पहला प्रश्न: आप बुद्धिवाद से बचने को क्यों कहते हैं?
Osho : ताकि तुम बुद्धिमान हो सको। ताकि कभी तुम बुद्ध भी हो सको।
बुद्धिवाद झूठी बुद्धिमत्ता है। बुद्धिवाद वस्तुत: तुम्हारे भीतर छिपे हुए चैतन्य का जागरण नही, सिर्फ उधार है। बुद्धिवाद है दूसरों के विचारों को अपना मान लेना। बुद्धिवाद है, जो तुम नहीं जानते हो, उसके संबंध में कुछ धारणाएं केवल विचार करके तय कर लेना। जैसे अंधा आदमी प्रकाश के संबंध के कोई धारणा बना ले। वह धारणा होगी बुद्धिवाद। सोचे, सुने, दूसरों ने जो गीत गाए प्रकाश के उनका ,संग्रह करे, अनेकों से पूछे और प्रकाश के संबंध में जो भी पता चल सके उस सबके आधार पर कोई धारणा बना ले, अनुभव तो अंधे को प्रकाश का नहीं है, आंख तो [सके पास नहीं है, तो प्रकाश की वह जो भी धारणा बनाएगा वह बुद्धिवाद होगी। वह केवल बुद्धि का ही खेल है। वह वाद मात्र है।
अगर वह आदमी सच में प्रकाश में उत्सुक है तो इस धोखे में पड़ेगा नहीं। बजाय प्रकाश के संबंध में शास्त्र पढ्ने के, आंखों की चिकित्सा करवाएगा। आंखों की चिकित्सा हो जाए तो प्रकाश का अनुभव होगा। वह अनुभव बुद्धिवाद नहीं है, वह अनुभव बुद्धत्व है।
बुद्धि उधार, तो बुद्धिवाद। बुद्धि अपनी, निज की, अपने अनुभव में जड़ें जमाए हुए, तो बुद्धत्व। बुद्धि शब्द बड़ा अदभुत है। बुद्धि गिरती है तो बुद्धिवाद। बुद्धि उठती है तो बुद्धत्व। बुद्धि जब झूठ के जाल में पड़ जाती है तो बुद्धिवाद। और बुद्धि में जब सत्य का आविर्भाव होता है तो बुद्धत्व। दोनों ही बुद्धि के काम हैं।
मै बुद्धि का विरोधी नहीं हूं? बुद्धिवाद का निश्चित विरोधी हूं। मैं कहता हूं, स्वाद लो, पाकशास्त्र पढ्ने से कुछ भी न होगा; न भूख मिटेगी, न पोषण उपलब्ध होगा। भोजन करो, भोजन तैयार करो। रूखी—सूखी रोटी भी बेहतर है पाकशास्त्र में लिखी हुई विधियों के मुकाबले, चाहे वे विधियां कितने ही स्वादिष्ट भोजनों के संबंध में क्यों न हों। मगर वे विधिया विधियां हैं, उन्हें तुम न खा सकते, न तुम पी सकते। उनको ही तुम जीवन की संपदा मत मान लेना। इसलिए मैं कहता हूं कि बुद्धिवाद से सावधान होना जरूरी है।
और तुम कितना ही प्रकाश का विचार कर—करके धारणा बना लो, भीतर तुम्हारे कोई कहता ही रहेगा, यह धारणा मात्र है, तुमने जाना कहा? अभी तुमने जाना कहां? अभी तुमने जीया कहौ? अभी आंख तो है ही नहीं, अंधेरे में टटोल रहे हो।
बुद्धिवाद ऐसा ही है, जैसे हमारी कहावत है—अंधे को अंधेरे में बड़ी दूर की सूझी। एक तो अंधा, फिर ऊपर से अंधेरा, और फिर दूर की सूझी। पास का भी दिखायी नहीं पड़ता!
जिंदगी जैसे बने जीना हकीकत है
और बाकी सब किताबों की नसीहत है
रास्ते जितने बने जिद ने बनाए
लीक तो आखिर बुजुर्गों की वसीयत है
ओढ़ना बेहद जरूरी है नकाबों को
आदमी की चाह नंगी है मुसीबत है
एक अदना आदमी भी बहुत कर लेता
ऐन मौके पर अड़ी अफसोस इज्जत है
तर्क ने कितना बदल डाला सचाई को
पर नहीं एहसास मर पाया गनीमत है
तर्क तो बहुत झूठे दिखावे, धारणाएं,
मान्यताएं, खड़ी कर देता है।
तर्क ने कितना बदल डाला सचाई को
पर नहीं एहसास मर पाया गनीमत है
पर एक ही बात अच्छी है कि लाख तुम बुद्धिवादी हो जाओ, तुम्हारे भीतर कोई कहता ही रहेगा—ये सब बातचीत, ये सब विचारजाल, ये सब तर्कजाल; अनुभव कहा है? वह एहसास मरेगा नहीं। उसी अहसास के आधार पर आशा की जा सकती है कि तुम कभी जागोगे।
बुद्धि चलती दूसरों की बनायी हुई लकीर पर। और सत्य पर पहुंचने का यह कोई मार्ग ही नहीं। सत्य पर तो कभी तुम लीक पर चलकर पहुंच ही नहीं सकते। लीक का अर्थ ही होता है, मुर्दा रास्ता। जो रास्ता ही मर गया, उससे जीवित सत्य तक नहीं पहुंचा जा सकता।
जिंदा रास्ता कैसा होता है? जिंदा रास्ता होता, अपने ही पैर से चलकर बनाना पड़ता है। जितना चलते हो, उतना ही बनता है। जितना अनुभव करते हो, उतना ही करीब पहुंचते हो। दूसरों के पीछे चलते रहे, तो बुद्धिवाद। हिंदू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, जैन हो, तो बुद्धिवाद। धार्मिक हो अगर, तब कुछ बात होनी शुरू हुई। और धर्म का क्या लेना—देना जैन से, हिंदू से, बौद्ध से ईसाई से। धर्म का कोई संबंध नहीं। धर्म अनुभव है। जैसे प्रकाश आंख का अनुभव है, वैसा धर्म भीतर की आंख का अनुभव है।
तो भीतर की आंख को खोलने में लगो। बैठे—बैठे विचार ही करके जीवन को गंवाते रहना। न मालूम कितने जन्मों से तुम विचार कर रहे हो, न मालूम कितने जीवन तुमने विचार में गंवा दिए। बैठना अब तुम्हारी आदत हो गयी, अब तुम चलते ही नहीं। अब तुम सोचते ही रहते हो। उठो और चलो वादों की राख को झाड़ दो, ताकि तुम्हारे भीतर का अंगारा प्रगट हो सके। और सत्य का अंगारा तुम्हारे भीतर पड़ा है, राख तुमने बाहर से इकट्ठी कर ली है—शास्त्रों की, सिद्धातों की राख तुम बाहर से इकट्ठा कर लिए हो। इसमें मत परेशान होओ।
द्वारा - ओशो (रजनीश)
Whose line are these please? जिंदगी जैसे बने जीना हकीकत है....
ReplyDeleteRespected Anil Bajpai Ji , i found this piece from one of osho book , probebly the name of poet not mentioned in side details , i presume it is sying by Osho Itself , He was very learned and good thought flower also. if they not mentioned name it is comes in autometic understanding ... must be saying by himself Osho only.
DeleteThanks you. Appreciate.
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