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Mirdad
अध्याय -२
मीरदाद-यद्यपि तुममे से हर-एक
अपने-अपने ” मैं ” में केन्द्रित हैं,
मनुष्य पोतड़ों में लिपटा एक परमात्मा है।
समय एक पोतड़ा है,
स्थान एक पोतड़ा है,
देह एक पोतड़ा है और
इसी प्रकार हैं इन्द्रियां तथा
उनके द्वारा अनुभव-गम्य वस्तुएं भी ।
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Mirdad
मीरदाद एक व्यक्तित्व
kitab-e-mirdad
*** किताब-ए-मीरदाद ***
किसी समय 'नौका'के नाम से पुकारे जाने वाले मठ की अद्भुत कथा
मिखाइल नईमी
की अंग्रेजी पुस्तक
''द बुक ऑफ़ मीरदाद''
का
हिंदी अनुवाद
डा. प्रेम मोहिंद्रा
आर. सी. बहल
साइंस ऑफ़ द सोल रिसर्च सेंटर
यह है
किताब-ए-मीरदाद
उस रूप में जिसमें इसे उसके साथियों में से
सबसे छोटे और विनम्र नरौंदा ने लेखनीबद्ध किया।
जिनमें आत्म-विजय के लिये तड़प है
उनके लिये यह मात्र आलोक-स्तम्भ और आश्रय है।
बाक़ी सब बुद्धिजन तार्किक इससे सावधान रहें।
भाई भगवतीदासनंदलाल जी के सहयोग से प्रकाशित पीडीएफ निम्न लिकं से ले सकते है
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and pdf part two : https://www.facebook.com/groups/Call4BookReaders12.06.2013/734701736574826/
शेष ; अध्याय खंड १ से लेकर ३७ तक क्रम अनुसार में यहाँ ब्लॉग में इस पुस्तक को बाँट रही हूँ।
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शेष ; अध्याय खंड १ से लेकर ३७ तक क्रम अनुसार में यहाँ ब्लॉग में इस पुस्तक को बाँट रही हूँ।
प्रथम-पर्व-आरंभ
मिखाइल नईमी द्वारा रचित पुस्तक ‘किताब-ए-मीरदाद’ अध्यात्म का सर्वोत्कृष्ट बीसवीं सदी की भाषा में लिखा ग्रन्थ है। ओशो ने एक बार कहा था कि किसी कारण वश सारे ग्रन्थ नष्ट हो जाए एवं यदि यह कृति शेष रहे तो सभ्यता फिर भी विकसित हो सकती है। चूकिं इस ग्रन्थ में सभी सत्यों का सार एवं जीवन का सार है। इसमें संस्कृति का उद्वार करने की कला एवं आत्म ज्ञान को प्राप्त करने की क्षमता है। यह एक ग्रन्थ नहीं बल्कि प्रकाश स्तम्भ है।
यह ग्रन्थ गीता,बाईबिल एवं कुरान के समकक्ष रखने योग्य है। इसमें आत्मिक उन्नति की विधि एक मठ की कथा की माध्यम से रखी हुई है। उक्त कृति में पहाड़ पर स्थापित पुराने मठ से जुड़ी कहानी है। प्रतिकात्मक भाषा में गूढ़ बातें इस पुस्तक में लिखी हुई है। साधक की दृष्टि को मजबूत कर उसकी राह के काँटे हटाती है। नकारात्मकता का सामना करने की समग्र विधि इसमें है।
यह व्यवाहारिक पुस्तक नहीं है, संसार में रस जिनको आता हो उनके लिए यह नहीं हैै। जो संसार से थक गए है उनके लिए ज्योति प्रदायक है। जो नहीं कहा जा सकता है, उसे कहने में यह सक्षम है। परम सत्य को लेखक को कथा के रूप में बुनने में महारथ प्राप्त है। यह हमारे उपनिषदों की तरह है।
लेखक लिखता है कि हम जीने के लिए मर रहे है जबकि लेखक मरने के लिए जी रहा है। विचारणीय है कि जीने के लिए मरे या मरने के लिए जिए।
साथ ही इसमें लिखा है:
प्रेम ही प्रभु का विधान है।
तुम जीते हो ताकि तुम प्रेम करना सीख लो।
तुम प्रेम करते हो ताकि तुम जीना सीख लो।
मनुष्य को और कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं।
और प्रेम करना क्या है, सिवाय इसके कि प्रेमी प्रियतम को
सदा के लिये अपने अन्दर लीन कर ले
ताकि दोनों एक हो जायें?
प्रेम ही प्रभु का विधान है।
तुम जीते हो ताकि तुम प्रेम करना सीख लो।
तुम प्रेम करते हो ताकि तुम जीना सीख लो।
मनुष्य को और कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं।
और प्रेम करना क्या है, सिवाय इसके कि प्रेमी प्रियतम को
सदा के लिये अपने अन्दर लीन कर ले
ताकि दोनों एक हो जायें?
मिखाइल नईमी लेबनान के ईसाई परिवार में पैदा हुए, रुस में शिक्षा ग्रहण की एवं आगे की शिक्षा अमेरिका में। वहीं पर वे खलील जिब्रान से जुड़े एवं वहीं मातृभाषा अरबी की संस्कृति एवं साहित्य को नव जीवन प्रदान करने के लिए 1947 में द बुक आॅफ मीरदाद लिखी।
अध्याय एक
मीरदाद अपना पर्दा हटाता है और पर्दों और मुहरों के बिषय में बात करता है
नरौंदा ; उस शाम आठों साथी खाने की मेज के चारों ओर जमा थे और मीरदाद एक ओर खड़ा चुपचाप उनके आदेशों की प्रतीक्षा कर रहा था। साथियों पर लागू पुरातन नियमों में से एक यह था कि जहाँ तक सम्भव हो वार्तालाप में ''मैं''शब्द का प्रयोग न किया जाये। साथी शमदाम मुखिया के रूप में अर्जित अपनी उपलब्धियों के बारे में डींग मार रहा था। यह दिखाते हुए कि उसने नौका की संपत्ति और प्रतिष्ठा में कितनी वृद्धि की है, उसने बहुत से आंकड़े प्रस्तुत किये। ऐसा करते हुए उसने वर्जित शब्द का बहुत अधिक प्रयोग किया। साथी मिकेयन ने इसके लिए उसे एक हलकी सी झिड़की दी। इस पर एक उत्तेजनापूर्ण विवाद छिड़ गया कि इस नियम का क्या उद्देश्य था और इसे बनाया था पिता हजरत नूह ने या साथी अर्थात सैम ने। उत्तेजना से एक-दूसरे पर दोष लगाने की नौबत आ गई और इसके फलस्वरूप बात इतनी बाद गई कि कहा तो बहुत कुछ पर समझ में किसी की कुछ नहीं आया।
विवाद को हंसी के वातावरण में बदलने की इच्छा से शमदाम मीरदाद की ओर मुड़ा और स्पष्ट उपहास के स्वर में बोला :'' इधर देखो, कुलपिता से भी बड़ी हस्ती यहाँ मौजूद है। मीरदाद, शब्दों की इस भूलभुलैयाँ से निकलने में हमें राह बता। ''सबकी दृष्टि मुड़कर मीरदाद पर टिक गई, और हमें आश्चर्य तथा प्रसन्नता हुई जब, सात वर्ष की लम्बी अवधि में पहली बार, मीरदाद ने अपना मुंह खोला मीरदाद ; नौका के मेरे साथियों शमदाम की इक्षा चाहे उपहास में प्रकट की गई है, किन्तु अनजाने ही मीरदाद के गंभीर निर्णय की पूर्व सूचना देती है। क्योंकि जिस दिन मीरदाद ने इस नौका में प्रवेश किया था, उसी दिन उसने अपनी मुहरें तोड़ने अपने परदे हटाने और तुम्हारे तथा संसार के सम्मुख अपने वास्तविक रूप में प्रकट होने के लिए इसी समय और स्थान को-- इसी परिस्थिति को-- चुना था|सात मुहरों से मीरदाद ने अपना मुह बंद किया हुआ है| सात पर्दों से उसने अपना चेहरा ढक रखा है, ताकि तुम जब शिक्षा ग्रहण करने के योग्य हो जाओ तो वह तुम्हे और संसार को सिखा दे कि कैसे अपने होंठों पे लगी मोहरें तोड़ी जायें, कैसे आँखों पे पड़े परदे हटाये जायें और इस तरह अपने आपको अपने सामने अपने सम्पूर्ण तेज में प्रकट किया जाये ।तुम्हारी आँखें बहुत से पर्दों से ढकी हुई हैं । हर वास्तु, जिस पर तुम द्रष्टि डालते हो, मात्र एक पर्दा है । तुम्हारे होठों पे बहुत सी मुहरें लगी हुई हैं । हर शब्द जिसका तुम उच्चारण करते हो, मात्र एक मुहर है | क्योकि पदार्थ चाहे उसका कोई रूप या प्रकार क्यों न हो, केवल परदे और पोतड़े हैं जिनमे जीवन ढका और लिप्त हुआ है । तुम्हारी आँख, जो स्वयं एक पर्दा और पोतड़ा है, परदे और पोतड़े के सिवाय तुम्हे कहीं और कैसे ले जा सकती है ? और शब्द-- वे क्या अक्षरों और मात्राओं में बंद किये हुए पदार्थ नहीं हैं ? तुम्हारा होंठ, जो स्वयं एक मुहर है, मुहरों के सिवाय और क्या बोल सकता है ? आँखें पर्दा डाल सकती हैं, परदे को वेध नहीं सकतीं ।होंठ मुहर लगा सकते हैं, मुहरों को तोड़ नहीं सकते ।इससे अधिक इनसे कुछ न मांगो । शरीर के कार्यों में से इनके हिस्से का कार्य इतना ही है; और इसे ये भली-भाँती निभा रहे हैं । परदे डालकर, और मुहरें लगाकर ये तुमसे पुकार- पुकार कर कह रहे हैं कि आओ और उसकी खोज करो जो पर्दों के पीछे छिपा है,और उसका भेद प्राप्त करो जो मुहरों के नीचे दबा है । अगर तुम अन्य वस्तुओं को सही रूप से देखना चाहते हो तो पहले स्वयं आँख को ठीक से देखो । तुम्हे आँख के द्वारा नहीं, आँख में से देखना होगा ताकि इससे परे की सब वस्तुओं को तुम देख सको ।यदि तुम दुसरे शब्द ठीक से बोलना चाहते हो तो पहले होंठ और जबान ठीक से बोलो । तुम्हे होंठ और जबान के द्वारा नहीं, वल्कि होंठ और जबान में से बोलना होगा ताकि उनसे परे के सारे शब्द तुम बोल सको ।यदि तुम केवल ठीक से देखोगे और बोलोगे, तो तुम्हे अपने सिवाय और कुछ नजर नहीं आयेगा, और न तुम अपने सिवाय और कुछ बोलोगे । क्योंकि प्रत्येक वस्तु के अंदर और प्रत्येक वस्तु से परे, सब शब्दों में और सब शब्दों से परे, केवल तुम ही हो | यदि फिर तुम्हारा संसार एक चकरा देने वाली पहेली है, तो वह इसलिए कि तुम स्वयं ही वह चकरा देने बाली पहेली हो । और यदि तुम्हारी वाणी एक विकट भूल भुलैयां है, तो वह इसलिए कि तुम स्वयं ही वह विकट भूल भुलैयां हो । चीजें जैसी हैं वैसी ही रहने दो; उन्हें बदलने का प्रयास मत करो । क्योंकि वे जो प्रतीत होती हैं, इसलिए प्रतीत होती हैं कि तुम वह प्रतीत होते हो जो प्रतीत होते हो । जब तक तुम उन्हें द्रष्टि वाणी प्रदान नहीं करते, वे न देख सकती हैं, न बोल सकती हैं । यदि उनकी वाणी कर्कश है तो अपनी ही जिभ्या की और देखो । यदि वह कुरूप दिखाई देती हैं तो शुरू में भी और आखिर में भी अपनी ही आँख को परखो ।पदार्थों से उनके कपडे उतार फेंकने को मत कहो । अपने परदे उतार फेंको,पदार्थों के परदे स्वयं उतर जायेंगे । न ही पदार्थों से उनकी मुहरें तोड़ने को कहो । अपनी मुहरें तोड़ दो, अन्य सब की मुहरें स्वयं टूट जाएँगी ।अपने परदे उतारने और अपनी मुहरें तोड़ने की कुंजी एक शब्द है जिसे तुम सदैव अपने होंठों में पकडे रहते हो । शब्द " मैं " यह सबसे तुच्छ और सबसे महान है । मीरदाद ने इसे सृजनहार शब्द कहा है |
अध्याय -२
सिरजनहार शब्द - मैं
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समस्त वस्तुओं का श्रोत
और केंद्र है जब तुम्हारे मुह
से ”मैं” निकले तो तुरंत
अपने हृदय में कहो,
” प्रभु, ”मैं”की विपत्तियों में मेरा आश्रय बनो,
*********************************
समस्त वस्तुओं का श्रोत
और केंद्र है जब तुम्हारे मुह
से ”मैं” निकले तो तुरंत
अपने हृदय में कहो,
” प्रभु, ”मैं”की विपत्तियों में मेरा आश्रय बनो,
और ”मैं” के परम आनंद
की ओर चलने में मेरा मार्ग दर्शन करो ।”
की ओर चलने में मेरा मार्ग दर्शन करो ।”
क्योंकि इस शब्द के अंदर,
यद्यपि यह अत्यंत साधारण है,
प्रत्येक अन्य शब्द की आत्मा कैद है ।
एक बार उसे मुक्त कर दो,
तो सुगंध फैलाएगा तुम्हारा मुख,
मिठास में पगी होगी तुम्हारी जिव्हा,
और तुम्हारे प्रत्येक शब्द से
जीवन में आह्लाद का रस टपकेगा ।
यद्यपि यह अत्यंत साधारण है,
प्रत्येक अन्य शब्द की आत्मा कैद है ।
एक बार उसे मुक्त कर दो,
तो सुगंध फैलाएगा तुम्हारा मुख,
मिठास में पगी होगी तुम्हारी जिव्हा,
और तुम्हारे प्रत्येक शब्द से
जीवन में आह्लाद का रस टपकेगा ।
उसे कैद रहने दो,
तो दुर्गन्ध पूर्ण होगा तुम्हारा मुख,
कडवी होगी तुम्हारी जिव्हा और
तुम्हारे प्रत्येक शब्द से
मृत्यु का मवाद टपकेगा ।
तो दुर्गन्ध पूर्ण होगा तुम्हारा मुख,
कडवी होगी तुम्हारी जिव्हा और
तुम्हारे प्रत्येक शब्द से
मृत्यु का मवाद टपकेगा ।
क्योंकि मित्रो ”मैं” ही सिरजनहार शब्द है ।
और जब तक तुम इसकी
चमत्कारी शक्ति को प्राप्त नहीं करोगे,
तब तक तुम्हारी हालत ऐसी होगी
यदि गाना चाहोगे तो आर्तनाद करोगे;
शांति चाहोगे तो युद्ध करोगे;
यदि प्रकाश में उड़ान भरना चाहोगे,
तो अँधेरे कारागारों में पड़े सिकुड़ोगे ।
तुम्हारा ”मैं” अस्तित्व की तुम्हारी चेतना मात्र है,
और जब तक तुम इसकी
चमत्कारी शक्ति को प्राप्त नहीं करोगे,
तब तक तुम्हारी हालत ऐसी होगी
यदि गाना चाहोगे तो आर्तनाद करोगे;
शांति चाहोगे तो युद्ध करोगे;
यदि प्रकाश में उड़ान भरना चाहोगे,
तो अँधेरे कारागारों में पड़े सिकुड़ोगे ।
तुम्हारा ”मैं” अस्तित्व की तुम्हारी चेतना मात्र है,
मूक और देह रहित अस्तित्व की,
जिसे बानी और देह दे दी गई है ।
वह तुम्हारे अंदर का अश्रव्य है
जिसे श्रव्य बना दिया गया है,
अदृश्य है जिसे दृश्य बना दिया
गया है,
ताकि तुम देखो तो अदृश्य को देख सको;
और जब सुनो तो अश्रव्य को सुन सको ।
जिसे बानी और देह दे दी गई है ।
वह तुम्हारे अंदर का अश्रव्य है
जिसे श्रव्य बना दिया गया है,
अदृश्य है जिसे दृश्य बना दिया
गया है,
ताकि तुम देखो तो अदृश्य को देख सको;
और जब सुनो तो अश्रव्य को सुन सको ।
क्योंकि अभी तुम आँख
और कान के साथ बंधे हुए हो.
और कान के साथ बंधे हुए हो.
और यदि तुम इन आँखों के द्वारा न केखो,
और यदि तुम इन कानो के द्वारा न सुनो,
तो तुम कुछ भी देख और सुन नहीं सकते ।
”मैं” के विचार–मात्र से तुम
अपने दिमाग में विचारों के
समुद्र को हिलकोरने लगते हो ।
और यदि तुम इन कानो के द्वारा न सुनो,
तो तुम कुछ भी देख और सुन नहीं सकते ।
”मैं” के विचार–मात्र से तुम
अपने दिमाग में विचारों के
समुद्र को हिलकोरने लगते हो ।
वह समुद्र रचना है तुम्हारे ”मैं”की
जो एक साथ विचार और विचारक दोनों है ।
यदि तुम्हारे विचार एसे हैं जो चुभते,
काटते या नोचते हैं,
तो समझ लो कि तुम्हारे
अंदर के ”मैं” ने ही उन्हें डंक,
दांत, पंजे प्रदान किये हैं …
जो एक साथ विचार और विचारक दोनों है ।
यदि तुम्हारे विचार एसे हैं जो चुभते,
काटते या नोचते हैं,
तो समझ लो कि तुम्हारे
अंदर के ”मैं” ने ही उन्हें डंक,
दांत, पंजे प्रदान किये हैं …
मीरदाद चाहता है ….
कि तुम यह भी जान लो
कि जो प्रदान कर सकता है
वह छीन भी सकता है।
कि तुम यह भी जान लो
कि जो प्रदान कर सकता है
वह छीन भी सकता है।
”मैं” की भावना–मात्र से तुम अपने हृदय में भावनाओं का कुआँ खोद लेते हो । यह कुआँ रचना है तुम्हारे ”मैं” की जो एक साथ अनुभव करनेवाला और अनुभव दोनों है । यदि तुम्हारे हृदय में कंटीली झाड़ियाँ हैं, तो जान लो तुम्हारे अंदर के ”मैं” ने ही उन्हें वहां लगाया है ।मीरदाद चाहता है कि तुम यह भी जान लो कि जो इतनी आसानी से लगा सकता है वह उतनी आसानी से जड़ से उखाड़ भी सकता है । ”मैं” के उच्चारण–मात्र से तुम शब्दों के एक विशाल समूह को जन्म देते हो; प्रत्येक शब्द होता एक वस्तु का प्रतीक; प्रत्येक वस्तु होती है एक संसार का प्रतीक;प्रत्येक संसार होता है एक ब्रम्हाण्ड का घटक अंग ।वह ब्रम्हांड रचना है तुम्हारे ”मैं” की जो एक साथ स्रष्टा और स्रष्टि दोनों है । यदि तुम्हारी स्रष्टि में कुछ हौए हैं, तो जान लो कि तुम्हारे अंदर के ”मैं” ने ही उन्हें अस्तित्व दिया है ।मीरदाद चाहता है कि यह भी जान लो कि जो रचना कर सकता है वह नष्ट भी कर सकता है ।जैसा स्रष्टा होता है, वैसी ही होती है उसकी रचना । क्या कोई अपने आप से अधिक रचना रच सकता है? या अपने आपसे कम?स्रष्टा केवल अपने आपको रचता है—-न अधिक, न कम ।एक मूल– स्रोत है ”मैं”जिसमे वे सब वस्तुएं प्रवाहित होती हैं और जिसमे वे वापस चली जाती हैं ।जैसा मूल स्रोत होता है, वैसा ही होता है उसका प्रवाह भी एक जादू की छड़ी है ”मैं” । फिर भी यह छड़ी एसी किसी वस्तु को पैदा नहीं कर सकती जो जादूगर में न हो । जैसा जादूगर होता है, वैसी ही होती हैं उसकी छड़ी की पैदा की हुई वस्तुएं ।इसलिए जैसी तुम्हारी चेतना है, वैसा ही तुम्हारा ”मैं” । जैसा तुम्हारा ”मैं” है वैसा ही है तुम्हारा संसार । यदि इस ;;मैं” का अर्थ स्पष्ट और निश्चित है, तो तुम्हारे संसार का अर्थ भी स्पष्ट और निश्चित है; और तब तुम्हारे शब्द कभी भूलभुलैयाँ नहीं होंगे; न ही होंगे तुम्हारे कर्म कभी पीड़ा के घोंसले । यदि यह परिवर्तन–रहित तथा चिर स्थाई है, तो तुम्हारा संसार भी परिवर्तन रहित और चिर स्थाई है; और तब तुम हो समय से भी अधिक महान तथा स्थान से भी कहीं अधिक विस्तृत । यदि यह अस्थायी और अपरिवर्तनशील है, तो तुम्हारा संसार भी अस्थायी और अपरिवर्तनशील है; और तुम हो धुएं की एक परत जिस पर सूर्य अपनी कोमल सांस छोड़ रहा है ।यदि यह एक है तो तुम्हारा संसार भी एक है; और तब तुम्हारे और स्वर्ग तथा पृथ्वी के सब निवासियों के बीच अनंत शान्ति है । यदि यह अनेक है तो तुम्हारा संसार भी अनेक है; और तुम अपने साथ तथा प्रभु के असीम साम्राज्य के प्रत्येक प्राणी के साथ अन्त–हीन युद्ध कर रहे हो ”मैं” तुम्हारे जीवन का केंद्र है जिसमे से वे वस्तुएं निकलती हैं जिनसे तुम्हारा सम्पूर्ण संसार बना है, और जिनमे वे सब वापस आकर मिल जाती हैं । यदि यह स्थिर है तो तुम्हारा संसार भी स्थिर है; ऊपर या नीचे की कोई भी शक्ति तुम्हे दायें या बाएं नहीं डुला सकती । यदि यह चलायमान है तो तुम्हारा संसार भी चलायमान है; और तुम एक असहाय पत्ता हो हो जो हवा के क्रुद्ध बवंडर की लपेट में आ गया है ।और देखो तुम्हारा संसार स्थिर अवश्य है, परन्तु केवल अस्थिरता में ।निश्चित है तुम्हारा संसार, परन्तु केवल अनिश्चितता में; नित्य है तुम्हारा संसार, परन्तु अनित्यता में; और एक है तुम्हारा संसार, परन्तु केवल अनेकता में ।तुम्हारा संसार है कब्रों में बदलते पालनो का, और पालनो में बदलती कब्रों का, रातों को निगलते दिनों का, और दिनों को उगलती रातों का, युद्ध की घोषणा कर रही शान्ति का, और शान्ति की प्रार्थना कर रहे युद्धों का, अश्रुओं पर तैरती मुस्कानों का, और मुस्कानों से दमकते अश्रुओं का ।तुम्हारा संसार निरंतर प्रसव-वेदना में तड़पता संसार है, जिसकी धाय है मृत्यु ।तुम्हारा संसार छलनियों और झरनियों का संसार है जिसमे कोई दो छलनियाँ या झरनियाँ एक जैसी नहीं हैं । और तुम निरंतर उन वस्तुओं को छानने और झारने में खपते रहे हो जिन्हें छाना या झारा नहीं जा सकता ।तुम्हारा संसार अपने ही विरुद्ध विभाजित है क्योंकि तुम्हारे अंदर का ”मैं” इसी प्रकार विभाजित है ।तुम्हारा संसार अवरोधों और बाड़ों का संसार है, क्योंकि तुम्हारे अंदर का ”मैं” अवरोधों बाड़ों का ;;मैं” है ।कुछ वस्तुओं को यह पराया मान कर बाड के बाहर कर देना चाहता है; कुछ को अपना मानकर बाड़ के अंदर ले लेना चाहता है । परन्तु जो वस्तु बाड़ के बाहर है वह सदा बलपूर्वक बाड़ के अंदर आती रहती है, और जो वस्तु बाड़ के अंदर है वह सदा बलपूर्वक बाड़ के बाहर जाती रहती है । क्योंकि वे एक ही माँ की–तुम्हारे ”मैं” की—संतान होने के कारण अलग-अलग नहीं होना चाहतीं ।और तुम, उनके शुभ मिलाप से प्रसन्न होने के बजाय, अलग न हो सकनेवालों को अलग करने की निष्फल चेष्टा में फी जुट जाते हो । ”मैं” के अंदर की दरार को भरने की बजाय तुम अपने जीवन को छील-छील कर नष्ट करते जाते हो; तुम आशा करते हो कि इस तरह तुम इसे एक पच्चड़ बना लोगे जिसे तुम, जो तुम्हारी समझ में तुम्हारा ”मैं” है और जो तुम्हारी कल्पना में तुम्हारे ;;मैं;;से भिन्न है, उन दोनों के बीच ठोंक सको |हे साधुओ, मीरदाद तुम्हारे ”मैं” के अंदर की दरारों को भर देना चाहता है ताकि तुम अपने साथ, मनुष्य-मात्र के साथ, और सम्पूर्ण ब्रम्हांड के साथ शांतिपूर्वक जी सको ।मीरदाद तुम्हारे ”मैं” के अंदर भरे बिष को सोख लेना चाहता है ताकि तुम ज्ञान की मिठास का रस चख सको ।मीरदाद तुम्हे तुम्हारे ”मैं” को तोलने की विधि सिखाना चाहता है ताकि तुम पूर्ण संतुलन का आनंद ले सको |
अध्याय 3-
☞पावन त्रिपुटी और पूर्ण संतुलन ☜
मीरदाद-यद्यपि तुममे से हर-एक
अपने-अपने ” मैं ” में केन्द्रित हैं,
फिर भी तुम सब एक
मैं में केन्द्रित हो
प्रभु के मैं में |
प्रभु का ‘मैं’…..
मैं में केन्द्रित हो
प्रभु के मैं में |
प्रभु का ‘मैं’…..
मेरे साथियों, प्रभु का शाश्वत,
एकमात्र शब्द है. इसमें प्रभु प्रकट होता है
जो परम चेतना है. इसके बिना
व पूर्ण मौन ही रह जाता.
इसी के द्वारा स्रष्टा ने अपनी
रचना की है. इसी के द्वारा
वह निराकार अनेक आकार धारण करता है
जिनमे से होते हुए जीव फिर
से निराकारता में पहुँच जायेंगे.
अपने आपका अनुभव करने के लिये;
अपने आप का चिंतन करने के लिये;
अपने आप का उच्चारण करने के
लिये प्रभु को ‘मैं’ से अधिक और कुछ बोलने की आवश्यकता नहीं.
एकमात्र शब्द है. इसमें प्रभु प्रकट होता है
जो परम चेतना है. इसके बिना
व पूर्ण मौन ही रह जाता.
इसी के द्वारा स्रष्टा ने अपनी
रचना की है. इसी के द्वारा
वह निराकार अनेक आकार धारण करता है
जिनमे से होते हुए जीव फिर
से निराकारता में पहुँच जायेंगे.
अपने आपका अनुभव करने के लिये;
अपने आप का चिंतन करने के लिये;
अपने आप का उच्चारण करने के
लिये प्रभु को ‘मैं’ से अधिक और कुछ बोलने की आवश्यकता नहीं.
इसलिए ‘मैं’ उसका एकमात्र शब्द है.
इसलिए यही शब्द है .जब प्रभु ‘मैं’ कहता है
तो कुछ भी अनकहा नहीं रह जाता.
देखे हुए लोक और अनदेखे लोक;
जन्म ले चुकी वस्तुएं और जन्म लेने
की प्रतीक्षा कर रही
इसलिए यही शब्द है .जब प्रभु ‘मैं’ कहता है
तो कुछ भी अनकहा नहीं रह जाता.
देखे हुए लोक और अनदेखे लोक;
जन्म ले चुकी वस्तुएं और जन्म लेने
की प्रतीक्षा कर रही
वस्तुएं; बीत रहा समय
और अभी आने बाला
समय – सब; सब-कुछ ही,
रेत के एक-एक कण तक,
इसी शब्द के द्वारा प्रकट होता है
और इसी शब्द में समा जाता है.
इसी के द्वारा सब वस्तुएं रची गईं थी.
इसी के द्वारा सभी का पालन होता है .
और अभी आने बाला
समय – सब; सब-कुछ ही,
रेत के एक-एक कण तक,
इसी शब्द के द्वारा प्रकट होता है
और इसी शब्द में समा जाता है.
इसी के द्वारा सब वस्तुएं रची गईं थी.
इसी के द्वारा सभी का पालन होता है .
यदि किसी किसी शब्द का कोई अर्थ न हो, तो वह शब्द शून्य में गूंजती केवल एक प्रति ध्वनी है. यदि इसका अर्थ सदा एक ही न हो, तो यह गले का कैंसर जबान पर पड़े छले से अधिक और कुछ नहीं |
प्रभु का शब्द शून्य में गूंजती प्रतिध्वनी नहीं है,
न ही गले का कैंसर है,
सिवाय उनके लिए जो दिव्य ज्ञान से रहित हैं .
क्योंकि दिव्य ज्ञान वह पवित्र शक्ति है ….
न ही गले का कैंसर है,
सिवाय उनके लिए जो दिव्य ज्ञान से रहित हैं .
क्योंकि दिव्य ज्ञान वह पवित्र शक्ति है ….
जो शब्द को प्राणवान बनाती है
और उसे चेतना के साथ जोड़ देती है.
यह उस अनंत तराजू की डंडी है
जिसके दो पलड़े हैं —
आदि चेतना और शब्द .आदि चेतना,
शब्द और दिव्य ज्ञान —-
देखो साधुओ,
अस्तित्व की यह त्रिपुटी,
वे तीन जो एक हैं, वह एक जो तीन हैं,
परस्पर सामान, सह-व्यापक, सह-शाश्वत; आत्म-संतुलित, आत्म- ज्ञानी, आत्म-पूरक. यह न कभी घटती है न बढती है — सदैव शांत, सदैव सामान. यह है पूर्ण संतुलन, ये साधुओ .मनुष्य ने इसे प्रभु नाम दिया है, यद्यपि यह इतना विलक्षण है कि इसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता. फिर भी पावन है यह नाम, और पावन है वह जिव्हा जो इसे पावन रखती है .मनुष्य यदि इस प्रभु की संतान नहीं तो और क्या है? क्या वह प्रभु सकता है से भिन्न हो? क्या बड़ का वृक्ष अपने बीज के अंदर समाया हुआ नहीं है? क्या प्रभु मनुष्य के अंदर व्याप्त नहीं है? इसलिए मनुष्य भी एक ऐसी ही पावन त्रिपुटी है; चेतना, शब्द और दिव्य ज्ञान. मनुष्य भी, अपने प्रभु की तरह एक स्रष्टा है .उस्क ‘मैं’ उसकी रचना है .फ़िर क्यों वह अपने प्रभु जैसा संतुलित नहीं है? यदि तुम इस पहेली का उत्तर जानना चाहते हो, तो ध्यान से सुनो जो कुछ भी मीरदाद तुम्हे बताने जा रहा है |
और उसे चेतना के साथ जोड़ देती है.
यह उस अनंत तराजू की डंडी है
जिसके दो पलड़े हैं —
आदि चेतना और शब्द .आदि चेतना,
शब्द और दिव्य ज्ञान —-
देखो साधुओ,
अस्तित्व की यह त्रिपुटी,
वे तीन जो एक हैं, वह एक जो तीन हैं,
परस्पर सामान, सह-व्यापक, सह-शाश्वत; आत्म-संतुलित, आत्म- ज्ञानी, आत्म-पूरक. यह न कभी घटती है न बढती है — सदैव शांत, सदैव सामान. यह है पूर्ण संतुलन, ये साधुओ .मनुष्य ने इसे प्रभु नाम दिया है, यद्यपि यह इतना विलक्षण है कि इसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता. फिर भी पावन है यह नाम, और पावन है वह जिव्हा जो इसे पावन रखती है .मनुष्य यदि इस प्रभु की संतान नहीं तो और क्या है? क्या वह प्रभु सकता है से भिन्न हो? क्या बड़ का वृक्ष अपने बीज के अंदर समाया हुआ नहीं है? क्या प्रभु मनुष्य के अंदर व्याप्त नहीं है? इसलिए मनुष्य भी एक ऐसी ही पावन त्रिपुटी है; चेतना, शब्द और दिव्य ज्ञान. मनुष्य भी, अपने प्रभु की तरह एक स्रष्टा है .उस्क ‘मैं’ उसकी रचना है .फ़िर क्यों वह अपने प्रभु जैसा संतुलित नहीं है? यदि तुम इस पहेली का उत्तर जानना चाहते हो, तो ध्यान से सुनो जो कुछ भी मीरदाद तुम्हे बताने जा रहा है |
अध्याय4-
☞मनुष्य पोतड़ों में लिपटा ☜
एक परमात्मा है
मनुष्य पोतड़ों में लिपटा एक परमात्मा है।
समय एक पोतड़ा है,
स्थान एक पोतड़ा है,
देह एक पोतड़ा है और
इसी प्रकार हैं इन्द्रियां तथा
उनके द्वारा अनुभव-गम्य वस्तुएं भी ।
माँ भली प्रकार जानती है
की पोतड़े शिशु नहीं हैं ।
परन्तु बच्चा यह नहीं जानता ।
की पोतड़े शिशु नहीं हैं ।
परन्तु बच्चा यह नहीं जानता ।
अभी मनुष्य का अपने पोतड़ों
में बहुत ध्यान रहता है
जो हर दिन के साथ,
हर युग के साथ बदलते रहते हैं ।
में बहुत ध्यान रहता है
जो हर दिन के साथ,
हर युग के साथ बदलते रहते हैं ।
इसलिए उसकी चेतना में
निरंतर परिवर्तन होता रहता है;
इसीलिए उसका शब्द,
जो उसकी चेतना की
अभिव्यक्ति है,
निरंतर परिवर्तन होता रहता है;
इसीलिए उसका शब्द,
जो उसकी चेतना की
अभिव्यक्ति है,
कभी भी अर्थ में स्पष्ट और निश्चित नहीं होता;
और इसीलिए उसके विवेक पर धुंध छाई रहती है;
और इसीलिए उसका जीवन असंतुलित है ।
यह तिगुनी उलझन है ।
और इसीलिए उसके विवेक पर धुंध छाई रहती है;
और इसीलिए उसका जीवन असंतुलित है ।
यह तिगुनी उलझन है ।
इसीलिए मनुष्य सहायता के लिए प्रार्थना करता है । उसका आर्तनाद अनादि काल से गूँज रहा है ।
वायु उसके मिलाप से बोझिल है ।
समुद्र उसके आंसुओं के नमक से खारा है ।
धरती पर उसकी कब्रों से गहरी झुर्रियां पड़ गईं हैं । आकाश उसकी प्रार्थनाओं से बहरा हो गया है ।
वायु उसके मिलाप से बोझिल है ।
समुद्र उसके आंसुओं के नमक से खारा है ।
धरती पर उसकी कब्रों से गहरी झुर्रियां पड़ गईं हैं । आकाश उसकी प्रार्थनाओं से बहरा हो गया है ।
और यह सब इसलिए कि
अभी तक वह ;मैं’ का अर्थ
नहीं समझता जो उसके लिए है
पोतड़े और उसमे लिपटा हुआ शिशु भी ।
अभी तक वह ;मैं’ का अर्थ
नहीं समझता जो उसके लिए है
पोतड़े और उसमे लिपटा हुआ शिशु भी ।
‘मैं’ कहते हुए मनुष्य शब्द को
दो भागों में चीर देता है;
एक, उसके पोतड़े;
दूसरा प्रभु का अमर अस्तित्व ।
दो भागों में चीर देता है;
एक, उसके पोतड़े;
दूसरा प्रभु का अमर अस्तित्व ।
क्या मनुष्य वास्तव में
अविभाज्य को विभाजित कर देता है ?
प्रभु न करे ऐसा हो ।
अविभाज्य को विभाजित कर देता है ?
प्रभु न करे ऐसा हो ।
अविभाज्य को कोई शक्ति विभाजित नहीं कर सकती–इश्वर की शक्ति भी नहीं ।
मनुष्य अपरिपक्व है
इसलिए विभाजन की कल्पना करता है ।
और मनुष्य, एक शिशु,
उस अनंत अस्तित्व को अपने
अस्तित्व का बैरी मानकर लड़ाई
के लिए कमर कस लेता है और
युद्ध की घोषणा कर देता है ।
मनुष्य अपरिपक्व है
इसलिए विभाजन की कल्पना करता है ।
और मनुष्य, एक शिशु,
उस अनंत अस्तित्व को अपने
अस्तित्व का बैरी मानकर लड़ाई
के लिए कमर कस लेता है और
युद्ध की घोषणा कर देता है ।
इस युद्ध में, जो बराबरी का नहीं है,
मनुष्य अपने मांस के चीथड़े उदा देता है,
अपने रक्त की नदियाँ वह देता है;
जबकि परमात्मा, जो माता भी है
और पिता भी, स्नेह-पूर्वक देखता रहता है,
क्योंकि वह भली-भाँती जानता है
कि मनुष्य अपने उन मोटे पर्दों
को ही फाड़ रहा है और अपने
उस कड़वे द्वेष को ही बहा रहा है
मनुष्य अपने मांस के चीथड़े उदा देता है,
अपने रक्त की नदियाँ वह देता है;
जबकि परमात्मा, जो माता भी है
और पिता भी, स्नेह-पूर्वक देखता रहता है,
क्योंकि वह भली-भाँती जानता है
कि मनुष्य अपने उन मोटे पर्दों
को ही फाड़ रहा है और अपने
उस कड़वे द्वेष को ही बहा रहा है
जो उस एक के साथ उसकी
एकता के प्रति उसे अँधा बनाय हुए है ।
यही मनुष्य की नियति है–
एकता के प्रति उसे अँधा बनाय हुए है ।
यही मनुष्य की नियति है–
लड़ना और रक्त बहाना और मूर्छित हो जाना,
और अंत में जागना
और ‘मैं’ के अंदर की दरार को
अपने मांस से भरना
और अपने रक्त से उसे
मजबूती से बंद कर देना ।
और अंत में जागना
और ‘मैं’ के अंदर की दरार को
अपने मांस से भरना
और अपने रक्त से उसे
मजबूती से बंद कर देना ।
इसलिए साथियों……..
तुम्हे सावधान कर दिया गया है–
और बड़ी बुद्धिमानी के साथ
सावधान कर दिया गया है–
तुम्हे सावधान कर दिया गया है–
और बड़ी बुद्धिमानी के साथ
सावधान कर दिया गया है–
कि ‘मैं’ का कम से कम प्रयोग करो ।
क्योंकि जब तक ‘मैं’ से
तुम्हारा तात्पर्य पोतड़े है,
उसमे लिपटा केवल शिशु नहीं;
जब तक इसका अर्थ तुम्हारे
लिए एक चलनी है, कुठली नहीं,
क्योंकि जब तक ‘मैं’ से
तुम्हारा तात्पर्य पोतड़े है,
उसमे लिपटा केवल शिशु नहीं;
जब तक इसका अर्थ तुम्हारे
लिए एक चलनी है, कुठली नहीं,
तब तक तुम अपने मिथ्या अभिमान को छानते रहोगे और बटोरोगे केवल मृत्यु को, उससे उत्पन्न सभी पीडाओं और वेदनाओं के साथ |
I want whole content of this book
ReplyDeleteDear Divine Friend , as you go last stretch of reading this blog you will find link to click for next blog in sequence .. One by one as you finished reading in the end of each blog you will find connecting link for another blog . This way you may get all content to read of this precious Book . and if you have fb account Search for " Call for Book Readers " and their after joining , you may get pdf in two parts with same content .
DeleteThanks madam....
Deletewelcome
Deleteआप का शुक्रिया
DeleteAwsam book
ReplyDeletemost welcome ! yes , its is , Introduced by Osho and exploration gives new dimension. thanks for coming, reading and appreciation
DeleteHow sad it is that this work is not appreciated by youth like us.
ReplyDeleteWelcome friend , your appreciation beneath . thank you.
Deleteबहुत बहुत आभार आपक इस अद्बभुत पुस्तक का अनुवाद उपलब्ध करवाने के लिए ।।
ReplyDeleteधन्यवाद , हार्दिक प्रसन्नता के साथ साभार प्रणाम।
Deletesharing , not complete only the selected sayings of meerdad https://www.youtube.com/playlist?list=PL9HCfUx6Y3-mAYpRtoZdq7oiuM7XllSbL
ReplyDeleteप्रणाम दीदी जी धन्यवाद ❤️🙏
ReplyDeletebhayi ji , aapka hi to hai :) _()_
DeleteExcellent book
ReplyDeleteYes it has brilliance , thank you to read and like. welcome in group of Readers at Face book .
DeleteCan you give me a link to download it in a Pdf form... I've been looking for this book for a very long time.. can you please help..!!
ReplyDeleteWelcome Sonu Varma, Now you are member of group , may download from there .
DeleteLata ji ye book chamatkaar hai.sabsey kimti book.
DeleteSwati ji yahi mere bhi bhav hai , bahut kimti kitab
DeleteMan can u send me a pdf file
Deletehttps://drive.google.com/file/d/1iC7fvl-TNNLiRyFo2m9mbtanqJJFMDZ8/view
DeleteExcellent book....
ReplyDeleteSirjanhar shabad elaborate more for better understanding
ReplyDeleteSure Bipin Bhalla , revert here with authentic reply
Delete
DeleteYes Bipin Bhalla , the Nice query you have, the answer as per my understanding is - the meaning of Sirjanhar Goes to the Creator, or srijan is an exact Hindi word, The world 'I' resemblance to that Power . which is used under Ignorance by the human in wrong way against ego of self-existence. In devotion when human surrender under self I in front of lord's I, then meaning gets different of 'I'
This is very beneficial post to us., thanks
ReplyDeleteSpirituality in Hindi
Very very thanks Mam...Please help me to find more of this book 💐💐
ReplyDeletei am sorry for late reply , pl ask , i am ready for help . rest is on every end in each related blog, there is a link to click further , it may help you.
DeleteMam you have done a great job .we are thankful for your nice effort to make it lucid for seekers of truth..
ReplyDeleteGratitude , Pranam
Deleteशुक्रिया
ReplyDeletethank you so much friend
DeleteThanks mam
ReplyDeletemany thanks to showing interest.
DeleteI wanna to buy this book in hindi lang.
ReplyDeleteThis book was published by Radha Swomi Satsang in Hindi but now discontinued. If you want to read in Hindi, here is the pdf link: https://drive.google.com/file/d/1iC7fvl-TNNLiRyFo2m9mbtanqJJFMDZ8/view
DeletePath to self.Thank you.
ReplyDeletethank you , Dear Reader friend
DeleteLata, thankyou so much, actually thank you is very small word to express my gratitude for you and your effort for this book . God bless you
ReplyDeletethanks
ReplyDeleteI want physical content of this book.
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