वह जीवन्मुक्त है।
बुद्ध ने कहा है कि मैंने पहली दफा निष्प्रयोजन आकाश में डूबते तारे को देखा--निष्प्रयोजन। कोई प्रयोजन नहीं था। न देखते तो चलता, देखते तो चलता। इस तरफ, उस तरफ चुनने की भी कोई बात न थी। आंख खुली थी, इसलिए तारा दिख गया। डूब रहा था, डूबता रहा। उधर तारा डूबता रहा, उधर आकाश तारों से खाली हो गया, इधर भीतर मैं बिलकुल खाली था, दो खाली आकाशों का मिलन हो गया। और बुद्ध ने कहा है जो खोज-खोज कर न पाया, वह उस रात बिना खोजे मिल गया। दौड़ कर जो न मिला, उस रात बैठे-बैठे मिल गया; पड़े-पड़े मिल गया। श्रम से जो न मिला, उस रात विश्राम से मिल गया।
पर क्यों मिल गया वह? आनंद, जब आप भीतर शून्य होते हैं, उसका सहज परिणाम है। आनंद के लिए जब आप दौड़ते हैं, शून्य ही नहीं हो पाते, वह आनंद ही दिक्कत देता रहता है, शून्य ही नहीं हो पाते, इसलिए सहज परिणाम घटित नहीं होता है।
"जिसका मन ब्रह्म में लीन हुआ हो, वह निर्विकार और निष्क्रिय रहता है। ब्रह्म और आत्मा शोधा हुआ, और दोनों के एकत्व में लीन हुई वृत्ति विकल्परहित और मात्र चैतन्य रूप बनती है, तब प्रज्ञा कहलाती है। यह प्रज्ञा जिसमें सर्वदा होती है, वह जीवन्मुक्त है।'
ऐसा जब भीतर का आकाश बाहर के आकाश में एक हो जाता है, जब भीतर का शून्य बाहर के शून्य से मिल जाता है, तब सब निर्विकार और निष्क्रिय हो जाता है। विकार उठ ही नहीं सकते बिना विचार के; विचार ही विकार है। और विचार उठता ही इसलिए है कि कुछ करना है, ध्यान रखना!
लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि विचार से छुटकारा नहीं होता।
विचार से होगा नहीं छुटकारा। आपको कुछ करना है। कुछ करना है तो विचार से छुटकारा कैसे होगा? वह कुछ करना है, उसकी योजना विचार है। अगर आपको विचार से छुटकारा भी करना है, तो भी छुटकारा नहीं होगा; क्योंकि वह उसकी योजना में विचार लगा रहेगा।
लोग मुझसे कहते हैं कि हम बैठते हैं, बड़ी कोशिश करते हैं कि निर्विचार हो जाएं।
निर्विचार होने की योजना विचार के लिए मौका है। तो मन यही सोचता रहता है, कैसे निर्विचार हो जाएं? अभी तक निर्विचार नहीं हुए! कब होंगे? होंगे कि नहीं होंगे?
ध्यान रखिए, वासना है कोई भी--स्वर्ग की, मोक्ष की, प्रभु की--तो विचार जारी रहेगा। विचार का कोई कसूर नहीं है।
"विचार का तो इतना ही मतलब होता है कि आप जो वासना करते हैं, मन उसका चिंतन करता है कि कैसे पूरा करे। जब तक कुछ भी पाने को बाकी है, विचार जारी रहेगा।"
जिस दिन आप राजी हैं इस बात के लिए कि मुझे कुछ पाना ही नहीं--निर्विचार भी नहीं पाना--आप अचानक पाएंगे कि विचार विदा होने लगे; उनकी कोई जरूरत न रही।
जब भीतर सब शून्य हो जाता है, कोई योजना नहीं रहती, कुछ पाने को नहीं बचता, कहीं जाने को नहीं रहता, सब यात्रा व्यर्थ मालूम पड़ने लगती है। और चेतना बैठ जाती है रास्ते के किनारे, मंजिल-वंजिल की बात छोड़ देती है--मंजिल मिल जाती है।
"ब्रह्म में लीन हुआ निर्विकार और निष्क्रिय रहता है।"
फिर ऐसा व्यक्ति निर्विकार और निष्क्रिय रहता है। उसके भीतर कुछ भी नहीं उठता। दर्पण खाली रहता है। उस पर कुछ भी बनता नहीं। और निष्क्रिय रहता है। करने की कोई वृत्ति नहीं रहती।
इसका यह मतलब नहीं है कि वह कोई मुर्दे की तरह पड़ा रहता है। क्रियाएं घटित होती हैं; लेकिन क्रियाओं की कोई योजना नहीं होती। .
Adhyatma Upanishad Ch. #12
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