमी बोल सकता है। बोले बिना जुड़ोगे कैसे किसी से? जब बोलते हो, तभी सेतु फैलते हैं और जोड़ होता है। तो भाषा का अर्थ हुआ, व्यक्ति-व्यक्ति के बीच जोड़नेवाले सेतु। भाषा मनुष्य को समाज बनाती है। समाज देती है। समुदाय देती है।

महावीर ने कहा, मौन हो जाओ। अर्थ हुआ, टूट जाओ, सारे सेतु तोड़ दो दूसरों से। बोलने के ही तो सेतु हैं, बोलने के द्वारा जुड़े हो, तोड़ दो बोलने के सेतु, अकेले हो जाओ। बोलना छोड़ते ही आदमी अकेला हो जाता है, चाहे बाजार में खड़ा हो। अगर बोलना जारी रहे, तो पहाड़ पर बैठा भी अकेला नहीं है। वहां भी किसी से, कल्पना के मित्र से, शत्रु से बात करता रहेगा। वहां भी समाज बना रहेगा। कल्पना का ही सही, लेकिन समाज रहेगा। आदमी अकेला न होगा। बीच बाजार में आदमी मौन हो जाए, अचानक उसी क्षण मौन होते ही समाज खो गया। भीड़ के कारण समाज नहीं है, भाषा के कारण समाज है।
तो महावीर ने कहा, जंगल में भागने से क्या सार होगा! अपने में भाग जाओ, छोड़ दो दूसरे तक जाना--भाषा से ही हम दूसरे तक जाते हैं--तोड़ दो भाषा, अपने में लीन हो जाओ। महावीर बारह वर्ष मौन रहे। उन बारह वर्षों में उन्होंने क्या किया? उन्होंने सब भांति अपने को समाज से मुक्त किया। वे परम विद्रोही थे। समाज से सब भांति उन्होंने सब तरह के संबंध, सब धागे तोड़ डाले। उन्होंने सब तरह से अपने को समाज से अलग किया, क्योंकि उन्होंने पाया कि जितने तुम समाज से जुड़े हो, उतने ही अपने से टूट जाते हो।

स्वाभाविक गणित था। समाज से टूट जाओ, अपने से जुड़ जाओगे। फिर महावीर लौटे, समाज में लौटे, समझाने आये, बोले, लेकिन बारह वर्ष के मौन के बाद बोले। अब समाज से जुड़ने का कोई उपाय न था। अब उन्होंने सब भांति अपनी निपटता, एकांत को उपलब्ध कर लिया था। सब भांति कैवल्य को जान लिया था, स्वयं के अकेलेपन को पहचान लिया था। फिर आये। अब कोई डर न था, अब बोले। अब भाषा केवल उपयोग की बात रह गयी। एक साधनमात्र। तुम्हारे लिए भाषा केवल साधन नहीं है। भाषा तुम्हारी व्यस्तता है। बिना बोले तुम घबड़ाने लगते हो। अगर कोई बात करने को न मिले, तो बेचैन होने लगते हो।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर तीन सप्ताह किसी आदमी को एकांत में बंद कर दिया जाए, तो पहले सप्ताह तो वह भीतर-भीतर बात करता है; दूसरे सप्ताह बोल-बोलकर बात करने लगता है--अकेले में; और तीसरे सप्ताह तो वह बिलकुल खयाल ही भूल जाता है कि अकेला है। वह अपनी प्रतिमाएं कल्पना की खड़ी कर लेता है, उनसे बातचीत में संलग्न हो जाता है।

कम्युनिस्ट मुल्कों में जिन कैदियों से उन्हें बात उगलवानी होती है, उनको वे सताते नहीं, उनको वे सिर्फ एकांत में डाल देते हैं, अंधेरी कोठरियों में डाल देते हैं। उनको पड़े रहने देते हैं अकेले में। टेप लगे रहते हैं उनके आसपास, वे कुछ भी बोलें तो वह टेप में संगृहीत हो जाता है।

तीन-चार सप्ताह के बाद जो वह उगलवाना चाहते थे, वह खुद ही उगलने लगते हैं। एक सीमा है!

तुमने कभी खयाल किया? कोई तुमसे गुप्त बात कह दे, कहे किसी को कहना मत, बस तुम मुश्किल में पड़े। उसका यह कहना कि किसी को कहना मत, कहने के लिए बड़ा उकसावा बन जाएगा। बड़ी उत्तेजना पैदा हो जाएगी। आदमी लेता है, देता है, भाषा में। भीतर छिपाकर रखना बहुत कठिन है।

मैंने सुना है, एक सूफी फकीर के पास एक युवक आया। और उस युवक ने कहा कि मैंने सुना है कि आपको जीवन का परम रहस्य मिल गया, आपके गुरु ने आपको कुंजी दे दी है, उस गुप्त-कुंजी को मुझे भी दे दें। उस सूफी फकीर ने कहा, ठीक! लेकिन तुम इसे गुप्त रख सकोगे? किसी को बताना मत! उसने कहा कसम खाता हूं आपकी--पैर छुए--कभी किसी को न बताऊंगा। वह सूफी बोला फिर ठीक, मैंने भी ऐसी ही कसम खायी है अपने गुरु के सामने। अब बोलो मैं क्या करूं? अगर तुम गुप्त रख सकते हो जीवनभर, तो मैं भी रख सकता हूं। और अगर तुम सच पूछते हो, तो मेरे गुरु ने भी मुझे बतायी नहीं, क्योंकि उसने भी अपने गुरु के सामने ऐसी ही कसम खायी थी। सिर्फ अफवाह है, परेशान मत होओ।

गुप्त बात गुप्त रखी नहीं जा सकती। आदमी बोझिल अनुभव करने लगता है। जो बाहर से आया है वह बाहर लौटाना पड़ता है। जब तुम बोलते हो, तुमने खयाल किया, तुम वही बोलते हो जो बाहर से तुम्हारे भीतर आ गया है। वह भारी होने लगता है। सुबह अखबार पढ़ लिया, फिर वही अखबार तुम दूसरों से बोलने लगे। जब तक तुम किसी को बता न दो तुमने अखबार में क्या पढ़ा है, तब तक तुम्हें चैन नहीं। यह विजातीय तत्व है जो बाहर से आ जाता है, इसे बाहर निकालना पड़ता है। यह तुम्हारी प्रकृति को विकृत करता है। बाहर निकलते ही से तुम हलके हो जाते हो। इसीलिए तो किसी से अपनी बातें कहकर आदमी हलकापन अनुभव करता है। रो लिया दुखड़ा, हो गये हलके।

पश्चिम में तो अब कोई किसी की सुनने को राजी नहीं। किसके पास फुर्सत है! तो व्यावसायिक सुननेवाले पैदा हो गये हैं, उन्हीं का नाम मनोवैज्ञानिक है। वे व्यावसायिक हैं, उनका कोई और काम नहीं है। उनका काम यह है कि वे ध्यानपूर्वक तुम्हारी बात सुनते हैं। सुनते भी हैं या नहीं, यह भी कुछ पक्का नहीं है, लेकिन ध्यानपूर्वक जतलाते हैं कि सुन रहे हैं। आदमी घंटाभर अपनी बकवास उन्हें सुनाकर हलका अनुभव करता है। और इसके लिए पैसे भी देता है। महंगा धंधा है। काफी पैसे देने पड़ते हैं। लोग वर्षों तक मनोचिकित्सा में रहते हैं। एक चिकित्सक को छोड़ फिर दूसरे को पकड़ लेते हैं। क्योंकि एक बार वह जो राहत मिलती है किसी को, ध्यानपूर्वक कोई तुम्हारी सुन ले, तो बड़ा आनंद आता है। तुम हलके हो जाते हो।

महावीर ने कहा, भाषा इस तरह अगर व्यस्तता का आधार बन गयी हो तो रोग है। तो तुम चुप हो जाना।

"जो वचन-उच्चारण की क्रिया का परित्याग करके वीतराग भाव से आत्मा का ध्यान करता है, उसको परम समाधि या सामायिक होती है।'
यह बात खयाल में रखने-जैसी है।

कम से कम दिन में दो-चार घंटे तो मौन में बिताओ। नियम ही बना लो कि चौबीस घंटे में कम से कम चार घंटे तुम अपने लिए दे दोगे। बाकी दे दो बीस घंटे संसार के लिए, चार घंटे अपने लिए बचा लो। चलो चार घंटे बहुत लगें, घंटे से शुरू करो। लेकिन एक घंटा अपने लिए बचा लो। उस एक घंटे में फिर तुम बिलकुल चुप हो जाओ। पहले-पहले कठिन होगा। ओंठ बंद कर लेना तो आसान है, भीतर की तरंगें बंद करना मुश्किल होगा। लेकिन साक्षीभाव से उन तरंगों को देखते रहो...देखते रहो...देखते रहो। धीरे-धीरे तुम पाओगे, गति विचारों की कम हो गयी। धीरे-धीरे तुम पाओगे, कभी-कभी बीच-बीच में दो विचार के अंतराल आने लगा, खाली जगह आने लगी, उसी खाली जगह में से रस बहेगा। उसी खाली जगह में से तुम्हें आत्मा की झलक पहली दफे मिलेगी। यह झलक ऐसे ही होगी जैसे वर्षा में बादल घिरे हों और कभी-कभी सूरज की झलक मिल जाए क्षणभर को, किरणों की छटा छा जाए, फिर सूरज ढक जाए। लेकिन एक बार झलक आने लगे, एक दफे वहां भीतर की मुरली का स्वर तुम्हें सुनायी पड़ने लगे, तो जीवन में जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, वह घट गया।
साज-शृंगार?
छोड़ दौड़ो सब साज-सिंगार,
रास की मुरली रही पुकार।
गयी सहसा किस रस से भींग
वकुल वन में कोकिल की तान?
चांदनी में उमड़ी सब ओर
कहां के मद की मधुर उफान?
गिरा चाहती भूमि पर इंदु
शिथिलवसना रजनी के संग;
सिहरते पग सकता न संभाल
कुसुम-कलियों पर स्वयं अनंग!
ठगी-सी रूठी नयन के पास
लिये अंजन उंगली सुकुमार,
अचानक लगे नाचने मर्म,
रास की मुरली उठी पुकार
साज-शृंगार?
छोड़ दौड़ो सब साज-सिंगार,
रास की मुरली रही पुकार।
खोल बांहें आलिंगन हेतु
खड़ा संगम पर प्राणाधार;
तुम्हें कंकन-कुंकुम का मोह,
और यह मुरली रही पुकार।
सनातन महानंद में आज
बांसुरी-कंकन एकाकार।
बहा जा रहा अचेतन विश्व,
रास की मुरली रही पुकार।
साज-शृंगार?
छोड़ दौड़ो सब साज-सिंगार,
रास की मुरली रही पुकार।
एक बार भी तुम्हें भीतर की किरणों का बोध हो जाए--सुन पड़ी मुरली, रास का निमंत्रण मिल गया। उस परम प्यारे की सुध आ गयी। वह तुम्हारे भीतर ही बैठा है। वह तुम्हें सदा से ही पुकारता रहा है। लेकिन तुम इतने व्यस्त हो दूसरों के साथ भाषा में, बोलने में, झगड़ने में, मित्रता-शत्रुता बनाने में; तुम इतने व्यस्त हो बाहर कि तुम्हारे भीतर अंतर्तम से उठी मुरली की पुकार तुम्हें सुनायी नहीं पड़ती।

महावीर ने कहा, मौन हो जाओ; तो तुम्हें अपने संगीत का पहली दफा अनुभव हो। चुप हो जाओ, उस चुप्पी में ही, उस अनाहत का नाद शुरू होगा। वह ध्वनिहीन ध्वनि, वह स्वरहीन स्वर तुम्हारे भीतर से उठने लगेगा। तुम्हारी अतल गहराइयों से, तुम्हारी चेतना की परम गहराइयों से तुम्हारे पास तक पहुंचने लगेगा। लेकिन, मौन उसकी अनिवार्य शर्त है। और मौन का अर्थ है ओंठ से मौन, कंठ से मौन, भीतर विचार से मौन--धीरे-धीरे सब तलों पर, सब पर्तों पर मौन। तब तुम मुनि हुए। मुनि का कोई संबंध बाह्य-आचरण से नहीं है। मुनि का संबंध उस अंतसदशा से है, मौन की दशा से है। और जो मौन को उपलब्ध हुआ, वही बोलने का हकदार है। जो अभी मौन को ही नहीं जाना, वह तो बाहर के ही कचरे को भीतर लेता है और बाहर फेंक देता है। उसका बोलना तो वमन जैसा है। जो मौन को उपलब्ध हुआ, उसके पास कुछ देने को है। उसके पास कुछ भरा है, जो बहना चाहता है, बंटना चाहता है। उसके पास कुछ आनंद की संपदा है, जो वह तुम्हारी झोली में डाल दे सकता है।

महावीर बारह वर्ष मौन रहे। जीसस जब भी बोलते, तो बोलने के बाद कुछ दिनों के लिए पहाड़ पर चले जाते। वहां चुप हो जाते। जब भी कोई महत्वपूर्ण बात बोलते तब तत्क्षण वे पहाड़ चले जाते। अपने मित्र, संग-साथियों को भी छोड़ देते, कहते, अभी कोई मत आना। अभी मुझे जाने दो अकेले में। उस अकेले में जीसस क्या करते? मुहम्मद पर जब पहली दफा कुरान की आयत--पहली आयत उतरी, तो वे चालीस दिन से मौन थे। उसी मौन में पहली दफे कुरान उतरा।

जो भी मौन में उतरा है वही शास्त्र है। मौन में जो नहीं उतरा, वह शास्त्र नहीं। किताब होगी। जो मौन में कहा गया है, मौन से कहा गया है, वही उपदेश है। जो शब्द मौन में डूबे हुए नहीं आये, मौन में पगे हुए नहीं आये, वे सब शब्द रुग्ण हैं। स्वस्थ तो वे ही शब्द हैं जो मौन में पगे हुए आते हैं। और अगर तुम ध्यान से सुनोगे, तो तुम तत्क्षण पहचान लोगे कि यह शब्द मौन में पगा आया है, या नहीं आया है? तुम्हारा हृदय तत्क्षण गवाही दे सकेगा। क्योंकि जितना शून्य लेकर शब्द आता है, अगर तुम शांतिपूर्वक सुनो, तो शब्द चाहे तुम भूल भी जाओ, शून्य सदा के लिए तुम्हारा हो जाता है। शब्द चाहे तुम्हारे स्मृति में रहे या न रहे, शून्य तुम्हारे प्राणों पर फैल जाता है। तुम्हें नया कर जाता है, ताजा कर जाता है।

ध्यान में दर्शन है। मौन में दर्शन है। चुप्पी में साक्षात्कार है।


देख सकता हूं जो आंखों से वो काफी है "मज़ाज़'
अहले-इर्फां की नवाजिश मुझे मंजूर नहीं


ठीक कहा है मज़ाज़ ने। दार्शनिकों की सेवा करने की मेरी इच्छा नहीं। दार्शनिकों का सत्संग करने की मेरी कोई इच्छा नहीं।


देख सकता हूं जो आंखों से वो काफी है "मज़ाज़'


जो मैं अपनी आंख से देख सकता हूं, वह पर्याप्त है। किसी और से क्या पूछना है!


किसी और से क्या पूछने जाना है! आंख तुम्हारे पास है, लेकिन तुम्हारी आंख इतने शब्दों से भरी है, इतने विचारों से ढंकी है, जैसे दर्पण पर धूल जम गयी हो, दर्पण का पता ही न चलता हो। झाड़ दो धूल, तुम्हारा दर्पण फिर झलकायेगा। झाड़ दो आंख से विचारों की धूल, झाड़ दो मन से विचारों की धूल, तुम प्रतिबिंब दोगे परमात्मा का। तुम्हारा दर्पण खोया नहीं है, सिर्फ ढंक गया है धूल में। और धूल कितना ही दर्पण को ढांक ले, नष्ट थोड़े ही कर पाती है! इसलिए जब तक पोंछा नहीं है तभी तक परेशानी है। पोंछते ही तुम चकित हो जाओगे। जन्मों-जन्मों के अंधकार को क्षण में पोंछा जा सकता है। और जन्मों-जन्मों की जमी धूल को क्षण में बुहारा जा सकता है। कुछ ऐसा नहीं है कि तुम्हें जनम-जनम तक सफाई करनी होगी। सफाई तो एक क्षण में भी हो सकती है। सिर्फ त्वरा चाहिए। प्रवृत्ति चाहिए अंतर्यात्रा की।

"ध्यान में लीन साधु सब दोषों का परित्याग करता है। इसलिए ध्यान ही समस्त अतिचारों का, दोषों का प्रतिक्रमण है।'

महावीर कहते हैं, और सब ठीक है, लेकिन वास्तविक क्रांति ध्यान में ही घटती है। समस्त अतिचारों का, सब दोषों का परित्याग ध्यान में ही होता है। क्यों ध्यान में परित्याग होता है? महावीर नहीं कहते हैं, करुणा साधो। महावीर नहीं कहते, दया साधो। महावीर नहीं कहते, दान साधो, त्याग साधो। महावीर कहते हैं, ध्यान साधो। क्यों? क्योंकि दान करोगे, तो पहले एक कर्ता का भाव था कि मेरे पास धन है, दान करोगे, दूसरे कर्ता का भाव पैदा हो जाएगा कि मेरे पास त्याग है, मैं दानी हूं। क्रोध किया था, तो एक अहंकार था, करुणा करोगे तो दूसरा अहंकार हो जाएगा। दूसरा अहंकार स्वर्णिम है। पहला अहंकार सस्ता था। लेकिन हैं तो दोनों ही अहंकार।


महावीर कहते हैं, ध्यान। ध्यान का अर्थ है कि तुम्हें पता चले, तुम कर्ता ही नहीं हो। न क्रोध के न करुणा के, न लोभ के न दान के। तुम अकर्ता हो, साक्षी हो।


"ध्यान में लीन साधु सब दोषों का परित्याग करता है।' परित्याग हो जाता है। "ध्यान ही समस्त अतिचारों का, दोषों का प्रतिक्रमण है।' 


झाणणिलीणो साहू, परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं।
तम्हा दु झाणमेव हि, सव्वऽदिचारस्स पडिक्कमणं।। 


ध्यान सारभूत है। जो निज को निज-भाव से देखता है।


"जो निज-भाव को नहीं छोड़ता और किसी भी पर-भाव को ग्रहण नहीं करता, तथा जो सबका ज्ञाता-द्रष्टा है, वह परमत्तत्व मैं ही हूं। आत्मध्यान में लीन साधु ऐसा चिंतन करता, ऐसा अनुभव करता है।'


"जो निज-भाव को नहीं छोड़ता।' ध्यान का अर्थ है निजता में आ जाना; अपने में आ जाना। बाहर से सब नाते छोड़ देना। बाहर से सब नाते तोड़ देना। इसके लिए जरूरी नहीं है कि तुम घर से भागो। क्योंकि यह बात तो आंतरिक है। घर से भागना भी बाहर से ही जुड़े रहना है। घर तो बाहर है, न पकड़ो, न भागो। धन तो बाहर है, न पकड़ो, न छोड़ो। सिर्फ एक बात स्मरण रखो कि यह मैं नहीं हूं। यह शरीर मैं नहीं। यह घर मैं नहीं। यह धन मैं नहीं। यह मन मैं नहीं। इतना भर स्मरण रखो। इतना ही याद रहे कि मैं सिर्फ साक्षी हूं, द्रष्टा हूं, देखनेवाला हूं।


णियभावं ण वि मुच्चइ, परभावं णेव गेण्हए केइं।
जाणदि पस्सदि सव्वं, सोऽहं इदि चिंतए णाणी।।


पर-भाव को छोड़कर निज-भाव को नहीं छोड़ता। सबका ज्ञाता-द्रष्टा हूं, वह परम तत्व मैं ही हूं, ऐसी चिंतन-धारा जिसमें सतत बहती रहती है, आत्मध्यान में लीन ज्ञानी ऐसी परम दशा को जब उपलब्ध होता है, तो घटता है--असंभव घटता है, आनंद घटता है, सच्चिदानंद घटता है। जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते वह भी घटता है। जिसका हमें कभी कोई स्वाद नहीं मिला, यद्यपि हम उसी के लिए तड़फ रहे हैं, उसी के लिए भाग रहे हैं, दौड़ रहे हैं; अनेक-अनेक दिशाओं में उसी को खोज रहे हैं जो भीतर विराजमान है; दसों दिशाओं में उसकी खोज कर रहे हैं जो ग्यारहवीं दिशा में बैठा है। खोजनेवाले में बैठा है और खोजनेवाला भटक रहा है। कस्तूरी कुंडल बसै। लेकिन मृग है कि पागल है, दीवाना है, गंध की खोज में भाग रहा है। उसे याद ही नहीं। आये भी कैसे याद! आदमी को याद नहीं आती, मृग को कैसे याद आये! कैसे पता चले कि मेरी ही नाभि में छिपा है नाफा कस्तूरी का! वहीं से आ रही है गंध और मुझे पागल किये दे रही है।

जिस आनंद को तुम खोज रहे हो, जिस मुरली की आवाज के लिए तुम दौड़ रहे हो, वह तुम्हारे भीतर बज रही है। लेकिन तुम सपनों में खोये हो। बाहर की खोज सपना है। और इसलिए जैसे ही तुम्हारे बाहर के सपने टूटते हैं, तुम उदास हो जाते हो। एक सपने को दूसरे सपने से जल्दी से परिपूरक बना लेते हो। और जिस दिन सब सपने हाथ से छूटने लगते हैं उस दिन तुम आत्महत्या करने की सोचने लगते हो। सत्य को पाये बिना कोई जीवन नहीं है। सपनों में सिर्फ आभास है।


गो हमसे भागती रही ये तेजगाम उम्र
ख्वाबों के आसरे पे कटी है तमाम उम्र
जुल्फों के ख्वाब, होंठों के ख्वाब और बदन के ख्वाब
मिराजे-फन के ख्वाब, कमाले-सुखन के ख्वाब
तहजीबे-जिंदगी के, फरोगे-वतन के ख्वाब
जिंदा के ख्वाब, कूचए-दारो-रसन के ख्वाब
ये ख्वाब ही तो अपनी जवानी के पास थे
ये ख्वाब ही तो अपनी अमल की असास थे
ये ख्वाब मर गये हैं तो बेरंग है हयात
यूं है कि जैसे दस्तेत्तहे-संग है हयात
ये ख्वाब ही तो अपनी जवानी के पास थे
ये ख्वाब ही तो अपने अमल की असास थे
ये अपने सारे जीवन-आचरण की नींव थे--ख्वाब! सपने! कहीं पा लेने के।
ये ख्वाब मर गये हैं तो बेरंग है हयात
जब ये ख्वाब मरते हैं तो लगता है जीवन रंगहीन हो गया।
यूं है कि जैसे दस्तेत्तहे-संग है हयात


जब ख्वाब मरते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे दो चट्टानों के बीच में हाथ पिचल गया हो। ऐसी जिंदगी पिचल जाती है। बुढ़ापे में इसीलिए दुख है। बुढ़ापे का नहीं है, मरे हुए ख्वाबों का। पिचले हुए ख्वाबों का है। धूल में गिर गये इंद्रधनुषों का। पैरों में रुंध गये इंद्रधनुषों का दुख है।





जवान नशे में है। बूढ़े का नशा तो टूट जाता है, लेकिन होश नहीं आता। नशा टूटते ही घबड़ाता है बूढ़ा, परेशान होता है। लेकिन यह याद नहीं आती कि जिसके पीछे हम दौड़ते थे, कहीं ऐसा तो नहीं घर में ही छिपा हो। आंखें बाहर खुलती हैं, तो हम बाहर देखते हैं। कान बाहर खुलते हैं, तो हम बाहर सुनते हैं। हाथ बाहर फैल सकते हैं, तो हम बाहर खोजते हैं। भीतर न तो आंख खुलती है, न हाथ खुलते हैं, न कान खुलते हैं--कोई इंद्रिय भीतर नहीं जाती। इसलिए भीतर की हमें याद नहीं आती।

भीतर जाने की कला का नाम ध्यान है। बाहर जाने की कलाओं का नाम इंद्रियां हैं। इंद्रियां हैं बाहर जानेवाले द्वार, ध्यान है भीतर जानेवाला द्वार। इंद्रियों में ही भटके रहे, खो गये, तो तुम्हें जीवन का सत्व न मिल सकेगा। तो तुम रोते आये, रोते जाओगे। तो तुम खाली आये, खाली जाओगे।

ध्यान को जगाओ ! क्योंकि ध्यान ही भीतर जा सकता है। आंख भीतर नहीं जा सकती, कान भीतर नहीं जा सकते, हाथ भीतर नहीं जा सकते। सिर्फ ध्यान भीतर जा सकता है। जिसने ध्यान को जगा लिया, उसने जीवन का सारभूत पा लिया। जिसने ध्यान को जगा लिया, उसके भीतर सतत एक धारा बहती रहती है। सब कामों-धामों, व्यस्तताओं के बीच भी एक स्मरण नहीं मिटता, एक दीया नहीं बुझता, वह दीया जगमगाता रहता है--मैं साक्षी हूं, मैं साक्षी हूं, मैं साक्षी हूं। ऐसा कुछ शब्द नहीं दोहराने होते--खयाल रखना--ऐसा बोध, ऐसा भाव: मैं साक्षी हूं। यही समता है, यही समाधि है, यही सामायिक है।

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