प्रिय कृष्ण,
प्रेम प्रणाम !
अब मुझे ऐसा लगता है..... तुमसे जो मैंने मित्रता की। .... तुमने उसे निभा दिया। ... अब मुझे ये भी लगता है की तुम्हारी सिर्फ कोरी मित्रता को निभाना मेरी शक्ति से बाहर है।
कान्हा , अब इसके आगे तुम्हे तुम्हारे भक्ति भाव से ही समझना ही पड़ेगा , मुझे अहसास है सुदामा हो या तुलसी मीरा हो या राधा , कोई मुनि हो या साधु या फ़क़ीर, सम्बन्ध कोई भी जोड़ें अंत उसका भक्ति पे ही होता है।
तो क्या मेरे भी मित्र भाव का अंत ,
न न ! अभी तो ऐसा नहीं लगता , मैं तो भक्ति भी मित्र-भाव के बिना नहीं कर पाऊँ, प्रेम भी करूँ तो मित्र भाव जरुरी है। क्या करूँ ! ऐसा ही है मेरा मन । फ़िलहाल अब तुमसे भक्तिभाव युक्त मित्रता शुरू करते है । उम्मीद है इसमें भी तुम मेरा साथ दोगे , वैसे ही जैसे पहले दिया।
थोड़ा नहीं बहुत स्वार्थी हूँ , जो भी करता हूँ अपने लिए ही करता हूँ , तुम्हे दोस्त बनाया , प्रेमी बनाया और अब मालिक। इन सभी मे मेरा ही स्वार्थ ऊपर उतर आया , चाहे ! तुमको पाना या तुमको जानना हो।
ऐसा लगता है , जैसे-जैसे तुमको जानता जाता हूँ , अपने से परिचय खुद ब खुद होता जाता है , इसके पूर्व मेरे ही साथ ऐसा भी था जब सिर्फ अपने को समझना चाहता था... लाख सर फोड़ा , ध्यान धरा , शास्त्र पढ़े , जिसने जैसा भी करने को शृद्धा से अक्षरशः उनका कहा मानता गया , मंदिर मस्जिद जा जा के प्रार्थनाए करी, पर कुछ हासिल नहीं हुआ , और जिस दिन से तुमसे नाता जोड़ा , तब से खुद से अपने आप जुड़ गया।
हैं न मेरा स्वार्थ !
आगे भी मेरा तुमसे सम्बन्ध मेरा ही स्वार्थ है। इस माया से मुक्त हो जाऊं , संसार की पीड़ायें मुझे छू भी न पाए , इस मृत लोक से तो पूरी तरह कर्जमुक्त ही हो जाऊं , उफ़ कितने स्वार्थ है मेरे !
मुझे क्षमा करना पर धरती पे जन्म से मेरी गति ऐसी ही है। मित्र। ये तो तुम भी जानते हो , और अपनी बांसुरी से भी तो यही धुन सुनाते हो। अब तुम जो सुझाव दो... मैं करू , जो राह दिखाओ... मैं उसपे चलू , तभी मैं तुम्हारा मित्र-दास-प्रेमी कहलाऊँ , धत्त! दुनिया कहे न कहे, क्या करना , तुम कह देना बस।
तुम्हारा
(क्या सम्बोधन दूँ? क्या कहु ? के अब मेरा कोई नाम ही नहीं इस चिंगारी को तुम ही कोई अपना नाम दो )
💚💜💛🖤💗💖💙💓💖💚💛💜💝
प्रेम प्रणाम !
अब मुझे ऐसा लगता है..... तुमसे जो मैंने मित्रता की। .... तुमने उसे निभा दिया। ... अब मुझे ये भी लगता है की तुम्हारी सिर्फ कोरी मित्रता को निभाना मेरी शक्ति से बाहर है।
कान्हा , अब इसके आगे तुम्हे तुम्हारे भक्ति भाव से ही समझना ही पड़ेगा , मुझे अहसास है सुदामा हो या तुलसी मीरा हो या राधा , कोई मुनि हो या साधु या फ़क़ीर, सम्बन्ध कोई भी जोड़ें अंत उसका भक्ति पे ही होता है।
तो क्या मेरे भी मित्र भाव का अंत ,
न न ! अभी तो ऐसा नहीं लगता , मैं तो भक्ति भी मित्र-भाव के बिना नहीं कर पाऊँ, प्रेम भी करूँ तो मित्र भाव जरुरी है। क्या करूँ ! ऐसा ही है मेरा मन । फ़िलहाल अब तुमसे भक्तिभाव युक्त मित्रता शुरू करते है । उम्मीद है इसमें भी तुम मेरा साथ दोगे , वैसे ही जैसे पहले दिया।
थोड़ा नहीं बहुत स्वार्थी हूँ , जो भी करता हूँ अपने लिए ही करता हूँ , तुम्हे दोस्त बनाया , प्रेमी बनाया और अब मालिक। इन सभी मे मेरा ही स्वार्थ ऊपर उतर आया , चाहे ! तुमको पाना या तुमको जानना हो।
ऐसा लगता है , जैसे-जैसे तुमको जानता जाता हूँ , अपने से परिचय खुद ब खुद होता जाता है , इसके पूर्व मेरे ही साथ ऐसा भी था जब सिर्फ अपने को समझना चाहता था... लाख सर फोड़ा , ध्यान धरा , शास्त्र पढ़े , जिसने जैसा भी करने को शृद्धा से अक्षरशः उनका कहा मानता गया , मंदिर मस्जिद जा जा के प्रार्थनाए करी, पर कुछ हासिल नहीं हुआ , और जिस दिन से तुमसे नाता जोड़ा , तब से खुद से अपने आप जुड़ गया।
हैं न मेरा स्वार्थ !
आगे भी मेरा तुमसे सम्बन्ध मेरा ही स्वार्थ है। इस माया से मुक्त हो जाऊं , संसार की पीड़ायें मुझे छू भी न पाए , इस मृत लोक से तो पूरी तरह कर्जमुक्त ही हो जाऊं , उफ़ कितने स्वार्थ है मेरे !
मुझे क्षमा करना पर धरती पे जन्म से मेरी गति ऐसी ही है। मित्र। ये तो तुम भी जानते हो , और अपनी बांसुरी से भी तो यही धुन सुनाते हो। अब तुम जो सुझाव दो... मैं करू , जो राह दिखाओ... मैं उसपे चलू , तभी मैं तुम्हारा मित्र-दास-प्रेमी कहलाऊँ , धत्त! दुनिया कहे न कहे, क्या करना , तुम कह देना बस।
तुम्हारा
(क्या सम्बोधन दूँ? क्या कहु ? के अब मेरा कोई नाम ही नहीं इस चिंगारी को तुम ही कोई अपना नाम दो )
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