मन के कुछ नियम हैं, वे समझने चाहिए। एक नियम तो मन का यह है कि वह सतत एक जैसा कभी नहीं रहता, परिवर्तन उसका स्वभाव है। तो जो शांति मिले और खो जाए, समझना कि वह आध्यात्मिक शांति नहीं है, मन की ही शांति थी--एक बात। जो आनंद मिले और खो जाए, समझना कि वह आध्यात्मिक आनंद न था, मन का ही आनंद था। जो भी बने और बिखर जाए, वह मन का है। जो आए और चला जाए, वह मन का है। जो आए और फिर कभी न जाए; जो आए तो बस आ जाए, और जाने का कोई उपाय न रहे; आप चेष्टा भी करें और उसे हटा न पाएं।
खयाल रखें फर्क: मन में शांति आ जाए, तो आप लाख चेष्टा करें कि बनी रहे, बनी नहीं रहेगी, बदलेगी ही; और आत्मिक शांति आ जाए, तो आप लाख चेष्टा करें उसे नष्ट करने का, तो भी आप नष्ट नहीं कर सकते, वह बनी ही रहेगी। मन में प्रयास से भी सातत्य नहीं रह सकता, और आत्मा में प्रयास से भी सातत्य तोड़ा नहीं जा सकता।
तो जो वृत्तियां उठनी बंद हो जाएं, जल्दी मत करना, यह मत सोच लेना कि पहुंच गए। प्रतीक्षा करना कि वे दुबारा तो नहीं उठती हैं। अगर दुबारा उठती हैं तो समझना कि क्रम अभी मन के तल पर ही चल रहा है। और मन की शांति का क्या मूल्य है? वह तो आएगी और चली जाएगी और फिर अशांति आ जाएगी। मन में तो प्रतिपल विपरीत की तरफ गति होती रहती है। जब आप अशांत होते हैं तो मन शांति की तरफ गति करता है, और जब शांत होते हैं तो अशांति की तरफ गति करता है। मन द्वंद्व है। इसलिए विपरीत हमेशा मौजूद रहेगा और गति करता रहेगा।
कैसे अनुभव करेंगे कि जो हो रहा है वह मन का है?
अगर मन शांत हो, तो एक बुनियादी खयाल रखना: जब मन शांत हो--जब मन ही शांत हो और भीतर के तल पर शांति न पहुंची हो--तो शांत होते ही एक वासना पैदा हो जाएगी कि यह शांति बनी रहे, मिट न जाए। अगर यह वासना पैदा हो तो समझना कि यह मन का मामला है; क्योंकि मिटने का डर मन में ही होता है। शांति आ जाए और यह डर न आए कि मिट तो नहीं जाएगी, तो समझना कि यह मन की नहीं है।
दूसरी बात: मन हर चीज से ऊब जाता है--हर चीज से! दुख से ही नहीं, सुख से भी ऊब जाता है। यह मन का यह दूसरा नियम है कि मन किसी भी थिर चीज से ऊब जाता है। अगर आप दुख में हैं तो दुख से ऊबा रहता है और कहता है सुख चाहिए। पर आपको पता नहीं है कि यह मन का नियम है कि सुख मिल जाए, तो सुख से ऊब जाता है। और तब भीतरी दुख की मांग करने लगता है।
ऐसा मैं निरंतर, इतने लोगों पर प्रयोग चलते हैं तो देखता हूं, कि उनको अगर सुख भी ठहर जाए थोड़े दिन, तो वे बेचैन होने लगते हैं; अगर शांति भी थोड़े दिन ठहर जाए, तो वे बेचैन होने लगते हैं, क्योंकि उससे भी ऊब पैदा होती है।
मन हर चीज से ऊब जाता है। मन सदा नए की मांग करता रहता है। नए की मांग से ही सब उपद्रव पैदा होता है। मन के बाहर--आत्मिक तल पर--नए की कोई मांग नहीं है; पुराने की कोई ऊब नहीं है: जो है, उसमें इतनी लीनता है, कि उसके अतिरिक्त किसी की कोई मांग नहीं है।
सूत्र कहता है कि लय को प्राप्त हुई वृत्तियां फिर से उत्पन्न न हों, तो उपरति की अवधि है। तो समझना कि विश्राम मिला। वे फिर-फिर पैदा होती रहें, तो समझना कि सब मन का ही जाल है।
क्यों, इसको सोच रखने की जरूरत क्यों है? क्योंकि मन के साथ हमारा इतना गहरा संबंध है कि हम मन की ही शांति को अपनी शांति समझ लेते हैं। उससे बड़ा कष्ट होता है। क्योंकि वह खो जाती है।
क्या करें हम? साक्षी के सूत्र का प्रयोग करना उपयोगी है। तो मन के बाहर जाने का रास्ता बनता है और परम उपरति उपलब्ध होती है।
करते क्या हैं हम? जब मन अशांत होता है तो हम उससे हटना चाहते हैं, और जब मन शांत होता है तो हम उससे जुड़ना चाहते हैं। शांति को हम बचा रखना चाहते हैं, अशांति को हटाना चाहते हैं। जब मन दुखी होता है, तो हम मन को फेंक देना चाहते हैं कि कैसे छुटकरा हो जाए मन से! और जब मन सुखी होता है, तो हम उसका आलिंगन कर लेते हैं और उसको बचा लेना चाहते हैं। तब तो आप मन से कभी न छूट पाएंगे; क्योंकि यह तो मन की व्यवस्था ही है कि दुख से छूटो, सुख को पकड़ो।
मन से छूटने का उपाय यह है कि जब सुख मन दे रहा हो, तब भी साक्षी बने रहना और उसको पकड़ना मत। जैसे आप यहां ध्यान कर रहे हैं, ध्यान में कभी अचानक शांति का झरना फूट पड़ेगा। तो उस वक्त उसको आलिंगन मत कर लेना, खड़े देखते रहना दूर, कि शांति घट रही है, मैं साक्षी हूं। सुख का झरना टूट पड़ेगा, भीतर रोएं-रोएं में सुख व्याप्त हो जाएगा किसी क्षण, तो उसको भी दूर खड़े होकर ही देखते रहना, उसको पकड़ मत लेना जोर से कि ठीक आ गई मुक्ति; उसको खड़े होकर साक्षी-भाव से देखते रहना, कि मन में सुख घट रहा है, पकडूंगा नहीं।
मजे की बात यह है कि जो सुख को नहीं पकड़ता, उसके दुख समाप्त हो जाते हैं; जो शांति को नहीं पकड़ता, उसकी अशांति सदा के लिए मिट जाती है। शांति को पकड़ने में ही अशांति का बीजारोपण है, और सुख को पकड़ने में ही दुख का जन्म है। पकड़ना ही मत। पकड़ का नाम मन है। क्लिगिंग, पकड़ का नाम मन है। कुछ न पकड़ना। खुली मुट्ठी! और आप मन के पार हट जाएंगे और उसमें प्रवेश हो जाएगा, जहां से फिर वृत्तियां दुबारा जन्म नहीं पातीं; परम लय हो जाता है। उस परम लय को कहा है उपरति, विश्राम।
खयाल रखें फर्क: मन में शांति आ जाए, तो आप लाख चेष्टा करें कि बनी रहे, बनी नहीं रहेगी, बदलेगी ही; और आत्मिक शांति आ जाए, तो आप लाख चेष्टा करें उसे नष्ट करने का, तो भी आप नष्ट नहीं कर सकते, वह बनी ही रहेगी। मन में प्रयास से भी सातत्य नहीं रह सकता, और आत्मा में प्रयास से भी सातत्य तोड़ा नहीं जा सकता।
तो जो वृत्तियां उठनी बंद हो जाएं, जल्दी मत करना, यह मत सोच लेना कि पहुंच गए। प्रतीक्षा करना कि वे दुबारा तो नहीं उठती हैं। अगर दुबारा उठती हैं तो समझना कि क्रम अभी मन के तल पर ही चल रहा है। और मन की शांति का क्या मूल्य है? वह तो आएगी और चली जाएगी और फिर अशांति आ जाएगी। मन में तो प्रतिपल विपरीत की तरफ गति होती रहती है। जब आप अशांत होते हैं तो मन शांति की तरफ गति करता है, और जब शांत होते हैं तो अशांति की तरफ गति करता है। मन द्वंद्व है। इसलिए विपरीत हमेशा मौजूद रहेगा और गति करता रहेगा।
कैसे अनुभव करेंगे कि जो हो रहा है वह मन का है?
अगर मन शांत हो, तो एक बुनियादी खयाल रखना: जब मन शांत हो--जब मन ही शांत हो और भीतर के तल पर शांति न पहुंची हो--तो शांत होते ही एक वासना पैदा हो जाएगी कि यह शांति बनी रहे, मिट न जाए। अगर यह वासना पैदा हो तो समझना कि यह मन का मामला है; क्योंकि मिटने का डर मन में ही होता है। शांति आ जाए और यह डर न आए कि मिट तो नहीं जाएगी, तो समझना कि यह मन की नहीं है।
दूसरी बात: मन हर चीज से ऊब जाता है--हर चीज से! दुख से ही नहीं, सुख से भी ऊब जाता है। यह मन का यह दूसरा नियम है कि मन किसी भी थिर चीज से ऊब जाता है। अगर आप दुख में हैं तो दुख से ऊबा रहता है और कहता है सुख चाहिए। पर आपको पता नहीं है कि यह मन का नियम है कि सुख मिल जाए, तो सुख से ऊब जाता है। और तब भीतरी दुख की मांग करने लगता है।
ऐसा मैं निरंतर, इतने लोगों पर प्रयोग चलते हैं तो देखता हूं, कि उनको अगर सुख भी ठहर जाए थोड़े दिन, तो वे बेचैन होने लगते हैं; अगर शांति भी थोड़े दिन ठहर जाए, तो वे बेचैन होने लगते हैं, क्योंकि उससे भी ऊब पैदा होती है।
मन हर चीज से ऊब जाता है। मन सदा नए की मांग करता रहता है। नए की मांग से ही सब उपद्रव पैदा होता है। मन के बाहर--आत्मिक तल पर--नए की कोई मांग नहीं है; पुराने की कोई ऊब नहीं है: जो है, उसमें इतनी लीनता है, कि उसके अतिरिक्त किसी की कोई मांग नहीं है।
सूत्र कहता है कि लय को प्राप्त हुई वृत्तियां फिर से उत्पन्न न हों, तो उपरति की अवधि है। तो समझना कि विश्राम मिला। वे फिर-फिर पैदा होती रहें, तो समझना कि सब मन का ही जाल है।
क्यों, इसको सोच रखने की जरूरत क्यों है? क्योंकि मन के साथ हमारा इतना गहरा संबंध है कि हम मन की ही शांति को अपनी शांति समझ लेते हैं। उससे बड़ा कष्ट होता है। क्योंकि वह खो जाती है।
क्या करें हम? साक्षी के सूत्र का प्रयोग करना उपयोगी है। तो मन के बाहर जाने का रास्ता बनता है और परम उपरति उपलब्ध होती है।
करते क्या हैं हम? जब मन अशांत होता है तो हम उससे हटना चाहते हैं, और जब मन शांत होता है तो हम उससे जुड़ना चाहते हैं। शांति को हम बचा रखना चाहते हैं, अशांति को हटाना चाहते हैं। जब मन दुखी होता है, तो हम मन को फेंक देना चाहते हैं कि कैसे छुटकरा हो जाए मन से! और जब मन सुखी होता है, तो हम उसका आलिंगन कर लेते हैं और उसको बचा लेना चाहते हैं। तब तो आप मन से कभी न छूट पाएंगे; क्योंकि यह तो मन की व्यवस्था ही है कि दुख से छूटो, सुख को पकड़ो।
मन से छूटने का उपाय यह है कि जब सुख मन दे रहा हो, तब भी साक्षी बने रहना और उसको पकड़ना मत। जैसे आप यहां ध्यान कर रहे हैं, ध्यान में कभी अचानक शांति का झरना फूट पड़ेगा। तो उस वक्त उसको आलिंगन मत कर लेना, खड़े देखते रहना दूर, कि शांति घट रही है, मैं साक्षी हूं। सुख का झरना टूट पड़ेगा, भीतर रोएं-रोएं में सुख व्याप्त हो जाएगा किसी क्षण, तो उसको भी दूर खड़े होकर ही देखते रहना, उसको पकड़ मत लेना जोर से कि ठीक आ गई मुक्ति; उसको खड़े होकर साक्षी-भाव से देखते रहना, कि मन में सुख घट रहा है, पकडूंगा नहीं।
मजे की बात यह है कि जो सुख को नहीं पकड़ता, उसके दुख समाप्त हो जाते हैं; जो शांति को नहीं पकड़ता, उसकी अशांति सदा के लिए मिट जाती है। शांति को पकड़ने में ही अशांति का बीजारोपण है, और सुख को पकड़ने में ही दुख का जन्म है। पकड़ना ही मत। पकड़ का नाम मन है। क्लिगिंग, पकड़ का नाम मन है। कुछ न पकड़ना। खुली मुट्ठी! और आप मन के पार हट जाएंगे और उसमें प्रवेश हो जाएगा, जहां से फिर वृत्तियां दुबारा जन्म नहीं पातीं; परम लय हो जाता है। उस परम लय को कहा है उपरति, विश्राम।
Adhyatma Upanishad Ch. #13
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